हमसे गलत काम क्यों हो जाता है? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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हमसे गलत काम क्यों हो जाता है? || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब हम संघर्ष करते हैं तो वह समय हमें बहुत कुछ सिखाता है, लेकिन फिर हम उसे कठिन समय क्यों कहते हैं? और जब समय अनुकूल चल रहा हो तो हम कुछ ऐसे काम कर देते हैं जो हमें नहीं करना चाहिए था। मुझे यह समझ नहीं आता कि कैसे हम अच्छे समय पर बुरे काम कर देते हैं और बुरे समय में अच्छे कैसे कर देते हैं?

आचार्य प्रशांत: कोई अच्छे समय पर बुरे काम नहीं करता, कोई बुरे समय पर अच्छे काम नहीं करता, हम वही करते हैं जो 'हम हैं’।

आपके पास कोई विकल्प इत्यादि है नहीं। आप हमेशा बस वही करते हो जो आपको करना ही था। आप कुछ और कर ही नहीं सकते थे। कोई अच्छा समय नहीं आ जाता। समय वैसा ही है जैसे होना है। हाँ, आपकी अपेक्षाओं के ज़रा अनुरूप है तो आप कह देते हो, ‘अच्छा है, अच्छा है।’

आधा घंटा आप देर से पहुंँचे ट्रेन पकड़ने के लिए और ट्रेन एक घंटा लेट (देर) थी—अच्छा है, अच्छा है, और आपको अपनी मंज़िल पर सही जगह पहुंँचना था और ट्रेन एक घंटा लेट थी—बुरा है, बुरा है। दोनों ही स्थितियों में हो तो वही रहा है बाहर। जो हो रहा है, एक ही घटना ‘ट्रेन एक घंटा लेट’ है, पर आपके लिए कभी अच्छा है, कभी बुरा है।

आप जैसे हो आप हमेशा अपनेआप को केंद्र में रखते हो। और जब तक आप अपनेआप को केंद्र में रख रहे हो, आप वह करे ही जाओगे जो आप कर रहे हो। बाद में, प्रायश्चित होता है, बुरा भी लगता है, है न? और प्रायश्चित हो थोड़े ही पाता है! बस अपनेआप को दुख देने की बात है।

सबसे पहले कृपा करके सब ये देखें कि जिसकी भी ज़िंदगी में जो हुआ है वह अकस्मात नहीं हुआ है। हम जैसे हैं, हमारे साथ वो सबकुछ होना-ही-होना था। आज भी जो है वह अनायास नहीं है। आप यहाँ आये हो तो यूँही नहीं आ गये हो। न आने के आपके पास सैकड़ों बहाने थे और नियमित और निरंतर आने के भी आपके पास बड़े कारण हो सकते हैं।

कारण तो बने रहते हैं (पर) होता वो है जैसे आप हो। पर, अहंकार ये कहता है कि , ‘नहीं, हम तो बड़े धवल और उज्जवल हैं, बस स्थितियाँ ज़रा गड़बड़ थी इसलिए भूल हो गयी। समय बुरा चल रहा था इसलिए फिसल गये।'

कुछ अगर आपके साथ ऐसा हुआ जो आपको अखरता है, जान लीजिए कि आपने उसे आमंत्रित किया। और, जब तक आप उसकी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेंगे आप वही-वही घटनाएँ दोहराते रहेंगे, पुनः-पुनः आमंत्रित करते रहेंगे।

कोई शराबी हो जैसे, लड़खड़ाता चला जा रहा हो। गिरे एक बार और फिर खड़ा हो, झूमता-झामता, ‘नहीं-नहीं, मैंने पी थोड़े ही रखी है। अजी दो-चार बोतल तो हम ऐसे ही पचा जाते हैं। ये कोई पी है! हमें नशा है!’

अब पॉंच जने आ भी रहे हैं सहारा देने, तो साहब इनकार कर रहे हैं— ‘अजी हमें नशा है? दूर हटो! वो तो ज़रा भूकम्प आ गया था नहीं तो हम गिरने वालों में से हैं?’

सहारा लेने को तैयार नहीं है क्योंकि अहंकार मानने को नहीं तैयार है कि नशे में हो। नतीजा क्या होगा? पुनः गिरेंगे और जितनी बार गिरते जाओगे, जानते हो अफ़सोस की बात ये है कि तुम्हारे लिए मानना उतना मुश्किल होता जाएगा कि तुम नशे में हो, क्योंकि अब ग़लतियों का भंडार बढ़ता जा रहा है। अब तुम्हें मानना पड़ेगा कि तुमने एक भूल नहीं करी है, हज़ारों भूलें करी हैं, बड़ी शर्म आएगी।

कोई यह मान ले कि हाँ, अभी-अभी ग़लती हो गयी, ठीक है छोटी बात है। पर ये मानना कि पिछले पाँच साल, दस साल निरन्तर मैं ग़लत ही था‌—अहंकार को चोट लगती है, लज्जा-सी आती है। पर हक़ीक़त यही है। अरे! पाँच साल, दस साल की क्या बात है, लोग पच्चीसों जन्म ग़लत, ग़लत, ग़लत गुज़ार देते हैं, तुमने कौनसा कीर्तिमान स्थापित कर दिया!

अरे! बीस ही साल तो ख़राब करें हैं। बीस साल कोई बड़ी बात है? कुम्भकर्ण ‘सोता था’ बीस साल, तुमने ‘ख़राब कर दिये’, क्या हो गया! इसी से मिला-जुला फिर जो हमारा तर्क निकलता है वह निकलता है, ‘अब अगर हमने चालीस साल ख़राब ही कर दिये तो अब क्या मौत की घड़ी में सुधरेंगे?’

हाँ! (क्योंकि) मौत की घड़ी आ नहीं रही है, यह जो चालीस साल तुमने ख़राब किये इसमें प्रति पल मौत थी। अब जग जाओ, अब उठ जाओ, जीवन पा लोगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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