आचार्य प्रशांत: मासूमियत में बड़ी ताकत होती है क्योंकि मासूमियत के पास कहानियाँ नहीं होती, और इसी को हम मासूमियत की परिभाषा भी कह सकते हैं। मासूम कौन है? इनोसेंट कौन है? निर्दोष कौन है? जिसके पास जीवन को देखने की सीधी-साफ़ दृष्टि है, जो देखने के नाम पर कहानियाँ प्रक्षेपित नहीं करता। हमारी तो देखने की दिशा ही विचित्र होती है। हम ऐसे थोड़ी देखते हैं कि बाहर क्या है; उसने भीतर प्रवेश किया, हमने उसको देखा। देखने की मासूम प्रक्रिया यही होनी चाहिए न — उधर कुछ रखा है, वो जो रखा है वो वहाँ था, फिर वो वहाँ से मेरे भीतर आया, उसकी एक छवि बनी मन में और फिर मैंने कहा कि मैं उसका अब द्रष्टा हुआ। हमारी देखने की प्रक्रिया इससे उल्टी चलती है।
कुछ बाहर थोड़ा-बहुत सा दिखाई देता है। हल्का-हल्का, धुंधलका, उसके बाद भीतर की कहानी सक्रिय हो जाती है। और जो थोड़ा-बहुत बाहर दिखाई दिया है उस पर भाव, इरादें, छवियाँ ये सब प्रक्षेपित कर देती है, आरोपित करती है, थोपती है, फॉइस्ट करना, सुपर इंपोज़ करना। नहीं समझ में आई बात?
वास्तव में, देखना ये होगा कि ये यहाँ बैठा हुआ है तो मैंने इसको देखा। मेरे भीतर पहले ही कुछ नहीं है। वहाँ (बाहर की तरफ़ इंगित करते हुए) से सूचना आई और इस पर (मस्तिष्क में) आ गई, ठीक वैसे जैसे मान लीजिए पुराने जो ऑडियो या वीडियो कैसेट्स आते थे। तो खाली कैसेट होता था, फिर उस पर रिकॉर्डिंग की जाती थी। ऐसे ही होता था न। या जैसे फोटोग्राफ़िक रील आती थी। तो खाली होती थी फिर उस पर एक्सपोज़र मारा जाता था तो उस पर छवि अंकित हो जाती थी।
तो वास्तविक बात तो ये होगी कि मैंने इनको देखा और पहले से ही मेरी रील पर कुछ नहीं था। इनको देखा और इनकी जो छवि है उस पर आकर अंकित हो गई। पर हमारा ऐसा नहीं चलता! हमारी जो रील होती है उस पर पहले ही एक कहानी छपी होती है, पहले ही कहानी छपी होती है। अब उस कहानी के साथ में इनसे बस थोड़ा-सा अंदाज़ा लेता हूँ कि इधर है क्या। और फिर ये जो कहानी है ये अस्सी प्रतिशत चलती है और इनका जो तथ्य है, वो बीस प्रतिशत चलता है। जैसे कि बैकग्राउंड म्यूज़िक इतना ज़्यादा लाउड हो, तीव्र हो कि उसमें गायक की आवाज़ बमुश्किल सुनाई दे रही हो। समझ में बात आई बात?
और कोई पूछे कि ये क्या है। बोलो, ‘उन्होंने जो गाया है वो ये है।’ जो उन्होंने गाया है वो तो सुनाई भी नहीं दे रहा है, जो सुनाई दे रहा है वो तो तुम्हारा अपना पुराना प्री-एग्ज़िस्टिंग बैकग्राउंड म्यूज़िक है जिसका गायक से कोई लेना देना भी नहीं है, वो तुम्हारी अपनी कहानी है। हम उसी कहानी में जीते हैं और तुर्रा ये कि हम कहते हैं कि वो मेरी कहानी नहीं है। वो जो उसने गाया उसने ने क्या गाया! उसकी क्या ध्वनि है! समझ में आ रही है बात ये?
इतनी बार आपको ये उदाहरण देता हूँ न कि अगर मैं एक ही बात बोल रहा हूँ, तो अभी मुझे बोलते ज़रा-सा वक्त हुआ, आपसे कहूँ कि लिखिए मैंने क्या बोला, तो बताइए सब लोग अलग-अलग क्यों लिखेंगे? और आप अलग-अलग ही नहीं लिखेंगे। आप जो लिख रहे हैं और आपका पड़ोसी जो लिख रहा है, वो दोनों एक-दूसरे के विपरीत हो सकते हैं। और झटका खाने को तैयार रहिए, क्योंकि सदमा मुझे लगता है तब जब मैं देखता हूँ कि आपकी बात न सिर्फ़ आपके पड़ोसी की बात के विपरीत है; आपको कहा गया है कि लिखिए कि मंच से क्या बोला गया — आपकी बात न सिर्फ़ आपके पड़ोसी की बात के विपरीत है, आपकी बात मेरी बात के भी विपरीत है। और आपका पक्का दावा है कि आप वही लिख रहे हो जो मैंने कहा। आ रही है बात समझ में?
ये होता है कहानियों में जीना। आप मुझे थोड़ी सुन रहे थे, आप अपने आप को सुन रहे थे। क्योंकि भीतर लगातार कोई बैठी हुई है दादी माँ जो कहानी सुना रही है। बहुत शोर है भीतर, आप बस आत्ममुग्ध हो, भीतर एक आत्मसंवाद चल रहा है। उसमें थोड़ी-बहुत बाहर से मेरी आवाज़ आ गई तो जो मेरी आवाज़ आती है, वो भीतर के ही कारखाने का हिस्सा बन जाती है। है न?
कारखाने में तूती की आवाज़ कैसे सुनाई देगी! ज़बरदस्त भीतर न जाने क्या-क्या बज रहा है? थालियाँ बज रही हैं, नगाड़े बज रहे हैं। और ये माना नहीं जाता कि जो बज रहा है वो भीतर बज रहा है और पहले से बज रहा है। माना जाता है कि आपने बाहर कुछ देखा, बाहर कुछ सुना। बाहर क्या देखा, क्या सुना? इसीलिए तो वेदांत बोलता है कुछ देखते नहीं तुम, बस प्रक्षेपित करते हो। तभी तो हम कहते हैं कि जिसको कामना होती है न वो देख सकता है कुछ, न सुन सकता है, न सूँघ सकता है, न जान सकता है। वो अपने ही भीतर जीता है। जिसको आज की भाषा में कहते हैं इको चेंबर, आंतरिक अनुगूँज, गूँज की भी गूँज। और जो भीतर गूँज-की-गूँज-की-गूँज-की-गूँज चल रही है, हम दावा कर देते हैं कि वो तो सामने वाले ने बोली है बात। पता नहीं उसने बोली कि नहीं बोली पर सुन तो तुम खुद को ही रहे हो।
बच्चे के पास अभी कहानी नहीं है। कहानी माने तथ्यों का एक वैकल्पिक खाका। तथ्य पता नहीं पर जिस तरीके से तथ्य वर्णित किए जाते हैं, उसी तरीके से मैं कुछ कह दूँगा और दावा हो जाएगा कि तथ्य है। छोटे बच्चों को जब वो दो-चार बार उनको डॉक्टर के पास ले जाते हैं वैक्सीनेट कराने वगैरह के लिए, सुई-वुई लग जाती है। उनको भी अनुभव होने लग जाता है कि ये सफ़ेद कोट वाला खतरनाक है। और वो वहाँ पर सब देख लेते हैं कि चलता क्या है।
वो एक चीज़ में बड़ी जल्दी सिद्धता हासिल करते हैं, प्रिस्क्रिप्शन लिखने में, हमारे समय में तो ऐसा ही होता था। वो खेलेंगे डॉक्टर-डॉक्टर, एक अभी तीन साल का नर्सरी में है उसने नया-नया अपना ठुकवाया है, एक सीनियर हो गया, एमडी है अब वो, वो साढ़े-चार बरस का है। वो बोल रहा, ‘बेटा! मैं छः बार होकर आ चुका हूँ।’ और ये जो सीनियर है अब वो बनेगा डॉक्टर और ये लिखेगा प्रिस्क्रिप्शन। और आप गौर करिएगा वो प्रिस्क्रिप्शन लिखना जानते हैं। वो वैसे ही लिखते हैं लगभग जैसे डॉक्टर लिखा करता है। कोई उसका अर्थ हो उसकी ज़रूरत ही नहीं है। वैसे भी डॉक्टर जिस तरह से लिखते हैं, अर्थ तो उसका...(सब श्रोतागण हँसते हुए)। वो भी ऐसे ही लिख देते हैं।
ये कहानी है जो तथ्य जैसी लगती है, पर वो तथ्य से उतनी ही दूर है जितना कि एक एमबीबीएस-एमडी डॉक्टर का प्रिस्क्रिप्शन एक साढ़े-चार साल के बच्चे की गोदाई से होता है। गोदाई जानते हो न? गोदना जानते हो न? बस गोद दिया। और दिखने में वो थोड़े एक से लग सकते हैं, खासकर के डॉक्टर का जो लेटर-हेड है अगर वो दे दो आप बच्चे को, उसमें ऊपर सब लिखा हो पूरा ऊपर — डॉक्टर अनमोल जावड़ेकर। पाँच उसकी डिग्रियाँ लिखी हैं, दो उसमें लंदन से की हुई है, पूरा सब खटाखट नाम-वाम, उम्र सब पूरी लिख दी है। और उसमें बच्चा भी अगर गोद दे तो एक बार आप किसी को दीजिए बोलकर कि ये प्रिस्क्रिप्शन है, तो वो ले भी लेगा।
कहानियाँ तथ्यों जैसी लगने लग जाती हैं, पर फ़ासला इतना होता है कि तथ्य जानने के लिए आपको चिकित्साशास्त्र का एक हज़ार साल का इतिहास चाहिए। डॉक्टर ने भी ऐसे ही नहीं वहाँ पर कुछ लिख दिया है। पहले तो चिकित्सा विज्ञान का एक हज़ार साल का इतिहास और उसके बाद ये जो चिकित्सक है, इसने स्वयं भी दस साल पढ़ाई की है, तब जाकर के इस स्थिति में आया है कि आपको चार दवाइयाँ बता पाए कि ये लेना। एक हज़ार साल और दस साल, ठीक है। इतना श्रम लगता है तथ्यों को जानने में, उघाड़नें में। और कहानी! कहानी में कितना समय लगता है? कुछ नहीं! वो पायजामे का नाड़ा आधा इधर से कान में डालता है, आधा इधर से कान में डालता है, बोलता है, ‘ये डॉक्टर साहब का आला है।’ और तीन साल वाले को पकड़कर उसके दिल की धड़कन भी, ‘तुम्हारा फेफड़ा धड़क रहा है।’
इतनी सस्ती चीज़ होती है कहानी। हज़ार साल तक लाखों लोगों ने जान लगाई तब कुछ ज्ञान उपलब्ध हुआ। और जो ज्ञान उपलब्ध हुआ उसको इस चिकित्सक ने दस साल लगाकर के स्वयं जाना, तब जाकर के वो चार बातें लिखी गई पर्चे पर। और बनाया जा सकता है डॉक्टर का फ़र्ज़ी पर्चा, प्रिस्क्रिप्शन, कैसे? गोदकर। हम गोदते हैं, ये गोदना हमारी ज़िंदगी है। हम कुछ नहीं जानते, हम गोदते हैं। समस्या बस ये है कि जब हम गोदते हैं तो हम बच्चे नहीं होते, हम बड़े होते हैं। और हमें अपने गोदे हुए पर पूरा विश्वास होता है।कि जो ये लिखा है, ये बिलकुल ठीक है।
समस्या ये है कि वहाँ दवाई की दुकान के काउण्टर पर जो बैठा है फ़ार्मासिस्ट, वो भी हमारे ही जैसा है जीवन में। वो हमारे गोदे हुए को देखकर वो हमें कुछ दवाई दे भी देता है क्योंकि उसके अनुसार हम वयस्क हैं, एडल्ट हैं। समस्या ये है कि वही दवाई फिर हम लेते भी जाते हैं एक के बाद एक तरीकों से जीवन में। और समस्या ये है कि इसके बाद हमें हैरत होती है कि ज़िंदगी इतनी दुर्गति में क्यों है! समझ में आ रही है बात?
ज्ञान का अर्थ ही होता है ये जानना कि तुम्हें जो कुछ पता है, जो कुछ तुम जानते हो कचरा है, दिमाग से निकालो। पर ये बात भी जब मैं आपसे बोलता हूँ तो हमारी कहानियों का हिस्सा बन जाती है। ये बात भी जाकर के कहानियों की सफ़ाई नहीं करती, कहानियाँ इस बात को भी सोख लेती हैं।
एक दफ़े मैंने पढ़ा, बच्चा साँप के साथ खेल रहा था। बच्चा साँप के साथ खेल रहा था — साँप भी मस्त, बच्चा भी मस्त। ज़्यादातर जो साँप होते हैं, ज़्यादातर माने साठ प्रतिशत नहीं, नब्बे-पचानवे कुछ क्षेत्रों में तो निन्यानवे माने सौ में से कोई एक ही होगा ज़हरीला। वो ज़हरीला भी अगर काटे तो ज़रूरी नहीं है कि वो ज़हर छोड़े। साँप को भी ज़हर बनाने में आंतरिक शारीरिक मेहनत लगती है। तो कई बार वो डराने के लिए ऐसे कर देगा (साँप का फन निकालना) आपके, हो सकता है दाँत भी लग जाए तो भी उसने ज़हर छोड़ा ही न हो अगर ज़हरीला हो तो भी।
पहली बात तो सौ में से एक साँप ज़हरीला होगा। तो साँप अपना मस्त है बच्चे के साथ खेल रहा है, बच्चा मस्त है साँप के साथ खेल रहा है। माँ आई, बरसात का मौसम था साँप ज़्यादा निकलते हैं। माँ आई, देखा ये नज़ारा, इतनी ज़ोर से पलटकर भगी कि उल्टा गिरी बिलकुल ऐसे-ऐसे (सिर के बल) और सिर लगा ज़मीन पर, मर गई। और चिल्लाकर भगी थी कि हाय-हाय! बच्चा मर जाएगा। बच्चा तो नहीं मरा, बच्चा तो मस्त है, माँ मर गई। माँ के पास, साँप को लेकर कहानी है, बच्चे के पास नहीं है। और साँप भी प्रकृति की औलाद है। मनुष्य की तरह विक्षिप्त नहीं है कि बात-बात में काटता फिरे (सब श्रोतागण हँसने लगते हैं)। सुनी है?
साँप, तुम सभ्य तो हुए नहीं, नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछूँ, उत्तर दोगे? फिर कहाँ से सीखा डँसना और विष कहाँ से पाया? ~ अज्ञेय
ये तंज है उस पर जिसको हम अपनी शहरी सभ्यता बोलते हैं। साँप को भी कुछ नहीं पड़ा है कि फ़ालतू; उसको ज़हर इसीलिए दिया गया है ताकि वो जिनका शिकार करता है, उनको बेहोश वगैरह कर दे ताकि वो आगे जाकर के पड़ जाए, फिर साँप जाकर उनको खा-वा ले। मनुष्य पर इस्तेमाल करने के लिए तो साँप को ज़हर वैसे भी नहीं दिया है प्रकृति ने। और ज़्यादातर साँप ज़हरीले होते भी नहीं हैं।
तो साँप को भी फ़न (मज़ा) आ रहा था बच्चे के साथ खेलने में, उसको भी मौके कम मिलते हैं। वो भी इधर-उधर कर रहा है, आगे-पीछे डोल रहा है, कुंडली मार रहा है, कभी खड़ा हो जा रहा है, कभी लेट रहा, बच्चा भी उसको उठाकर कभी माला की तरह गले में पहन रहा है, कभी उसको ऐसे दबा रहा है, कुछ कर रहा है। जब बच्चा ज़्यादा दबा दे तो साँप फुफकारी भी मार दे रहा है, बच्चा हँस रहा है, देखो! ये कैसी आवाज़ करता है।
तथ्य ये है कि कोई प्रकट संकट है नहीं, कोई आसन्न स्थिति पैदा नहीं हो गई है, कोई आपातकाल नहीं लग गया है। एक बालक है, एक साधारण जीव है वो आपस में खेल रहे हैं। कोई वजह नहीं होनी चाहिए कि इसमें कोई किसी के लिए खतरा आ जाए, पर माँ के पास न जाने कितनी कहानियाँ हैं!
जानते हो? ग्रीस, मेसोपोटामिया, भारत, चीन, जो अफ्रीकी पुरानी कबीलाई सभ्यताएँ थी, समुदाय थे सबमें; यहाँ तक कि जो दक्षिण अमेरिकी माया इंका ये लोग थे, सबमें साँपों का इतना खौफ़ रहा है कि आप जाओ तो वहाँ किसी-न-किसी रूप में साँपों को विशिष्ट बनाया ही गया है। किसमें? क्या उनके विज्ञान में? नहीं-नहीं, नहीं-नहीं-नहीं! उनकी मिथोलॉजी में और मिथोलॉजी माने कहानी। बच्चे ने अभी तक वो मिथोलॉजी पढ़ी नहीं है इसीलिए वो साँप के साथ मस्त खेल सकता है। माँ ने वो सारी कहानियाँ पढ़ डाली है, सारी नहीं भी पढ़ी तो कम-से-कम अपने देश की संस्कृति की पढ़ डाली है।
और अपनी संस्कृति में क्या है? एक भयानक नाग था। और वो गया और एक कुएँ में उसने अपना ज़हर उड़ेल दिया। और इतना ज़हर था उस नाग के पास कि उस कुएँ से पानी पीकर गाँव के हज़ार लोग मर गए। अब पहली बात तो सारे साँप ज़हरीले होते नहीं हैं और दूसरी बात, ज़हर भी दो तरह के होते हैं। जो बहुत एक छोटा सा अनुपात है ज़हरीले साँपों का, उसमें भी और छोटा अनुपात है उन साँपों का कि जिनका ज़हर अगर आपके गले से पेट में आँतो में उतरे, तो आपको कोई हानि होगी। नहीं तो ज़हरीले साँपों में भी ज़्यादातर साँपों का ज़हर अगर आप सिर्फ़ खालोगे-पीलोगे तो कुछ नहीं होगा, वो प्रोटीन है बस आपके लिए। फिर वो ज़हर आपको नुकसान तब देगा जब वो आपकी ब्लड-स्ट्रीम में पहुँचे। लेकिन माना ये जा रहा है, ‘नहीं! ज़हर माने वैसा ही ज़हर; जैसा क्या बोलूँ! जैसे सल्फास खाकर मर जाते हैं।
एक साँप है और पता नहीं कितना ज़बरदस्त साँप है कि जाकर उसने कुएँ में अपना ज़हर थूक दिया, तो गाँव के हज़ार लोग मर गए। कौनसा इसमें विज्ञान लगाया है, कितनी डिग्री तक डाइल्यूट किया है, और कुएँ में वॉटर की वॉल्यूम कितनी थी और उसके हिसाब से इतना कितना इसमें ज़हर मारा है! और ज़हर भी न्यूरो-टॉक्सिसिटी वाला नहीं होना चाहिए। वो तो तभी काम करेगा जब सिस्टम में घुसेगा, वो ज़हर भी वो वाला होना चाहिए जो जिसको...। पर माँ ने वो कहानी सुन रखी है।
माँ को ज़हर ने नहीं कहानी ने मार दिया। माँ को ज़हर ने नहीं कहानी ने मार दिया। हमें भी हमारी कहानियाँ ही मार रही हैं। ‘जीवन खतरनाक है, सुरक्षा के इंतज़ाम करो। अगर तुमने इतना पैसा जोड़कर नहीं रखा है तो न जाने तुम्हारा क्या होगा!‘ और पैसा जोड़ते-जोड़ते एक दिन वो सड़क पर कुचल गया। पैसा जोड़ते-जोड़ते पहले डायबिटीज़, हाइपरटेंशन हुए, फिर कैंसर हो गया। उसको तथ्यों ने तो नहीं मारा, जीवन की जो उसने कहानी बना रखी थी, उस कहानी ने मार दिया। मार दिया!
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: हाँ जी, बताइए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज का जो आपका मौज़ू था, बहुत ही माने; मुझे तो बिलकुल उसने वापस इस्लाम पर ले जाता है। हमेशा आप जो बात करते हैं, इतने सारे जो मायने हमारे जो खो चुके हैं, बहुत मेजोरिटी तो नहीं मानते उस मायने पर। जैसे जो आपने मासूमियत की बात की तो इस्लाम में हमें कहा जाता है कि असली स्पिरिचुअल इंसान वही है जो फ़ितरे पर है। फ़ितरा का जो रूट वर्ड है और उसको फ़ितरत में अपन यूज़ करते हैं। तो असली फ़ितरे में कौन होता है, ये भी बताया गया है कि बच्चे होते हैं। तो ये भी स्पष्ट तरीके से हमको बताया गया है।
पर बच्चे कैसे होते हैं और फ़ितरे का असली मतलब क्या है, ये बहुत ही कम लोगों को पता है। एटलीस्ट, लोकधर्म में तो मैं हार्डली लोगों को जानती हूँ जो इस चीज़ के सही मायने जानते हैं। और आज जैसे आपने स्पष्ट किया कि जो कहानियों में हम लोग को फ़ितरा बताया गया है, उसकी वजह से बहुत तहस-नहस हो चुका है, बहुत ही ज़्यादा यानी इरिपेयरएबल डैमेज (अपूरणीय क्षति) लगता है अब तो। ऐसे में असली फ़ितरत पर आना बहुत मुश्किल होता है। और इस मासूमियत में अगर जैसे कि मैं हूँ, मैंने जो दीन धर्म समझा है बचपन से, पूरी कहानियों से ही समझा, फिर क्वेश्चन करते रही, धीरे-धीरे क्वेश्चन करती रही, ज़ाहिर सी बात है वो करेज चाहिए होता है। और जो बहुत कम लोगों में करेज आता है कि वो नॉर्मल लाइफ़ और नॉर्मल सोसाइटी की जो कहानियाँ होती हैं, उनको क्वेश्चन करते-करते वो इस जगह पर पहुँच जाते हैं जहाँ उनको असली मायने समझ में आने लगते हैं।
पर अगर इसमें मैं मासूमियत में रहना चाहती हूँ तो लोग मुझे इग्नोरेंस का टाइटल दे देते हैं। तो ये डिफ्रंशिएट करना और ये बताना लोगों को बहुत मुश्किल होता है कि द डिफरेंस बिटवीन इनोसेंस एंड इग्नोरेंस (मासूमियत और अज्ञान के बीच अंतर)। तो ये कैसे किया जाए? क्योंकि इसमें इस्लाम में भी है; फ़ितरा के ऊपर आना, मासूमियत के साथ ज़िंदगी को अपने अंदर विदाउट ग्रजेस, विदाउट ओपिनियन, विदाउट जजमेंट जस्ट लाइक अ स्मॉल चाइल्ड (बिना शिकायत, बिना राय, बिना निर्णय के जैसे छोटा बच्चा) जैसे रहता है बच्चा। उसी तरीके से अपने दीन को, अपने ईमान को बनाकर रखना।
तो यही मेरा सवाल है कि ये दोनों डिफ्रंशिएट कैसे किया जाए। और एक बार जब इंसान बड़ा हो चुका है; छोटे बच्चों को तो स्टिल आसान होता है मोल्ड (ढालना) करना, पर एक बार हम जब बड़े हो जाए तो इस ज्ञान को किस तरीके से अपने अंदर से निकाला जाए, अनलर्न किया जाए?
आचार्य प्रशांत: देखिए, इग्नोरेंस और इनोसेंस एक-दूसरे से बिलकुल विपरीत हुए न। इग्नोरेंस अभाव नहीं होता, कमी नहीं होती। इग्नोरेंस माने ज्ञान की कमी नहीं, इग्नोरेंस का मतलब होता है कहानियों की अधिकता। इग्नोरेंस माने ये नहीं होता कि कोई कुछ जानता नहीं। हालाँकि जैसे आपने लोकधर्म कहा, उसी तरह लोकभाषा, लोक संस्कृति में इग्नोरेंस शब्द का इस्तेमाल ऐसे ही कर देते हैं हम, पर वो गड़बड़ है प्रयोग। जब कोई कुछ नहीं जान रहा होता है तो हम कह देते हैं इग्नोरेंट है। इग्नोरेंट का असली मतलब ये नहीं होता कि वो कुछ नहीं जानता, इग्नोरेंट का मतलब होता है कि जानता तो नहीं है पर मानता है कि जानता है। तो वो कुछ अधिक लेकर बैठा हुआ है। वो एक कल्पना बिलीफ़ लेकर बैठा हुआ है कि वो जानता है, जबकि जानता-वानता कुछ नहीं है। ऐसे को कहते हैं इग्नोरेंट।
इग्नोरेंस का मतलब होता है यहाँ पर ऐसे (सिर पर) एक बोझ लेकर चलना, ये इग्नोरेंस है। और इस बोझ को समझना कि इसमें कुछ सच्चाई है, असलियत है, इससे मेरा कुछ भला होगा, कुछ शुभता आएगी, ये इग्नोरेंस है। ये समझना ज़रूरी है क्योंकि जैसे ही हमें कोई मिला जिसको दुनियादारी का कुछ ज्ञान नहीं है तो हम कह देते हैं, ‘ओह, इग्नोरेंट फूल!’ जो लोग थोड़े से अशिक्षित किस्म के होते हैं, उनके लिए अंग्रेज़ी में हम कह देते हैं इग्नोरेमसस। वो एक डिस्टोर्टेड एप्लीकेशन है इस कॉन्सेप्ट का। इग्नोरेंट का मतलब होता है मान्यताओं से भरा हुआ। जो नहीं जानता, खाली है जानने से उसको इग्नोरेंट नहीं बोलते। यही जो इग्नोरेंट ..
प्रश्नकर्ता: नहीं! सॉरी, वो मीनिंग तो आपके लिए या हमारे लिए है या जो हमें समझ में आता है। बट जो लोग भरे हुए हैं मान्यताओं से उनके लिए हमारा न जानना इज़ इग्नोरेंस।
आचार्य प्रशांत: हाँ, उनके लिए यही है तो ये बात उन तक लानी पड़ेगी कि इग्नोरेंस का जो अर्थ है असली, वो क्या है। वो बात उन तक लाए बिना तो फिर कोई तरीका नहीं है कि वो जो अपना सिस्टम है उसको किसी भी तरह से कंफ्रेट करें, चैलेंज करें। है न? बदलें, उसका परीक्षण करें। वो नहीं करेंगे। वो कहेंगे, ‘जैसा शताब्दियों से चलता आ रहा है, जैसा समाज में हर कोई कर रहा है, हम भी कर रहे हैं। हमारे पास कोई कारण नहीं है अपनेआप को चुनौती देने का।’ यही इग्नोरेंस का जो बोझ है सिर पर, जब उतार दिया जाता है तो जो खाली जगह बचती है उसको इनोसेंस कहते हैं।
जब तक सिर पर ये हमने बिलीव्ज़ डाली हुई है, एकदम जैसे कुली बेचारे कई बार बड़ा ऊँचा बोझा लेकर चल रहे हो, इसको कहते हैं इग्नोरेंस। और ये बोझ जब उतार दिया गया हो तो इसको कहते हैं इनोसेंस। मासूमियत का मतलब होता है खाली होना, मासूमियत का मतलब होता है खाली होना।
अब इनोसेंस भी फिर दो तरह की हो जाती हैं — एक बच्चे वाली, बच्चे की जो इनोसेंस होती है; देखिए, अब समझाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है। बच्चे की ये वाली (खाली गिलास दिखाकर) होती है। खाली तो है पर? खाली तो है पर भर जाएगी। भीतर कुछ ऐसा है जो भरने को बेताब है। अभी खाली है पर वक्त इसको भर देगा — वक्त भर देगा, ज़माना भर देगा, शिक्षा भर देगी, परिवार, परवरिश ये सब भर देंगे इसको, क्योंकि इसकी संरचना ऐसी है कि ये भर जाएगा। ये होती है बच्चे वाली। ये होती है (खाली गिलास को उल्टा करके दिखाते हुए) ये होती है ज्ञानी वाली। कर लो कोशिश भरने की, कर लो। तो इसीलिए बच्चे को बचाकर रखना पड़ता है क्योंकि वो सबकुछ अपने में सोख लेता है। तो हम कहते भी हैं कि बच्चे को कुप्रभाव से बचाओ, क्योंकि वो उसको अपने में सोखेगा।
और जो ऐसा हो जाता है (उल्टा खाली गिलास जैसा) वो कहता है, ‘कहाँ हो रही है बदतमीज़ी की बारिश, हमें वहाँ ले चलो, हम उस बारिश में पूरा नहा भी जाएँगे तो हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि हमारे भीतर अब कोई प्रवेश कर ही नहीं सकता। ऊपर से सब पड़ता रहेगा, हममें कुछ नहीं होगा।’ तो इनोसेंस भी फिर दो तरह की है। शुरुआत होती है ऐसे (खाली गिलास), फिर ये (भरे हुए गिलास को दिखाते हुए) हो जाता है, लो! खाली पैदा हुए थे और आकर के वक्त ने, समाज ने, शिक्षा ने, संस्कारों ने, प्रभावों ने, अनुभवों ने भर दिया। और फिर आते हैं कोई बुद्ध जैसे हो (भरे गिलास से थोड़ा-थोड़ा पीते हुए), आह! बढ़िया। अब समझ में आया ये क्या चल रहा होता है? वो फिर खाली हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता: [29:24].....।
आचार्य प्रशांत: हाँ! ये प्राकृतिक थी। हाँ, ये जो पहले जो आप को खालीपन मिला था ये बस प्राकृतिक था। ये अर्जित नहीं था, अर्नड नहीं था। इसमें श्रम, साधना नहीं थी। और जीवन का उद्देश्य होता है खाली पैदा हुए थे, तुम्हें उम्र भरेगी, तुम फिर से खाली हो जाना, भरे-भरे मत मर जाना। जब मौत आए तो तुमको खाली पाए। कुछ है ही नहीं। जब मौत आए तो तुमको खाली पाए।
मौत उनको ही ले जाती है जो होते हैं, होते हैं माने जो भरे होते हैं। जो खाली हो गए वो अब हैं ही नहीं तो फिर वो मरते नहीं। तो इसीलिए एक यूफ़ेमिज़्म (व्यंजना) के तौर पर, एक प्रतीकात्मक तरीके से कह दिया जाता है कि वो अमर हो गए, क्योंकि अब मरने के लिए उनके पास कुछ बचा ही नहीं था। मौत आती है तब देखा चाय! चलो चाय दो। वो ले जाती है। पर जो बिलकुल खाली हो गया उसको अब क्या ले जाओगे? जीवन का उद्देश्य होता है मरने से पहले खाली हो जाना, एकदम खाली हो गए। और ये तो मैंने आपको बताया तो इसमें कम-से-कम एक पेंदा है, एक बेस है तो मुझे उल्टा करके बताना पड़ा।
वास्तव में, खाली होने का मतलब होता है कि ऐसे नहीं कि उलट गए, ऐसे कि जो ये पेंदा था, यही वृत्ति है, यही रोकती है न। वरना तो बाँसुरी जैसे हो जाओगे कि जो यहाँ से प्रवेश करेगा वो यहाँ से निकल जाएगा। तो जीने का अर्थ होता है इसको चुनौती देकर के हटा देना, ये झूठ है। यही वो संचई वृत्ति है, द टेंडेंसी टू एक्युमुलेट कि मुझमें जो कुछ पड़ेगा, मैं उसको एक्युमुलेट कर लूँगी। इसको हटा देना, आएगा और जाएगा। हम अब जीवन का पूरा स्वागत करते हैं, किसी भी बात का विरोध नहीं है क्योंकि जो कुछ भी आता है वो चला ही जाता है। जब यहाँ हमें रुकना ही नहीं है तो हमें उससे परेशानी कैसी! अब ये जीवन के अनुभवों के प्रति पूर्ण खुलापन है।
आध्यात्मिक आदमी इतना बेख़ौफ़ होकर जीता है कि समाज उससे थर्राता है। इसलिए नहीं कि वो मार-वार देगा, बाहुबली है, गुंडागर्दी करता है। नहीं-नहीं, नहीं-नहीं-नहीं! समाज जिन बातों से काँपा रहता है बिलकुल, आध्यात्मिक आदमी उनके सामने खड़ा हो जाता है। कहता है, ‘हाँ, ठीक है! क्या हो गया? हमारा कुछ नहीं बिगड़ जाएगा।’ तो यही फिर वो वजह थी, कई बार मैंने आपसे कहा है कि जो असली लोग थे उन्होंने अपने क्षेत्र, अपने अड्डे भी फिर समाज से और सभ्यता से थोड़ा दूर बनाए। क्योंकि आम आदमी को समझ में ही नहीं आता था, ये कैसा हो सकता है जो बातें हमारे समाज में वर्जित हैं, उनसे इसको डर नहीं लगता! कई बार तो हमें लगता है ये आदमी, बिलकुल एकदम चरित्रहीन, करैक्टरलेस, इसका ऐसा चलता है, वैसा चलता है।
वो कहता है, ‘भाई! मेरा कुछ भी नहीं चलता है। न मुझे किसी चीज़ की कोई चाहत है न परवाह है। हाँ! अब कुछ सामने आ गया तो हम उसका क्या करें? है तो है। हम इतनी कामना में नहीं थे कि हम उससे भाग जाएँगे। वही जैसे एक था न लकड़हारा और उसकी पत्नी, तो ये दोनों बहुत दिनों से साधना कर रहे थे, बौद्ध साधना। लकड़हारे अपना कुछ किया करते थे। ये लोग जंगल चले गए, जंगल ही जाएँगे लकड़हारे हैं। तो वहाँ उस दिन किसी का कुछ सोना-वोना पड़ा हुआ था। तो सामने पड़ा है, आगे लकड़हारा चल रहा था, पीछे उसकी पत्नी चल रही थी।
लकड़हारे ने देखा, वहाँ सोना कुछ पड़ा हुआ है तो उसने उसको ऐसे पहले दूर-दूर हुआ, दूर-दूर हुआ फिर एकदम जब सामने आ गया तो उसको लात-वात मार दी। पीछे पत्नी चल रही थी। और लकड़हारा सोने को लात मार रहा था, वो सब उठा ले। उसने सब उठा लिया। थोड़ी देर में लकड़हारे ने देखा तो वो पत्नी सोना उठाए चल रही है। तो वो उसको बोलता है कि इतनी साधना की तूने मेरे साथ, तुझे अभी भी समझ में नहीं आया कि धन, सोना, पैसा ये सब मिट्टी है? बोली, ‘मिट्टी है तो जैसे मेरे पावों के नीचे मिट्टी है वैसे ही मेरे हाथ में मिट्टी है। मेरी तो साधना सफल रही है कि मुझे मिट्टी ही लगता है। जैसे बच्चा कोई दिख जाती है चमकदार चीज़ तो उठा लेता है, वैसे मैंने उठा लिया। मेरे लिए इसका कोई विशेष अर्थ नहीं। पर तुम्हारे लिए अभी भी विशेष अर्थ है। तुम बचकर चल रहे थे, तुम सकुचा रहे थे, तुम लात मार रहे थे, तुम्हारे लिए अभी भी उसका बहुत मतलब है।’
तो वास्तव में बोध पत्नी को हुआ था। वो बोली, ‘सामने आ गया तो उठा लिया, जैसे उठाया है वैसे ही हो सकता है थोड़ी आगे जाकर या दो-चार दिन बाद फिर से छोड़ भी देंगे। न हमारे लिए इसको उठाने का कोई बहुत अर्थ है विशेष, न हमारे लिए इसको छोड़ने का बहुत अर्थ होगा विशेष, पर तुम्हारे लिए बहुत बड़ा अर्थ है। तुम्हारे लिए इतनी बड़ी चीज़ हो गई कि तुम ये भी देख रहे हो कि तुम न छुओ। और तुम ये भी देख रहे हो, कहीं मैं तो नहीं छू रही। तो मैं तो छू रही हूँ। क्यों छू रही हूँ? मुझे अच्छा लगा। अर्थ कुछ नहीं है, जैसे बच्चे को कुछ अच्छा लग जाता है; हम यहाँ चलते रहते हैं, कोई फूल गिरा रहता है पेड़ों से झड़कर, क्या मैं उसको उठा नहीं लेती? कई बार तो तुम ही उठा लेते हो और मुझे देते हो, ‘देख, ये फूल गिरा हुआ, ले, बाल में लगा ले।’ जैसे तुम फूल उठा लेते हो वैसे मैंने सोना उठा लिया। फूल का जितना अर्थ हो सकता है उतना ही इसका है।’ समझ में आ रही है बात?
खाली, खालीपन, खालीपन ये है इनोसेंस। वो जो पत्नी थी उसको हम इनोसेंट बोल सकते हैं। जो उसका पति था लकड़हारा, उसको हम इग्नोरेंट बोलेंगे, क्योंकि वो ज्ञान से भरा हुआ है, वो कहानी से भरा हुआ है। उसने बुद्ध की शिक्षाओं की भी एक छवि बना ली है, वो कहलाएगी इग्नोरेंस। इग्नोरेंस माने मैं। एक तरह से आप कह सकते हो ,‘ज्ञानी होने का भाव ही इग्नोरेंस है।’
प्रश्नकर्ता: दे आर आलवेज़ से लाइक लाइटन योरसेल्फ़ टू एनलाइटन योरसेल्फ़। जब तक अपनेआप को खाली नहीं करोगे तब-तक अपनेआप को उच्च मकाम पर नहीं लेकर जा पाओगे, क्योंकि आप इतने भरे हुए हो, इतने हैवी हो कि आप लाइट महसूस नहीं करोगे तो आप उठ नहीं पाओगे सत्य की तरफ़।
आचार्य प्रशांत: खाली हम हो जाएँगे क्योंकि जिन चीज़ों से भरे हुए हैं न, वो सब चीज़ें हैं ही बकवास, व्यर्थ हैं, उनसे कोई लाभ तो है नहीं। तुम्हें खाली नहीं होना होता, ठीक वैसे जैसे हमारे बेसिन होते हैं। वॉश-बेसिन है या कोई और है, वॉशरूम है, वहाँ कहीं किसी जगह पर पानी भर गया होता है तो उसे खाली नहीं करना होता, सिर्फ़ उसकी निकासी का जो द्वार हमने बंद कर रखा होता है, हमें उसको खोल देना होता है। वो हमने बंद कर रखा होता है किसी उम्मीद में कि संचय करना है एक्युमुलेट, है न। विथ द टेंडेंसी टू एक्युमुलेट।
खाली तो अपनेआप हो जाएगा वो क्योंकि पानी सिरेमिक के साथ कोई क्रिया नहीं करता, वो अपनेआप हट जाएगा। खाली भी नहीं करना है, बस उसको रोकने का हमने जो झूठा कारण पकड़ रखा है, आत्म-अवलोकन से खुद को देखकर, पूछकर कि इसको रोककर मुझे मिल क्या रहा है। इसको इकट्ठा करके पा क्या रहा हूँ? उसको खोल देना है। सब अपनेआप उड़ जाता है, व्यर्थ की चीज़ें, ये नहीं रुकती।
प्रश्नकर्ता: जैसे फ्लो में जो आप हमेशा कहते हैं बहाव में रहे।
आचार्य प्रशांत: हाँ! तो भाव यही है — आया, चला गया, आया, चला गया, न माँग रहे हैं न ठुकरा रहे हैं। अध्यात्म का ये मतलब तो बहुत रहा है परंपरागत रूप से धर्मों में कि माँगना नहीं है, कामना नहीं, कामना नहीं। श्रीकृष्ण इतनी ज़बरदस्त बात कहते हैं, कहते हैं, ‘जैसे निष्काम होना ज़रूरी है, वैसे ये भी ज़रूरी है कि आत्मज्ञान के बिना कर्मसंन्यास न ले लिया जाए। माने कामना और संन्यास, दोनों एक बराबर की गड़बड़ बातें हैं बोध के बिना। तो माँगना भी गलत है और जो आ रहा है उसको रोकना भी गलत है।
संन्यास माने जो आ रहा है सहज रूप से उसको भी रोके पड़े हैं। कामना माने आगे बढ़-बढ़कर माँग रहे हैं। संन्यास माने कि जो आ रहा है उसको भी रोक रहे हैं कि नहीं, ये भी नहीं चाहिए, ये भी नहीं चाहिए। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘नहीं-नहीं!’ अर्जुन पूछते हैं कि कर्म-संन्यास। बोलते हैं, ‘कर्म-संन्यास से बेहतर है कर्मयोग। और कर्मयोग आता है ज्ञान से। ज्ञान से कर्मयोग आ जाता है। तो न माँगना है न रोकना है, आ गया तो ठीक, नहीं आया तो भी ठीक। हम आने-जाने वालों पर आश्रित हैं ही नहीं। ये हो गई इनोसेंस। बढ़िया है!
बच्चों के साथ हम वो लगाते हैं न शब्द, इनोसेंस। और रात हो गई है वो जहाँ पड़ा है, वहीं सो जाता है। क्या वो कहता है कि भाई, मुझे ले चलो जो मेरा खास बिस्तर है मुलायम वाला उसी पर सोऊँगा? घर वालों के लिए समस्या रहती है कि ये दस के आस-पास सोया करता है, जहाँ होगा वहीं सो जाएगा। वो बाहर खाना खिलाने ले गए हैं वो रेस्तराँ में सो गया। कहीं घूमने गए हैं, जहाँ ले गए उसके घर में सो गया। कुछ मिल गया अच्छा सोने के लिए तो भी ठीक, नहीं तो हम गोद में सो जाएँगे, गाड़ी में सो जाएँगे, जहाँ है वहीं सो जाएँगे। है तो है, नहीं है तो नहीं है! हमारी आंतरिक स्थिति पर जो हमारी एसेंशियल स्टेट या हेल्थ है, उस पर हम कोई फ़र्क नहीं पड़ने देते। ये इनोसेंस है। नहीं जम रही बात? सब ज्ञानी हैं?
प्रश्नकर्ता: नहीं-नहीं! बिलकुल स्पष्ट तरीके से समझ में आ गया। अब फ़ितरत के फ़ितरा और फ़ितरत के मायने ढंग से जाने।
आचार्य प्रशांत: जी, धन्यवाद।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, शुक्रिया।