दूसरों के शरीर को ऐसे नहीं छुआ जाता, दूसरों की ज़िंदगी में ऐसे नहीं घुसा जाता||

Acharya Prashant

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दूसरों के शरीर को ऐसे नहीं छुआ जाता, दूसरों की ज़िंदगी में ऐसे नहीं घुसा जाता||
सिविलाइजेशन की एक बड़ी पहचान होती है, 'रिस्पेक्ट फ़ॉर इंडिविजुअलिटी।' कोई पूछे, ‘सिविलाइजेशन, सभ्यता की परिभाषा क्या है?’ निजता का सम्मान बढ़ने लगता, जैसे-जैसे सभ्यता बढ़ती है। और अगर निजता का सम्मान नहीं बढ़ रहा है तो जान लो कि हम अभी बहुत असभ्य लोग हैं। पर्सनल स्पेस की कद्र करना सीखिए। शारीरिक तौर पर भी और मानसिक तौर पर भी। न किसी के शरीर पर चढ़िए, न किसी के मन पर चढ़िए। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी अभी कुछ दिन पहले ही अपने ही एक दोस्त से बात कर रहा था मैं, जो अभी हाल-फ़िलहाल में म्युनिख की ट्रिप करके आए हैं। म्यूनिख, जर्मनी। तो मेरी भी कुछ साझा एक्सपीरियंसेज़ (अनुभव) रहे क्योंकि मैं भी अबू धाबी और फ़िलीपींस से अभी रिसेंटली (हाल ही में) आ रहा हूँ। तो कुछ चीज़ें हैं जो उनके और मेरे डिस्कशन से साझा हमने निकाली। मैं पॉइंट्स में लिखकर लाया हूँ, जो पहले आपके सामने रखूँगा, फिर मैं अपना प्रश्न।

तो उस ट्रिप में हमने देखा कि काफ़ी आसान था भारतीयों को…

आचार्य प्रशांत: म्यूनिख से कोई सज्जन यहाँ आ रहे थे फिर?

प्रश्नकर्ता: मेरी और उनकी वार्तालाप हुई है।

आचार्य प्रशांत: तो वो आ चुके हैं।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: वो आ चुके हैं और फिर तुम्हारी उनसे बात हुई।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: तो हाँ, क्या बोला उन्होंने बात में?

प्रश्नकर्ता: मेरी और उनकी जो बातों में साझा चीज़ें थीं क्योंकि मेरा भी एक्सपीरियंस रहा है अबू धाबी और फिलीपींस का अभी रिसेंटली

आचार्य प्रशांत: अबू धाबी ट्रिप का?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: क्या?

प्रश्नकर्ता: तो हमने देखा कि भारतीयों को और बाकी कंट्रीज के नेटिव्स (देशवासी) को डिफरेंशिएट (भेद करना) करना काफ़ी आसान लगता है ऐसे माहौलों में। जैसे हम देखते हैं कि कोई एक ग्रुप है जो बहुत हो-हल्ला करके बात कर रहा है या अपने बात करने की जो टोन है उनकी एक कुछ डेसीबल से ऊपर है। और उसी मतलब दूसरी तरफ़ ऐसे लोग हैं जिनकी बात करने में समझ में आता है कि सिर्फ़ वो आपस में ही बात कर रहे हैं, वो दूसरों को नहीं सुना रहे हैं, मतलब वो उनका टोन बात करने का, ठीक है?

आचार्य प्रशांत: तुम कह रहे हो किसी पब्लिक प्लेस पर अगर इंडियंस हैं तो वो अलग ही दिखाई देते हैं?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: पब्लिक प्लेस जैसे एयरपोर्ट।

प्रश्नकर्ता: एयरपोर्ट्स।

आचार्य प्रशांत: बाज़ार।

प्रश्नकर्ता: रेस्ट्रॉं।

आचार्य प्रशांत: रेस्ट्रॉं।

प्रश्नकर्ता: बाज़ार।

आचार्य प्रशांत: तो वहाँ इंडियंस अलग दिखाई देते हैं।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: पहली चीज़ किस मामले में बोली कि ज़्यादा शोर कर रहे होते हैं?

प्रश्नकर्ता: आपस में ही जो बात करते हैं, उसकी आवाज़ बहुत तेज़ होती है बात करने में कि आपको दिख जाएगा। आप अगर दस मीटर की दूरी पर भी बैठे हैं उनसे तो आपको सुनाई देगा कि क्या बात कर रहे हैं। या हँसने का तरीका कुछ ज़्यादा ही लाउड होगा।

जब हम फ़्लाइट में भी बैठे थे तो ये काफ़ी कॉमन है कि अगर आपके बगल वाली सीट पर एक इंडियन ही बैठा है तो आपको हैंड रेस्ट (हाथ को आराम पहुँचाना) के स्पेस के लिए जद्दोजहद करनी पड़ेगी। और कई बार ऐसा भी होता है कि आप अगर एक इंट्रोवर्ट किस्म के हो तो आपको सकुचाकर बैठना पड़ेगा क्योंकि आपको हैंड रेस्ट तो मिलने से रहा।

या काफ़ी कॉमन चीज़ ये भी है कि पसीने की बदबू ज़्यादा भारतीयों में से आती है बजाय किसी और व्यक्ति के। और क्योंकि इंटरनेशनल फ़्लाइट थी तो काफ़ी चीज़ें उसमें ऐसी रहती हैं जो फ़्री में उपलब्ध होती हैं जैसे खाना हो गया या ड्रिंक्स हो गए,चॉकलेट्स हो गए। तो उनको माँगने की फ़्रीक्वेंसी (आवृत्ति) भी इंडियंस की ज़्यादा रहती है कि मतलब फ़्री का खाना है तो और दे दो या चॉकलेट्स हैं तो और दे दो।

उसी तरह से अगर मान लीजिए एक व्यवस्था, सेटअप है ऑलरेडी कि अगर लगेज (सामान) के लिए आपको चेक इन (प्रवेश) करना है तो आपको एक लाइन बनानी है, पर उसको तोड़ने में सबसे आगे भारतीय ही अक्सर देखे गए रहते हैं।

आचार्य प्रशांत: एक-एक करके बताना, बहुत सारी बातें हो रही हैं। जो पहली दो-तीन बातें थीं। तुमने पहली बोली कि कहीं बैठ जाएँगे तो — और पब्लिक प्लेस में बैठ जाएँगे तो — आवाज़ें बहुत करेंगे।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: दूसरी क्या बोली थी? कि फ़्लाइट में बगल में बैठा है तो इधर-उधर जगह घेर लेगा।

प्रश्नकर्ता: अगर हाथ रखने का जो स्थान है।

आचार्य प्रशांत: पसीने की बदबू मारते हैं।

प्रश्नकर्ता: और क्यू (पंक्ति) तोड़ने में भी आगे रहते हैं।

आचार्य प्रशांत: क्यू तोड़ने में। वो उसको अलग से लेंगे। देखो, मनुष्य एक धार्मिक प्राणी है। लेकिन चूँकि हमारा धर्म हमारे भीतर से नहीं आता, समाज से आता है तो हम कह देते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वास्तव में मनुष्य एक धार्मिक प्राणी है। मनुष्य अकेला जीव है जिसे जीने के लिए धर्म चाहिए। धर्म माने सही-गलत का भेद करना। पशुओं को सही-गलत का कोई भेद नहीं करना पड़ता। पशुओं के लिए सबकुछ प्रकृति माँ ने पहले ही निर्धारित कर रखा है।

शेर को ये तय नहीं करना पड़ेगा कि मांस खाना सही है या गलत है, शेर को कभी ऐसा द्वंद उठेगा ही नहीं कि मांस खाकर कुछ गलत तो नहीं कर रहा। मनुष्य अकेला प्राणी है जिसे विचार करना पड़ेगा कि शाक खाऊँ कि मांस खाऊँ। समझ में आ रही है बात?

मनुष्य एक धार्मिक प्राणी है। हमें हमारी चेतना के माध्यम से ये ज़िम्मेदारी मिली है कि हम तय करें कि हमें क्या करना है कि नहीं करना है, इसी का नाम धर्म है। चेतना को सही दिशा ले जाना, ऊपर की तरफ़ ले जाना, यही धर्म है। तो हम धार्मिक प्राणी हैं।

तो मनुष्य के बर्ताव में आप जो कुछ भी देखो उसका रिश्ता उसके धर्म से ही होगा। वास्तविक धर्म को तो भारत में बहुत कम लोग जानते, मानते हैं। लोकधर्म चलता है और लोकधर्म का मतलब होता है कि संस्कृति में जो चल रहा है, कल्चर में, आदत में, बोल-बातचीत में, व्यवहार में, परंपरा में जो चल रहा है उसको ही धर्म मान लो। ज़्यादातर लोगों से पूछो कि धर्म का क्या मतलब है तो वो कुछ परंपरा की बात बता देंगे, वही धर्म है। उनके धर्म में निजता जैसी, आत्मा जैसी, स्वयं खोजने और जानने जैसी कोई बात नहीं होगी। है न?

तो हमारा जो पूरा धर्म है वो फिर कहाँ से आता है? बाहर से आ गया। इसने ये बता दिया ऐसा धर्म है, इसने बता दिया, हम उसी पर चलने लगते हैं। तो इसलिए फिर हम जब कह देते हैं कि मैन इज़ अ सोशल एनिमल (मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है) तो वो बात गलत नहीं है। बट मैन इज़ अ सोशल एनिमल बिकॉज़ मैन इज़ एसेंशियली अ रिलीजियस एनिमल (लेकिन मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है क्योंकि मनुष्य मूलत: एक धार्मिक प्राणी है)। ठीक है? और रिलीजन का मतलब ये नहीं तुम्हें हिंदू-मुस्लिम कुछ होना पड़ेगा। जो आपकी सेंस (समझ) है, व्हाट टू डू, व्हाट नॉट टू डू, (क्या करें, क्या नहीं करें) वही कोर रिलीजियोसिटी है, वही एसेंशियल रिलीजियोसिटी (अनिवार्य धार्मिकता) है। और वो रिलीजियोसिटी हमने कहा किसी जानवर को चाहिए नहीं, उसके लिए सब कुछ प्री प्रोग्राम्ड (पूर्व निर्धारित) है। ठीक है?

अब अगर आपका सबकुछ, विशेषकर भारत में, बाहर से ही आ रहा है तो आपके मन में निजता के लिए, इंडिविजुअलिटी के लिए कोई सम्मान होगा क्या? होगा क्या? क्या खाना चाहिए, ये आपने कहाँ से सीखा?

श्रोतागण: समाज से।

आचार्य प्रशांत: कौनसे त्यौहार मनाने हैं, किसने बता दिया?

श्रोतागण: समाज ने।

आचार्य प्रशांत: किस दिन दाढ़ी नहीं बनानी चाहिए, किसने बता दिया?

श्रोतागण: समाज ने।

आचार्य प्रशांत: एक-एक काम जो हम कर रहे हैं, हमें किसने बता दिया?

श्रोतागण: समाज ने।

आचार्य प्रशांत: कोई एक काम बताओ जो आपकी ज़िंदगी में आपने करा होता, अगर समाज ने नहीं बताया होता। ऐसे-ऐसे एजुकेशन लेनी है, किसने बताया?

श्रोतागण: समाज ने।

आचार्य प्रशांत: एजुकेशन के बाद नौकरी होनी चाहिए, प्लेसमेंट मिलना चाहिए, किसने बताया?

श्रोतागण: समाज ने।

आचार्य प्रशांत: ये मत कहना, ‘मेरी कॉमन सेंस है, ऑब्वियसली।’ तुम्हारी कॉमन सेंस हमेशा दूसरों की कॉमन सेंस से इतना मैच क्यों करती है? तुम्हारी कॉमन सेंस इतनी सोशल क्यों है? तुम्हारी कॉमन सेंस में कुछ भी यूनिक क्यों नहीं है? और अगर तुम्हारी कॉमन सेंस इतनी ही ज़्यादा सोशल है तो फिर वो तुम्हारी कॉमन सेंस नहीं है न?

कुछ भी आपकी ज़िंदगी में ऐसा है जो पूरी तरह आपका है? नहीं, ठीक है न? इस उम्र के बाद ऐसे काम नहीं करते। ‘ये क्या कर रही हैं? पचास की उम्र में बैडमिंटन खेलना शुरू करेंगी? हे-हे-हे... ये तिवारिन सठिया गई है।’ सुना है, नहीं सुना है? देखो कितना मज़ा आया।

‘ये तुम क्या ये मर्दों जैसे कपड़े पहन रही हो।’ तुम्हें किसने बताया कि महिलाओं को कौन-से कपड़े पहनने चाहिए। तुम कहते हो, ‘नहीं मेरी चॉइस है।’ तुम्हारी चॉइस है, तुम्हें किसी ने बताया नहीं होता तो तुम यही चुनते क्या? तुम्हें किसी ने बताया नहीं होता तो तुम कुछ भी चुनते?

छोटी बच्ची होती है वो खुद चुनती है कि लंबे बाल रखने हैं? यहाँ सबके लंबे बाल हैं। ये आपकी चॉइस है कोई? आप एक लड़का पैदा हो छोटा, बच्ची पैदा हो उनको साथ छोड़ दीजिए, मुझे तो नहीं लगता कि लड़का कहेगा कि मेरे छोटे होने चाहिए, लड़की कहे, ‘मेरे लंबे होने चाहिए’, मुझे तो नहीं लगता।

कुछ भी हमारा अपना होता है क्या? हम पूरे तरीके से समाज के गुलाम होते हैं। भारत में बात कर रहा हूँ, कुछ अपवाद होते होंगे, होते होंगे तो होंगे। मैं बहुमत की, बहुसंख्यक की बात कर रहा हूँ। जब हमारा कुछ भी अपना नहीं है तो अपनेपन के लिए, निजता के लिए, इंडिविजुअलिटी के लिए हमारे पास कोई इज्ज़त होगी? इज्ज़त छोड़ दो, हमारे पास कोई डिसर्नमेंट भी नहीं है, कोई दृष्टि भी नहीं है। हमारी परिभाषाओं में, हमारे शब्दकोश में वो सम्मिलित भी नहीं है। ‘मैं’ जैसा कोई शब्द हमारे पास है ही नहीं। हम जो ‘मैं’ बोलते हैं, उसके हज़ार टुकड़े हैं और सब टुकड़े समाज में इधर से आ रहे, इधर से आ रहे, इधर से आ रहे। समाज से ऐसे, ऐसे, ऐसे टुकड़े ले लेते हैं (हाथों से अपनी ओर लेने का अभिनय करते हुए), उनको जोड़कर के ऐसे ‘मैं’ बन गया है। उस ‘मैं’ में कुछ भी असली नहीं है, मौलिक नहीं है। आ रही है बात समझ में?

तो जब मेरा कुछ है ही नहीं इंडिविजुअल, निजी तो मैं दूसरे की निजता की भी इज्ज़त क्यों करूँ? मैं क्यों करूँ? तुमने कहा, ‘वो बगल में बैठा रहता है तो उसको ऐसे-ऐसे घुस जाते हैं।’ क्योंकि हमारे साथ ये हुआ है जीवनभर। तुम्हारे कमरे में कोई भी घुस जाता है। हुआ है कि नहीं हुआ है? हमारी संस्कृति ने, हमारे आम व्यवहार ने हमें कहाँ सिखाया है कि दूसरों के पास उनकी अपनी सत्ता होती है। पर्सनल स्पेस का तो कॉंसेप्ट ही हमारे लिए ऐसा है जैसे विदेशी। हम हैं ही नहीं।

तुम्हारी शादी किसने तय करी? तो मतलब पर्सनल स्पेस में भी जो और पर्सनल हो सकता है, अंदर तक पर्सनल हो सकता है, गर्भ तक जो पर्सनल हो सकता है और क्या शरीर में इससे ज़्यादा क्या आंतरिक होगा, वो तक तो समाज ने भरा है, छी…! तो पर्सनल कुछ है कहाँ।

बगल वाले को कोहनी मार दो, उसकी जगह पर घुस जाओ, उसके कमरे में शोर मचा दो, उसके कमरे में गंदगी करके चले आओ। कितनी अश्लील बात है! अभी भी बहुत घरों में ऐसा होता है। शादी कर देंगे उसके बाद वो बड़ा-बड़ा भद्दा कॉंसेप्ट है सुहागरात, जहाँ दुनिया, समाज, परिवार ये मिलकर तय करते हैं कि दो व्यक्ति अब संभोग करेंगे। ये क्या हो रहा है? ये एनिमल हसबेंड्री (पशु पालन) चल रही है? ये क्या है? ये मेरे लिए लगभग आर्टिफ़िशियल इनसेमिनेशन (कृत्रिम गर्भाधान) जैसा है।

तो उसमें जाकर के दूसरे लोग जाकर उनका बिस्तर सजा रहे हैं और तय कर रहे हैं कि हाँ अब दूल्हा-दुल्हन अंदर जाएँगे। उसमें पाँच-सात कान लगाकर खड़े रहते हैं। सीसीटीवी नहीं लगा देते, बड़ी बात है। अगले दिन सुबह सासू जी पूछ रही हैं, ‘बहू कैसा रहा?’ ‘अरे! तुम्हारी संन्यास की उम्र आ गई सासू, पोर्न में तुम्हारी रुचि खत्म नहीं हो रही।’

बहुएँ घर में आ जाएँ और दो-तीन साल बच्चा न हो तो सासें उनको कोंचना शुरू कर देती हैं। कुछ पर्सनल है? कुछ भी पर्सनल है हमारी ज़िंदगी में? ‘बहू दूध कब देगी? भारत को ही नहीं, घरों को भी वाइट रिवोल्यूशन (श्वेत क्रांति) की ज़रूरत होती है।’ बहू को दुहने के लिए घर लाई थी? और तुम हो कौन एक मनुष्य होने के नाते दूसरे मनुष्य से ऐसा अश्लील सवाल करने वाली या ऐसा अश्लील प्रस्ताव भी रखने वाली या इशारा करने वाली। ये बात तो इशारों में भी कही जाए तो भी अक्षम्य है। तुम होती कौन हो ये बोलने वाली, पूछने वाली, जानने वाली, तुम्हारा क्या हक है इन सब मामलों में घुसने का?

ये हमारी लोक संस्कृति है। अब इस लोक संस्कृति में हम दूसरे की निजता को इज्ज़त कैसे दे दें, जब हमारी ही निजता को आज तक किसी ने इज्ज़त नहीं दी? दी?

मवेशियों के मेले लगते हैं बड़े-बड़े, जहाँ मवेशी बिकते हैं हज़ारों-लाखों। वहाँ जानते हो मवेशी कैसे खरीदे जाते हैं? वहाँ पर भैंस खड़ी होगी तो वो जो जानकार भैंस के खरीददार होते हैं, वो जाते हैं और भैंस के एक-एक अंग में उँगली करके देखते हैं। कहते हैं, इतना पैसा दे रहे हैं तो माल मस्त होना चाहिए। और अभी भी हमारे यहाँ होता है, ‘ऐं...लड़की देखने आ रहे हैं घर में।’ तो जो देखने आ रहे होते हैं उस पक्ष में, उस पार्टी में एक-दो फूफी-ताई ज़रूर होती हैं और फूफी-ताई का काम होता है कि लड़की को पीछे वाले किसी कमरे में ले जाना और अभी भी ऐसा होता है वो कि वो उसके कपड़े-वपड़े थोड़ा हटवाकर के उसके उँगली-उँगली दबा-दबूकर पूरा देखती हैं, ये फर्टाइल बढ़िया से होगी कि नहीं, बढ़िया दुधारू निकलेगी कि नहीं निकलेगी भैंस की तरह।

अब तुम चाहते हो कि ऐसी परवरिश और ऐसे माहौल के बाद हम इंडिविजुअलिटी और पर्सनल स्पेस की इज्ज़त कर पाएँ? कर पाएँगे कभी? हमारी करी किसी ने? जब हमारी नहीं करी तो हम दूसरों की कैसे करें?

मैंने जिस पिक्चर को बोला था अभी थोड़ी देर पहले कि मैं देखने गया और मैं यूँही रो रहा था, रो इसलिए रहा था, मुझे मेरे नाना याद आ गए थे। मेरा बहुत-बहुत लगाव था उनसे। खैर वो अलग बात है। उसमें एक बिहारी परिवार की कहानी थी, लड़की का नाम था बिंदिया, वो पैदा होती है लेकिन लंदन में। पिक्चर का नाम है ‘बिन्नी एंड फैमिली।’ तो अब हैं तो परिवार से पीछे से संस्कार से बिहारी हैं, पर वो पैदा लंदन में हुई है तो वो पूरी लंदन वाली हो गई है। तो वो कह रही है, ‘रिस्पेक्ट माय प्राइवेसी’ (मेरी निजता का सम्मान करें)। उसने अपना कमरा लगा रखा है, अब वो टीनेजर (किशोर) हो गई है बारहवीं में पढ़ती है तो उसने लिख रखा है नॉक बिफ़ोर यू एंटर (प्रवेश करने से पहले दरवाज़ा खटखटाएँ)। और ये सब उस कमरे में घुसे आते हैं तो रोज लड़ाइयाँ होती हैं। उनको समझ में नहीं आता कि कोई घर की लड़की ऐसे कैसे बोल सकती है कि मेरे कमरे में घुसने से पहले नॉक करो, परमिशन लो, कंसेंट लो।

हमारे लिए ये सब एलियन कॉंसेप्ट्स है। हम कहीं भी घुस सकते हैं, हम किसी से कुछ भी पूछ सकते हैं। ‘हें! अगला बच्चा कब होगा?’ क्रूड, वल्गर। तुम कौन हो? तुम कौन हो, तुम कौन हो? ‘दुबे जी किलकारियाँ कब गूँजेंगी।’ तुम कौन हो?

किसी की नौकरी लगी है उससे खुलेआम आकर पूछ रहे हैं, ‘तो ऊपर की कितनी हो जाती है? ‘अबे तुझे जेल न भिजवा दूँ इस सवाल पर।’ सवाल समझ रहे हो? उससे पूछा जा रहा है तुम कितनी घूस लेते हो। ये कहाँ का सिविलाइज़ेशन है कि तुम किसी व्यक्ति से ये पूछ रहे हो उसके मुँह पर कि तू घूस कितनी लेता है। ‘तो ऊपर की तो हो जाती होगी न ठीक-ठाक।’ और वो कुछ बोले न तो ‘नहीं माने महीने का लाख-आख तो ऊपर से उठा ही लेते होंगे, थू…(पान खाकर बोलने और पीक थूकने का अभिनय करते हुए)।’

मैं लिफ़्ट वगैरह का इस्तेमाल करने से बचता हूँ। अगर छठी, आठवीं, दसवीं मंज़िल है तो मैं कहता हूँ, मैं सीढ़ी से जाऊँगा। और मेरी इतनी दुर्दशा है, अच्छी-से-अच्छी सोसाइटी हो, बढ़िया-से-बढ़िया अपार्टमेंट हों या चाहे वो एक अच्छी शॉपिंग मॉल या हॉस्पिटल कुछ भी हो सकता है। अब वहाँ चलते तो सब लिफ़्ट से हैं। आप सीढ़ियों से जाएँ तो वहाँ मिलता है थू....(पान की पीक)। ऐसी हम रंगकारी करते हैं। हम कभी सोचते हैं क्या कि मेरा क्या हक है यहाँ पर पीक मारने का? हम कभी सोचते हैं क्या? हमारे लिए हर जगह ऐसी है थू…(पीक थूकने का अभिनय करते हुए)। ये काम सिंगापुर में कर दो तो फाइन भी भरोगे, जेल भी जाओगे, थूककर दिखाओ सड़क पर।

पूरे हक से बंबई की सोसाइटीज़ जहाँ पर किसी फ्लैट का किराया हो महीने का तीन लाख-पाँच लाख रुपए, वहाँ आप सीढ़ियों को लो तो वहाँ बिल्कुल चित्रकला की प्रदर्शनी लगी हुई है। एकदम निशाना ले-लेकर पीक मारी जाती है थू...(पीक थूकने का अभिनय करते हुए)। हम सोचते हैं क्या? ‘और ये ये मेरा हक है ऐसा करने का मेरा हक है, मैं ऐसा कर सकता हूँ।’ जब तुम्हारा हक है ये करने का तो दूसरे भी फिर तुम्हारी निजता की इज्ज़त क्यों करें? निजता आती है जब आप सचमुच धार्मिक हो जाते हो। उसके लिए शब्द है आत्मा। जिसकी ज़िंदगी में आत्मा उतर आई, सिर्फ़ वो होगा जो अब निजता को इज्ज़त देना शुरू करेगा। भारत के साथ समस्या ये है कि भारत धर्म का पालना रहा, भारत से ज़्यादा गहरी और ऊँची बात धर्म में किसी ने करी नहीं, लेकिन भारत में जितना धर्म को विकृत किया गया उतना और कहीं किया भी नहीं गया।

हमारा जो लोकधर्म है, जिसको हम कहते हैं हमारी आम प्रचलित धार्मिकता, वो वास्तविक धर्म से उतनी ही दूर है जितनी ज़मीन से आकाश। जो धर्म के नाम पर सारी गंदगी हमने पकड़ रखी है, वास्तव में वो धर्म सिर्फ़ संस्कृति है। और संस्कृति माने हमारी पुरानी गंदी आदतें ज़्यादातर।

लोग टॉयलेट जाकर ठीक से फ्लश नहीं करते। पीछे वाला आकर के साफ़ करेगा। जिन घरों में महिलाएँ होती हैं और वेस्टर्न कमोड होते हैं वहाँ दुर्गति हो जाती है। वो जाकर के वहीं सीट पर ही छल-छलाकर आ जाते हैं, उनको समझ में नहीं आता कि महिलाएँ दूसरे तरीके से बैठती हैं उस पर। फिर भारत में महिलाओं के लिए विशेष प्रोडक्ट्स आते हैं कि आप जब जाएँ बाहर तो ये लेकर जाइए, उससे पहले वो सीट को साफ़ कर लीजिए, तब उस पर बैठिए। क्योंकि पुरुष लोग वहाँ खड़े होकर निशाना बाँधते हैं। अरे! कर लो निशानेबाज़ी, ओलंपिक में गोल्ड भी ले आओ तुम इसका, पर जाने से पहले सफ़ाई भी तो कर दो उसकी। और न जाने कितनी महिलाओं को इसी बात से रोग लग जाते होंगे क्योंकि उनकी व्यवस्था खुली हुई होती है, बैक्टीरियल इंफेक्शन हो जाएगा उसी से। तुमने कभी ये सोचा कि दूसरे के स्पेस को इज्ज़त देनी होती है? सोचा?

‘मैं हूँ’ पहले वो क्रिस्टलाइज तो हो न भीतर। मैं हूँ ही नहीं, मैं क्या हूँ? मैं समाज से बस ऐसे इधर से धूल आई, इधर से धूल आई, वो जमा हो गई, उसको मैंने ‘मैं’ बोलना शुरू कर दिया। ‘आई रियली डोंट एग्ज़िस्ट इन द फ़र्स्ट प्लेस (मैं वास्तव मैं पहले स्थान पर नहीं आता) तो फिर मैं किसी तरह की इंडिविजुअलिटी का दावा कैसे करूँ?’ नहीं करते। हमें लगता है हम इंडिविजुअल नहीं हैं तो विदेशी भी नहीं हैं। विदेशी पगला जाते हैं, ‘ये कैसे लोग हैं! कुछ भी कर रहे हैं, कहीं भी कर रहे हैं।’ यहाँ तक का भी खयाल रखना होता है कुछ सर्कल्स में कि आप जो खाना खा रहे हो न, वो बहुत तगड़ी महक नहीं छोड़ रहा है।

एक चीज़ जो भारतीयों के साथ जुड़ी हुई है विदेशों में वो ये भी है कि वर्क प्लेस पर घर से खाना बनाकर लाते हैं। क्योंकि इन्हें पैसे बचाने होते हैं तो ये घर से ही इतने बड़े-बड़े डिब्बे लेकर आएँगे और वो डिब्बा जैसे ही खोलेंगे तो पूरा ऑफिस महक जाता है भयानक क्योंकि इतने मसाले डालकर लाते हैं तो करी पीपल, इस नाम से चलता है कि अगर एक इंडियन अपना डिब्बा खोल रहा है तो वो पूरी जगह गँधवा देगा। हमारे लिए वो खुशबू है, पर वो खुशबू तुम्हारे लिए है, तुम दूसरों के नथुनों में वो खुशबू क्यों डाल रहे हो?

और मैं उदाहरण देता हूँ जो मुझे व्यक्तिगत तौर पर बड़ा (परेशान करता है), सिनेमा हॉल में घुस जाएँगे बच्चा लेकर। और अब तो बाकायदा घोषणा होने लग गई है कि भैया बच्चा-वच्चा है और शोर मचा रहा है तो उसको लेकर बाहर निकलो। आधे-आधे घंटे वो भें-भें..... हक के साथ बैठे रहेंगे, जमे रहेंगे। हम ये करने के लिए आए थे? हॉल में हम ये चिंघाड़ सुनने के लिए आए थे? और दर्शाएँगे ऐसे जैसे कितनी क्यूट बात हो, ‘यू नो हें-हें...नुन्नू है, झुन्नू पर गया है, वो भी रात भर रोता है।’

(एक श्रोता को संबोधित करते हुए) तुम क्यों खुश हो रहे हो? मैंने कुछ बोला? सब अपने-अपने मन की बात अपने हिसाब से समझ जाते हैं। अनुभव करा है? अरे! भैया फ़्लाइट में बच्चा रो रहा है, मैं समझ सकता हूँ, उसे नीचे नहीं फेंक सकते। ठीक है ग्रांटेड, पर हॉल में तो उसे लेकर बाहर निकल जाओ न। ये बदतमीज़ी से बड़ी बदतमीज़ी है कि तुम्हारा बच्चा हॉल में रो रहा है और तुम बैठे हो उसे लेकर। आप मत करिएगा कृपया, गीता की बदनामी होगी।

मैंने तो इससे भी आगे का देखा है, रात में बारह बजे घंटी बज रही है, ‘हें-हें....मिसेज़ शर्मा, ये चुप नहीं हो रहा था, आप इसे चुप करा दीजिए न। वो बहुत डिस्टर्ब हो रहे हैं। वो कह रहे हैं, इसको कहीं और छोड़कर तू आ जा।’ रात के बारह बजे पड़ोसी की घंटी बजाकर, उसको बच्चा दिया। ये सचमुच हुआ है, रात के बारह बजे पड़ोसी की घंटी बजाकर उसको एक बदहाल, बदमिजाज़, बदतमीज़ बच्चा सौंपा जा रहा है कि तुम इसको रख लो क्योंकि ये हम हस्बैंड-वाइफ़ को सोने नहीं दे रहा।पहले तो जेल होनी चाहिए ऐसा वाला पैदा करने पर।

ये सब होता है या मैं बस अतिशयोक्ति उड़ा रहा हूँ?

श्रोतगाण: होता है।

आचार्य प्रशांत: और ये अभी मैं तो फ़्लाइट के स्तर पर बात कर रहा हूँ, मैं उपराज्यपरिवहन पर आ जाऊँ तो वहाँ तो बाकायदा वहीं पर लॉन्ग डिस्टेंस बस होगी अंदर वो गू पड़ा होगा बच्चे का। ‘बच्चे का है।’ माताएँ खुलेआम ट्रेन की पटरियों पर हगा रही होती हैं और ऐसे भी नहीं कि वो, वो नहीं हगना चाहता, ‘श्स्स्सस्स्स्स...’ (बच्चे को सूसू-पॉटी कराने के लिए माँ द्वारा ‘शू’ ध्वनि का अभिनय करते हुए)।

मैं वाराणसी रेलवे स्टेशन पर था, प्लेटफ़ॉर्म पर ऐसी जगह खड़ा था जहाँ ऐसे मोड़ था। तो वहाँ से ट्रेन आ रही है। एकदम धीरे-धीरे-धीरे आ रही है, मुझे इंजन ही नहीं दिखाई दिया। बताओ क्यों? क्योंकि इंजन को एस्कोर्ट करते हुए मक्खियों का पूरा एक जुलूस था, इतनी सारी और इतनी घनी तादाद में मक्खियाँ कि इंजन ही नहीं दिखाई दे रहा था। वो धीरे-धीरे आ रहा है, फिर पता चला इंजन है, इन मक्खियों के पीछे इंजन भी है। वो वहाँ मक्खियाँ क्यों है? क्योंकि माताएँ पटरी पर उनको हगा रही हैं। और तुम चाहते हो हम किसी के पर्सनल स्पेस की कदर करेंगे।

सरकारी अस्पतालों में भी होता है, अब पता नहीं होता है कि नहीं होता है, पर होता था, खुले में। आप रिजर्वेशन वगैरह कराकर बैठे होंगे, ट्रेन आपकी अगर ईस्टर्न यूपी या बिहार में चली गई है तो ‘एडजस्ट करिए, एडजस्ट।’ वो बाकायदा आपको कोहनी मारकर एडजस्ट करा लेगा। आपके रिजर्वेशन का कोई मतलब नहीं है। वी आर एंटाइटल्ड टू डू दिस (हम हक के साथ ये करते हैं)।

अब यही व्यक्ति जब फिर फ़्लाइट पर चढ़ेगा, म्यूनिख जाएगा, फ़्रैंकफ़र्ट जाएगा, अबू धाबी जाएगा तो अपनी आदतें साथ लेकर चला जाता है न और वो पूरे देश का नाम खराब करता है।

सिविलाइजेशन की एक बड़ी पहचान होती है, रिस्पेक्ट फ़ॉर इंडिविजुअलिटी। कोई पूछे, ‘सिविलाइजेशन, सभ्यता की परिभाषा क्या है?’ निजता का सम्मान बढ़ने लगता, जैसे-जैसे सभ्यता बढ़ती है। और अगर निजता का सम्मान नहीं बढ़ रहा है तो जान लो कि हम अभी बहुत असभ्य लोग हैं। पशुओं में निजता जैसा कुछ नहीं होता, होता है? कुत्ते-कुतिया, बंदर-बंदरिया वहाँ खुलेआम और कोई कहीं भी एक बंदर खा रहा होगा, दूसरा आकर उसका छीन सकता है। वहाँ कुछ नहीं होता, वहाँ पर्सनल प्रॉपर्टी जैसा भी कुछ नहीं होता। होता है क्या? आपकी प्लेट पर रखा है, कौवा उड़ते हुए आएगा, आपका सैंडविच उठाकर ले जाएगा। वहाँ कोई चीज़ पर्सनल नहीं होती।

न दखल करिए, न दखल करने दीजिए। इसमें प्यार की बात नहीं होती, ये कोई अपनेपन की बात नहीं है, ये हिंसा है। आ रही है बात समझ में? कतार लगी हुई है, काहे को दूसरे की पीठ में मुँह देकर खड़े हो, बिना बात के।

अरे! मैं बताऊँ आपको, मैं जब कॉलेजेज़ में ज़्यादा बोला करता था, जैसे मान लीजिए इतना बड़ा हॉल है, ठीक है? तो उनके पास ऐसे अलग-अलग कुर्सियाँ नहीं होती थीं तो उनकी क्या होती थी जो व्यवस्था होती थी कई कॉलेजेस में या यूनिवर्सिटीज में कि पूरी एक ऐसे लंबी बेंच होती है, पूरी ऐसे लंबी और उसके आगे ऐसे ही लंबा टेबल। बेंच है लंबी, उन्होंने ऐसे सेपेरेशन नहीं बनाए होते थे, शायद जगह बचाने के लिए। तो पूरी एक लंबी बेंच है और लंबा टेबल है। अब मैं क्या देखूँ कि पूरा हॉल या पूरी क्लास खाली पड़ी हुई है और कुछ चुनिंदा बेंचेज़ पर वो इतना चिपक-चिपककर एक साथ बैठ गए हैं। और वो कोई एयर कंडीशन तो मामला है नहीं और गर्मियों के दिन और पसीने मार रहे हैं और इतना चिपककर बैठे हैं, बाकी जगह खाली पड़ी है तब भी चिपककर बैठे हैं। और मुझे ऐसा होता था कि जैसे मैंने भूत देख लिया हो। मैं कहता, ‘कैसे कर सकते हो? क्यों कर रहे हो?’ और खासकर ये काम लड़कियाँ करती थीं।

जैसे आपने कभी देखा होगा कि गाय वगैरह एक साथ झुंड बनाकर एक-दूसरे चिपककर बैठ जाती हैं। देखा है कभी? खरगोश भी ये काम करते हैं, अगर उनमें दोस्ती-वोस्ती है तो ऐसे चिपककर बैठ गए। वो दूर-दूर ऐसे बैठते ही नहीं, ऐसे चिपककर। मैं कहता था, ‘सब कुछ खाली पड़ा हुआ है, तुम इतना चिपककर क्यों बैठ गए हो?’ सब खाली पड़ा है, चिपककर बैठ गए हैं। ये आकस्मिक नहीं है, ये संयोग नहीं है, ये संस्कार है। ये जीने नहीं देगा, ये कभी आपको आत्मस्थ नहीं होने देगा।

जो ऐसा कर रहे हैं उनको गीता समझाना टेढ़ी खीर है। सबसे पहले तो मनुष्य की निजता ही उसकी गरिमा है, ये बात समझानी पड़ेगी। डिग्निटी (गरिमा) कोई चीज़ होती है, इंडिविजुअलिटी कोई चीज़ होती है। ‘मत छुओ मुझे, थोड़ा दूर रहो।’

कुछ कारण इसके आर्थिक भी हैं, वो भी मैं समझता हूँ। अब ये ऑटो, डंपर ये सब चलते हैं, उसमें नहीं जगह होती, इतनी सी सीट होती है, उसपर छः बैठ जाते हैं। उसका कारण ये है कि सस्ते में हो जाता है। वो मैं समझ रहा हूँ। लेकिन उस क्लास में ऐसे क्यों बैठ रहे हो? जहाँ उपलब्ध है जगह वहाँ ऐसे क्यों बैठ रहे हो?

कतार में खड़े हो न तो ये नहीं कि बस कोविड पीरियड में सोशल डिस्टेंसिंग करनी है, हर समय सोशल डिस्टेंसिंग करना (सामाजिक दूरी रखना) सीखिए। ऐसे खड़े होइए कि उसकी गंध आप तक न आए, न आपकी गंध उसके नाक में जाए। और शरीर को साफ़ रखना व्यक्तिगत बात तो होती है, पर थोड़ी सी सामाजिक ज़िम्मेदारी भी होती है। इसमें कोई अध्यात्म नहीं है, इसमें कोई मिस्टिसिज़्म नहीं है। ‘अजी हम तो साहब गंधाते हैं, हम तो आध्यात्मिक हैं, देह तो नश्वर है, मिट्टी को मिट्टी हो जाना है, हम मारेंगे बदबू।’ मिट्टी को मिट्टी हो जाना है, तेरे मुँह में ही मिट्टी ठूँस दू फिर। खाने के लिए तो तुमको सुगंधित चीज़ चाहिए और दूसरे को बदबू देते हुए कह रहे हो ‘मिट्टी है।’

तो खुद को साफ़ रखना थोड़ा दूसरों के प्रति ज़िम्मेदारी का हिस्सा होता है और अगर कभी दिखाई दे रहा हो कि ये सब होगा ही पसीनेबाज़ी वगैरह तो इसमें कोई हरजा नहीं हो गया, आपके अध्यात्म पर आँच नहीं आ जाएगी, अगर आप डिओड्रेंट वगैरह का इस्तेमाल कर लें तो, कि ये सब तो गंदी बातें हैं न, ये सब तो संसारी करते हैं, हम तो गीता के छात्र हैं तो हम डिओड्रेंट कैसे लगा सकते हैं। गीता के छात्र हो तो फिर मुँह भी मत साफ़ किया करो, फेंक दो टूथपेस्ट।

जानते हो जो काम लोग पैसे से कराना चाहते हैं, वो काम समझदारी से हो जाता है कई बार, बिना पैसे के या कम पैसे के। जैसे ये अगर मान लीजिए एक सिनेमा हॉल होता तो ये साधारण सीटें होती और आप अगर और ज़्यादा पैसा देते तो वहाँ पीछे आपको कैसी सीटें मिलतीं और ज़्यादा पैसा देने पर? चौड़ी, रिक्लाइनर।

मनी बायज़ यू स्पेस। (दोहराते हुए) मनी बायज़ यू स्पेस (धन आपको जगह उपलब्ध कराता है)। आप ज़्यादा किराया देते हो तो घर कैसा मिलता है? बड़ा। है न? वो आवश्यक नहीं है कि मनी से ही मिले, वो समझदारी से भी मिल सकता है। पैसा भी लोग इसीलिए कमाते हैं ताकि पर्सनल स्पेस मिल पाए। पर्सनल स्पेस पैसा क्या, पैसे से ऊपर की बात होती है। वो इतनी बड़ी चीज़ होती है कि लोग पैसा कमाए जाते हैं और पैसा खर्च करे जाते हैं ताकि पर्सनल स्पेस मिल पाए।

पर्सनल स्पेस की कद्र करना सीखिए। शारीरिक तौर पर भी और मानसिक तौर पर भी। न किसी के शरीर पर चढ़िए, न किसी के मन पर चढ़िए। किसी के मन पर कब्ज़ा करने की कोशिश मत करिए, दूरियाँ निभाना सीखिए।

(मंच पर बैठे श्रोतगण मंच खाली करते हैं) मेरे को पर्सनल स्पेस देने के लिए ये सब भग गए। जैसे ही मैं इधर तक आया, बोले, ‘इन्हें स्पेस चाहिए होगी, भागो। भागो, भागो।’

प्रश्नकर्ता: गर्मियों में मई के महीने में मैं न्यूयॉर्क गई थी तो ये जो आपने पर्सनल स्पेस की हम लोग बिल्कुल कद्र नहीं करते हिंदुस्तान में तो यहाँ क्या हुआ कि हम कैब में जा रहे थे और वो कैब ड्राइवर कान में वो लगाए रखा था मोबाइल, किसी से बात कर रहा था और हमें जहाँ से टर्न होना था वो बात करने में वो टर्निंग मिस हो गया। तो जो हमारी बिटिया वहाँ रहती है, वो उसको आवाज़ दे रही थी तो वो सुन नहीं पा रहा था क्योंकि कान में लगाया हुआ था। तो मेरे साथ वाराणसी से मेरी बहन जी पहली बार गईं थीं तो वो उसको टच करना (छूना) चाहीं कि ऐसे हम हिंदुस्तान में ऐसे कर देते हैं न कि नहीं कोई सुन रहा तो हाथ से टच कर देते हैं। तो वो बिटिया तो वहाँ पच्चीस साल से रह रही है तो बोली, ‘नहीं-नहीं मौसी टच मत करिए, वो पुलिस बुला देंगे, यहाँ पर इस तरह से टच करना मना है।’

तो मतलब मुझे इतना आश्चर्य हुआ कि मैं चार-पाँच साल से जा रही हूँ, पर मेरे लिए भी ये बात नई थी। ये सीखने को मिला कि नहीं आप यहाँ पर इस तरह से और सड़क पर कोई अपना डॉग लेकर भी जा रहा है अगर आपको मन किया उसको सहलाने का तो आप उनसे परमिशन लेते हैं बाकायदा कि हम इसको पेट कर सकते हैं क्या। जी, तो यही मुझे शेयर करना था कि कितना हमको वहाँ पर्सनल स्पेस का...

आचार्य प्रशांत: नहीं, बिल्कुल होना चाहिए। देखिए किसी से बहुत ही प्यार का रिश्ता हो तो फिर तो पर्सनेलिटी की दीवारें ही गिर गईं, फिर तो हमारे-आपके बीच में जो दीवार है, वही नहीं रही, उसके बाद जो करना है करो, लेकिन फिर रिश्ता सचमुच प्यार का होना चाहिए। पर रिश्ता प्यार का है नहीं और जाकर उसको घूँसा मार रहे हो, धौल-धप्पा कर रहे हो, उसका पेट पकड़ रहे हो, जैसे हम छोटे बच्चों के साथ करते हैं। या तो दोनों ओर से बराबर का प्यार का रिश्ता हो। वो छोटा बच्चा है, उसको पकड़कर उसका पेट में गूथ दिया, करते हैं या नहीं करते हैं? उसके मुँह में अपना मुँह रगड़ रहे हैं। कुछ हद तक अभद्रता है ये। ये काम सिर्फ़, इस तरह की छूट सिर्फ़ प्यार में ली जा सकती है और वो प्यार बराबर का होना चाहिए दोनों तरफ़ से, तब तो जो करना है करो, लिबर्टी है। पर वो लिबर्टी है नहीं और घुसे जा रहे हैं, ये वो।

प्रश्नकर्ता: तो हम यहाँ ध्यान नहीं रखते हैं न, तो फिर हमने कहा कि पुलिस बुला देंगे, बाप रे! ये तो। जी, वही बस शेयर करना था।

आचार्य प्रशांत: नहीं बढ़िया, बहुत अच्छा था आपका।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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