प्रश्नकर्ता: बचपन से ही घर में इन्हें शिक्षा ये दी गयी है कि अच्छे बनकर रहो और सबके साथ अच्छाई करो। बत्तीस वर्ष उम्र के इतने सालों में अपनी समझ से अच्छाई ही अच्छाई करी है। और नतीज़ा इनको हमेशा बुरा मिला है। जिनके लिए भी अच्छा करा, उनसे बदले में बुराई मिली है। दोस्तों से, यारों से, यहाँ तक की अक्सर घरवालों से भी। कह रही हैं कि अब मन टूटने सा लगा है, किसी पर भी भरोसा नहीं किया जाता। मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? जब मैं किसी का बुरा नहीं चाहती तो मुझे बदले में बुराई क्यों मिली?
आचार्य प्रशांत: देखिए, आईशा आप अच्छे कामों और बुरे कामों और अच्छे नतीज़ों और बुरे नतीज़ों की बात कर रही हैं। आप शायद सोचती हैं कि अच्छा काम ये हैं कि अच्छाई करो। और अच्छाई क्या है? कि किसी को सहारा दे दो, माने उससे दो भली बातें बोल दो, किसी को रूपये-पैसे की ज़रूरत हो तो दे दो, कोई और किसी तरह की मदद माँग रहा है, उसको दे दो। और बुरा काम हम क्या समझते हैं?
बुरा काम हम समझते है कि किसी को डाँट दिया, फटकार दिया, किसी की चोरी कर ली, किसी का दिल दुखा दिया, किसी का हक मार लिया। ये सब हम बुरा काम समझते हैं। है न? तो यही एक मानसिक आपका ढाँचा है, एक मेन्टल फ्रेमवर्क (मानसिक ढाँचा) है। उसपर आपने अपनी ज़िन्दगी जी है अपने बत्तीस सालों में। और ये जो आपका फ्रेमवर्क रहा है, ये जो आपके उसूल रहे हैं, सिद्धान्त ये तो ज़ाहिर है कि आपके काम आये नहीं, क्योंकि उन पर चल कर आपको दुख मिल रहा है काफ़ी।
तो कहीं-न-कहीं चूक तो हो ही रही है। अब कहाँ हो रही है? यहाँ हो रही है कि देखिए, बुरे काम ये होते होगें कि किसी का हक मार लिया, किसी का दिल दुखा दिया, किसी के साथ हिंसा कर दी। लेकिन समझिएगा कि दुनिया का सबसे बुरा काम क्या है? और अगर आप समझ गयीं कि दुनिया का सबसे बुरा काम क्या है। तो फिर ये भी आप समझ जाएँगी कि आपको ज़िन्दगी में इतनी बुराई क्यों झेलनी पड़ रही है दूसरों से।
दुनिया का सबसे बुरा काम है—गलत आदमी के साथ अच्छाई करना। गलत व्यक्ति हो, चाहे गलत चीज़ हो, चाहे गलत विचार हो उसको सिर पर चढ़ाकर रखना या उसको बर्दाश्त करते जाना— ये है दुनिया का सबसे बुरा काम। और मैं बहुत आपसे 'आयिशा' (प्रश्नकर्ता का नाम) विचारकर कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ, हत्या, लूटपाट, भ्रष्टाचार, बलात्कार ये सब बुरे काम होते हैं, लेकिन इनसे भी ज़्यादा बुरा काम है जो अयोग्य व्यक्ति हो, जो कुपात्र व्यक्ति हो मतलब समझ रही हैं इनका? (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए) जो अनडिजर्विंग, अनवर्दी (अयोग्य) व्यक्ति हो, उसपर अपनी कृपा, करूणा के फूल बरसाते रहना।
लेकिन हमें संस्कार कुछ ऐसे दिये जाते हैं कि सामने चाहे कोई भी हो, तुम्हारा तो काम है भलाई करते चलो। नहीं, ये बात बिलकुल भी ठीक नहीं है। वजहें समझिएगा— आप अगर गलत लोगों के साथ ही अपनी ऊर्जा व्यय करती रहेंगी, अपना समय लगाती रहेंगी, तो सही लोगों तक आप कब और कैसे पहुँचेंगी? मुझे बताइए। आप कोई असीम समय लेकर तो आयी नहीं हैं, न आपके पास अनन्त ऊर्जा है। थोड़ा सा समय है आपके पास, छोटी सी ज़िन्दगी है और थोड़ी सी ऊर्जा है, एनर्जी।
आप वो सबकुछ किस पर खर्च कर रहीं हैं? और आप अगर गलत जगह पर खर्च कर रहीं हैं, तो आपको सज़ा ये मिलेगी, कई सज़ाएँ मिलेगीं जिसमें से पहली ये है कि सही जगह का आपको कभी कोई अता-पता नहीं लगेगा। आपके आसपास जो लोग थे, आपने कहा, 'ये जैसे भी हैं, यही मेरे परिचय में हैं, मुझे इनके साथ भलाई करनी है।' ये बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है, मीठी लगती है। लेकिन ये वास्तव में बड़ी गड़बड़ बात है।
जो लायक न हो कुछ पाने का, उसको आप बहुत कुछ दे दें। ये आपने बड़ा अपराध कर दिया। मैंने कहा, 'दुनिया का सबसे बड़ा अपराध कर दिया।' और दुनिया में आजतक जो बड़ी-से-बड़ी आफ़तें आयीं हैं, विभिषिकाएँ आयीं हैं, उनकी वजह समझ लीजिए यही रही है कि गलत हाथों को ताक़त मिल गयी है, गलत लोगों को ऊँची जगह मिल गयी है। उसी के कारण दुनिया ने न जाने कितने दुख झेले हैं।
अतीत में महाभारत का युद्ध हो, चाहे हाल में जो विश्वयुद्ध हुएँ हैं, उनको आप देख लें। मूल कारण क्या था? कुपात्र का सत्ता, ताकत वगैरह हासिल कर लेना। वो कैसे चढ़ गये थे ऊपर तख्त के? वो ऐसे चढ़ थे कि कोई था जिसने गलत आदमी को भी गद्दी सौंप दी। जर्मनी में जनता ने हिटलर को बैठा दिया ऊपर, और महाभारत में धृतराष्ट्र ने बैठा रखा है दुर्योधन को ऊपर, और साथ में समर्थन के लिए भीष्म, द्रोण, कर्ण इत्यादि मिल गये हैं।
तो ये बात बाद में आती है कि सही आदमी के साथ अच्छाई करो। ये अच्छे से समझिए बात को। ये बाद की बात है कि सही आदमी के साथ अच्छाई करो। उससे भी पहले की और कहीं ज़्यादा ज़रूरी बात ये है कि गलत आदमी को भेंट, उपहार, तोहफे, सहायता, समर्थन देना बन्द करो। मैं इसे पहले की बात इसीलिए बोल रहा हूँ, क्योंकि अधिकांश लोग इस लायक नहीं होते कि आप उनकी सहायता में लग जाएँ, उनके ऊपर आप मैत्री और करूणा बरसाने लगें।
पहले ऐसे लोगों को नकारना होगा, हटाना होगा। अपनी सूची से उनका नाम काटना होगा, तब जाकर आप उन लोगों को उपलब्ध हो पाएँगी, जिनके साथ जिया जा सकता है। जिनके ऊपर वास्तव में श्रम और समय लगाया जा सकता है जो वास्तव में आपके प्रेम के अधिकारी हैं। देखिए, दुनिया जैसी है, हम जिन माहौलों में पैदा होते हैं। अगर सौ लोग हैं हमारे इर्द-गिर्द तो ये अच्छे से समझ लीजिए कि अट्ठानवे तो उसमें से कुपात्र ही होते हैं। कुपात्र मानें क्या था? अनवर्दी (अयोग्य)। तो माने ज़्यादा सम्भावना यही है कि आप जिसकी भी और देखेगें, वो होगा कोई नालायक किस्म का आदमी ही। फ़र्क नहीं पड़ता कि वो आदमी आपके मोहल्ले का है,आपके समुदाय का है, या आपके घर का है।
तो पहला काम फिर क्या है? सही आदमी की खोज या ये जो अट्ठानवे की भीड़ आपको घेरी हुई है सबसे पहले ये कहना कि नहीं, ये होगें कोई भी, क्या ये इस लायक हैं वाकई कि मैं इनके ऊपर ज़िन्दगी व्यय करूँ? देखिए, मैं आपसे सिद्धान्तों, कोरे नैतिक आदर्शों की बात नहीं कर रहा हूँ। आपने जो कुछ मुझे लिखकर भेजा है, मैंनें उसका बहुत छोटा सा अंश अभी पढ़ा। आपकी ज़िन्दगी बहुत दुख में बीती है और अभी आप बत्तीस वर्ष की अवस्था में बड़े कष्ट से गुजर रही हैं। तो इसीलिए मैं आपसे बहुत सीधी-सादी ज़मीनी बात कर रहा हूँ। पहले उन लोगों को ज़िन्दगी से हटाना पड़ता है जो ज़िन्दगी में होने लायक नहीं हैं। उसके बाद खाली जगह तैयार होती है जिसमें अच्छे लोग आ सकते हैं और आप उन्हें सप्रेम, ससम्मान अपने मन के आँगन में फिर बैठा सकती हैं।
आपके घर में भीड़-ही-भीड़ है, मेला लगा हुआ है गलत, मूर्ख और कपटी किस्म के लोगों का। तो अच्छे आदमी को आप स्थान देंगी कहाँ। पहली बात तो ऐसे लोगों को देखकर वो आएगा नहीं, और आ भी गया तो आप उसे जगह कहाँ देंगी? और फिर आप कहती है कि बड़ा धोखा हो गया, अच्छाई करी, बुराई पायी। और होना क्या था? ये हुई आप की बात कि आपको क्या नुक़सान होता है, जब आप गलत आदमी को तबज़्जु दे देती हैं।
अब और समझिएगा कि जब आप गलत आदमी को पोषण दिये जाते है, ताकत दिये जाते हैं, तो उससे उस आदमी का भी बहुत नुकसान होता है। कोई आपके रिश्ते में है और आप कह रहे हैं चूँकि ये मेरे रिश्ते में हैं, इसीलिए तो मैं इसके सब नाज़-नखरे उठाऊँगा। ये कितना भी नाकाबिल हो, कितना भी वाहियात हो, कितना भी कामचोर हो, कितना भी धूर्त हो, इसको तो मैं न सिर्फ़ बर्दाश्त करूँगा, बल्कि सिर पर बैठाकर रखूँगा।
ऐसी हमारी हो जाती है न भावना, ‘मेरा बेटा है, मेरी बेटी है, या मेरा पति है या मेरा भाई है। ये कैसे भी हो मेरे हैं, तो इनको तो मैं सिर पर बैठाकर रखूँगा।’ आप देखिए, आप क्या कर रहे हैं? आप उस व्यक्ति के प्रति भी अपराध कर रहे हैं, जिसको आप सिर पर बैठा रहे हैं। क्यों? क्योंकि वो जैसा है, वो गलत है और आप उसकी गलतियों को प्रोत्साहन दिये जा रहे हैं। वो सुधरेगा कैसे? मुझे बताइए।
अभी हम महाभारत की बात कर रहे थे। क्या युद्ध का सबसे बड़ा अपराधी स्वयं धृतराष्ट्र नहीं हैं। अच्छे से जानते थे वो कि क्या खेल चल रहा है। उनका सुयोधन, दुर्योधन बना जा रहा है। दिख रहा है उन्हें, खूब दिख रहा है, आँख न होते हुए भी सब दिख रहा है। लेकिन पुत्रमोह में पड़े रहे और इतना बड़ा नरसंहार करवा डाला।
गलत आदमी को जब आप उसकी गलतियों के बावजूद पीठ ही ठोकते रहते हैं, फूल ही बरसाते रहते हैं, तो वो गलत बना ही रह जाएगा। देखिए, अस्तित्व में कर्म और कर्मफल का सिद्धान्त चलता है, उसको बाधित नहीं करना चाहिए। कर्मफल का सिद्धान्त क्या होता है? तुम गलत हो, तुम कष्ट झेलोगे। ये होता है। तुम गलत हो, तुम्हें कष्ट झेलना है। क्योंकि तुम गलत हो। गलत होने का मतलब ही है कष्ट।
अब अगर कोई गलत है और फिर भी आप उसे कष्ट झेलने से बार-बार, बार-बार बचाये जा रहे हैं, मोह के मारे, आत्मीयता के मारे, आशक्ति हो गयी है किसी से और आप उसको बचाये जा रहे हैं। कह रहे है, लाख गलती करे, मैं इस पर कष्ट नहीं आने दूँगा। तो आप उस इंसान के साथ अच्छाई नहीं, बहुत बुराई कर रहे हैं। चोट लगनी बहुत ज़रूरी है, ठोकर खाये बिना नहीं सुधरता इंसान।
आप जिसको भी अपने मोह के सुरक्षा कवच में बाँधे रखेगें, आपने उसकी भलाई नहीं करी, आपने उसका नुकसान ही कर दिया है। वो जो होता है न कीड़ा, वो जब अपनी खोल से अपने कुकून से बाहर आने के लिए संघर्ष करता है, उसी संघर्ष से वो तितली बन जाता है। नहीं तो वो तितली कभी नहीं बन पाता। आसान नहीं होता उसके लिए अपने कुकून से बाहर आना। छोटा सा कीड़ा है, बाहर ऐसा खोल है। तो उसको उससे अपनेआप को रगड़ना पड़ता है अपने शरीर को। उसी रगड़न से उसके पंख खुल जाते हैं। वो तितली हो जाता है।
नहीं तो कीड़ा ही बना रह जाएगा। और आप कहें, नहीं मुझे तो बहुत प्यार है, ये मेरा छोटा भाई है। और आप कहें ये कितना बेचारा संघर्ष कर रहा है, अपना खोल कब तोड़ पाएगा। तो मैं क्या करता हूँ, मैं जाकर अपने हाथों से उसके खोल को तोड़कर कीड़े के लिए रास्ता बना देता हूँ। आप रास्ता तो बना देगें, वो कीड़ा, कीड़ा ही रह जाना है।
बात कुछ समझ में आ रही है आपको?
तो मैंनें दो बातें कहीं आपसे, पहला—आप जब किसी कुपात्र के साथ अच्छाई करते हो, तो आप अपने साथ बहुत बुराई कर देते हो। क्योंकि अब आपने खुद ये तय कर दिया कि आपकी ज़िन्दगी में कोई सुपात्र, कोई बढ़िया आदमी नहीं आ सकता, उसके लिए जगह ही नहीं बचेगी। आप घिरे रह जाएँगे यही बेकार लोगों से। और दूसरी बात मैंनें कही कि आप जब किसी कुपात्र के साथ अच्छाई करते हो तो जिसके साथ अच्छाई कर रहे हो, उसके साथ भी बुराई कर देते हो। क्योंकि अब वो कभी सुधर नहीं सकता, बेहतर नहीं हो सकता।
तो इस बात को बहुत ध्यान में रखिए आगे से। कोई आपकी ज़िन्दगी बीत नहीं गयी, उम्मीद मत छोड़िए। जीवन बहुत ऊँचाईयाँ पा सकता है, बस उसे आप ध्यान से जियें तो। स्त्री हैं आप, और स्त्रियों में ये मोह की भावना थोड़ी ज़्यादा होती है। किसी से रक्त का सम्बन्ध है, कोई घर का है उससे जुड़ाव थोड़ा ज़्यादा हो जाता है। बचिएगा। आपने जो किस्सा लिखा है उसके अनुसार आप वहीं पर चोट खा रही हैं जिन लोगों से आपका रिश्ता रहा है।
रिश्ता वगैरह ठीक है, पहले ये तो देखिए, वो इंसान कैसा है जिससे रिश्ता है। वो इंसान किसी लायक भी है? समझ रहें हैं? तो ये जो चीज़ होती न, बी गुड, डू गुड, डूइंग गुड (अच्छे बनो, अच्छा करो, अच्छा करो) में सबके साथ भला करो, सबके साथ अच्छाई करो। फँस मत जाइएगा। अच्छे के साथ अच्छाई करो और जो बुरा है उसे सुधारने की कोशिश करो। जो जैसा है, उसे उसकी ज़िन्दगी के अनुसार, उसके कर्मों के अनुसार, कर्मफल पाने दो। तुम कब तक उसे बचा लोगे? और जितना बचा रहे हो, उतना उसका नुकसान कर रहे हो। गलत लोगों को जो काबिल नहीं हैं, न तारीफ़ मिले, न ओहदा मिले, न सत्ता मिले, न प्रेम मिले, न पैसा मिले। जब ऐसा होने लगेगा, तो समाज बहुत आगे जाएगा। लेकिन समाज अपनेआप में तो कुछ होता नहीं न। समाज का मतलब होता है, समाज के सारे लोग। समाज के सारे लोगों को इन बातों का खयाल रखना होगा।
सही आदमी को तुम भले ही बहुत तारीफ़ें वगैरह या प्रेम वगैरह न दो, चलेगा। अगर वो वाकई इंसान अच्छा है, सही है, तो उसे बहुत ज़्यादा आप प्रशंसा की या प्रेम की या पैसे की शायद आवश्यकता न पड़े। वो अपनेआप में पूरा होता है। वो कहता है, 'बाहर से कोई आकर मुझे सहारा दे या न दे, काम चला लूँगा।' तो उसको तुम एक बार को न भी दो तारीफ़ वगैरह या पैसा या सत्ता या जो भी है, तो कोई तुमनें बड़ा अपराध नहीं कर दिया। लेकिन बहुत बड़ा अपराध है जब तुम गलत हाथों में ताकत दे देते हो, गलत लोगों को प्रसिद्ध बना देते हो, गलत लोगों को सिर चढ़ा लेते हो, गलत लोगों को ज़िन्दगी ही बना लेते हो।
गलत कौन है? गलत वो है जो तुम्हारे जीवन में जब आये और तुम्हारे मन को गन्दा कर जाए,वही गलत है। जिस भी व्यक्ति के तुम्हारे जीवन में आने से तुम्हारी सोच का स्तर ही गिर जाए, तुम्हारी पूरी चेतना ही दूषित हो जाए- तुम जान लो कि ये आदमी तुम्हारे लिए ठीक नहीं है।
कोई तुम्हारी ज़िन्दगी में आया है और वो तुमसे हर समय बातें करता रहता है, मान लो शरीर से सम्बन्धित। कामुक किस्म का कोई व्यक्ति तुमनें अपनी ज़िन्दगी में घुसैड़ लिया, और वो तुमसे बात ही यही करता रहता है, चाहे आमने-सामने हों, चाहे फोन पर हो, चाहे चैट पर हो, चाहे कहीं हो। वो बात ही देह से सम्बन्धित करेगा। वो तुम्हारी तारीफ़ भी करेगा तो यही तारीफ़ करेगा कि वाह! क्या आप लग रहे हैं। ऐसे से बचना, क्योंकि इसने तुम्हारी सोच में अब सिर्फ़ शरीर, जिस्म भर दिया है। ये आदमी तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। मैं गलत आदमी की पहचान बता रहा हूँ।
इसी तरह जो आदमी तुम्हारी ज़िन्दगी में आये और उसका काम हो कि वो तुमको डराकर, दबाकर रखे, तुम्हारे मन पर दहशत की तरह छा जाए- वो आदमी भी तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। जो आदमी तुम्हारी ज़िन्दगी में आये और कहे कि सोचो नहीं, समझो नहीं, बस जो मैं कहूँ वो मान लो- वो आदमी तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। वो तुम्हारी मानसिक मुक्ति को रोक रहा है।
तो बहुत तरीके के हो सकते हैं, ये जानने के कि कौन तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। हमारा स्वभाव होता है, आनन्द। जो तुम्हारी ज़िन्दगी में डर ही बैठा दे, वो तुम्हारे लिए ठीक नहीं। हमारा स्वभाव है मुक्ति। जो आये तुम्हारे ज़िन्दगी में और तुम्हें बन्धनों में डाल दे, वो तुम्हारे लिए ठीक नहीं। जो हमारी ज़िन्दगी को जटिल बना दे, वो तुम्हारे लिए ठीक नहीं।
'बोध' हमारा स्वभाव है, जो तुम्हें जैसा अभी कहा था, जो तुम्हें सोचने-समझने से ज़्यादा मानने पर मज़बूर करे, वो आदमी तुम्हारे लिए ठीक नहीं। इससे तुम ये भी समझ गये होगे कि कौन तुम्हारे लिए ठीक है? लेकिन कौन तुम्हारे लिए ठीक है, ये मैं तीसरी-चौथी बार दोहराकर कह रहा हूँ, कौन तुम्हारे लिए ठीक है वो बाद की बात है। क्योंकि जो ठीक हैं वो तो सौ में एक-दो लोग होते हैं। ज़्यादा बड़ा और ज़्यादा ज़रूरी और ज़्यादा प्राथमिक काम है पहले उन लोगों को हटाना, नकारना जो ठीक नहीं है। जो ठीक नहीं है, उन्हें हटाओ, क्योंकि वही लोग ज़्यादा हैं, क्योंकि उन्हीं की भीड़ है, क्योंकि वही लोग तुमपर चढ़े आते हैं। पहले इनको हटाओ, इनके लक्षण जानने ज़रूरी हैं कि कौनसे लोगों को अपने आसपास नहीं होने देना है।
सहायता करनी ही है तो, सही आदमी की करो न। भला करना है तो भले आदमी के साथ करो न।
बुरे आदमी के साथ भलाई यही है कि उसको पता तो चले कि बुरे कामों का अंजाम क्या होता है। नहीं तो वो बुरा बना ही रहेगा। अगर बुरे काम के अंजाम में भी बढ़िया फल मिलते हैं, आनन्द मिलता है। तो कोई बुरा क्यों न रहे। अगर बुराई करकर भी जीवन के सब सुख मिलते हों, तो कोई बुरा क्यों न रहे। लोग बुरे रह आएँगे न?
तो बुरे आदमी के साथ अच्छाई यही है कि उसे पता तो चलने दो कि बुराई का अंजाम क्या होता है। अगर उसे ये पता चलने दोगे, अगर उसे उसका कर्मफल भोगने दोगे, तो तुम उसे ज़्यादा बड़ी बुराई करने से रोक लोगे। देखो, तुमनें भलाई कर दी न। और अगर तुमनें उसके छोटे बुरे कामों का ही उसको फल नहीं मिलने दिया कभी, तो फिर तुम क्या कर रहे हो? तुम उसे और ज़्यादा गलत और बुरे काम करने के लिए प्रेरित कर रहे हो, तुम उसे धकेल रहे हो बुराई की खाई की ओर, मत करो ऐसा।
तो कोई ज़रूरत नहीं है वो सब सोचने की कि अनकंडीशनल लव (बेशर्त प्यार) होना चाहिए। या अच्छा इंसान तो वो है जो सबको एक निग़ाह से देखे और सबपर एक बराबर अपने प्यार की बौछार करे। बिलकुल बेकार की बात है ये। न सब एक बराबर होते हैं और न सबको एक बराबर प्यार दिया जाना चाहिए। प्यार बहुत बेशकीमती चीज़ है। उसको दीजिए जो उसके लायक हो। बाकियों को दूसरी चीज़ें दी जानी चाहिए।
कुटिल आदमी को ज्ञान दिया जाना चाहिए कि कुटिलता का अंजाम क्या होता है। मूर्ख आदमी को थोड़ी बुद्धि दी जानी चाहिए। इन सबको अगर आपने तोहफ़े और सम्मान और कुर्सियाँ और प्रशंसापत्र देने शुरू कर दिये तो फिर तो अपने दुख की ज़िम्मेदार आप खुद होंगी।
ठीक है?