गुलामी की लंबी ज़िंदगी बेहतर, या आज़ादी के कुछ पल?

Acharya Prashant

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गुलामी की लंबी ज़िंदगी बेहतर, या आज़ादी के कुछ पल?
जीवन को सँभालकर रखो तब तक, जब तक मुक्ति नहीं मिल जाती; लेकिन जीवन को सँभालने का उद्देश्य जीवन को लंबा ही करना कभी नहीं हो सकता। जीवन का उद्देश्य जीवन की लंबाई नहीं है; जीवन का उद्देश्य जीवन से मुक्ति है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, भविष्य में कभी बीमार हुए तो उसके लिए अभी से ही पैसों की व्यवस्था करके रखनी होगी न?

आचार्य प्रशांत: बीमारी जब आएगी उसके लिए तुम अभी से बीमारी का जीवन जीना चाहते हो? तुम्हें इतनी घनी और इतनी बड़ी बीमारी आ गई कि नहीं जी सकते, तो मर जाना, पर जब तक जिओ कम-से-कम आज़ाद जिओ।

प्रश्नकर्ता: नहीं सर, जितना जी रहे हैं उतना मस्ती में जी रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: ठीक, जब बीमारी आए तो मर जाना। अगर इतनी बड़ी बीमारी आ गई है कि बिना लाखों-करोड़ों लगाए उसका उपचार ही नहीं है, तो मर जाओ। ज़बरदस्ती लाश को जिलाए रखने से फ़ायदा क्या? मरने से इतना डर क्यों? और मुर्दा जीवन से इतना मोह क्यों? कैंसर होगा तुम्हें सत्तर की उम्र में...।

प्रश्नकर्ता: मुझे पच्चीस साल की उम्र से है।

आचार्य प्रशांत: तुम्हें पच्चीस की उम्र में हो गया न, लोग हुए हैं जो इक्कीस की उम्र में, बिना कैंसर के, भरे-पूरे और स्वस्थ शरीर के साथ हँसते-हँसते फाँसी चढ़ गए, तुमने तो चार साल ज़्यादा जी लिए। तुमने तो फिर भी चुना नहीं था कि तुम्हें कैंसर हो जाए।

प्रश्नकर्ता: हो गया तो इलाज तो करवाना पड़ेगा न?

आचार्य प्रशांत: अरे, हो गया है तो उसके लिए अभी तक के जीवन की कुर्बानी क्यों दोगे?

प्रश्नकर्ता: नहीं, कोई दिक्कत नहीं। जैसे मुझे कैंसर हो गया था तीसरी स्टेज़ का।

आचार्य प्रशांत: हाँ, कल तो नहीं मर रहे न?

प्रश्नकर्ता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: हाँ, जितने दिन जी रहे हो उतने दिन वैसे जिओ जैसे जिया जाता है; उसके बाद मृत्यु से नहीं घबराओगे।

प्रश्नकर्ता: लेकिन दोस्तों से इलाज के लिए जो पैसे उधार लिए, वो तो चुकाने पड़ेंगे न?

आचार्य प्रशांत: अरे बाबा, तुम्हें आवश्यकता क्या है कि तुम कहो कि मुझे बहुत लंबा जीना है। तुम्हारे ऊपर अगर ये स्थिति कभी आ ही जाए कि अब सामने मौत खड़ी है, तो चुन लो मौत को।

मौत को चुनना कहीं बेहतर है एक गुलाम जीवन जीने से।

और मेरी सलाह है कि बहुत बीमार हो जाओ और एक विकल्प ये हो कि इधर-उधर से बीस-चालीस लाख कर्ज़ा लेकर के उपचार हो जाएगा तो मत कराओ उपचार। तुम बच भी गए तो फिर जिओगे कैसे? तुम जिओगे सिर्फ़ वो कर्ज़ उतारने के लिए, क्या करोगे? या तो तुमने जीवन ऐसा जिया हो कि तुम्हारी दोस्ती में इतना प्रेम हो कि दोस्त कहें कि हमने तुझे कर्ज़ नहीं दिया है। जिससे प्रेम होता है उसे कर्ज़ देते हैं क्या? ‘हमने तुझे कर्ज़ नहीं दिया है, हमने तेरे ऊपर पैसे लुटा दिए, न्यौछावर कर दिए,’ तब तो ठीक है।

पर तुमने जीवन भी ऐसा ही जिया कि दोस्तों से भी कर्ज़ का और व्यापार का ही नाता है, तो दोस्तों ने तुम्हारी बीमारी पर भी अगर पैसे लगाए हैं तो अब वो कह रहे हैं, ‘वापस दो, वापस दो, और सूद (ब्याज) समेत वापस दो।’ और अगर ऐसा तुम्हारा जीवन रहा है और ऐसी तुम्हारी दोस्ती रही है तो जी क्यों रहे हो?

प्रश्नकर्ता: नहीं, पैसे माँगे नहीं थे किसी से, बगैर माँगे दिए सबने। घर पर मैंने बताया नहीं था; न रिश्तेदारी में, न परिवार में।

आचार्य प्रशांत: ठीक। जैसे उन्होंने प्रेम में दे दिए वैसे तुम प्रेम में ले लो, लौटाने के लिए क्यों उत्सुक हो? प्रेम में लेन-देन थोड़े ही होता है। तुम किसी का चुंबन लेते हो तो फिर कहते हो कि अब मुझे भी दो? हिसाब लिख रहे हो क्या?

प्रश्नकर्ता: वो बात नहीं है आचार्य जी, मेरा फ़र्ज़ बनता है देने का।

आचार्य प्रशांत: फ़र्ज़ के नाते कुछ कर रहे हो तो करो, फिर परेशानी क्या है? असली फ़र्ज़ तो प्रेम होता है; तुम प्रेम के नाते उन्हें वैसे ही देना चाहते हो जैसे उन्होंने तुम्हें दे दिए, तो दे दो, फिर उसमें तनाव क्यों ले रहे हो? फिर तो अगर दे दिया तो अच्छी बात, नहीं दे पाए तो कोई बात नहीं। प्रेम में तो जिसकी जितनी सामर्थ्य होती है, करता है; बराबरी की बात थोड़े ही चलती है उसमें। तुम छोटे बच्चे को एक मिठाई दे देते हो तो तुम उससे उम्मीद करते हो क्या कि वो भी तुम्हें पलट कर देगा? जितनी तुम्हारी सामर्थ्य, तुमने किया, जितनी हमारी सामर्थ्य, हमने किया; और अगर तुम्हें इतनी ही उम्मीद थी कि हम पैसे लौटाएँगे, तो भाई हम पर लगाते मत।

ज़िंदगी, देखो बेटा, ऐसे जिओ कि मरने के लिए हमेशा तैयार रहो। मौत डरावना सपना उन्हीं के लिए होती है जो ठीक से जी नहीं रहे होते; और तुम जितना कमज़ोर जीवन जी रहे हो, मरने से उतना ज़्यादा डरोगे। जीवन समय है, और वो समय तुम्हें मिला है जीवन के आखिरी लक्ष्य को पाने के लिए, और वो आखिरी लक्ष्य है मुक्ति। मुक्ति तुमसे जितनी दूर होगी, तुम उतना तड़पोगे और ज़िंदा रहने के लिए। तुम कहोगे, ‘अभी और समय चाहिए। जिस काम के लिए दुनिया में आए थे वो काम तो अभी पूरा ही नहीं हुआ, तो अभी और समय चाहिए।’ वो काम झटपट पूरा कर लो, फिर मौत के लिए तैयार रहोगे। और जो मौत के लिए तैयार है उसके जीवन में बात दूसरी होती है; उसको तुम डरा नहीं सकते, क्योंकि मौत का डर और बाकी सारे छोटे-मोटे डर एक ही हैं।

जो मौत से नहीं डर रहा, वो किसी चीज़ से नहीं डरेगा।

अंतत: तुम डर तो मौत से ही रहे हो, भले ही एक छिपकली से डरो, चाहे बंदूक से डरो, और चाहे ठंड से डरो, और चाहे अपमान से डरो। अपमान का डर हो या छिपकली से डर हो, ये सारे डर ले-देकर मृत्यु के ही डर हैं; और मृत्यु का डर इसलिए सताता है क्योंकि ज़िंदगी बर्बाद कर रहे हो।

ज़िंदगी ठीक जिओ, फिर ज़िंदगी को खींच-खींचकर लंबा करने की ज़रूरत नहीं रहेगी।

ज़िंदगी चल गई तो चल गई, हम दो-सौ साल भी जी लेंगे। लेकिन अगर ज़िंदगी बीस ही साल में भी कहती है कि हो गया, तो हम भीख नहीं माँगेंगे, कि दो साल और दे दो न। मिल गए तो दो-सौ साल भी ठीक हैं; नहीं मिले तो बीस साल भी।

ये तर्क खतरनाक है, इससे बहुत बचना; आगे की आपदाओं का बहाना लेकर तुम आज का जीवन बर्बाद कर लेते हो, ‘आगे अगर कोई दिक्कत आ गई तो क्या करेंगे?’ आज जैसे तुम जी रहे हो, आगे तो दिक्कत आनी पक्की है; और आज तुम ऐसे जी ही इसलिए रहे हो क्योंकि तुम आगे की दिक्कत का निवारण आज करना चाहते हो। ये तुम देख रहे हो क्या कर रहे हो?

जैसे कि कोई किसी घटिया जगह पर काम करे जहाँ तमाम तरह का धुआँ उठता हो, कार्सिनोज़ेनिक धुआँ, ऐसा धुआँ जिससे कैंसर होता हो, और उससे पूछो कि तू यहाँ काम क्यों कर रहा है। तो वो कह रहा है, ‘मैं इसलिए यहाँ काम कर रहा हूँ क्योंकि आगे अगर कभी मुझे बीमारी होगी तो यहाँ से जो पैसा मिलता है वो काम आएगा।’ पागल, तुझे आगे बीमारी होगी नहीं, तू यहाँ काम करके बीमारी को न्योता दे रहा है; तुझे आगे बीमारी होगी ही इसीलिए क्योंकि आज तू जैसा जीवन बिता रहा है वो बीमारी को आमंत्रित करने वाली बात है।

निश्चित रूप से तुझे दिल का दौरा पड़ेगा आगे, क्यों पड़ेगा — और दिल की बीमारी का इलाज बड़ा महँगा होता है — निश्चित रूप से तुझे दिल का दौरा पड़ेगा, और तब तुझे पैसे की ज़रूरत भी पड़ेगी। पर तुझे दिल का दौरा पता है क्यों पड़ेगा? क्योंकि आज तू जैसा काम कर रहा है वो काम करने के कारण दिल का दौरा पड़ना निश्चित है। आज गलत जीवन क्यों जी रहा है? मैं तो सबसे पूछता हूँ एक ऐसा सवाल जो तुमको लगेगा कि ये क्यों पूछ रहे हैं, ये तो बात ज़ाहिर सी है, ‘हम जीते रहना क्यों चाहते हैं?’

श्रोता: कुछ पाने के लिए।

आचार्य प्रशांत: तो जो पाना है वो पा ही लो न।

हम प्लेटफार्म पर क्यों जाते हैं? ट्रेन (रेलगाड़ी) पकड़ने के लिए। तो जो ट्रेन पकड़नी है, पकड़ लो न, या सौ साल प्लेटफ़ार्म पर खड़े रहोगे, इसमें बड़ी गरिमा है? तुम प्लेटफ़ार्म पर क्यों गए हो? ट्रेन पकड़ने। और एक-एक करके ट्रेन सारी छूटती जाती हैं, छूटती जाती हैं, और तुम प्लेटफ़ार्म पर खड़े हो; तुम ये गिन रहे हो कि मुझे बीस साल हो गए हैं प्लेटफ़ार्म पर। तुम्हें सौ साल प्लेटफ़ार्म पर गुज़ारने हैं या जल्दी-से-जल्दी ट्रेन पकड़कर रवाना हो जाना है?

पर अजीब गणित है। हमको ये ही गिनने में बड़ा मज़ा आता है कि चिरंजीवी भव, दीर्घायु भव, बेटे तेरी उम्र लंबी हो। माने? ‘चालीस साल तड़पता, अस्सी साल तड़पे।’ ये तुम आशीर्वाद दे रहे हो उसे, या श्राप है? पर मूर्खता में आशीर्वाद भी जो दिया जाता है वो श्राप जैसा ही होता है, ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो।’

फिर पूछ रहा हूँ — लम्बी उम्र क्यों चाहिए? बताओ। मैं नहीं कह रहा हूँ कि आत्महत्या कर लो, कि खुद ही मर कटो। देने वाले ने अगर डेढ़-सौ साल जिला दिया तुम्हें, तुम जिओ; पर कामना क्यों है कि मैं सौ साल जिऊॅं? बताओ। ये मूल अहम् वृत्ति होती है, इसको जीवेष्णा कहते हैं। मूल जीव वृत्ति है ये, जिजीविषा, कहती है, ‘मैं किसी तरीके से बस अब जिए जाऊँ। समय में मेरी हस्ती रुकने न पाए।’

मृत्यु का डर यही बताता है कि तुम महामृत्यु से बहुत दूर हो; महामृत्यु को ही मुक्ति कहते हैं, महामृत्यु को ही कहते हैं ट्रेन पकड़ लेना। मृत्यु क्या है? कि प्लेटफ़ार्म पर खड़े रह गए और ट्रेन मिली नहीं। महामृत्यु क्या है? ट्रेन मिल गई। तो मृत्यु का डर उन्हें ही डराता है जिन्हें महामृत्यु नहीं मिली। महामृत्यु जल्दी-से-जल्दी पा लो, उसके बाद बहुत मस्त जिओगे।

श्रोता: उसके बाद क्या है?

आचार्य प्रशांत: ये प्लेटफ़ार्म है, ये ट्रेन है, चढ़ जाओ।

श्रोता: कौन-सी ट्रेन पर?

आचार्य प्रशांत: तुम किसी भी ट्रेन पर चढ़ जाओ, बाबा, प्लेटफ़ार्म पर तो मत खड़े रहो। तुमने तो प्लेटफ़ार्म पर घर बना लिया है। कितने? टू बीएचके।

(सब हँसते हैं)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन जीना मतलब क्या?

आचार्य प्रशांत: जीवन जीना माने जीवन को सार्थक कर लेना।

इस बात को थोड़ा समझिएगा। जीवन का अपना कोई महत्व नहीं है; ठीक वैसे जैसे प्लेटफ़ार्म का अपना कोई महत्व नहीं है, प्लेटफ़ार्म का महत्व तभी है जब वो आपको ट्रेन तक पहुँचा दे। कहीं कोई प्लेटफ़ार्म बनाओ जिसके आगे पटरी ही न हो, उस पर जाओगे? कि प्लेटफ़ार्म भर है, वहाँ न पटरी है न गाड़ी है, जाओगे वहाँ? तो प्लेटफ़ार्म का महत्व सिर्फ़ कब है? जब वो ट्रेन से तुम्हारा परिचय करवा दे, ट्रेन से तुम्हारी मुलाकात करा दे, तुम्हें चढ़ा ही दे ट्रेन पर; तब तो प्लेटफ़ार्म की सार्थकता। ठीक? है कि नहीं?

वैसे ही जीवन की सार्थकता सिर्फ़ तब है जब जीवन तुम्हें उस मूल दुख से मुक्त कर दे जो लेकर पैदा हुए हो। मूल दुख है, ‘होने का दुख।’ मूल दुख है, ‘मैं हूँ ही क्यों?’ उससे मुक्त हो जाओ तो जीवन सार्थक हुआ, नहीं तो व्यर्थ जिए जाने से कुछ नहीं है, कि परदादा जी अब पंचानबे पार कर गए हैं और खऊवाते अभी भी रहते हैं; दाँत सारे गिर गए हैं, पर गाली अभी भी देते हैं।

क्या करोगे आयु को लंबा करके? एक तो पिक्चर घटिया, ऊपर से साढ़े-तीन घंटे की; हालत क्या होगी? बताओ। भागो। ज़्यादातर हमारा जीवन ऐसा ही है कि एक तो पिक्चर घटिया, वो भी साढ़े-तीन घंटे की; अब बैठे हुए हैं और वहाँ चल रही है बकवास, और झेले जा रहे हैं। क्या मार्ग है? मार्ग ये है कि देखो वो मूल दुख क्या है, और वो है तो है ही; उसको देखो, उसका सामना करो, वो मिटने लगता है। वो जैसे-जैसे मिटता जाता है वैसे-वैसे समझो कि तुम्हारी ज़िंदगी शुरू होती जाती है; फिर तुम जिए।

जीवन को सँभालकर रखो तब तक, जब तक मुक्ति नहीं मिल जाती; लेकिन जीवन को सँभालने का उद्देश्य जीवन को लंबा ही करना कभी नहीं हो सकता।

जीवन का उद्देश्य जीवन की लंबाई नहीं है; जीवन का उद्देश्य जीवन से मुक्ति है।

बच्चों को ये मत दो आशीर्वाद कि तुम्हारी उम्र लंबी हो, बच्चों को आशीर्वाद दो कि शीघ्र-अतिशीघ्र मुक्ति मिले तुम्हें। मुक्ति का मतलब ये नहीं होता कि वो मरकर गिर जाएगा। बच्चे को लंबी आयु का नहीं, मुक्ति का आशीर्वाद दो, क्योंकि मुक्ति के बाद ही तो उसका असली जीवन शुरू होगा। मुक्ति से पहले तो बस बंधन हैं, दुख हैं, कलपता जीएगा; घटिया पिक्चर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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