इन तारीफ़ों का कुल अंजाम! || नीम लड्डू

Acharya Prashant

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इन तारीफ़ों का कुल अंजाम! || नीम लड्डू

पुरुषों ने खूब बहती गंगा में हाथ धोए हैं। स्त्री वैसे ही आतुर रहती है कि कोई ज़रा तारीफ़ कर दे, तो उन्होंने कहा “इसको फँसाने का तो बढ़िया तरीका है, ज़रा-सी तारीफ़ कर दो।”

एक बात बताना, तुमने आज तक कितनी शायरी, कितनी कविताएँ, ग़ज़लें, नग़में पढ़ीं जिसमें स्त्री ने, शायरा ने किसी पुरुष की तारीफ़ करी है कि, “तेरा खोपड़ा चाँद जैसा है!” चाँद जैसा खोपड़ा होता पुरुषों का ही है, क्यों? पर कभी सुना है कि स्त्री ग़ज़ल लिख रही है कि ‘मेरा चाँद आ गया’? नहीं होता न, क्योंकि पुरुष ऐसे फँसेगा ही नहीं। वह चतुर खिलाड़ी है, वह शिकारी है, स्त्री भोली है। और भोलापन अच्छा होता है पर भोलापन बुद्धूपन बन जाए तो अच्छा नहीं होता न।

सब ग़ज़ल में यही है – तेरी झील जैसी आँखें, तेरे गुलाब जैसे होंठ। और वह सुन रही है और इतरा रही है और इस कुल ग़ज़ल का निष्कर्ष क्या होने वाला है? दो साल के भीतर बच्चा! कुछ और होता है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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