चेतना है मूल, नैतिकता है फूल || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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चेतना है मूल, नैतिकता है फूल || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: क्या समाज में नैतिकता से रहना बहुत आवश्यक है?

वक्ता: सामाजिक नैतिकता कोई नैतिकता होती ही नहीं है। नैतिकता होती है तुम्हारी अपनी समझ का फूल। समझ जड़ है, नैतिकता उस पौधे का फूल है। समझ, तुम्हारे अपने बोध, तुम्हारे अपने विवेक मूल है, और नैतिकता उसका फूल है। नैतिकता का मतलब है, ‘क्या उचित और क्या अनुचित का भेद’, ‘क्या करें और क्या ना करें’।

वो सब कुछ तुम्हारे अपने जीवन दृष्टि से निकले तभी उचित है, अन्यथा नहीं। सामाजिक नैतिकता तो बस एक आचरणबद्ध बात है, उसमें कुछ रखा नहीं है, वो बहुत ही थोपी हुई, सतही, झूठी चीज़ है। दोहरा रहा हूँ, समझ मूल है और नैतिकता फूल है, तब नैतिकता असली है। पर अगर नैतिकता समाज कि दी हुई है, तो उसमें कोई दम नहीं है।

श्रोता १: सर, मेरी समझ से जिसके अंदर त्याग हो, प्रेम हो, सत्य हो, राष्ट्र प्रेम हो, उसको हम नैतिक कहते हैं?

वक्ता: ना तुम सत्य जानते हो, ना तुम त्याग जानते हो, ना तुम प्रेम जानते हो, ना तुम राष्ट्र जानते हो। तो ये घोर अनैतिक बात है इन पर चलना। क्या तुम्हें पता है सत्य क्या है? सत्य का अर्थ क्या है? हमेशा? तुम तो जो भी जानते हो वो अभी है, कल नहीं है। तुम अगर ये कह रहे हो, ‘सत्य नित्य है’, तो तुम तो जो भी जानते हो वो आज है कल नहीं है। तो तुम क्या सत्य को जानते भी हो? फिर कहा, क्या कहा था?

श्रोता १: प्रेम।

वक्ता: प्रेम का कुछ भी पता है तुम्हें? तुम तो प्रेम के नाम पर मोह जानते हो, आकर्षण जानते हो, शारीरिक उत्तेजना जानते हो। प्रेम के नाम पर कुछ सामाजिक मर्यादा जानते हो, बंधन जानते हो, या ममता जानते हो। पर प्रेम का तुम्हें कुछ भी पता है क्या? जब पता ही नहीं है तो फिर नैतिकता कहाँ? ये शब्द तुमने ऐसे उछाल दिये जैसे कितने सस्ते शब्द हों। सत्य, प्रेम,राष्ट्र, त्याग। त्याग का अर्थ क्या है? क्या त्यागना है, और कौन त्याग रहा है? राष्ट्र का क्या अर्थ है जानते भी हो?

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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