हाथ फैलाने के खतरे || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

7 min
46 reads
हाथ फैलाने के खतरे || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: जैसे मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और हाॅस्पिटल, कुछ मेडिकल और कुछ सेवाएँ हैं जहाँ सेवा चलते रहती है और लाभ उठाने वाले जो लोग हैं, क्या उन सेवाओं से उन पर दुष्परिणाम हो रहा है? जहाँ से फ्री (मुफ़्त) में जो उठा रहे हैं सेवा का लाभ और क्या इन बातों से समाज में कुछ गलत धारणाएँ भी जा रही हैं?

आचार्य प्रशांत: वो तो डिपैंड (निर्भर) करता है देने वाले पर लेने वाले दोनों पर निर्भर करता है।

प्र १: तो जैसे लेने वाले होते हैं तो फिर वो तो उनको आदत लग जाती है, लत लग जाती है फिर।

आचार्य: देने वाला इस पर बन्दिश नहीं लगा सकता। गुरुद्वारों में अगर लंगर का आयोजन है तो वो कैसे नापें और कैसे रोकें कि सिर्फ़ जो वास्तविक सुपात्र लोग होंगे, ज़रूरतमन्द होंगे, सिर्फ़ वो आएँगे, बाकियों को हम नहीं देंगे? वो कैसे इस पर रोक लगाएँ, बताओ?

प्र १: नहीं, रोक तो नहीं लगाएंगे, पर क्या इस से गलत भी कुछ जा रहा है समाज में?

आचार्य: गलत तो हर चीज़ से जा सकता है। अमृत भी ज़हर बन सकता है। गलत तो सब कुछ हो सकता है। वो तो हमारी नीयत पर है कि हम किस चीज़ का क्या इस्तेमाल करना चाहते हैं। ये जो है, ये तो लिखने के लिए है न (कलम उठाते हुए)। मैं इसी को ऐसे लूँ और ऐसे अपने मार लूँ (अपनी गर्दन पर खोंपने का इशारा करते हुए), तो ये मरने के लिए भी हो जाएगा।

अब जो भी मुफ़्त सेवाएँ दी जाती हैं, उनके पीछे नीयत ये रहती है कि जो अभी इस हालत में नहीं हैं बिलकुल कि अपने लिए खाने-पीने का, या दवाओं का इन्तज़ाम कर सके, उनको मुफ़्त में कुछ चीज़ें मिल जाएँ। उसमें ये इरादा थोड़ी रहता है कि किसी को मुफ़्तखोरी की लत ही पड़ जाए।

लेकिन बिलकुल ठीक कह रहे हो। बहुत लोग होते होंगे जिन्हें मुफ़्तखोरी की लत ही पड़ जाती होगी। अब उनका करा वो जानें। उनका कर्मफल उनके साथ है।

देने वाले की ओर से जो हो रहा है, वो बिलकुल ठीक हो रहा है। लेने वाले को लेकिन अपना विवेक भी दिखाना चाहिए कि चीज़ तो मुफ़्त में मिल रही है, पर मुझे लेनी भी चाहिए मुफ़्त में या नहीं लेनी चाहिए।

लेने वाले पर बड़ा ख़तरा होता है। (मुस्कुराते हुए) जहाँ उसे नहीं लेना चाहिए था, वहाँ अगर उसने ले लिया, तो चीज़ मुफ़्त नहीं मिली है। बहुत भारी क़ीमत देनी पड़ेगी।

किसी चीज़ पर कीमत लिखी हो, उसको लेने में कम खतरा है क्यूँकि जितनी उसकी कीमत है, तुम उतना दे दोगे, ले लोगे। पर कोई चीज़ अगर मुफ़्त हो, तो उसको लेने में बहुत सतर्क रहना क्योंकि जो चीज़ मुफ़्त है, वो सिर्फ़ उनके लिए है जो एकदम ज़रूरतमन्द हैं। तुम एकदम ही ज़रूरतमन्द नहीं हो और तुमने कोई चीज़ मुफ़्त में ले ली, तो तुम्हें उसकी पाँच गुनी कीमत देनी पड़ेगी।

एक शब्द होता है सत्य के लिए, आत्मा के लिए। बड़ा ये सुंदर रहा है वैदिक परम्परा में। नकार की भाषा का प्रयोग कर के सत्य की ओर पचासों तरह से इशारे करे हैं। ठीक है? जैसे हम कहते हैं न, अनादि, अनन्त, अरूप, निराकार, वैसे ही सत्य के लिए एक शब्द होता है - अयाची। क्या? अयाची।

अयाची माने जानते हो? जो कभी किसी से याचना नहीं कर सकता, जो कभी किसी से कुछ माँग नहीं सकता।

और अहंकार क्या होता है? सदा याची! (हँसते हुए, हाथ फैलाने हुए)

प्र २: प्रणाम आचार्य जी! तो जैसा अभी हम किसी चीज़ में फँस जाते हैं, और इतना आसानी से फिर वो निकलता नहीं है थौट (विचार)। जैसे मेरे मन में कुछ करना है, तो वो आ गया, इंटलेक्चुअली (बुद्धिगत तौर पर) समझ गया है कि ठीक है, वो कर के क्या हो जाएगा। जैसे अभी एक उदाहरण है मेरे सामने, अभी रीसैंटली (हाल ही में) तो एक शिविर का था, जिस में ध्यान और आसन की पद्धतियाँ सिखाने के लिए मुझे बुलाया था। मतलब सीखने के लिए बुलाया था। लेकिन मुझे वो नहीं करना है क्यूँकि मुझे लगता है कि उससे वो नहीं मिलेगा, जो मुझे (चाहिए) या फिर अभी की परिस्थिति में जो मुझे करना है, वो उस रास्ते में सहायक नहीं है। लेकिन वो अन्दर जैसे ही पता चला कि मैं जा सकता हूँ, तो मुझे अच्छा लगता है ये, इस तरह से करना। ऋषिकेश में जा के कुछ समय बिताना। लेकिन जैसे ही वो थौट (विचार) आता है, तो वो चलते रहता है, चलते रहता है। हालांकि वो जो शिविर की डेट (तारीख) है, वो जाने के बाद वो निकल जाता है। लेकिन उतने दिन, जैसे दस दिन तक वो चलते रहेगा, चलते रहेगा जब तक उसकी डेट (निकल नहीं जाती)। चाहे वो हफ़्ते भर का है, वो करके मैं उससे फ़्री (मुक्त) हो सकता हूँ, लेकिन ये, इस से कैसे फ़्री होना है?

आचार्य: कर ही आओ न! (हँसते हुए) फ़्री क्यों होना है? कुछ और नहीं होगा तो नहा आना गंगा में। इतना ही कोई बुला रहा हो अनुभव तो गुज़र लो उससे भाई।

दस दिन व्यर्थ होंगे लेकिन जीवन भर के लिए सीख मिल जाएगी। और अगर कहीं व्यर्थ न हों, तो अच्छी बात है। है न? हम बार-बार

कहते हैं न, कि अपने बारे में जब पता है कि गलतियाँ करते हो, तो फिर बड़ी गलतियों से बचो। लेकिन अपने बारे में पता भी कैसे चलेगा कि गलतियाँ करते हो? कुछ छोटी-मोटी गलतियाँ तो करनी पड़ेंगी न? तभी तो ये पता चलेगा न कि देखो एक बार दस दिन का कुछ करा था, उसमें बेवकूफ़ बने थे, अब कुछ ऐसा न कर लें कि दस साल बेवकूफ़ बनना पड़े। नहीं तो ये होगा कि दस दिन वाली गलती नहीं करोगे, तो फिर दस साल वाली कर जाओगे।

छोटे-मोटे प्रयोग करते रहने चाहिए। प्रयोग वास्तव में एक प्रश्न होता है जो तुम अपने ही अहंकार से करते हो। क्योंकि अहंकार के दावे होते हैं। अहंकार तो ये दावा, वो दावा कर रहा है। प्रयोग क्या है? प्रयोग उस दावे पर एक प्रतिप्रश्न है। तुमने उसके दावे पर सवाल खड़ा कर दिया है। कह रहे हो, सिद्ध करो कि जो कह रहे हो, वो सही है। और सिद्ध एक ही तरीके से हो सकता है। क्या? प्रयोग लो, अनुभव लो। तो कर के देख लो।

और फिर उसके बाद जब अहंकार दोबारा बोले कभी इसी तरह की किसी चीज़ के लिए, तो उसे कहना "कुछ याद है न, पिछली बार क्या हुआ था? गधा भी एक गड्ढे में दो बार नहीं गिरता।" कहावत है ये कि गधा भी एक ही गड्ढे में दूसरी बार नहीं गिरता। पर एक बार तो गिरना बनता है। (मुस्कुराते हुए) गिर लो!

एसे ही होता है मन। उसको तुम जब तक दो चार बार चोट नहीं लगने दोगे, वो मानता नहीं है। घर में छोटा बच्चा होता है। कई बार उसके साथ भी यही विधी करनी पड़ती है। कुछ माँग रहा है, माँग रहा है,

माँग रहा है, अब वो तुम उसे समझा रहे हो, नहीं मान रहा है, तो तुम्हे उसे छोड़ देना पड़ता है कि जा गिर! तुम्हे पता है कि ये जो करेगा, उसमें इसको चोट लगेगी, पर कोई और रास्ता नहीं है। फिर तुमने कहा जा गिर। जब गिर जाएगा तो खुद ही समझेगा कि अब आगे इस तरह नहीं करना है।

पर ये न करने देना कि पहाड़ से गिरने दिया उसको। कि जा गिर! बहुत सोच समझ के, कि थोड़ा सा गिरे बस।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories