प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। अभी हमारी जो टीम है, वो ओलंपिक से वापस आई है, जो खिलाड़ी हैं। और उनको लेकर कुछ नेशनल न्यूज़ , मीडिया में और सोशल मीडिया में कुछ बातें चल रही हैं। उनके कुछ हेडलाइंस (शीर्षक) मैं आपको पढ़कर के सुनाना चाहता हूँ — ‘मनु के पिता ने खोले राज़, नीरज से शादी होगी या नहीं। नीरज चोपड़ा से रिश्तों की खबरों पर मनु भाकर ने तोड़ी चुप्पी। चैंपियन नीरज चोपड़ा का घर और गाड़ियाँ देखकर आपके होश उड़ जाएँगे। दोनों की मुलाकात देख फैंस बोले, ‘रिश्ता पक्का, दामाद मिला।’
तो ये जब खिलाड़ी ओलंपिक्स से खेलकर के आ रहे हैं, तो हमारे मीडिया में ये डिस्कशन्स (विचार-विमर्श) चल रही हैं। खिलाड़ियों की तैयारी और मेहनत पर पता नहीं कितनी बात हो रही है। इस बार ओलंपिक्स में हमारी परफॉर्मेंस (प्रदर्शन) पिछली बार से खराब क्यों है, इस पर पता नहीं कितने विश्लेषण हो रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: विश्लेषण करने की ज़रूरत क्या है, ये रही न बात। खिलाड़ियों की परफॉर्मेंस क्यों आज तक खराब रही है, क्यों आगे भी खराब रहेगी, क्या विश्लेषण करना है, ये रहा विश्लेषण! हमारे लिए न स्ट्रगल (संघर्ष) बड़ी बात है, न विक्ट्री (जीत) बड़ी बात है, न स्पोर्ट्स बड़ी बात है, न फिटनेस बड़ी बात है। हमारे लिए राष्ट्र का गौरव भी कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। हमारे लिए असली बात यही है कि किसका ब्याह किससे होने जा रहा है, किसका टाँका किससे भिड़ रहा है।
जो भारत का आम आदमी और आम औरत है, उसके लिए दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण बात बस यही है — चौथे फ़्लोर (मंजिल) वाली बंटी और दूसरे फ़्लोर वाले बब्लू का क्या चल रहा है आजकल! तो जब यही सबसे बड़ी बात है मिस्टर शर्मा और मिसेस वर्मा के लिए, तो पूरे मीडिया में भी यही चीज़ छाई रहती है। इससे ज़्यादा अपमान की बात नहीं हो सकती, इससे ज़्यादा दुर्भाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपके चैंपियंस घर वापस आए हैं और आप उनके खेल के महत्त्वपूर्ण टेक्निकल एस्पेक्ट्स (तकनीकी पहलूओं) पर बात नहीं कर रहे। आप ये नहीं बात कर रहे कि उनके आगे अब क्या गोल्स (लक्ष्य) होने चाहिए।
मीडिया ये नहीं बता रहा, उदाहरण के लिए, कि नीरज जिस खेल में हैं, उसमें कौनसी बड़ी-बड़ी प्रतियोगिताएँ होती हैं। अभी तक नीरज ने क्या जीता है, आगे नीरज क्या जीतेंगे, कुछ नहीं। आप अगर पूछें दुनिया से — दुनिया माने भारत की दुनिया — आप अगर हम हिंदुस्तानियों से पूछें कि नीरज के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी कौन हैं, तो वो एक नाम बता पाएँगे बस। कौनसा नाम?
श्रोतागण: अरशद नदीम।
आचार्य: वो भी इसलिए क्योंकि वो पाकिस्तानी है। इसलिए नहीं कि वो नाम आसान है याद रखना, बस इसलिए क्योंकि वो पाकिस्तानी है। तो उतना उनको याद आ गया होगा कि हाँ-हाँ, एक कॉम्पटीटर (प्रतिद्वंद्वी) है वो पाकिस्तान से है, इस बार गोल्ड ले गया। कहिए कि भाई, आपका बंदा, आपका एथलीट (खिलाड़ी) एक स्पोर्ट में दुनिया का नंबर एक है और आज से नहीं है, चार-पाँच साल से है। चार-पाँच साल से वो दुनिया में बिलकुल टॉप है। यहाँ पर (पेरिस ओलंपिक में) उसका सिल्वर हो गया तो भी फ़र्क नहीं पड़ना है, वो अभी भी टॉप है। बीच में उसने न जाने कितनी और जगहों पर मेडल जीते हैं, वो बंदा टॉप है। तुम मुझे बताओ उसके कॉम्पटीटर्स (प्रतिद्वंद्वी) कौनसे हैं? तुम मुझे यही बता दो कि जेवलिन थ्रो में वर्ल्ड रिकॉर्ड कितना है आज तक?’ नहीं पता होगा हिंदुस्तानियों को। जिस खेल में, जिस इकलौते खेल में हम चैंपियन हैं, हमें उसके बारे में भी कोई जानकारी नहीं होगी। पर हमें ये जानकारी ज़रूर रखनी है कि नीरज चोपड़ा का ब्याह किससे होने जा रहा है। क्योंकि भारत में सबसे बड़ा काम ही यही है — ब्याह करना और बच्चे जनना। हम और किसी चीज़ में दुनिया में चैंपियन हैं?
सिर्फ़ एक अगर सूची बनाई जाए, तो उसमें भारत शीर्ष पर दिखाई देगा, आबादी में। उसके अलावा कहीं गोल्ड मेडल है हमारा क्या? तो हम उसी की तैयारी अपने एथलीट्स से भी करवा रहे हैं। हमारी जो चैंपियन एथलीट्स भी हैं, अगर वो आज को कह दें कि हम स्पोर्टस छोड़ रहे हैं, शादी करने जा रहे हैं, पूरा देश खुशी मनाएगा। हमारी पहलवान हो, हमारी निशानेबाज़ हो, शूटर (निशानेबाज़) हो, आर्चर (तीरंदाज़) हो, रेसलर (पहलवान) हो, बॉक्सर (मुक्केबाज़) हो, कोई हो हमारी, वो बोल दे कि मैं रिटायर (सेवा-निवृत्त) हो रही हूँ मैं अब — अरे, मान लो उसका कुछ नाम है, प्रिया। ‘प्रिया अब करेगी हाथ पीले, प्रिया की सगाई, प्रिया की मेहंदी, प्रिया की विदाई, प्रिया का संगीत।’ पूरा देश खुशी मनाएगा, कोई नहीं पूछेगा, ‘तेरे करियर का क्या हुआ? जो मेडल आने थे देश के, उनका क्या हुआ? तू क्यों छोड़ रही है अपना स्पोर्ट ?’ उसकी कोई बात नहीं होगी, हमें कुछ पता भी नहीं है। ये घोर अपमान की बात है।
आपको मालूम है, मैं आईआईटी से निकला था, मैं बाहर रहा, मैं दो-तीन महीने में बीमार पड़ गया था। मैं वहाँ से निकलकर के समाज के बीच वापस लौटा, मैं बीमार पड़ गया। क्योंकि जो चार साल थे न, इन्होंने मुझे आसमान दिखा दिया था, इन्होंने मुझे जीने का एक बिलकुल नया तरीका सिखा दिया था। एक ऐसा तरीका जिसको देसी नहीं बोल सकता मैं। मैं बाहर निकला, मुझसे झेला ही नहीं गया कि मैं कहीं भी जा रहा हूँ, मुझसे पूछ रहे हैं कि बेटा, आगे क्या सोचा है? बेटा, ग्यारह बज गए, तुम सोए नहीं अभी तक?’ मैं आज़ाद पंछी बन गया था, मैं बीमार पड़ गया।
कैसे लाएँ हम मेडल्स , जो एथलीट है, वापस तो लौटकर के उसे इसी समाज में आना है न! और इस समाज में आकर के वो बीमार पड़ जाता है। आपकी कोई महिला एथलीट लौटकर के आती है, और वो लौटकर आए और उससे लगातार यही बात हो कि अच्छा! बता अब तू मॉडलिंग कहाँ करेगी? बेटा, आगे का क्या सोचा है? अब आपने अपना ओलंपिक्स वाला कर लिया, अब आप शादी कब करोगे?’ वो कैसे अब आगे और मेडल लेकर आएगी, लौटकर के तो उसे इसी समाज में आना है न। ये समाज इस लायक नहीं है।
ये मत सोचना कि जो एक-सौ-सत्रह हमारे खिलाड़ी गए थे, वो बस छः मेडल लेकर आए हैं। न-न-न-न, ये एक-सौ-चालीस करोड़ लोग हैं जो छः मेडल लेकर आए हैं। वो एक-सौ-सत्रह तो हमारे प्रतिनिधि थे, रिप्रेज़ेंटेटिव थे। हम ही इस लायक हैं कि एक-सौ-चालीस करोड़ होकर भी हमें एक भी गोल्ड न मिले। खिलाड़ियों की गलती नहीं है; खिलाड़ी इसी मिट्टी से उठता है, इसी देश से, इसी समाज से, इसी मूल्य व्यवस्था से, हमारी ही मान्यताओं से तो खिलाड़ी खड़ा होता है न? हमारी मान्यताएँ इतनी सड़ी-गली हैं, हमारे जीने का तरीका इतना सड़ा-गला है। जिसको हम अपना गौरवशाली कल्चर (संस्कृति) कहते हैं, उसमें इतनी गड़बड़ है कि कोई ऊँचा काम हमारे बीच रहकर के कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
भारत में ऐसा नहीं कि अब बहुत अभाव हो स्पोर्टिंग फैसिलिटीज़ (खेल सुविधाओं) का। आम आदमी के लिए बहुत अभाव है, पर जो बिल्कुल टॉप एथलीट्स होते हैं न, उनके लिए है। लेकिन उसमें से भी जो बहुत सारे मेडल विनर्स (पदक विजेता) होते हैं, वो इंडिया में रहकर के ट्रेनिंग नहीं करते, वो अब्रॉड (विदेश) करते हैं *ट्रेनिंग*। इंडिया में रहकर के मेडल लाना लगभग असंभव है।
जिस एक खेल पर भारत जान छिड़कता है, क्रिकेट — पता नहीं भारतीयों को पता है कि नहीं — ज़्यादातर क्रिकेट खिलाड़ी भारत सिर्फ़ टूर्नामेंट्स के लिए आते हैं। आईपीएल वगैरह के लिए आ जाएँगे, कोई इंटरनेशनल फिक्स होगा उसके लिए आ जाएँगे और फिर वापस वो अपना लंदन वगैरह चले जाते हैं। वो वहीं रहते हैं, वो भारत में नहीं रहते। हमने अपनी आब-ओ-हवा, अपनी जलवायु ऐसी कर दी है कि यहाँ रहकर के कोई ऊँचा काम करना बड़ा मुश्किल है। और हम इन्हीं बातों को बहुत गौरव का मानते हैं।
एक आपको मिलेंगे पड़ोस के अंकल, पड़ोस की आंटी, जिन्होंने ज़िंदगी में कुछ नहीं हासिल किया। वो किसी स्तर के नहीं है, कोई उनकी उपलब्धि नहीं है, लेकिन फिर भी वो अपनेआप को हकदार मानेंगे कि वो आपको रोकें और आपसे पूछें, ‘तो बेटा, फ़्यूचर (भविष्य) का क्या सोचा है?’ तुम हो कौन ये पूछने वाले? मैं ये नहीं बात कर रहा कि तुम रिश्ते में मेरे कौन हो, मैं पूछ रहा हूँ, ‘योग्यता में तुम कौन हो? तुम क्या जानते हो पास्ट (अतीत), प्रेज़ेंट (वर्तमान), फ़्यूचर (भविष्य) के बारे में? तुम्हारा अपना फ़्यूचर क्या है, ये बताओ? आंटी, मेरा फ़्यूचर तो अच्छा ही है, आपका क्या फ़्यूचर है आंटी?’
आंटी को न कोई ज्ञान है, न कौशल है, न भाषा जानतीं, न विज्ञान जानतीं, न भारत देखा है, न दुनिया देखी है, कुछ नहीं जानतीं, लेकिन आंटी में आत्मविश्वास पूरा भरा हुआ है। पूरे कॉन्फिडेंस (विश्वास) के साथ वो आपको रोककर बोलेंगी, ‘हाँ बेटा, बाकी सब तो ठीक है, तुमने आईआईटी कर ली। ये बताओ सैटल कब हो रहे हो?’ आंटी, आईआईटी कर ली क्या होता है? टट्टी है क्या कि कर ली? ये आईआईटी कर ली क्या होता है? आंटी आप इतना भी नहीं जानते हो कि एक संस्थान के नाम का भाषा में प्रयोग कैसे करा जाता है, लेकिन पूरे हक से क्या पूछ रही हैं? बेटा! अब आगे का क्या करोगे?’ फिर इसीलिए हमारे एथलीट्स कुछ जीत भी लेते हैं तो दोबारा नहीं जीत पाते, हमारा समाज खा जाता है उनको।
घिनौनी बात है कि तुम्हें नीरज चोपड़ा में बस ये दिखाई दे रहा है कि ये किसके साथ जाकर के अफेयर करेगा, घिनौनी बात है! कई-कई दशकों के बाद हमें नीरज चोपड़ा जैसा एथलीट मिला है और हमें उसमें यही पता चल रहा है बस! और यही बात मनु पर भी लागू होती है। कब हुआ था कि किसी एक खिलाड़ी ने एक ही ओलंपिक में दो पदक जीते हों?
श्रोता: तीसरा भी (लगभग पक्का ही था)।
आचार्य: तीसरा भी (लगभग पक्का था), बस चौथे नंबर पर रह गई। तीन पदक भी हो सकते थे; और जो कांसा है वो सोना भी हो सकता था, सब हो सकता था। हमें नाज़ होना चाहिए, हमें पूछना चाहिए कि हम और क्या करें कि अगली बार वो तीन स्वर्ण पदक लेकर के आए लड़की। हमें ये पूछना चाहिए न? उसकी जगह हम उससे पूछ रहे हैं, ‘बेटा, शादी किससे करोगी? प्लान क्या है? बच्चे कितने करने हैं?’ अभी उसको कोई पॉडकास्ट पर बुला ले, यूट्यूब में चलता है आजकल, तो उससे यही सारे सवाल करेंगे।
मुझे एक ने बुलाया, वो प्रतिष्ठित एक अपनेआप को जर्नलिस्ट पोर्टल बोलते हैं। मुझसे पूछ रहे हैं, ‘आप अपने कपड़ों में ये क्यों पहनते हैं? अच्छा, आपने कोट पहना हुआ है, तो उसमें पॉकेट स्क्वायर (एक चौकोर कपड़ा होता है जिसे सूट या ब्लेज़र की छाती की जेब में रखा जाता है) क्यों डाला हुआ है?’ मैंने कहा, ‘ये सारे सवाल तुम जाकर के किसी कपड़े की अलमारी से भी कर सकते हो, मैं तुम्हारे सामने एक कॉन्शियस (जाग्रत) टीचर बनकर के बैठा हूँ, मुझसे ढंग के सवाल पूछो।’ हमारे एथलीट भी कहीं जाएँ, तो उनसे यही पूछा जाता है कि अच्छा बताइए, आपको पराठा मक्खन के साथ पसंद है या सॉस के साथ।
नीरज पिछली बार जब वहाँ से वापस आए थे तो ये हुआ था — बहुत सारी महिलाओं ने बुला लिया; और वो सब वो अधेड़ उम्र की महिलाएँ, पता नहीं उन पर कौनसा जोश चढ़ गया! वो उसको बीच में खड़ा करके नाच रही हैं, छू रही हैं, ये सब हुआ था। कई साल पहले की बात है, ठीक से याद नहीं, पर ऐसा कुछ हुआ था। पिछले ओलंपिक्स के बाद ऐसा हुआ था।
हमारे किसी वैज्ञानिक को भी अगर नोबेल प्राइज़ मिल जाए तो हम यही करें उसके साथ। हम नहीं पूछेंगे कि तूने विज्ञान में क्या काम किया और भारत में साइंस को पॉपुलराइज़ (लोकप्रिय) कैसे कर सकते हैं। हम उसको पकड़-पकड़कर के नाचने लगेंगे और कहेंगे, ‘बेटा, मेथी के पराठे खा ले!’ और इसको हम कहते हैं, ‘ये तो हमारी मिठास है, हम बहुत मीठे लोग हैं!’ ये तुम्हारी मिठास नहीं है, मतलब इससे मिलता-जुलता तुकांत शब्द संडास है मेरे पास, बस!
कहाँ से मेडल आएगा — एथलीट को दौड़ना होता है। आज जो बीजिंग की हवा इतनी साफ़ है, उसका एक कारण बीजिंग ओलंपिक्स है 2008 वाला। वहाँ की हवा दिल्ली जैसी गंदी हो गई थी। उनको चेतावनी दे दी गई, ‘भैया, एथलीट इस हवा में परफॉर्म कर ही नहीं सकता। लंग कैपेसिटी (फेफड़ों की क्षमता) चाहिए न उसको? बोले, ‘इस हवा में कहाँ से कोई मैराथन वाला दौड़ लेगा? और कहाँ से जो लंबे मैच होते हैं टेनिस के, वो खेल लेंगे तुम्हारी हवा में?’ उन्होंने अपनी हवा पूरी साफ़ कर दी।
जैसी प्रदूषित हवा बीजिंग की थी, उसमें एथलेटिक्स संभव ही नहीं था, कोई स्पोर्ट्स संभव नहीं थे। भारत की अभी जो हवा है, इसमें तुम चैंपियन कैसे पैदा कर दोगे? पानी हो सकता है वो बॉटल्ड वॉटर (बोतलबंद जल) पी ले, पर ट्रैक एंड फील्ड में तो खुले में ही दौड़ेगा न? उसके फेंफड़े हंड्रेड-पर्सेंट (शत्-प्रतिशत) अपनी पोटेंशियल (क्षमता) पर काम कर ही नहीं पाएँगे, तो कैसे जीत लेगा वो? और हार और जीत में, इंटरनेशनल स्पोर्ट (अंतरराष्ट्रीय खेल) में बड़ा ज़रा सा फ़ासला होता है। जिसके फेफड़े थोड़ा भी जवाब दे गए, वो हार जाएगा। ये हमने अपने देश की हालत कर ली है, फिर हमें पदक चाहिए।
और किसी तरह से, संयोग से, मात्र व्यक्तिगत प्रतिभा और व्यक्तिगत श्रम के दम पर अगर कोई पदक ले भी आता है, तो हम उसके साथ इस तरह की बदतमीज़ियाँ शुरू कर देते हैं कि जो पदकधारी हैं उनके घर में घुस जाओ, उनके माँ-बाप से पूछो, ‘आपके लड़के को कैसी लड़की चाहिए?’ और फिर हँसो ज़ोर-ज़ोर से, जैसे कितनी क्यूट (प्यारी) बात बोल दी है। क्यूट बात है, भयानक बात है, अपमान की बात है, थप्पड़ खाना चाहिए इस बात पर।
प्र: अभी अमेरिका में जब खिलाड़ी वापस गए, तो उनके न्यूज़ में ये विश्लेषण चल रहा है कि कौनसी यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) से कितने मेडल आए। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने उनचालीस मेडल जीते हैं, जो कई सारे देशों से बहुत ज़्यादा हैं। उसी तरह और भी यूनिवर्सिटीज़ हैं, तो वहाँ पर….।
आचार्य: सुन लो भाई, एक अकेली यूनिवर्सिटी, स्टैनफोर्ड। इनको आप ऐसे समझ लो कि अमेरिका का आईआईटी मान सकते हो। ये जो वहाँ की बड़ी यूनिवर्सिटीज़ हैं, आपने भी नाम सुना होगा ‘*आइवी लीग*’ में जो आती हैं। ये सिर्फ़ वहाँ पढ़ाने का काम नहीं कर रहीं, ये नोबेल लॉरिअट्ज़ (नोबेल पुरस्कार विजेता) भी पैदा कर रहे हैं। एक-एक यूनिवर्सिटी में दर्जन-दर्जन नोबेल लॉरिअट बैठे होते हैं। कई बार एक ही फ़्लोर (तल) पर तीन नोबेल लॉरिअट होते हैं, रिसर्चर्स, प्रोफ़ेसर्स। तो वहाँ सिर्फ़ ये नहीं हो रहा कि पढ़ाया जा रहा है, वहाँ नोबेल लॉरिअट भी पैदा हो रहे हैं और ओलंपिक मेडलिस्ट्स (ओलंपिक पदक विजेता) भी पैदा हो रहे हैं।
इन्होंने कहा कि अकेली स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी जितने मेडल लेकर के आई है, अगर स्टैनफोर्ड एक देश होती तो शायद पदक तालिका में टॉप ट्वेंटी (प्रथम बीस) में होती।
प्र: सातवें।
आचार्य: सातवें नंबर पर होती। ये अमेरिका है! और भारत, हमारा कल्चर क्या? ‘अमेरिका तो छी-छी! है, हम बहुत अच्छे लोग हैं।’ ये वहाँ की यूनिवर्सिटीज़ हैं, सचमुच विश्वविद्यालय! सचमुच तुम उनको बोल सकते हो ‘शिक्षा के मंदिर’, सचमुच तुम उनको बोल सकते हो ‘ज्ञान के तीर्थ।’ और ज्ञान ही नहीं, समग्र विकास के तीर्थ, कि ओलंपिक मेडल भी यूनिवर्सिटीज़ निकालकर के ला रही हैं। और हमारे लिए शिक्षा क्या है? किसी तरीके से उसका कहीं सेलेक्शन (चयन) हो जाए तो रोटी-पानी चलने लगे।
एजुकेशन (शिक्षा) के नाम पर कोचिंग इंडस्ट्री चल रही है। हमारी एजुकेशन में होलिस्टिक डेवलपमेंट (समग्र विकास) हो रहा है? हमारे यहाँ जो हमारे टॉप मोस्ट इंस्टिट्यूट्स (शीर्षतम संस्थान) भी हैं, उनकी सबसे बड़ी पहचान होती है प्लेसमेंट ऑफ़िस। प्लेसमेंट हो जाए बस, क्यों? क्योंकि अंत में पापाजी और पड़ोस के वर्मा जी बस एक ही सवाल पूछेंगे, ‘बेटा, तेरा कितने का पैकेज लगा?’
बेटा अगर चार साल आईआईटी में रहा है और वहाँ पर ज़बरदस्त वो टॉप स्विमर (शीर्ष तैराक) बन गया है, पापा जी को ज़रा भी फ़क्र नहीं होगा। पापाजी बस एक सवाल पूछेंगे, ‘बेटा, तेरा पैकेज़ कितने का लगा?’ क्योंकि जितने का पैकेज़ लगा होगा, उसके हिसाब से फिर दहेज मिलेगा न! मेरे साथ था एक आईआईएम में, उस समय की बात, आज से बीस-बाईस साल पहले की। तब अगर आपका छ: लाख, आठ लाख का अगर पैकेज है — जिसको सीटीसी बोलते हैं — वो लग जाए तो ठीक होता है। आज तो बहुत आगे बढ़ गई है बात।
तो मेरे साथ एक था, उसका छ:-सात लाख का कुछ हुआ। तो मोबाइल फ़ोन्स का उतना नहीं था, तो ये पीसीओ होते थे, वहाँ जाकर के बात करते थे। तो मैं उसके साथ ही था पूरे दिन, क्योंकि उस बेचारे की हालत खराब थी। वो पछाड़ मारकर गिर रहा है, बेहोश हो रहा है, कुछ कर रहा है, तो मैं सारे दिन! वो जो प्लेसमेंट का दिन था पूरा — एक ही दिन पर वहाँ काम निपट जाता है, तीन दिन में निपट जाता है। तो उन तीन दिन में जिस दिन उसकी लगी, वो बड़ा महत्वपूर्ण दिन। पूरे दिन मैं उसके साथ हूँ, सात-आठ वो इंटरव्यू दे रहा है।
तो फिर शाम हुई, शाम होते-होते उसको एक ऑफ़र मिल ही गया। तो हम गए वहाँ पर, कुछ खाया-पिया और वो बोला, ‘अब ज़रा कॉल करता हूँ पीसीओ में।’ मैं वहीं बैठा हुआ हूँ, वो कॉल कर रहा है, पिताजी को बोल रहा है, ‘दस लाख का है।’ मैंने कहा, ‘भाई, तेरा जितने का लगा है उतना ही बहुत होता है। और बहुत अच्छे ब्रांड में तेरी जॉब लगी है, झूठ काहे को बोला घर में?’ बोल रहा है, ‘वो पिताजी को बताना ज़रूरी है। उनकी उम्मीद कुल यही थी कि मैं यहाँ आऊँगा, तो कम-से-कम दस लाख का तो पैकेज लगेगा। बाकी मुझे मिलेगा कितना, कौनसा उन्हें पता लगना है, पर बताना ज़रूरी है!’ मैंने कहा, ‘अच्छी बात है!’
उसके बाद अपना इधर-उधर कुछ होता रहा ऐसा-वैसा। फिर उसके दो-चार दिन की बात होगी, फिर गए कॉल करने के लिए। तो वो फ़लाना वहाँ कोई ताऊ बैठे थे, बोले, ‘ताऊ से बात करना।’ इस बार जब घर फोन मिलाया, बोले, ‘ताऊ से बात करना।’ ताऊ ने रिसीवर (फ़ोन) लिया, ताऊ बोले, ‘बधाई हो! बधाई हो! तेरा बीस लाख का लग गया!’ तो ये भी थोड़ा, ‘हाँ-हाँ-हाँ! वो तो लग ही गया, हाँ लग गया!’ पता चला कि इन्होंने पिताजी को बोला दस, पिता ने चाचा को बोला बारह, चाचा ने पड़ोस के किसी को बोला पंद्रह, और वहाँ से आगे बढ़कर के पहुँच गई बात बीस पर!
हम पढ़ने थोड़े ही भेजते हैं बच्चों को, हम उन्हें बेचते हैं। और अब जब लड़की के बाप को बताया जाएगा, तो बताया जाएगा पच्चीस, ताकि उससे दहेज लिया जाए तीस के हिसाब से। क्या मेडल आएगा; मेडल तो छोड़ दो, हम रिसर्च भी क्या करेंगे! सिर्फ़ खेलों में ही नहीं, जीवन के, शिक्षा के, विद्या के किसी भी क्षेत्र में हमें कौनसी ऊँचाई मिलेगी। हमारी संस्कृति ही ऐसी है जो सबसे ज़्यादा महत्व बस इसीको देती है — खाओ, पचाओ, भोगो, बच्चे पैदा करो, अपने छोटे से पिंजड़े में पड़े रहो और मर जाओ। नया करना है, जूझना है, इसको हमारे कल्चर (संस्कृति) में इज़्ज़त कहाँ मिलती है।
नीरज को आज हम बधाई दे सकते हैं कि मेडल आ गया। आपके घर का लड़का, आप पाओ कि भाला फेंक रहा है, आप उसको फेंक दोगे बाहर। आप बोलोगे, ‘ऑफ़ ऑल थिंग्स भाला, ब्लडी भाला (सभी चीज़ों में से भाला, खूनी भाला)। और शुरुआत तो ऐसे ही होती है कि छोटा बच्चा है, वो ऐसे ही लेकर के ऐसे (हाथ से भाला फेंकने का अभिनय करते हुए) फेंक रहा है। थप्पड़ नहीं मारोगे आप उसको? आप कहोगे, ‘अगर तुझे स्पोर्ट्स में ही बहुत रुचि है, तो ऐसे में जा न जहाँ करियर थोड़ा बन सकता है। ऐसे कर रहा है(भाला फेंकने का अभिनय करते हुए), तो थोड़ा ऐसे (गेंद फेंकने का इशारा करते हुए) करना शुरू कर। यूँ मत फेंक, कैसे फेंक? यूँ फेंक, तो शायद करियर बन जाए।’
आखिरी बात, स्पोर्ट्स वैक्यूम (रिक्तता) में ऑपरेट (कार्य) नहीं करता। आपके स्पोर्ट्स पर्सन (खिलाड़ी) आपकी सोसाइटी (समाज) के रिप्रेज़ेंटेटिव (प्रतिनिधि) होते हैं। आप जैसे होते हो, आपकी टीमें भी वैसी होती हैं। अगर हमारे एथलीट्स को मेडल्स नहीं मिलते, तो उसकी वजह ये है कि हमारा समाज इस लायक नहीं है कि इसको मेडल मिल सकें। न हम जूझना जानते हैं, न हम उपलब्धि को सम्मान देना जानते हैं, न हम कोई खतरा उठाना जानते हैं। हमें बस एक रटे-रटाए, बँधे-बँधाए तरीके से चलना है — ‘बेटा, एजुकेशन कर लो, एजुकेशन के बाद जॉब ले लो, जॉब के बाद शादी कर लो, शादी के बाद बच्चे कर लो, फिर मर जाओ।’ ये है हमारा छ: सूत्रीय कार्यक्रम जीवन का, सिक्स पॉइंट प्रोग्राम ऑफ़ पासिंग थ्रू लाइफ़ (जीवन से गुज़रने का छः सूत्रीय कार्यक्रम)। इसमें कहाँ इनोवेशन (नवीनता) है, कहाँ क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) है, कहाँ रिस्क टेकिंग (जोखिम लेना) है? और अगर कोई रिस्क ले भी रहा हो, तो उसके ऊपर चढ़ जाओ कि नहीं बेटा, ये सब तो ठीक है, लेकिन…।
वो अभी सीरीज़ आई थी, रॉकेट बॉयज़ — मेरे पिता जी ‘होमी जहाँगीर भाभा’ के बड़े फैन (प्रशंसक) हुआ करते थे, बहुत तगड़े। वो इंटरनेट का ज़माना नहीं था, फिर भी वो उनके बारे में सब खबरें वगैरह करते थे, ये सब है। एक समय पर टीआईएफआर में रिसर्च के लिए वो जाने भी वाले थे। जब भाभा की बिलकुल अकाल मृत्य हुई, तो उस समय पर उन्होंने भाभा के लिए एक कविता भी समर्पित करी थी — तो रॉकेट बॉयज़ को मैंने बड़ी रुचि से देखा। अब कौन है? भाभा; भाभा समझते हो क्या? नहीं समझते होओगे, हम भाभी समझते हैं!
खैर, आम हिंदुस्तानी का दुर्भाग्य देखो न कि उससे बोलो, ‘होमी जहाँगीर भाभा', बहुत कम लोगों को पता होगा। तो मूवी में दिखा रहे हैं कि भाभा को भी पकड़कर के दो-चार लोगों ने — उसके तो कई एपिसोड्स थे न — दो-चार बार ऐसा प्रकरण आता है कि लोग उनको पकड़कर के पूछते हैं, ‘बट (पर) तुम शादी कब करोगे?’ वो आदमी सिर्फ़ साइंटिस्ट (वैज्ञानिक) नहीं है, वो आदमी एक ज़बरदस्त तरीके का मैनेज़र (प्रबंधक) भी है, वो इंस्टिट्यूशन फाउंडर (संस्था संस्थापक) है, वो म्यूज़िशियन (संगीतकार) भी है, वो पेंटर (चित्रकार) भी है, आर्टिस्ट (कलाकार) भी है, वो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इंडिया का रिप्रेज़ेंटेटिव (प्रतिनिधि) भी है। और उससे पूछा क्या जा रहा है? उससे भी यही पूछा जा रहा है, ‘नहीं, बाकी सब तो ठीक है, लेकिन शादी कब करोगे?’
‘पूछता है भारत, राहुल गांधी की शादी कब होगी?’ अरे! और बहुत सवाल हैं जो उससे पूछ लो भाई, यही काहे को पूछ रहे हो? अवर लीडर्स मस्ट बी आंसरेबल फॉर सेवरल अदर मोर इंपोर्टेंट एंड डीपर क्वेश्चन्स, व्हॉट इज़ दिस ट्रिवियालिटी? (हमारे नेताओं को कई अन्य महत्वपूर्ण और गहरे सवालों के लिए जवाबदेह होना चाहिए, ये कैसी तुच्छता है?) नाचो! बताने की ज़रूरत है कि भारत शिक्षा से दोगुना खर्च करता है वेडिंग इंडस्ट्री (विवाह उद्योग) पर! एक आम भारतीय जितना शिक्षा पर खर्च करता है, उससे डबल खर्च करता है सिर्फ़ वेडिंग के फंक्शन (कार्यक्रम) पर। उसके बाद के जो फंक्शन्स हैं वो अलग हैं। और एक आम अमेरिकन शिक्षा पर जितना खर्च करता है, उससे आधा खर्च करता है वेडिंग (शादी) पर।
भारत एक गरीब देश है, फिर भी हमारे यहाँ पर दुनिया में नंबर एक खपत है सोने की। और वो सारा-का-सारा सोना किससे रिलेटेड (संबंधित) है? शादी करो, बच्चे पैदा करो। ये कुल-मिलाकर के दुनिया में हमारा काम है, हमारी जगह है — *वेडिंग, गोल्ड , कॉस्मेटिक्स (श्रृंगार-प्रसाधन), *बैंकेट हॉल्स*। लाइब्रेरीज़ (पुस्तकालय) नहीं, बैंकेट हॉल्स ; स्पोर्ट्स स्टेडिया नहीं, *बैंकेट हॉल्स*। अच्छे-खासे बड़े-बड़े भी जो शहर होते हैं, वहाँ आपको खेलने की सुविधाएँ नहीं मिलेंगी। स्पोर्ट्स के लिए आपको जगह नहीं मिलेंगी, लेकिन बैंकेट हॉल लाइन से मिल जाएँगे। लाइब्रेरी नहीं मिलेगी, लेकिन बैंकेट हॉल मिल जाएँगे। ये हमारी संस्कृति है, हम इस पर नाज़ करते हैं।
प्र: आचार्य जी, एक चीज़ दिमाग में आती है जब ये चर्चा चलती है। कई बार सुनने को भी मिलता है, क्योंकि भारत में गरीबी रही है इसलिए सर्वाइवल (आजिविका) इतना बड़ा एक फैक्टर (कारण) है। इसलिए जब भी कुछ भी इस तरह की बातें होती हैं, तो।
आचार्य: जो सचमुच के गरीब होते हैं न, उनका वो वैल्यू सिस्टम (मूल्य व्यवस्था) होता ही नहीं, मैं जिसकी निंदा कर रहा हूँ, नो (नहीं)। मैं जिसकी बात कर रहा हूँ, वो वैल्यू सिस्टम , वो कल्चर मिडिल क्लासेस (मध्यम वर्ग) का है, मैं लोअर क्लासेस (निम्न वर्ग) की बात ही नहीं कर रहा। ये मिडिल क्लासेस का कल्चर है जो इतने गरीब नहीं हैं। बस वो इसको अपनी संस्कृति, अपनी मान्यता कहकर के आगे बढ़ाए जा रहे हैं। बात गरीबी की नहीं है, बात मान्यताओं, धारणाओं की है, परंपराओं की है। ‘हम तो ऐसे ही हैं!’
कोई बूढ़ा हो, इतनी बड़ी उसने तोंद निकाल ली है, जिसके कारण घुटनों पर ज़ोर पड़ता है, वो चल भी नहीं पाता। तो ये और ज़्यादा फिर गंभीरता की और गुरूता की, श्रेष्ठता की बात हो जाती है न, बड़प्पन की, कि जब वो उठ रहा है कुर्सी से, तो दो लोग आकर उसको सहारा दे रहे हैं। कितना सांस्कृतिक माहौल लगता है न? अब उम्र ज़्यादा न हो, साठ-पैंसठ की ही हो, पर खा-खाकर के इतनी उसने पराठे भर-भर, इतना (दोनों हाथों को फैलाकर समझाते हुए।) और घुटने पड़ गए हैं कमज़ोर, चला जा नहीं रहा है। तो देखा है, कैसा बिलकुल वो फ़िल्मी माहौल बनता है राजश्री प्रोडक्शन जैसा, या वाईआरएफ जैसा! कि वो उठना चाह रहा है, उठ पा नहीं रहा है, तो दो आकर के उसको फिर ऐसे खड़ा कर रहे हैं; कभी खुशी, कभी गम! और ये बात अपमान की होनी चाहिए, ये बात शर्म की होनी चाहिए। तुम साठ-पैंसठ साल के हो, तुम खड़े नहीं हो पा रहे हो।
ऐसे देश के स्पोर्ट्स में मेडल्स आएँगे जहाँ पर कल्चर ये है कि जिसने अपनी देह खराब कर ली हो, उसको और ज़्यादा इज़्ज़त दो? जिसने अपना शरीर बर्बाद कर लिया हो, उसको और ज़्यादा इज़्ज़त दो, ऐसा देश क्या सुगठित शरीर वाले स्पोर्ट्स पर्सन्स को इज़्ज़त देगा? बोलो। यहाँ कौन किससे जवाब माँगता है कि तुम कैसे इतने बीमार हो गए, क्यों कर लिया? शरीर को ठीक रखना अपने प्रति बड़े-से-बड़े दायित्वों में से है, तुमने कैसे नहीं निभाया? कौन किससे जवाब माँग रहा है?
इतना सा देश है नीदरलैंड्स , कम-से कम-पाँच खेलों में चैंपियन है, *वर्ल्ड चैंपियन*। और देखो कितने पदक इस बार जीतकर गया है!
प्र: दिल्ली से आधी आबादी है पूरे देश (नीदरलैंड्स) की।
आचार्य: दिल्ली से कम आबादी और देखो पदक! ऑस्ट्रेलिया देखो न, नीदरलैंड्स से भी तो ऊपर ऑस्ट्रेलिया बैठा हुआ है। दिल्ली से भी कम आबादी और इतने पदक जीतकर के गया है। हम जब गए थे नीदरलैंड्स , तो इस बात को रोज़ शाम को देखकर के हैरान रह जाते थे कि अस्सी-अस्सी साल वाले, कई बार नब्बे साल वाले, वो मस्त साइकिल चला रहे हैं। साइकिल ही चलाते जा रहे हैं, चलाते ही जा रहे हैं, फिट कंट्री (स्वस्थ देश) है।
और हमारे यहाँ पर जो जितना अनफिट (अस्वस्थ) है, उसको उतनी इज़्ज़त मिलती है। ऐसा ज़बरदस्त माहौल पैदा होता है — मान लो शादी-ब्याह हो रहा है, उसमें एक बुआजी लाई जा रही हैं, तीन-चार लोग उनको ऐसे; देखा है? याद आ गया बिलकुल? सबने देखा होगा! कि यहाँ पर (हाथ से समझाते हुए) बैठे हुए हैं, वेदी है, दूल्हा-दुल्हन बैठे हैं, फेरे शुरू होने वाले हैं, फिर वो बुआजी को ढोकर के लाया जा रहा है! पाँच-सात लोग लग रहे हैं उनको ढोकर के लाने में! ऐसा लगता है क्या गज़ब! बिलकुल एकदम पौराणिक माहौल बन गया!
और बुआजी से बीस-बीस साल ज़्यादा उम्र के बुजुर्ग वहाँ नीदरलैंड्स में साइकिल चला रहे हैं। हमारे यहाँ पर इसी बात को बड़ा महत्व है कि किसने अपना शरीर कितना बर्बाद कर लिया है — जो कि लाज की बात होनी चाहिए। गरीबी की नहीं बात है, एटीट्यूड , मान्यता। हमारी मान्यताएँ बहुत गड़बड़ हैं।