हर काम में अनाड़ी, पर सेक्स में क्रांतिकारी?

Acharya Prashant

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हर काम में अनाड़ी, पर सेक्स में क्रांतिकारी?

प्रश्नकर्ता: सर, आजकल बहुत लोग ये कहते हैं कि सेक्सुअली लिबरेटेड (यौन रूप से मुक्त) होना बहुत ज़रूरी है एक इंसान का। आप इस पर ज़रा प्लीज़ कुछ कहिए।

आचार्य प्रशांत: नहीं, सेक्सुअली लिबरेटेड जैसा कुछ होता नहीं है। बन्धन सेक्स पर नहीं होते, बन्धन मन पर होते हैं। तो लिबरेशन (मुक्ति) भी सेक्स का थोड़े ही होगा, लिबरेशन मन का होगा। अब ऑप्टिकली लिबरेटेड (वैकल्पिक रूप से मुक्त) बोलिए आप, इसका कोई मतलब है? कि मैं ऑप्टिकली लिबरेट होना चाहती हूँ, माने क्या? कि मैं जो कुछ देखना चाहूँ, वो देखने की मुझे आज़ादी है, देखो!

आँखों के पीछे जो है, बन्धन में वो है न, आँखें थोड़े ही बन्धन में हैं। तुम आँखों को क्या लिबरेट (मुक्त करना) कर रहे हो? आँखों के पीछे कौन है जो आँखों को गति देता है, दिशा देता है? कौन तय करता है कि आँखें किसको घूरेंगी? आँखें स्वयं तय करतीं हैं क्या?

पीछे मन है न! वो आँखों को नचाता है, तो लिबरेशन भी किसका होना है? मन का होना है। तो ये सेक्सुअल लिबरेशन क्या है? पता नहीं। सेक्सुअल लिबरेशन का क्या ये मतलब है कि मन तो गुलाम रहे लेकिन यौनांग आज़ाद रहे, उछल-कूद मचाने के लिए। ये क्या है? माने क्या?

प्रश्नकर्ता: सर, अभी आज के टाइम में जैसे चल रहा है कि डेटिंग ऐप्स इतने ज़्यादा चलन में आ गये हैं कि हर कोई इंसान को लग रहा है कि ये एक तरीका बन गया है जीने का। और सोसायटी जो दिखने में आ रही है, वो बहुत हद तक चेंज हो गयी है बिकॉज़ (क्योंकि) जिस तरीका से डेटिंग ऐप्स चल रहे हैं।

जिस तरीका से सायकोलॉजिकल गेम्स (मनोवैज्ञानिक खेल) चलते हैं इस डेटिंग ऐप्स पर, समझ में नहीं आ रहा है कि किस दिशा में लोग जा रहे हैं और किस तरीका से वो रिलेशनशिप्स (सम्बन्ध) को हैंडल (सम्भाल) कर रहे हैं। दे आर सो मेनी स्लीपिंग पार्टनर्स, सो हैविंग सो मेनी स्लीपिंग पार्टनर्स, घोस्टिंग पीपल ऐज़ द विश एण्ड देन दे डिशअपीअर एण्ड इट डजंट इफेक्ट देम (वे बहुत सारे स्लीपिंग पार्टनर्स हैं, तो इतने सारे स्लीपिंग पार्टनर्स, भूतिया लोगों की इच्छा के रूप में होना और फिर वे गायब हो जाते हैं और यह उन पर प्रभाव नहीं डालता है) और फिर वो अपनी खोज में लगे रहते हैं।

आचार्य प्रशांत: अभी और बढ़ेगा और पचास और तरह की बीमारियाँ सामने आएँगी, इसका कोई अन्त नहीं है। जब मन पगलाया होता है तो आदमी पचास तरह की बेवकूफियाँ करता है। अभी घोस्टिंग है, फिर प्रेतिंग होगी, फिर कुछ भी चुड़ैलिंग होगी, कुछ भी हो सकता है उसमें आप क्या करोगे? ये सब तो विक्षिप्तता का प्रतीक हैं, अंजाम हैं, परिणाम हैं। आप पागलखाने चले जाइए, वहाँ पर पागल कितने तरह के हरकतें कर रहे होते हैं? अनन्त तरह की। कोई सीमा है? कोई सीमा है क्या? कोई पागल ऐसे कर रहा है, कोई वैसे कर रहा है, कोई कुछ कर रहा है, कोई कुछ कर रहा है।

तो वैसे ही जब आप पागल होते हो, विक्षिप्त होते हो अन्दर से, तो ये जो आपकी रिलेशनशिप्स होती हैं, खासतौर पर जो दूसरे जेन्डर के साथ होती हैं आपकी और सेक्सुअल रिलेशनशिप्स होती हैं, उसमें भी आपका पागलपन दिखाई पड़ता है। हर तरफ की फेटिश (जड़ वस्तु) दिखाई पड़ती है और फियर (डर) दिखाई पड़ते हैं। तो इसमें ऐसा नहीं है कुछ एकदम विशेषकर सिर्फ़ सेक्सुअल फील्ड में ही हो रहा है, वो आदमी के ज़िन्दगी के हर क्षेत्र में हो रहा है, हर तरफ़ हो रहा है।

और एक बात और आज ही होना शुरू हो गया हो, ऐसा भी नहीं है। आज बस उसका एक प्रकट एक्सप्लोजन (विस्फोट) हुआ है। आप समझ रहे हैं? जहाँ पर अभी ये ऐप्स नहीं भी पहुँचे हैं, वहाँ आपको क्या लग रहा है कि सेक्सुअल उबाल कुछ कम है क्या? उस दिन किसी ने टीवी पर लगा दिया कुछ था, क्या था? बंगले में है भाभी जी कुछ, भाभी जी घर पर हैं, कुछ ये सब। अब उसमें जो कुछ हो रहा है, वो पूरी तरह से यौन कुंठा का ही तो प्रदर्शन है।

यौन कुंठा समझती हैं? सेक्सुअल फ्रस्ट्रेशन (यौन कुंठा)। हाँ उसमें कपड़े नहीं उतारे जा रहे, उसमें जो पात्र हैं सब वो कपड़े पूरे पहने हुए हैं लेकिन एक-एक बात, एक-एक कदम, एक-एक निगाह, वो क्या है? वो यौन कुंठा का ही प्रदर्शन है। और ये पहले से चला आ रहा है, बस अभी उसका एक प्रकट विस्फोट हो गया है। क्योंकि ये जो पीढ़ी है, ये छुपा नहीं रही है कुछ चीज़ों को। ये गन्दगी को सीधे-सीधे दिखा दे रही है। पर वो गन्दगी बहुत समय से चली आ रही है। वो बहुत समय से इसलिए चली आ रही है क्योंकि धर्म को बहुत समय से पुनर्जागरण की ज़रूरत थी जो धर्म को मिला नहीं है।

ये मत सोचिएगा कि हमसे पहले की पीढ़ियाँ बहुत अच्छी थीं, बहुत संस्कारी थी। काम सारे यही वहाँ भी थे पर छुप-छुपकर थे और डर बहुत लगता था तो कम होते थे पर भीतर वासनाएँ वही थीं, सब वही करना चाहते थे। अब होने लग गया है वो जो लोग पहले करना चाहते थे। आप समझ रहे हो? और वो हमेशा होता ही रहेगा हर जगह पर, हर युग में होता रहेगा, जहाँ अध्यात्म गायब होगा।

अध्यात्म गायब हुआ नहीं कि आप कहीं-न-कहीं तो राहत खोजने की कोशिश करोगे न। और राहत फिर आप कहाँ खोजते हो? दूसरे की जिस्म में कि यहीं पर घुस जाओ, क्या पता यहाँ पर थोड़ा ठंडक मिल जाए। समझ रहीं हैं?

अब उसमें और आप गहरे जाओगे तो और आपको दिखाई देगा कि अगर अध्यात्म नहीं तो सेक्स ही क्यों? क्योंकि अगर आत्मा नहीं तो प्रकृति इसलिए। अगर आप आत्मा की ओर नहीं बढ़ रहे हो तो और ठिकाना क्या है आपके पास? आप प्रकृति के घोंसले में जाकर के मुँह दे दोगे, अंडे देने लगोगे। इन दो के अलावा कोई ठिकाना होता नहीं न क्योंकि दो ही हैं, कुछ तीसरा है नहीं हममें। हम दो हैं, या तो शरीर या फिर चेतना। अगर हमारे पास प्लेज़र्स ऑफ कॉन्शियसनेस (चेतना को प्रसन्न करने वाला) नहीं है तो हम प्लेजर्स ऑफ बॉडी (शरीर को सुख देने वाला) की तरफ़ भागेंगे क्योंकि प्लेज़र सीकिंग (आनन्द की तलाश) तो हम हैं ही।

हमें कहा जाता है न आनन्द धर्मा हैं जॉय इज़ ऑवर नेचर (आनन्द हमारा स्वभाव है)। आनन्द तो हमें चाहिए-ही-चाहिए और हम दो हैं — या तो चेतना नहीं तो शरीर। अगर चेतना का जो आनन्द है वो हमें मिल ही नहीं रहा तो फिर आनन्द की कमी को हम पूरा करते हैं शरीरों से लिपटकर के कि यहाँ क्या पता कुछ आनन्द मिल जाए, मौज़-मज़ा मिल जाए, वो मिलता है नहीं वहाँ क्योंकि हमें चाहिए है एक ऊँचा आनन्द।

शरीर से भी मिल जाता है लेकिन वो शरीर से जो मिलता है वो एक बहुत निचली चीज़ होती है, उसको आनन्द बोल भी नहीं सकते। वो ऐसा सा ही है कि खुजली को ऐसे-ऐसे रगड़ दिया थोड़ी देर के लिए राहत मिल गयी फिर बाद में फिर खुजाना शुरू कर दोगे। समझ रहीं हैं? तो अभी तो आगे-आगे देखिए होता है क्या? हर क्षेत्र में, हर रिश्ते में, घर में, दफ़्तर में, होटल में, सड़क में, बाज़ार में, हर जगह, हर तरह की विक्षिप्तता आपको दिखाई देगी, एकदम खुला पागलपन। जैसे-जैसे आत्मज्ञान और अध्यात्म नीचे आएँगे वैसे-वैसे आदमी का पागलपन ऊँचाईयाँ छुएगा।

प्रश्नकर्ता: सर, अगर थोड़े से और खुलकर पूछ सकूँ, अनुमति हो तो?

आचार्य प्रशांत: हाँ, बोलिए, बोलिए।

प्रश्नकर्ता: किसी ने बहुत लूज़ली (शिथिलता से) एक टर्म यूज़ करी थी कि ये डेटिंग्स साइट्स है क्या, इट्स अ ओपन प्रॉस्टीट्यूशन व्हेयर इन योर नॉट गेटिंग पेड, व्हेयर इज़ प्रॉस्टीट्यूशन यू गेट पेड (यह एक खुली वेश्यावृत्ति है जहाँ आपको भुगतान नहीं मिलता है, वेश्यावृत्ति कहाँ होती है, वहाँ आपको भुगतान मिलता है।) लेकिन डेटिंग साइट में हो क्या रहा है? तो ये एक बहुत ही पेनिंग (पीड़ादायक) सवाल है और हाउ टू डील विद इट (इस हालत से समझौता कैसे करें)?

आचार्य प्रशांत: नहीं हम ऐसे करते हैं जैसे कि प्रॉस्टीट्यूशन कोई बहुत दूर का शब्द हो, तो कहते हैं छि-छि-छि-छि-छि! चलिए प्रॉस्टीट्यूशन को पहले परिभाषित करते हैं। क्या है प्रॉस्टीट्यूशन? विषय, वृत्ति, क्या है? पहले आप तो ये समझिए कि उसका सम्बन्ध सिर्फ़ महिला से, स्त्री से नहीं है। शरीर के दम पर शरीर को चलाये रखना। शरीर का इस्तेमाल सिर्फ़ शरीर को ही चलाने के लिए करना, ये वैश्यावृत्ति है। ये उसकी परिभाषा है। जब तक हम ये परिभाषा नहीं समझेंगे तब तक हम सोचेंगे कि वैश्याएँ सिर्फ़ किन्हीं रेड लाइट ज़ोन्स में ही पायी जाती हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। और हम सोचेंगे कि वैश्याएँ सिर्फ़ महिलाएँ ही होती हैं। नहीं, ऐसा नहीं है।

आप वैश्यावृत्ति की परिभाषा समझ पा रहे हैं? शरीर का कुल इस्तेमाल ये करना कि उससे शरीर चलता रहे। ये है प्रॉस्टीट्यूशन की परिभाषा। यूज़िंग द बॉडी जस्ट टू कीप द बॉडी गोइंग (केवल शरीर को चालू रखने के लिए शरीर का उपयोग करना।) ज़िन्दगी में कोई ऊँचा लक्ष्य नहीं है जिसके लिए आप शरीर का इस्तेमाल कर रहे हो। आप शरीर का इस्तेमाल कुल किस चीज़ के लिए कर रहे हो? कि शरीर चलता रहे माने पेट चलता रहे, ये वैश्यावृत्ति है। अब बताइए वैश्यावृत्ति बहुत दूर की, बहुत अनजानी बात है, कोई ऐसी बात है जो रेड लाइट ज़ोन की कुछ स्त्रियों तक ही सीमित है या वैश्यावृत्ति ऑल पर्वेसिव है, सर्वव्यापक है, हर तरफ़ है? बोलिए।

सबसे पहले तो हमें ये कहना बन्द करना चाहिए कि महिलाएँ ही वैश्याएँ होती हैं। पुरुषों में वैश्यावृत्ति बराबर की है। जो ही व्यक्ति जीवन में कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं जानता, जिसके पास शरीर का बस एक इस्तेमाल है कि शरीर किसी को दो ताकि वो तुम्हें पैसा दे दे, वो वैश्या है। तुम अपना शरीर किसी की सेवा में लगा रहे हो ताकि वो व्यक्ति तुम्हें पैसा दे दे, ये प्रॉस्टीट्यूशन है, ये प्रॉस्टीट्यूशन की असली परिभाषा है। समझ रहे हैं?

तो जब चारों तरफ़ व्याप्त है वैश्यावृत्ति तो उन डेटिंग ऐप्स पर भी चल रही है ताज्जुब क्या? जब हर तरफ़ चल रही है तो डेटिंग ऐप्स पर भी चल रही है, हम क्यों सोच रहे हैं कि सिर्फ़ किन्हीं गन्दी छि-छि! वाली जगहों पर, कोठों पर चलती है, हर जगह चल रही है। बाज़ारों में, दुकानों में, सड़कों पर, घरों में, हर जगह चल रही है। दफ़्तरों में, हर जगह चल रही है।

प्रश्नकर्ता: एक और सवाल है, ऐसे किसी से डिस्कशन (चर्चा) हो रहा था तो बताया गया कि गुड़गॉंव में एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स (विवाहेतर सम्बन्ध) बहुत ज़्यादा प्रेवलेन्ट (प्रचलित) है। वो शहर में मतलब एवरीवन इज़ स्लीपिंग अराउंड विद एवरीवन (हर कोई सबके साथ सो रहा है।)। और कुछ टाइम पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने भी ये लॉ (कानून) निकाल दी कि इट इज़ नो मोर सिविल क्राइम, इट कुड बी अ क्रिमिनल क्राइम बट ऑन द बेसिस ऑफ़ दैट डिवोर्स (यह अब कोई नागरिक अपराध नहीं है, यह एक आपराधिक अपराध हो सकता है लेकिन उस तलाक के आधार पर) को फ़ाइल करके ये नहीं कह सकते हो कि इट इज़ अ सिविल पनिश (यह एक नागरिक दण्ड है)। इट इज़ अ सिवल पनिशमेन्ट (यह एक नागरिक दण्ड है), तो एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर इतना प्रेवलेन्ट हो चुका है सोसायटी में, आप क्या कहना चाहेंगे इसके बारे में?

आचार्य प्रशांत: नहीं, कहा तो, जो अभी कहा वही है। जब प्लेज़र्स ऑफ़ कॉन्शियसनेस नहीं मिलते तो आपको प्लेज़र ऑफ़ बॉडी चाहिए। आपको जहाँ मिलेगा आप वहीं घुस जाएँगे और तरह-तरह से खोजने की कोशिश करेंगे, इधर भी, उधर भी। आपकी मजबूरी बन जाएगी न, एक तरह का नशा है, ड्रग्स हैं।

कुछ और है ही नहीं ज़िन्दगी में जो तृप्ति दे सके, कुछ है ही नहीं। घटिया नौकरी कर रहे हैं, भले ही उसमें पैसा बहुत मिलता हो, हो सकता है लाखों की तनख्वाह हो पर नौकरी ऐसी है कि भीतर से उसने निचोड़ रखा है, एकदम सुखा दिया, खत्म कर दिया भीतर को। जीवन में और कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है, ऐसी कोई रुचियाँ भी नहीं हैं जो ज़िन्दगी को ऊँचाई देती हों।

न साहित्य में रुचि है, न इतिहास में रुचि है, न विज्ञान में रुचि है, न राजनीति में रुचि है, न खेलों में रुचि है तो करें तो करें क्या? ये भी श्रीमानजी ऐसे ही हैं, इनकी पत्नी भी ऐसी हैं, दोनों ऐसे ही एक जैसे ही हैं, बिलकुल एक सूखा हुआ जोड़ा, जिसके पास रुपया-पैसा हो सकता है खूब हो, लेकिन आन्तरिक तौर पर क्या है? सिर्फ़ शुष्कता, रेगिस्तान है एक। तो फिर ये दोनों मजबूर होकर के अपना.. पहले भी था ऐसे ही हाल लेकिन पहले डर बहुत था। तो कम-से-कम खुलेआम नहीं कर पाते थे। अब खुलेआम चल रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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