दुःख तुमने कोशिश कर करके अर्जित किया है || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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दुःख तुमने कोशिश कर करके अर्जित किया है || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: सर, जैसे जो ख़ोज होती है, वो हमेशा शान्ति की होती है, पर आकर्षण जो हर जगह दिखती है, वो कृष्ण के लिए नहीं है पर कृष्ण के उस शरीर के लिए है। उस छवि में कभी वह शान्ति मिल नहीं पाती, फिर भी मन कितना बड़ा छल कर लेता है कि वह देख नहीं पाता। मतलब एक आशा तो रह जाती है न कि “इस छवि के पीछे भागते भागते ही कुछ शान्ति पा लेंगे” ये धोखा इतना रहता क्यों है? कभी देख क्यों नहीं पाते हैं?

वक्ता: थोड़ा जल्दी मचाइए, थोड़ा शोर मचाइए। छवि ने आपसे वादा किया कि वो आपको कृष्ण के समीप ले जाएगी। ठीक, आप छवि के वायदे में आ गए। ले गयी क्या? नहीं ले गयी न। अब आपको अगर वास्तव में कृष्ण चाहिए, तो आप शोर मचाएँगे, हाथ-पाओं पटकेंगे। आप कहेंगे, “ये तरीका तो नहीं चलेगा।” आपने किसी दुकान से एक बार सामान ख़रीदा और जो ख़रीदा, उससे वो नहीं मिला, जिसका आपको वायदा किया गया था, तो आप चुप-चाप जा कर दूसरी बार ख़रीद लेंगे? और फिर तीसरी बार? और फिर चौथी बार? और पाँच सौंवी बार? अनंत बार?

आप अगर वास्तव में गंभीर हैं कि आपको शुद्ध सौदा चाहिए, तो आप उस दुकान में जाना बंद कर देंगे। आप कहेंगे “ठगता है।” पहली बार ठगे जाने में कोई चूक नहीं हो गयी; माया थी ठग लिया। पर बार-बार अगर ठगे जा रहे हो, तो फिर तुम्हें अपनेआप से ये पूछना पड़ेगा कि, “वास्तव में मुझे शुद्ध सौदा चाहिए भी या मैंने समझौता कर लिया है अशुद्धता के साथ?” एक बिंदु ऐसा भी आता है कि नकली सामान के इतने आदि हो जाते हो कि असली मिले भी, तो भी नहीं लेते। आता है एक मौका ऐसा।

मेरे एक परिचित थे, उनका पहाड़ो पर घर था। वह जब भी घर जाते थे, उनकी तबियत और पेट सब ख़राब हो जाते थे, बोलते थे, “यहाँ की हवा में वो मज़ा ही नहीं आता, जो दिल्ली की हवा में है। नशा हैडीजल के धुंए में, यहाँ आता हूँ, तो ऐसा लगता है फेफड़े सूख गए। अरे! यहाँ का दूध गायों का इतना गाढ़ा है कि बदहज़मी हो जाती है, शहर का दूध बढ़िया होता है, वो दूध होता ही नहीं।” उसकी आदत लगी हुई थी। और ये कोई मज़ाक की बात नहीं है आप देखिएगा। “यहाँ का पानी ये कोई पानी है, नक्लोरीन है न*केमिकल*है। पौष्टिकता कहाँ है इसमें? वो वैल्यू एडेड पानी होता है, उसमें पानी के साथ इतने सारे केमिकल भी दिए जाते हैं शहर में।”

हममें से अधिकांश लोगों की यही स्थिति है। इतनी बार ठगे गए हैं, इतनी बार ठगे गए हैं कि ठगे जाना हमारी आदतों में शुमार हो गया है। और अब अगर कोई ठगे नहीं, तो वो ठग लगता है। जो ठगे, वो घर का लगता है, परिचित, अपना। और जो ही न ठगे, उस पर संदेह होता है, “अच्छा ठग नहीं रहे हो, लगता है बड़ी लूट का इरादा है।”

आज आपके सामने कोई चाकू निकाल कर खड़ा हो जाए और कहे “अपना सब दे दो, रुपया, पैसा, फ़ोन, घड़ी।” आप दे दोगे, क्योंकि बड़ी ईमानदारी का सौदा है। आप कहोगे “ये तो पूरी दुनिया में हो ही रहा है। मेरे साथ घर में भी यही होता है, चाक़ू के ज़ोर पर काम कराया जाता है और दफ्तर में भी यही होता है और बाज़ार में भी यही होता है। आप कहोगे “ईमानदारी की बात है। यह तो बिल्कुल बिज़नस कॉन्ट्रैक्ट की तरह है कि तुम इतना दोगे और हम बदले में तुम्हारी जान छोड़ देंगे।” कोई आपको दिक्कत नहीं होगी।

और उसी सुनसान राह पर आप चले जा रहे हो और अचानक कोई पीछे से आए और कहे कि “बिना क़ीमत के, बेशर्त, मुफ़्त मैं तुम्हें ये सब दिए देता हूँ” और आप उसको जानते नहीं, आप समझ ही नहीं पा रहे, क्या कारण होगा कि वह आपको इतना कुछ दे दे, न्योछावर कर दे? आप सर पर पैर रख के भागोगे। आप कहोगे “वह तो ईमानदार था, छोटा मोटा ठग था, उसने सीधे बता दिया कि प्राणों के बदले में इतना पैसा। यहाँ घपला कुछ ज़्यादा बड़ा है” ऐसी आदत हो गयी है। अब परमात्मा तो ऐसे ही मिलता है न, “चलते-चलते यूँ ही कोई मिल गया था।”

वह मिल जाता है और वह जब देता है, तो आप कहते हो “इससे बड़ा ठग नहीं होगा। यहाँ है असली गड़बड़, भागो।” भागते जाते हो, वहाँ पर वो चाक़ू वाला फिर से मिल जाता है, उससे कहते हो “भईया, तुम्हारा चाक़ू कहाँ है?” भईया नहीं बोलोगे तो प्राण परमेश्वर बोलोगे, प्रियतम बोलोगे, बेटा बोलोगे, मित्र बोलोगे, प्रिय बोलोगे, सखी बोलोगे, माँ या पिता बोलोगे, यही सब तो हैं और कौन है? गुरुदेव बोलोगे, यही सब तो है, पुजारी जी।

श्रोता: सर, आपने बोला कि “अगर वास्तविकता में चाहिए और इधर आपने फिर बोला था कि हम हमेशा शान्ति की ख़ोज में रहते हैं” यह अगर चाहिए और शान्ति की ख़ोज में है…

वक्ता: जीना चाहती हो या नहीं? हाँ या न?

श्रोता: हाँ।

वक्ता: तुम्हारे शरीर का रेशा-रेशा कायम रहना चाहता है, तो फिर ऐसा कैसे हो जाता है कि जो कैंसर की सेल होती हैं, वो जल्दी ही मरने भी लगती हैं, फैलने भी लगती हैं और अपने आस पास की कोशिकाओं को मारना भी शुरू कर देती हैं? भाई, जब जीना ही चाहते हैं, तो हमारी ही कोशिकाएं ऐसा बर्ताव क्यों करने लग जाती हैं? जवाब दो? तुमने सवाल पूछा कि एक ओर तो आप यह कह रहे हैं कि हम सब के प्राणों की प्यास हैं कृष्ण, दूसरी ओर आप यह भी कह रहे हैं कि जब कृष्ण मिल जाते हैं अनायास ही रास्ते में, तो हम सर पर पाओं रख के भाग लेते हैं।”

तो तुम पूछ रही हो कि “ये अंतरविरोध कैसे?” मैं पूछ रहा हूँ, तुम्हारे शरीर में ये विरोध कैसे है? एक ओर तो तुमको ज़रा सी चोट लग जाए, तो तुम्हारा शरीर विद्रोह कर देता है; करता है या नहीं करता है? तुम्हारे शरीर के किसी हिस्से पर दबाव पड़ रहा होगा थोड़ी देर में वहाँ दर्द होगा, ये दर्द शरीर का विद्रोह है। तुम्हारे शरीर में ज़रा खरोंच आ जाए, ज़रा खून आ जाए तो कोशिकाएं जल्दी से आकार के उस स्थल को ढक लेती हैं। ये शरीर का आत्मरक्षण है।

दूसरी ओर वही शरीर तुम्हें पता भी नहीं चलता भीतर ही भीतर कैंसर बन के अपनेआप को खाना शुरू कर देता है, ये अंतरविरोध क्यों? (एक श्रोता को अंगित करते हुए) ये अंतरविरोध दिख रहा है? जो शरीर आत्मरक्षा के लिए इतना तत्पर रहता है, वही शरीर अपनेआप को ही खाना क्यों शुरू कर देता है? यही स्थिति हमारी है, एक ओर तो हम आत्मरक्षा के लिए और कृष्ण के लिए बड़े तत्पर हैं, और दूसरी ओर जब कृष्ण मिलते हैं, तो जान बचा के भग लेते हैं। बीमारी है, स्वास्थ का अभाव है।

कैंसर में भी देखो होता क्या है? जो कोशिका है, जो सेल है, वो वास्तव में जल्दी से मरना नहीं चाहती, वो जानती हो क्या कोशिश कर रही है? वो फैलना चाहती है, ज़रा महत्वाकांक्षी है, उसे जीवन में बहुत कुछ चाहिए, विस्तार करना है उसे अपना, कहीं से एम्.बी.ए करी होगी, किसी मल्टी नेशनल में ट्रेनिंग ले के आई होगी, तो यही जानी है कि “इतना क्या इंतज़ार करना कि हर बीसवें दिन अपना विस्तार करो, अपना विभाजन करो।” जहाँ विस्तार और विभाजन बीसवें दिन होना है, उसका हर दूसरे दिन होना शुरू हो जाता है।

और यही तो बीमारी है न कि तुम अपना स्वभाव भूल गये और अपने स्वभाव से हट कर तुमने कुछ और करना शुरू कर दिया, इसी का नाम तो बीमारी होता है। जो काम हर बीसवें दिन होना था, तुमने हर दूसरे दिन शुरू कर दिया, यही कैंसर है, यही हमारी आध्यात्मिक बीमारी है। पाने की लालसा इतनी ज़्यादा है कि पाने से दूर छिटकते जाते हो। देखो, तुम्हारा जो पूरा जैविक यंत्र है, ये शरीर, ये लगातार अपने विस्तार, अपने उन्नयन, अपने कोन्टीन्युएस की कोशिश कर ही रहा है। वही कोशिश जब श्रद्धाहीन हो जाती है, जब बावरी हो जाती है, तो कैंसर कहलाती है।

कैंसर और कुछ नहीं है, फैलने की बेसुध कोशिश का नाम कैंसर है। जो काम अपनेआप हो जाता, जो हो ही रहा था, उसको तुम और जल्दी करना चाहते हो – इसी का नाम कैंसर है। और ये कर के ख़ुद तो मरते ही हो, अपने पड़ोसी को भी मार देते हो। श्रद्धाहीनता: मिल भी जाते हैं कृष्ण, तो ठग लगते हैं, श्रद्धाहीनता। शरीर इन कोशिकाओं को लगातार संदेशे भेजता है, स्मरण कराने की कोशिश करता है कि “देखो तुम लोग गलत कर रही हो।” जानते हो, शरीर स्वयं भी कैंसर से लड़ने की कोशिश करता है। एक आध मामले ऐसे भी सामने आते हैं, जिसमे कैंसर स्वत: ही ठीक हो गया।

वो वही है कि (सर की तरफ़ इशारा करते हुए) यहाँ गुरु बैठा है और लीवर में कैंसर फ़ैल रहा है, उसने याद दिलाया उन्हें बार-बार कि, “क्यों बेसुध हुए जाते हो? क्यों परेशान और बेचैन हुए जाते हो? क्यों इतनी तेज़ी से अपना विभाजन और अपना विस्तार कर रहे हो?” और उन कोशिकाओं को कुछ याद आ गया, वो अपने स्वभाव में वापस लौट गयीं, कैंसर अपने आप ठीक हो गया, पर ऐसा लाखों में किसी एक मामले में होता है।

तो याद दिलाया जाता है, पर विशवास ही नहीं है, भरोसा ही नहीं है; अपनी अक्ल पर ज़्यादा भरोसा है न। वह कोशिका कहती है नन्ही सी, “हम जानते हैं सब, हमें न बताओ। हमारी ज़िन्दगी छोटी सी है, उसमें हमें कुछ हासिल करना है कि नहीं? हमें यही बताया गया था कि जीवन का अर्थ है यह पाना, और वह कमाना” अपनी अक्ल और अपनी होशियारी के हिसाब से कैंसर की कोशिका बड़ी चतुर है। और बाकी कोशिकाएं उसे बड़ी ईर्ष्या में देखती होंगी, कि “ये देखो हमें एक से दो होने में बीस दिन लगते हैं और इसने हंड्रेड परसेंट ग्रोथ दो ही दिन में पा ली। इसका *ग्राफ*तो बड़ी तेज़ी से ऊपर जा रहा है, जल्द ही *आई.पी.ओ*लेकर आ जाएगी। इतना मुनाफ़ा! दो दिन में सौ प्रतिशत।”

और इधर से-उधर से शरीर में और भी चीज़े होती होंगी, जो उसको संदेशे भेजती होंगी, “हाँ, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो हम *इन्वेस्टर*लोग हैं, आगे बढ़ो।’’ और होते होंगे कुछ राजनेता उधर देहरत्न, कोशिका विभूष्ण देते होंगे। और उसका उत्साह चौगुना, और जो आस-पास की कोशिकाएं हैं, वो देख रही हैं और वो जलन के मारे बखुरी जा रही हैं। उन्होंने कहा “हम भी यही करते हैं।” अब इसने किताब लिख दी *‘हाउ टू मल्टीप्लाई फ़ास्ट। ’* कैंसर का जो मेटास्टेटिस होता है, वो पता है न क्या होता है? (पेट की तरफ़ इशारा करते हुए) एक हिस्से में हुआ है शरीर के (सर को इंगित करते हुए) दूसरे हिस्से में फ़ैल गया। अब दूसरे हिस्से में क्या था? वहाँ तक ख़बर पहुँची और वहाँ माँ-बाप बैठे हैं, तो उन्होंने कहा “अच्छा, वहाँ ऐसा हो रहा है। कैसे हो रहा है?” वो बोला “वो एम्.बी.ए कर के आई थी। और तब से उसने फैलना ज़्यादा सीखा है।”

(सर की तरफ़ ऊँगली करते हुए) तो वहाँ से पिता जी ने यहाँ वाले को सिखाया कि “तुम भी एम्.बी.ए करो।” तो (पेट की तरफ़ इशारा करते हुए) यहाँ का कैंसर (सर को इंगित करते हुए) यहाँ पहुँच गया। (मुस्कुराते हुए) अब ग्रोथ रेट तो यही होता है। स्वास्थ बिना माँगे मिला हुआ है, सत्य बिना माँगे मिला हुआ है, उसकी माँग ही तुम्हें उससे दूर ले जाती है। बात समझ में आ रही है?

हर माँग तुम्हें उससे दूर ले जाएगी , जो बिना माँगे उपलब्ध ही है।

इससे अधिक घातक विचार, मनुष्य के मन में डाला नहीं गया कि ‘अपनी देख भाल, अपनी *वेलफेयर*के लिए तुम खुद ज़िम्मेदार हो।’ इससे अधिक विषैला विचार मनुष्य के मन में कभी डाला नहीं गया। और हमने इस विचार को बहुत मूल्य दे दिया है। इसी को कर्ताभाव कहा जाता है।

तुम इसऑब्लिगेशन , इस कर्तव्य के साथ नहीं पैदा हुए हो कि तुम आगे बढ़ो, यहाँ तक कि तुम पर ये दायित्व भी नहीं है कि तुम अपनी देख भाल करो। जब मिट्टी से तुम पैदा हो गए, तो मिट्टी तुम्हारी देख भाल भी कर लेगी। जब इतना परम चमत्कार घटित हो गया कि तुमको साँस लेने के लिए हवा, पीने के लिए पानी और खाने के लिए अन्न मिल गया, तो तुम्हें क्यों लगता है कि जीने के लिए तुम्हें बहुत कुछ करना पड़ेगा?

पर मूढों ने, जिन्हें अस्तित्व पर भरोसा नहीं था, उन्होंने ये कुप्रचार खूब फैलाया है कि “देखो तुम यूँ ही दुनिया में आ गए हो और दुनिया ज़रा खतरनाक और विरोधपूर्ण जगह है। अब तुम्हें जीने के लिए बड़े यत्न करने हैं, और कुछ हासिल करने के लिए बड़ी कोशिशें करनी हैं।” न तुम्हें जीने के लिए यत्न करने हैं, न तुम्हें हासिल करने के लिए कोशिशें करनी है। और कोशिश करने का बड़ा शौक है, तो कोशिश करो कि कोशिश कर-कर के जो इक्कठा करा है, उससे मुक्त हो सको।

तुम्हारा पूरा जीवन कोशिशों से भरा हुआ ही तो रहा है, और जो कुछ है तुम्हारे पास, वो तुमने कोशिशों से ही तो अर्जित किया है। और दुःख के अलावा तुम्हारे पास है क्या? कोशिश कर कर के, वही तो अर्जित किया है न? तो अगर कुछ करना ही है तो इतना करो कि जो अर्जित किया हुआ है, उससे मुक्त हो जाओ। कोशिश कर-कर के और अपना विस्तार मत करो, और अर्जित मत करो। जो अर्जित कर लिया वही बहुत बड़ा दुःख है; अब और इकट्ठा करना चाहते हो क्या? बुद्धि एक दम ही उल्टी है?

अभी तक तो कैंसर इक्कठा करा है, उससे मन नहीं भर रहा? अभी और चाहिए? और दूसरों को भी यही शिक्षा दे रहे हो। अपना जीवन देखो न, तुमने खूब कमाया न? तुमने मन को तमाम तरह की सामग्री से भर लिया न? ईमानदारी से पूछो अपने आप से, आनंद है? शान्ति है? प्रेम का कतरा भी है? और नहीं है, तो कम से कम दूसरी कोशिकाओं पर दया करो, अपने बाल-बच्चों पर दया करो। उनको क्यों भ्रष्ट करते हो? उनके मन में क्यों उन मूल्यों को स्थापित करते हो?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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