प्रश्नकर्ता: इसमें हमने देखा कि जो हमारे अपनी मानसिक धारणाएँ हैं, उसी कारण कई समस्याएँ हैं; पर बगैर मेन्टल कंस्ट्रक्ट्स (मानसिक धारणाओं) के जीवन कैसे जी सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: ये क्या है?
प्र: ये भी एक कंस्ट्रक्ट (धारणा) है; इस अर्थ में कि हम जैसे देखते हैं।
आचार्य: साधारणतया लगता है कि यही देखा, तो प्रतीत होता है कि इसके बिना ज़िन्दगी हो ही नहीं पाएगी। कैसे पता कि नहीं हो पाएगी?
पहली बात तो (यह कि) इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि इसके बिना जीवन नहीं है। और दूसरी बात; इस बात में कोई शान्ति नहीं कि आप इसके साथ ही जिये जाएँ। इसके साथ जीने में कोई शान्ति नहीं और इसके बिना जीवन के न होने का कोई प्रमाण नहीं है; तो रुकने का क्या कारण है? मात्र डर। मात्र ये कि इसमें भले ही अशान्ति है, ऊब है; पर जो कुछ है, वो धारणाबद्ध तो है। जो कुछ है, वो जाना-पहचाना है, पूर्वनियोजित तो है। चोट लगती है, पर जानी-पहचानी सी चोट लगती है न, तो सह लेते हैं। अब पता होता है कि चोट भी लगेगी, तो एक सीमा पार नहीं करेगी। जब इसके अतिरिक्त किसी और चीज़ का ख़याल करते हैं, तो डर उठता है।
इस डर को समझिए। अभी आप जिन तरीक़ों से जी रहे हैं — आपने मेन्टल कंस्ट्रक्ट्स , मानसिक धारणाओं की बात करी — अभी आप जिन तरीक़ों से जी रहे हैं, उनमें कुछ विस्फोटक नहीं है। संस्कारों से, सामाजिक व्यवस्थाओं से, नियम-क़ायदों से हमें कुछ सुविधाएँ मिली हुई हैं। चोट लगती तो है, पर ज़ोर की नहीं लगती है। ज़ोर की अगर लग जाए, तो उसके इलाज मौजूद हैं। कोई आ जाता है सांत्वना देने, कोई आ जाता है मलहम देने। तो अभी जैसा हमारा संस्कारित, सुनियोजित, सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध, सामाजिक, मानसिक जीवन है; उसके दो चिन्ह हैं, दो उसकी विशेषताएँ हैं। पहली; उसमें चोट लगती है। दूसरी; उसमें चोट के भी दायरे हैं। जैसे उसमें हर चीज़ के, हर भावना के, हर विचार के, हर रिश्ते के दायरे हैं, वैसे ही उसमें चोट भी सीमित है। ‘मन’ माने सीमा। मन माने वो सब-कुछ जो इधर से, उधर से, अतीत से, समाज से आयातित है। मन का सबकुछ सीमित है। तो जब आप मन पर चलते हो, तो जो चोट लगती है, वो सीमित होती है।
दो बातें — पहली, चोट लगती है; दूसरी, चोट सीमित होती है। समाज आपको कभी इतना चोटिल नहीं होने देता कि आप बिखर ही जाएँ। तमाम तरीक़े के सुरक्षा तंत्र हैं। आप गिरते तो हो, पर जाल बिछे रहते हैं जो आपको थाम लें। गिरकर के सीधे ज़मीन से टकराओ और बिखर ही जाओ; ये नहीं होने दिया जाता। इन दोनों बातों को एक साथ देखिएगा। तो मामला बुरा-बुरा तो चलता है, पर बहुत बुरा कभी नहीं होने दिया जाता। ये है एक आम, समायोजित, सामाजिक आदमी का जीवन — बुरा, लेकिन कभी भी बहुत बुरा नहीं। क्योंकि बहुत बुरा हुआ तो क्रान्ति हो जाएगी। बहुत बुरा हुआ तो वो चिल्ला उठेगा, छिटक जाएगा, विद्रोह कर देगा।
अब इस मन से — ऐसा मन जो सीमित दर्द में जीता है — इस मन से आप ये कल्पना भी करते हो कि अगर मैं इस मन के पार चला गया, तो क्या होगा। आप अध्यात्म की विषय-वस्तु को कल्पना के क्षेत्र में ले आते हो। ठीक है? जब भी कोई आपके सामने बैठता है और उसके शब्द सत्य से निकलते हैं, तो उन शब्दों के बारे में आप सोचना शुरू कर देते हो। सोचोगे तो क्या सोचोगे? सोचोगे तो अतीत से ही सोचोगे। सोच तो पंगु होती है। उसको चलने के लिए इधर से, उधर से, पीछे से सहारा चाहिए। आप आगे का भी सोचोगे, तो उसका आधार वही होगा जो आपका पीछे का अनुभव है। पीछे के अनुभव में लगातार क्या रही हैं? चोटें। पर कैसी चोटें?
श्रोतागण: सीमित।
आचार्य: सीमित चोटें। क्योंकि पीछे का सारा अनुभव चोट का है, इसीलिए आपका ख़याल चोट से आगे कभी जाता ही नहीं। आप जब भी कल्पना करते हो — आप प्रयोग करके देख लीजिएगा — आप दो ही चीज़ों की करते हो; या तो ये कि चोट लगेगी, या तो ये कि चोट नहीं लगेगी। जब चोट लगती है, तो उसको आप पीड़ा बोलते हो, ‘दुख’। जब चोट नहीं लग रही होती या कम लग रही होती है, तो उसको आप बोलते हो ‘सुख’। तो हम जिसको सुख भी बोलते हैं, वो और कुछ नहीं है, वो हमारी पीड़ा का कम हो जाना है, अपेक्षतया कम हो जाना है। ऐसा नहीं है कि वो आनन्द है। ऐसा नहीं है कि उसमें दुख की समाप्ति हो गयी है। दुख की समाप्ति नहीं हो गयी है। दुख की उच्चता, दुख की मात्रा, दुख का आवेग ज़रा कम हो गया है। तो हम तुलनात्मक रूप से कम दुख को सुख का नाम दे देते हैं। जाना हमने सिर्फ़ दुख है, जाना हमने सिर्फ़ चोट है, जानी हमने सिर्फ़ पीड़ा है। अब आप जब आगे की सोचना शुरू करोगे, तो ऐसा मन जो जानता ही सिर्फ़ पीड़ा है, वो आगे के बारे में भी सोचेगा तो क्या सोचेगा? पीड़ा ही सोचेगा न? उसकी सारी भाषा, उसकी सारी ज़मीन, उसकी हवा, उसका पूरा व्यक्तित्व ही पीड़ा है।
तो आप जब कल्पना करने बैठते हो कि, ‘यदि मैं जैसा हूँ वैसा न रहूँ, यदि पूर्ण रूप से तिरोहित हो जाऊँ, यदि सब बदल ही जाए, यदि जो जैसा चल रहा है उसका पूर्ण विसर्जन हो जाए, तो क्या होगा?’ और ये सोचने के लिए आपको मजबूर किया जाता है। सामान्यता आप ये सोचना नहीं चाहेंगे, क्योंकि जो चल रहा है, वो बुरा तो है, पर बहुत बुरा नहीं है। तो उसे आप पूरी तरह से छोड़ने का विचार कभी करते नहीं। आपको विचार यह रहता है कि इसको ज़रा सुधार दें। जो आम मन होता है, वो क्रान्ति का विचार नहीं करता; वो सुधारने का विचार करता है। वो ये नहीं कहता कि छोड़ो। वो कहता है, ‘बेहतर करो, आगे बढो, तरक़्क़ी करो, प्रगति करो।’ यही कहता है न?
तो ऐसे मन के सामने जब शास्त्र आते हैं, या कोई मेरे जैसा आता है, जो कहता है, ‘न, सुधार नहीं पाओगे। ये बात सुधारने से आगे की है। बहुत बढ़ चुका है मर्ज़। इसकी कोई दवा नहीं होती है।’ तो आप कहते हो, ‘ठीक है। आप मजबूर करते हो, तो हम सोचते हैं। हम सोचते हैं कि यदि ये जीवन न रहा, तो कैसा जीवन होगा।’ अब आप सोचने बैठते हो, अब आप सोचने बैठते हो। और ये मन क्या है जो सोच रहा है? ये वो मन है जो लगातार चोट में जिया है, जो लगातार चोट में जिया है। तो ये जब सोचेगा, तो क्या सोचेगा? चोट ही सोचेगा। अभी तक चोट में जिया है; लेकिन सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक, तमाम तरह की संस्थागत सुरक्षा की छाया में जिया है। बहुत बुरा लगेगा, तो रिश्तेदार हैं; वो आकर के ढाँढस बँधा देंगे। बिलकुल भुखमरी की नौबत होगी, तो दोस्त-यार हैं; वो कुछ खिला देंगे। प्रेम कहीं नहीं पाऊँगा, तो भी कुछ लोग हैं जिनके पास जाऊँगा, तो वो कम-से-कम प्रेम के नाम पर सांत्वना दे देंगे। ठीक?
अब ये मन है जो आगे की सोच रहा है। इस मन से कहा जा रहा है, ‘नहीं, नहीं, नहीं। तुमने अपनी सुरक्षा के लिए जितनी व्यवस्थाएँ बनायी हैं, जितने जाल बुने हैं, जितनी दीवारें और दरवाज़े खड़े करे हैं, जितने चौकीदार बैठाये हैं, जितने कवच पहने हैं इत्यादि।’ तो ये मन कहेगा, ‘देखो, चोट तो लगनी ही है।’
अब इस मन को किसी शास्त्र ने, किसी स्थिति ने, किसी गुरू ने कहा है कि अपना सुरक्षातंत्र छोड़ो, ये दीवारें हटाओ, इन व्यवस्थाओं से मुक्त हो जाओ; तो ये कह रहा है, ‘देखो, जीवन चोट है। और इसका प्रमाण हमारे पास ये है कि हमने चोटों के अलावा हमने कभी कुछ पाया नहीं। और अब ये साहब हमसे कह रहे हैं कि तुम अपना कवच उतार दो, तुम अपनी सुरक्षाएँ फेंक दो।’ तो तत्काल रूप से आप क्या निष्पादित करते हैं? कि चोट तो लगनी ही लगनी है। और इन्होंने कह दिया कि जो तुम्हें चोट से ज़रा बचा देता था — ताकि सीमित चोट लगे — तुम उसको भी हटा दो। तो इसका मतलब है कि अगर इनकी बातें सुनीं, तो आगे बहुत ज़ोर की लगेगी। ये आपकी मानसिक प्रक्रिया है।
पर यदि आपकी बुद्धि तीक्ष्ण नहीं है, आपकी दृष्टि सूक्ष्म नहीं है, आप अन्धकार को गहराई से नहीं भेद पाते, अगर आप मन की छुपी हुई चालों को नही समझ पाते हो, तो आप झाँसे में आ जाएँगे। आप तुरन्त मेरी कही हुई बातों के विरूद्ध खड़े हो जाएँगे। उनको आन्तरिक रूप से अस्वीकार कर देंगे। बाहर-बाहर भले ही सिर हिलाते रहें, भीतर से अस्वीकार करेंगे। आप कहेंगे, ‘न! इनकी पर चले, तो बहुत ज़ोर की लगेगी। इनकी पर चले तो इतना कष्ट मिलेगा कि मृत्यु तुल्य, जीने ही नहीं पाएँगे।’ ये हमारी मानसिक प्रक्रिया होती है। और इसीलिए हम बार-बार ये सवाल करते हैं कि, ‘आश्वासन दो, गारन्टी दो, पक्का बताओ। मानी तुम्हारी बात, तो धोखा तो नहीं खाएँगे? कोई नुक़सान तो नहीं होगा? सुख ही मिलेगा न?’
अब कैसे कहूँ कि सुख मिलेगा? क्योंकि आपका सुख तो दुख की छाया मात्र है। तो झूठ बोलूँगा, अगर कहूँगा कि इन बातों को सुनोगे तो सुखी हो जाओगे। इसीलिए तर्क से समझाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। जिन्हें समझ में आना होता है, उन्हें तर्क से नहीं, प्रेम से समझ में आता है। उनको सहज विश्वास हो जाता है। उनसे कारण पूछेंगे, तो वो नहीं बता पाएँगे। उनसे आप पूछेंगे कि क्यों मान रहे हो; नहीं बता पाएँगे। आत्मा का कोई कारण होता है क्या? प्रेम की कोई वजह? तो कोई कैसे बताएगा? और जिन्हें भी बात समझ में आयी है, ऐसे ही समझ में आयी है। बस आ गयी है यकायक, अचानक। और जब वैसे समझ में आती है, तब सन्देह बचते ही नहीं है। ऐसा नहीं कि सन्देहों का निवारण हो गया या उत्तर मिल गये, सन्देह बचते ही नहीं। जहाँ प्रश्न ही अवैध हो, वहाँ उत्तर किस काम का? जहाँ सन्देह का उत्तर देना सन्देह को वैधता देने जैसा हो, वहाँ उत्तर देना बड़ा गड़बड़ है।
सोचिए मत। आगे की सोचेंगे, तो अंजाम सिर्फ़ एक होगा कि आगे भी वही होगा जो अभी तक होता आया है। बाक़ी आपके ऊपर है। आप बेशक कह सकते हैं कि, ‘साहब, हमें कोई आपत्ति नहीं है। थोड़ी-थोड़ी ही तो मार खाते हैं। तीन चाटें सुबह, चार झापड़ रात को। ठीक है, इतनी मात्रा में हम झेल लेंगे। हमने समझौता किया है कि जब तक दहाई में आँकड़ा न पहुँचे, तब तक कितने भी चाटें मारो, ठीक है। शून्य से नौ तक ठीक है। तो जो हमें समाज से सुख-सुविधाएँ मिलती हैं, सुरक्षा मिलती है; उसकी एवज में अगर चोट लगती है, प्रेम की बलि चढ़ती है, मुक्ति के पंख कटते हैं, तो कोई बात नहीं।’
प्र: तो ये समाज एक वस्तुतः चीज़ थोड़े ही है? ये भी तो कपोल-कल्पित ही है?
आचार्य: आपके लिए नहीं है। कल्पना से डरेंगे क्यों? देखिए कि दायरों को तोड़ते हुए कैसे पसीने छूटते हैं। उस क्षण यदि पता हो कि कपोल-कल्पित है, तो ऐसे रूह काँपे आपकी? देखिए कि वर्जनाओं का उल्लंघन करते हुए दिल कैसे सहम जाता है। यदि पता ही होता कि सब कपोल-कल्पित है, तो इतना घबराते?