आचार्य प्रशांत: हम जो कुछ भी करते हैं पूरी जो हमारी मानसिक व्यवस्था है, मनुष्यों ने जो भी व्यवस्था स्थापित करी वो ले-देकर के या तो अनुभव हो रहे दुख को मिटाने के लिए होती है या आशंकित दुख को दूर रखने के लिए।
तो माने हमारी सारी गतिविधियाँ, हमारे सारे कर्म, हमारे सारे विचार और हमारी सारी योजनाएँ होते एक ही केन्द्रीय उद्देश्य के लिए हैं। क्या? कि दुख से किसी तरह बच सको। कौनसा दुख? या तो वो जो सिर आ पड़ा है या तो वो जो सिर आ पड़ता दिख रहा है कि गड़बड़ होनी शुरू हो गयी है, अनिष्ट सामने है कुछ गड़बड़ होने वाली है चलो कुछ करते है।
तो इंसान जो कुछ भी करता है वो करता ही इसीलिए है कि या तो वो अतृप्त है, सन्तप्त है, अपूर्ण है, बीमार है, लालच में है, डर में है या उसको ये विचार आ गया है, ऐसी आशंका आ गयी है कि कुछ है सामने जो गड़बड़ हो सकता है। इससे पहले कि गड़बड़ हो जाए कुछ करो।
तो सारी हमारी व्यवस्था है तो दुख केन्द्रित ही लेकिन जो दुख हमें इतना सताता है कि हमें जीवन भर भगाता है हम उसका कभी केन्द्रीय उपचार नहीं करते। हम उसका उपचार पचास अन्य तरीको से करते हैं। एक तरीका होता है सुख की खोज। एक तरीका होता है कि दुख को किसी भाँति विस्मृत कर दो।
कुछ भी हम करने को राज़ी हो जाते हैं, जो एक सीधा-सरल उपाय है वो नहीं आज़माते हैं। और वो ये है कि सच्चाई जान लो। और सच्चाई क्या है? सच्चाई ये है कि जो दुखी है उसके पूरे साक्षात्कार के बिना दुख नहीं मिटने वाला।
दुख कहाँ से चला जाएगा अगर जो दुखी है उसकी हस्ती का नाम ही दुख है? दुख कहाँ से चला जाएगा अगर जो दुखी है उसके रग-रग में दुख ही प्राण बनकर घूम रहा है?
ये ऐसी सी बात है कि तुम कहो कि खून मेरा दूषित है मुझे खून हटाना है, खून हट गया तो तुम बचोगे ही नहीं, हम जैसे जीते हैं दुख हमारा प्राण है, दुख हमारा जीवन रक्त है, दुख हट गया हम बचेंगे नहीं। तो इसीलिए जो दुखी है उसकी पूरी जाँच-पड़ताल करना कि ये चीज़ क्या है।
ये जो दुखी है जो अपनेआप को ‘मैं’ बोलता है या जो भी बोलता है, नाम लेता है अपना कभी, शास्त्रीय तौर पर हम उसे ‘अहम्’ बोल देते हैं। ये जो दुखी है ये कौन है? और क्या ऐसा हो सकता है कि जो दुखी है वो वैसा ही बना रहे जैसा वो सदा से था लेकिन दुख हट जाए। ऐसा हो सकता है क्या? हो सकता है क्या?
ऐसा हो सकता है कि शहद बना रहे लेकिन मिठास मिट जाए? ऐसा हो सकता है आग बनी रहे ताप हट जाए? हो सकता है?
लेकिन इंसान ने, ये जो दुख की समस्या है ये ही हमारी केन्द्रीय समस्या है और इसी केन्द्रीय समस्या ने जैसा थोड़ी देर पहले हमने कहा, हमें दौड़ा-भगा रखा है यही हमारा इन्ज़न है, यही हमारा ईंधन है।
आप सोचिएगा गौर से, अगर दुख न हो तो क्या लोग वैसे ही जियेंगे जैसे जी रहे हैं? थोड़ा और गहरा जाएँगे तो आप कहेंगे कि अगर दुख न हो तो शायद कोई कुछ न करें। और अगर कोई कुछ न करें और तब भी दुख न हो, तो कोई कुछ क्यों करेगा?
देखिए आनन्द के प्रेमी हम नहीं होते, हम दुख के सताये हुए होते हैं। इन दोनों बातों में बहुत अन्तर हैं।
बहुत अन्तर है क्योंकि आनन्द दुख का कोई विपरित नहीं है कि आप कहें कि देखिए साहब, जो दुख के विपरीत जा रहा है वो आनन्द की तरफ़ ही तो जा रहा होगा। न न न न। आनन्द दुख का विपरीत नहीं है।
आनन्द के प्रेम में पड़कर जीना, आनन्द के प्रेम में पड़कर सारे कर्म अपने करना, वो बिलकुल एक बात है और दुख से खौफ़ खाये हुए हो, दुख दौड़ा रहा है, भगा रहा है, इधर-उधर भाग रहे हो। ज़िन्दगी में कभी ये पकड़ रहे हो, कभी वो छोड़ रहे हो, यहाँ जा रहे हो, वहाँ जा रहे हो, ये कमा रहे हो, ये कमा रहे हो। ये बिलकुल दूसरी बात है।
हम लोग दुख के सताये लोग हैं और जो हमें सता रहा है वही हमारी ऊर्जा भी है वही हमारा ईंधन भी है, वही हमें दौड़ा रहा है जैसे किसी आदमी के पीछे कुत्ता पड़ा हुआ हो।
कुत्ता उसे सता तो रहा है लेकिन कुत्ता उसे दौड़ा भी रहा है, ये भी हो सकता है कि वो उतना तेज़ दौड़े जितना वो ज़िन्दगी में कभी दौड़ा ही नहीं था।
और अगर मक्कार होगा तो इधर-उधर वालों को बताएगा, देखो मैंने नया कीर्तिमान स्थापित करा है, इतना तेज़ दौड़ आया हूँ।’ इतनी तेज़ जो तुम दौड़े हो वो सिर्फ़ इसलिए दौड़े हो क्योंकि बहुत डरे हुए हो। डरे न होते तो इतना दौड़ न रहे होते ज़िन्दगी में।
तो दुख केन्द्रित तो हम जीवन जीते हैं लेकिन हम चाहते ये हैं कि हम जैसे हैं हम वैसे ही बने रहे और दुख हट जाए। हम जैसे हैं हम वैसे ही बने रहें, दुख हट जाए।
दुखी कायम रहे, दुख मिट जाए। ये हमारी चाहत होती है बहुत सीधे-सीधे। अगर ये सम्भव होता तुम्हारे लिए कि तुम आसमान को ही चमड़े की तरह पहन लेते तो तुम्हारे लिए ये भी सम्भव हो जाता कि जैसे तुम हो ऐसे बने-बने तुम्हारा दुख मिट जाता।
सेन्स ऑफ़ हूय्मर (हँसाने की कला) है भई! मतलब समझ रहे हो न, कपड़े से मतलब समझ रहे हो? तुमने अपने ऊपर जो कुछ चढ़ा रखा है, तुमने सौ चीज़ें जो अपने ऊपर चढ़ा रखी हैं न उसी का नाम तो दुख है।
और जिस दिन तुम ऐसे हो जाओ कि तुम्हें अपने ऊपर कोई परत, कोई आवरण चढ़ाने की ज़रूरत न पड़े, आकाशवत हो जाओ, उस दिन दुख भी मिट जाएगा तुम्हारा।
समझ में आ रही है बात?
कपड़ों की जैसे अपने ऊपर आपने पाँच तहें कर रखी हों, कपड़ों का एक छिलका, फिर दुसरा छिलका, तीसरा छिलका। ये ही तो दुख है और तुम कपड़े पहने-पहने चाहते हो दुख मिट जाए। और कपड़ा ही तो दुख है। ये जो पाँच कोष हैं तुम्हारे यही तो दुख है। क्योंकि उन्होंने छुपा किसको रखा है? उन्होंने अच्छादित किसको कर रखा है? पंचकोष के मध्य में कौन? ‘आत्मा’। जहाँ आनन्द है, जहाँ सबकुछ है।
तो इतना कुछ लादे फिर रहे हो अपने ऊपर और फिर कहते हो, ‘मुक्ति चाहिए।’ ये सब उतार दो, आसमान को कपड़े की तरह पहन लो, मुक्त हो आनन्द मिल जाएगा।
समझ में आ रही है बात?
नहीं तो दुख से आज़ादी के लिए सौ झूठे तरीके हैं ज़िन्दगी छोटी पड़ जाएगी उन्हें आज़माने के लिए, ज़िन्दगी आज़माते रहो, सौ साल, छः-सौ साल जितने साल तुमको अपनेआप को भ्रम में रखना है रखो।
सबसे अच्छा तो ये है कि मानो ही मत कि हम दुखी हैं। “न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।” कौन ये कहे भी कि दुख तो बहुत है पर हम उसका उपचार नहीं कर पा रहे? इतना कहने में भी हार जैसी भावना आती है, अहम् को चोट सी लगती है न कि अरे! इतने कुछ तो हमने कर लिया, बड़े आदमी हैं। ये कर लिया, वो कर लिया, ये दुख ही नहीं हटा पाये!
तो सबसे सस्ता उपचार क्या है? ’आइ एम हैप्पी। सो हाउ आर यू?’ ‘गुड।’ (‘मैं खुश हूँ। आप कैसे हैं?’ ‘बढ़िया।’)
(हँसते हुए) कैसे हैं आप सब? ओ मस्त! मौजा!
तुम्हारी हस्ती ही दुख से निर्मित है और अपनी हस्ती को बचाये-बचाये तुम घूम रहे हो दुख मिटाने के लिए, ऐसा हो ही नहीं पाएगा।
हमारी हस्ती दुख से कैसे निर्मित है? मैं जो कहता हूँ मैं हूँ, वो सारी बातें, वो सारी पहचानें, वो सारे आधार झूठे हैं, नकली हैं, कृत्रिम हैं, कालबद्ध हैं, समय उन्हें खा जाता है। खोखले हैं, कोई चोट पड़ती है, उन्हें तोड़ देती है। तो जो ‘मैं’ हूँ, ये ‘मैं’ ही बहुत झूठे आधारों पर बनी पहचान है, बड़ी खोखली बुनियाद पर खड़ी इमारत है।
ये हो ही नहीं सकता कि मैं रहूँ और दुखी न रहूँ। ये हो ही नहीं सकता कि मैं रहूँ और दुखी न रहूँ। पर मैं कहता क्या हूँ? मैं दुखी नहीं रहना चाहता। पर ‘मैं’ का तो दूसरा नाम ही दुख है क्योंकि ‘मैं’ ने अपनी रचना ही सब दुख की सामग्री को इकट्ठा करके करी है।
दुख की कौन-कौनसी सामग्री है जो हम इकट्ठा कर लेते हैं? ‘मैं हूँ, मेरे पास इतनी सफलता है, इतना पैसा है, मैं हूँ जो विजेता है।’ कोई चीज़ इसमें से टिकने की है? मैं हूँ जो फ़लाने लोगों से सम्बन्धित है, मैं यारों का यार हूँ, मैं फ़लाने का दिलदार हूँ।’
तुम दुखी कैसे नहीं होओगे, ये सबकुछ दुख का ही दूसरा नाम है और इसको अगर हटा दें तो मुझे बताओ, तुम्हारी क्या पहचान है?
ये सब हटाने के बाद अगर तुम्हारी कोई पहचान बच सकती तो तुम दुखी भी नहीं होते। ये सब हटाने के बाद जो बचता है उसको खाली आकाश कहते हैं। तो धुआँ-धुआँ है पचास तरीके का इसमें साँस ले रहे हो, दुखी नहीं होगे तो क्या होगे?
तुम्हें आसमान चाहिए और आसमान निर्मित नहीं करना पड़ता, आसमान खोजना नहीं पड़ता। कोई मूर्ख ही होगा जो कहेगा कि मैं आसमान की खोज में निकला हूँ।
आसमान तले तुम किसी चीज़ की खोज में निकल सकते हो। वैसे ही कोई मूर्ख ही होगा जो कहेगा, ‘मैं ‘सत्य’ का खोजी हूँ, मैं ‘आत्मा’ की खोज में निकला हूँ।’
आत्मा की खोज में निकलना वैसा ही है जैसे आसमान की खोज में निकलना। आसमान खोजना नहीं पड़ता, बस जो तुमने इधर-उधर का धुआँ इकठ्ठा कर रखा है, ये जो तुमने अपने सिर के ऊपर कितनी छतें डाल रखी हैं। छतें माने वो सबकुछ जो तुम अपनी सुरक्षा के लिए या अपने नाम-प्रतिष्ठा के लिए इकट्ठा करते हो। और फिर वही चीज़ टूटकर तुम्हारे सिर पर गिरती है, बोलते हो, ‘हाय! राम।’
आसमान कभी टूटकर किसी के सिर पर गिरा? छतें गिरती हैं। समझ में आ रही है बात? ये बहुत मूल सी बात है जिसे हम न जाने क्यों भूल जाया करते हैं।
गौतम बुद्ध ने कहा, जब उन्होंने पहला ही जो मूलभूत सत्य है, कहा, ‘जीवन दुख है’ और इतने दिन हो गये, हमें खुद तो नहीं बात समझ आयी, समझाने वालों ने इतने दिनों से दोहरा-दोहराकर समझायी लेकिन फिर भी हमें मुगालता यही है कि जीवन कोई बहुत मज़े की चीज़ है। हम तो मज़े मारने के लिए पैदा हुए हैं, कि हम तो बहुत अच्छे लोग हैं, कि हमें तो यहाँ पिकनिक के लिए भेजा गया हैं।
सोचो वो कैदी कैसा होगा? उसको जेल में डाला जा रहा है। और बोला क्या है उसको न्यायाधीश ने? ‘कैद-ए-बा-मशक्कत।’ कैद-ए-बा-मशक्कत का मतलब समझते हो? क्या? मेहनत-मज़दूरी के साथ ये कैद में रहेगा। ये वो नहीं है कि राजनैतिक कैदी है, पोलिटिकल प्रिज़नर कि इसको अलग ज़रा रख दो ससम्मान। मशक्कत के साथ कैद करानी है।
तो आप जब पैदा हो रहे होते हो, तो आकाशवाणी होती है, जो हमें सुनाई नहीं देती और उसमें क्या बोला जाता है? कैद-ए-बा-मशक्कत। वो सुनाई नहीं देता, हम खुशियाँ मनाते हैं हमें लगता हैं हम पिकनिक मारने आये हैं।
तुम्हें जेल में डाला गया है, तुम्हें लगता है कि तुम पिकनिक करने आये हो और गौतम बुद्ध ऐसे करके बैठे हुए हैं (सिर पकड़कर दिखाते हुए)। कितनी बार तो बताया था कि ‘जीवन दुख है’। पहले तो ये पैदा हो गया और उसके बाद बधाईयाँ-बधाईयाँ कर रहा है।
तो जीवन के प्रति ये जो मूलभूत अज्ञान है इसी के कारण दुख हटने नहीं पता। हम दुख के साथ पैदा होते हैं, लेकिन दुख न रहे जीवन में इसकी भी सम्भावना है और वो सम्भावना किस मार्ग से है? परमात्मा को जानो, दुख मिटेगा। बस एक ही है, दूसरा नहीं है। इधर-उधर मुड़ने की या कोई चोर-रास्ता तलाशने की कोशिश मत करना। एक ही मार्ग है, दुख के साथ पैदा होते हो, पर परमात्मा को खोज लो, दुख मिट जाएगा।
पर परमात्मा को खोजना क्या है? अपने कपड़े उतारना ही परमात्मा की खोज है। आसमान धारण कर लो। (दोहराते हुए) आसमान धारण कर लो। दिगम्बर हो जाओ।
जो आसमान धारण कर लेगा सिर्फ़ वही दुख से मुक्त हो सकता है वरना ये जो तुम शरीर धारण करके आये हो, माँ गर्भ से भी तुम कपड़ा पहनकर निकलते हो। कौनसा कपड़ा? शरीर। ये जो तुम शरीर धारण करके आये हो, यही दुख है। (दोहराते हुए) यही दुख है। जब तक शरीर से तुम्हारा तादात्म्य रहेगा तब तक दुख भी रहेगा।
जीवन दुख है क्यों बोला जाता है बताना ज़रा? ‘जीवन दुख इसलिए है क्योंकि दुनिया बड़ी सड़ी जगह है, लोग एक-दूसरे को मारते-पीटते रहते हैं वगैरह-वगैरह।’
जीवन दुख है क्यों बोला गया है इसपर स्पष्टता बहुत ज़रूरी है। बौद्धों में ये आर्ष वचन होता है, ‘जीवन दुख है’। प्रथम आर्ष वचन। क्यों? क्योंकि आपके शरीर के भीतर पाश्र्विक वृत्तियाँ बैठी हुई हैं। बस इतनी सी बात है।
जीवन दुख इसलिए है क्योंकि जीव में गहरी अचेतन वृत्तियाँ बैठी होती हैं जन्म के समय से ही। बस इतनी सी बात है।
जीवन दुख इसलिए नहीं है कि तुम पैदा होगे और फिर कोई तुम्हारे साथ नाइंसाफ़ी कर देगा। और तुम कहोगे, ‘देखो मेरा शोषण हो गया इसीलिए तो जीवन दुख है।’ नहीं, नहीं, नहीं।
यहाँ बात दूसरों की बिलकुल नहीं है कि दूसरा आकर के तुम्हारे साथ कुछ अन्याय कर गया, बात ये है कि तुम अपने भीतर ही बड़ा गड़बड़ मसाला लेकर पैदा होते हो, हमसब बिना अपवाद के, हमसब अपने भीतर बहुत गड़बड़ सामग्री लेकर पैदा होते हैं इसलिए जीवन दुख है। और इसलिए मैं तुम्हें यहाँ कह रहा हूँ, तुम यहाँ पिकनिक मारने नहीं आये हो, मिशन पर आये हो और मिशन है — कैद से रिहाई। जेल में पैदा हुए हो, यहाँ मज़े क्या कर रहे हो?
समझ में आ रही है बात?
दूसरे अगर तुम्हें परेशान करते भी हैं तो जानते हो कैसे? ऐसे जैसे किसी पगले ने पीछे से तुम्हारी शर्ट का कॉलर पकड़ लिया हो, और पकड़ ही लिया उसने और गाली-गलौच कर रहा है पीछे से।
और तुम भागने की कोशिश कर रहे हो तो तुम भाग नहीं सकते। क्यों? क्योंकि उसने पीछे से तुम्हारी शर्ट का कॉलर पकड़ रखा है। ऋषि ने पाँच-हज़ार साल पहले क्या सलाह दे दी है? ‘वस्त्र उतार दो।’ बस यही है।
तो पहली बात तो तुम अपने शोषण की सामग्री अपने भीतर लेकर पैदा हुए हो। दूसरी बात, दूसरे भी अगर तुम्हारे साथ कुछ अन्याय वगैरह कर पाते हैं वो भी इसीलिए क्योंकि तुमने कपड़े पहन रखे हैं। इशारा समझना, कपड़े से मेरा इशारा क्या है। ये न हो कि कह दो, ‘आचार्य जी न्यूडिस्ट (नग्न होने के समर्थक) हो गये।’
समझ रहे हो बात को?
तो तुम्हारी हस्ती में ही कुछ ऐसा होता है जिसका फायदा उठाकर दूसरे तुम्हारा शोषण कर जाते हैं। तुम अपनी हस्ती से वो चीज़ उतारकर फेंक दो, कौन है जो तुम्हारा शोषण कर सकता है?
कुछ समझ में आ रही है बात?
तुम आम का रस एक हाथ में लटकाये घूम रहे हो, और दूसरे हाथ में तुमने कुछ पकड़ रखा है उसमें ताज़ा गुड़ है। मक्खियाँ नहीं, ततैया। बढ़िया वाली ततैया। (हँसते हुए) और ये लगी हुई है तुम्हारे पीछे।
ततैया तो ततैया, वो मुफ़्त में भी काटती है उसका कुछ नहीं जाता। तुम इधर-उधर हो रहे हो, भाग रहे हो, वो चिड़ रही है कि इतना बढ़िया आम का रस है, ये पीने नहीं देता। अब देख लो तुम, ये जो तुमने पकड़ रखा है तुमको ये बचाना है या जान बचानी है।
जान बचाना भी छोटी चीज़ है, जान से बड़ा भी कुछ होता है। लोग ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने कहा है, ‘न आम का रस बचाना है और जब परीक्षा की घड़ी आ जाए तो जान भी नहीं बचानी है।’
वो जो अन्तिम चीज़ है वो बचानी है, उसके खातिर जैसे हम सारे वस्त्र उतार देते हैं वैसे ही अगर प्राण भी उतार देने पड़े तो कोई बड़ी बात नहीं। हम प्राण भी उतार देंगे, सारे कपड़े उतार दिये, अब एक चीज़ थी जो हमने पकड़ रखी थी। क्या? जान। वो जान भी उतार दी। सब उतार देंगे लेकिन गुलामी नहीं मंज़ूर है। जिसका ऐसा संकल्प होता है उसको दुख से मुक्ति मिलती है। नहीं तो गाँजा फूँको। सस्ता उपाय है ये। गाँजा।