मन की उलझनों का सरल समाधान

Acharya Prashant

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मन की उलझनों का सरल समाधान

प्रश्नकर्ता: स्वयं को सुधारो मत, अस्वीकार करो। तो सर, ये अस्वीकार क्या है? और स्वयं को जो हम जानते हैं, उसमें तो दुखी, गलत और चिड़चिड़ा आदमी, यही है। लेकिन मन उस पर बार–बार जाता है क्योंकि हमें लगता है कि हम उसको सही कर सकते हैं। तो मन वहीं पर जाता है।

तो अगर अस्वीकार कर दिया जाए इसको, तो ये चीजें (दुख, गलती और चिड़चिड़ापन) बहुत सहजता से ली जा सकती हैं। फिर अगर ऐसा मैंने किया तो मुझे लगता है कि हाँ, सही है उसको ज़्यादा तवज्जो न दी जाए, पर जो आशीर्वाद कभी–कभी हमें मिलता है उस पर भी पूरी तरह से केन्द्रित नहीं हो पाता हूँ क्योंकि ये सारी चीज़ें ज़्यादा हावी हो जाती हैं।

तो सर, क्या मैं अस्वीकार को एक चालाकी की तरह ले रहा हूँ? जैसे ऐसी कोई भी चीज़ जो तुम्हें इरीटेट करे या जहाँ तुम्हारा मन जा रहा है उसको अस्वीकार कर दो।

आचार्य प्रशांत: जो तुम चलाना चाह रहे हो वो तो तरकीब ही है, पर बड़ी अधूरी तरकीब है क्योंकि तुमने इतनी देर में सिर्फ़ उन चीज़ों को डिसओन करने की बात की जो तुम्हें दुख या परेशानी देती हैं और सेल्फ़, अहम्, दुख और परेशानी पर ही नहीं पलता, इतना एकपक्षीय नहीं होता न मामला, दूसरे पक्ष को तुम पचा गये। जब डिसओन करोगे परेशानी को, तो प्रसन्नता को भी तो करना पड़ेगा, उसकी बात क्यों नहीं कर रहे?

डिसओन द सेल्फ़ (स्वयं को अस्वीकार करो) का मतलब है वो सबकुछ जो मन में चलता रहता है उसके साथ जुड़ना छोड़ो। मन का तो काम है बँधी-बँधाई चीज़ों पर उत्तेजित हो जाना और बँधी-बँधाई चीज़ों पर निराश हो जाना। न उत्तेजना को प्रश्रय दो, न निराशा के साथ बह जाओ।

प्र: मैं जाना तो चाहता ही नहीं हूँ, नहीं तो गड़बड़ हो जाएगा।

आचार्य प्रशांत: जहाँ तुम उसे लगा रहे हो, वहाँ लग कर वो चैन पा गया है? तो वहाँ बार–बार क्यों लगाते हो?

प्र: ये उथला–पुथला तो रहेगा ही क्योंकि इसको तो कुछ चाहिए।

आचार्य प्रशांत: तुम्हें कोई बीमारी है, तुम एक दवाई लेते हो। वो दवाई दो साल से असर नहीं कर रही है। कभी असर नहीं करती। तो उसे क्यों लिए जा रहे हो? तुमने ठीक कहा कि मन कहीं–न–कहीं तो जाना चाहता है, पर वहाँ तो नहीं जाना चाहता न, जहाँ उसे बार–बार भेज देते हो? जिन जगहों पर सिद्ध ही हो चुका है कि मन को ठिकाना नहीं मिलना, उन जगहों पर बार–बार मन को क्यों भेजते हो?

बैंक अकाउंट तो होगा ही, बैंक से ही हो? नेटबैंकिंग में पहली बार तुमने पासवर्ड डाला और उसने बोला, ‘रॉन्ग पासवर्ड।’ दोबारा फिर वही डालोगे? नहीं तुमने डाला, उसने फिर बोला, ‘रॉन्ग पासवर्ड।’ पर तुम तो वही हो कि ठीक है, हम तो वही करेंगे जो बार–बार करते आये हैं भले ही उसमें निराशा मिलती हो, तुमने तीसरी बार फिर वही डाला, रॉन्ग पासवर्ड। अब क्या आएगा स्क्रीन पर लिखा हुआ?

प्र: अकाउंट ब्लॉक्ड।

आचार्य प्रशांत: बार–बार गलत गोली क्यों खाते हो? अकाउंट ब्लॉक हो जाएगा भीतर का। फिर सही पासवर्ड भी डालोगे तो? तो खुलेगा नहीं। फिर लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा। जब एक बार दिख जाए कि जिस पासवर्ड का तुम इस्तेमाल कर रहे हो वो गलत है, तो उसका दोबारा उपयोग मत करना। जिस गलती को जान लो कि गलती है, उसे क्यों दोहराते हो बार–बार!

खाते-दर-खाते ब्लॉक हुए जाते हो, मानते नहीं हो। अपने ही खातों से लॉक्ड आउट हो, अपनी ही पूँजी पर अब तुम हाथ नहीं रख सकते, क्यों? क्योंकि अड़े हुए थे कि गलती दोहरानी है, दोहरानी है। अब इधर देखो और बताओ कि ये नकली पासवर्ड कितनी बार इस्तेमाल किया है? तीन-सौ बार, तीन-हज़ार बार? और बड़ी उम्मीद से हर बार जाते हो और वही पासवर्ड फिर डालते हो, जो पता है कि गलत है।

प्र: सर, कमपल्सिव पैटर्न (अनिवार्य स्वरूप) जैसा मुझे लग रहा है ऐसा कुछ...

आचार्य प्रशांत: (मुस्कुराकर) खाता खोलना है कि नहीं? तो उसकी बात क्यों नहीं कर रहे? अपनी ही पूँजी हाथ में लेनी है कि नहीं? उसकी बात क्यों नहीं कर रहे? मज़ा आने लगा है न? बार–बार गलत पासवर्ड डालूँगा और बार–बार स्क्रीन पर आएगा रॉन्ग पासवर्ड और इस मज़े में ये भूल ही गये हो कि अगर लॉगइन कर लोगे तो भीतर दस करोड़ रुपए हैं?

(मुस्कुराते हुए) बोलिए? बताइए?

प्र: आई वाज़ रीडिंग अ बुक, इट सेज़ दैट देयर आर थिंग्स विच नीड टू बी प्रोटेक्टेड, सो व्हाट डज़ इट मीन (मैं एक पुस्तक पढ़ रहा था, जिसमें कहा गया है कि कुछ चीज़ों को बचाने की ज़रूरत होती है। तो इसका क्या मतलब हो सकता है)?

आचार्य प्रशांत: इफ दे आर वर्थ प्रोटेक्टिंग (यदि वे सुरक्षा के लायक हैं) ट्रुथ इज़ द फाइनल आर्बिट्रैटर नो अथॉरिटी होल्ड्स वे ओवर ट्रुथ (सत्य अन्तिम मध्यस्थ है, सत्य पर कोई अधिकार नहीं टिकता)।

प्र: सर, इच्छा भय है, इच्छा का जीवन भय का जीवन है। तो मैं इन दोनों पर पढ़ रहा था कि इच्छा और डर का वास्तविक अर्थ क्या है। तो हर चीज़ के पीछे इच्छा तो लगभग दिख ही जाती है। इसलिए मेरे यहाँ आने के पीछे — स्पष्टतः नहीं कह सकता — इच्छा तो है, लेकिन इस इच्छा के पीछे डर नहीं दिख रहा है। हालाँकि ये एक इच्छा की तरह प्रतीत होता है। इच्छा है लेकिन इसके पीछे कुछ डर नहीं है, तो क्या ये कुछ अलग जैसा है या क्या मैं अलग ही नाम दे रहा हूँ उसे?

आचार्य प्रशांत: नहीं, ठीक समझ रहे हो। जब भी इच्छा उठेगी उसके पीछे ये भावना तो है ही निश्चित रूप से कि या तो कुछ पा लूँगा या खोने से बचा लूँगा या तो कुछ पा लूँगा या खोने से बचा लूँगा। इच्छा यही दो बातें बोलती है आपसे, ‘कुछ पा लूँगा या खोने से बचा लूँगा।‘ ये गौर कर लिया करो, क्या खोने से डर रहा हूँ या कि क्या बचाना चाह रहा हूँ। क्या खोने से डर रहा हूँ और क्या बचाना चाह रहा हूँ। बस ये देख लिया करो। ठीक है।

सारे डर बुरे होते हैं, एक डर को छोड़कर। वो अपवाद है और वो एक डर होता है — अपने को खो देने का डर। आप अगर खुद से बहुत दूर निकल आये हो, तो फिर भला है कि आपमें ये डर उठे कि मैं खुद को खोये दे रहा हूँ। आप अगर खुद से दूर निकल आये हो, तो भला है कि आपमें डर उठे। खुद को खोने के अलावा दूसरी जिस भी वस्तु को खोने का डर लगता हो, उसको कहना, ‘तू खोने ही लायक है, तू जा।‘

दूसरी वस्तु है, बाहर की है न। पकड़ भी लिया तो कितनी दूर तक साथ देगी? बाहर की चीज़ है लौट जानी है। हाँ, जब ये डर उठे तब बहाना मत करना, तब अपनेआप से झूठ मत बोलना, कौनसा डर? अपनेआप को खोये दे रहा हूँ। तब ईमानदारी से काँप लेना और तब गिरते–पड़ते भागना, जो भी उचित दिशा हो उधर को।

आत्मा के अलावा कुछ नहीं होता बचाने लायक और आत्मा ही क्यों होती है बचाने लायक क्योंकि मात्र आत्मा ही तुम्हें बचा सकती है। तुम आत्मा को नहीं बचाते, आत्मा को कौन बचाएगा, अजर-अमर है। आत्मा तुम्हें बचाती है, इसीलिए तुम्हें अपने और आत्मा के रिश्ते को बचाकर रखना होता है।

तो मैं जब कह रहा हूँ कि डरो कि कहीं तुम आत्मा को खोये तो नहीं दे रहे, तो उसका आशय ये है कि डरो कि कहीं तुम्हारा और आत्मा का रिश्ता खण्डित तो नहीं हो रहा, टूट तो नहीं रहा। और देखो कि रिश्ते में दूरी आ रही है, तनाव आ रहा है, टूटने के चिन्ह आ रहे हैं, तो बाकि सारे काम-धन्धे छोड़कर उस रिश्ते की मरम्मत में लग जाओ क्योंकि वही रिश्ता है, वही नज़दीकी है जो तुम्हें बचाएगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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