दुःख छूटता क्यों नहीं? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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दुःख छूटता क्यों नहीं? || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: अहंकार ही है अगर स्वयं को जानने वाला, तो वो स्वयं को क्यों गिराएगा? ये तो अहंकार ही कहता है कि ये सब बेकार है, मैंने जान लिया, अब इसको गिरा दो| तो अहंकार स्वयं को क्यों गिराएगा?

वक्ता: कष्ट किसको हो रहा है?

श्रोता १: सर, अगर गिरा भी दिया तो अहंकार तो और ज़्यादा बढ़ जाएगा कि ‘मैंने’ गिरा दिया|

वक्ता: किसको गिराएगा अहंकार?

श्रोता १: जिससे समस्या है|

वक्ता: और अहंकार क्या है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): स्वयं एक समस्या |

श्रोता २: अहंकार अपने आप को क्यों गिराएगा?

वक्ता: कष्ट किसको हो रहा है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): अहंकार को|

वक्ता: कोई तुममें बड़ा परमार्थ नहीं जाग जाता है कि तुम गिराना चाहते हो| हाथ में गरम कोयला है, उसे कोई क्यों गिराता है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): नहीं गिराया तो हाथ जल जाएगा|

वक्ता: क्यों अहंकार को गिराना चाहते हो? इसलिए कि दुनिया का कल्याण होगा? विश्वशांति हेतु? हाथ में जलता हुआ कोयला है, उसे क्यों छोड़ते हो? हाथ जल रहा है, तुम्हारा ही जल रहा है|

श्रोता २: पकड़ भी तो हमने ही रखा है|

वक्ता: जल भी रहे हो| इतने अचरज से मत देखो | कल कितने कीड़े देखे थे, रात में| वो क्या करने आ रहे थे? क्या करने आ रहे थे?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जलने आ रहे थे, (हँसते हुए) दीवार में सिर मारने, रोशनी में सिर मारने|

वक्ता: तो ऐसे मत देखो| पता है फिर भी कर रहे हैं| जानकारी है, उसकी समझ नहीं है| कर रहे हैं, ठीक है| कोयला है हाथ में, हाथ जल रहा है, फ़िर भी पकड़े हुए हैं| सबकी कहानी यही तो है|

कहानी ये नहीं है कि हाथ में जलता कोयला पकड़ रखा है और छोड़ने को राज़ी नहीं है| कोई है यहाँ पर ऐसा जिसकी ये कहानी न हो? और ऐसा भी नहीं है कि तुम्हें पता नहीं है कि ये कोयला है| सबको अच्छे से पता है| कोयला पकड़ के बैठे हो| अपने क़त्ल का सामान हम साथ ले कर फिरते हैं |

श्रोता २: सर, छोड़ने की इच्छा भी हो तो भी हम आदत से मज़बूर होते हैं|

वक्ता: हम आदत से मज़बूर हो जाते हैं| तभी कहा था ना कि मन का भाव बदलो| मन में ये अहंकार का भाव गहराई से बैठ गया है| मन में यह भाव गहराई से बैठ गया है| और उसने अन्दर आकर क्या कर लिया है? दरवाज़ा बंद कर लिया है| जीवन कष्ट है और कोयले को छोड़ा जा सकता है, तुमको ये संभावना ही नहीं दिखती| तुमको ये सम्भावना ही नहीं दिखती कि कोयला मुक्त जीवन संभव है| तो तुम्हें मौका मिलता है, लेकिन तुम्हारा अपना अविश्वास तुम्हें ले डूबता है| तुम्हें मौका मिलता है इसको छोड़ने का, पर तुम कहते हो, ‘नहीं-नहीं, नहीं-नहीं| छोड़ कर तो जीवन हो ही नहीं सकता| कैसे छोड़ दूँ? एक के बाद एक मौके आते हैं छोड़ने के, पर तुम्हारे मन में यह भाव बैठ गया है कि छोड़ा ही नहीं जा सकता| उस भाव को दूर करो| उस भाव को दूर कोई और नहीं कर सकता, तुम्हें ही करना है| तुम्हीं ने बैठाया है, तुम्हीं तय कर लो कि इसको नहीं रखना है| अपने आप दूर हो जाएगा|

तुम यहाँ आते हो, लौट कर जाते हो, जानते हो तुम्हारे मन में क्या भाव आता है? ‘चार दिन की चाँदनी, फिर अँधेरी रात’| ये तो होना ही था, ये सब चीज़े स्थायी थोड़े ही हो सकती हैं| भाव मन में ये है कि यहाँ से बाहर की जो पीड़ा है, वो आवश्यक है| तुम्हारे मन में ये भाव भरा हुआ है कि पीड़ा आवश्यक है| नहीं ऐसा नहीं है| तो इसलिए जब तुम लौट कर जाते हो, तुम कहते हो, ‘सपना जैसा था| सुन्दर था पर सपना था, बीत गया| अब हम वास्तविक जगत में वापिस आ गए हैं’| और कईयों ने तो लिख कर दिया हुआ है, ‘सर, होता तो बहुत अच्छा है, लेकिन रहना तो हमें इसी दुनिया में है न’| बिल्कुल यही शब्द हैं कि ये सब ठीक है, लेकिन रहना तो हमें उसी दुनिया में है न| मन में भाव बैठा हुआ है| किसने कह दिया कि उसी दुनिया में रहना है? क्यों रहना है ? क्यों रहना है? और जब तुम्हारे मन में ये भाव होता है, तो तुम फिर यहाँ आकर भी, इस मिले हुए मौके को गवाँ देते हो| जब दोबारा आने का मौका होता है, तुम आ नहीं पाते क्योंकि तुमने पहले ही तय कर रखा था कि ये तो नकली था, ये तो चार दिन का था, ये तो एक तरह का पलायन था| तुम ये मानते ही नहीं हो कि जीवन ऐसा हो सकता है|

ऐसा हो सकता है का मतलब ये नहीं कि इसी स्थान पर ऐसा हो सकता है कि जीवन में शान्ति भी हो सकती है| ऐसा हो सकता है का मतलब ये है कि किच-किच, किच-किच ज़रूरी नहीं है? पर ये तुम मानते कहाँ हो? गहराई से तो यही बैठा है कि वही असली है, ये शान्ति नकली है, और उसके बहाने निकल आयेंगे| तुम ये थोड़े ही कहोगे, ‘जब अगली बार आने का मौका आएगा और आना होगा’| तुम्हें नहीं आना है, तुमने अब यह तय कर लिया है कि तुम नहीं आओगे|

तुम कहोगे, ‘हम आप से मिल लेंगे, वहाँ जाने में क्या रखा है?’ एक ने बड़ा घनघोर तर्क दिया है, ‘सर, ये जो फ़ोन है, ये संवाद से कम थोड़े ही है, हम इसी पर आप से बात कर लेते हैं, कहीं जाने-आने में क्या रखा है?’| (धीमे स्वर में) चलो ठीक है| किसी के सामने ज़िम्मेदारियाँ पैदा हो गयीं कि दूध-सब्ज़ी लाना होता है, तो वो अभी सब्ज़ी खरीद रहा होगा | न सब्ज़ी न दूध, हारे हुए हो|

मन ने पहले ही तय कर लिया है कि कष्ट अनिवार्य है, सब्ज़ी और दूध मात्र बहाने हैं|

-‘संवाद’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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