अंधविश्वास सफल कैसे हो जाता है - तीन कारण (तीसरा खतरनाक है) || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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अंधविश्वास सफल कैसे हो जाता है - तीन कारण (तीसरा खतरनाक है) || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: जो अभी जिज्ञासा है मेरी आचार्य जी, यूट्यूब पर एक शॉर्ट्स देखा था, उसके सम्बन्ध में है। तो एक बहुत सुप्रसिद्ध व्यक्ति जो श्रीमद्भगवद्गीता पर बोलते हैं उनका वह शॉर्ट्स देखा था; काफ़ी चल रहा है, बार-बार मेरे फीड पर आया। तो वो निष्काम कर्म पर बोल रहे थे और जो निष्काम कर्म का बहुत क्लीशे (घिसा-पिटा) पिछल्लू चलता है कि कर्म करो फल की चिन्ता मत करो उसपर। मैं थोड़ी असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करूँगा, पर उन्होंने एकदम दो कौड़ी की फटीचर बात बोली है, बहुत कॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास) के साथ बोली है। तो मुझे बहुत पीड़ा हुई कि ये चल भी रहा है शॉर्ट्स, लोग देख भी रहे है।

तो यह सवाल उठा कि अगर निष्काम कर्म को एक उच्च कोटि का सिद्धान्त मानें, तो सिद्धान्त तो भौतिकी के भी होते हैं, साइंटिफ़िक कॉन्सेप्ट्स (वैज्ञानिक अवधारणा) होते हैं, समाजशास्त्र में भी सिद्धान्त होते हैं, फिलॉसफी (दर्शनशास्त्र) में भी सिद्धान्त होते हैं। तो अगर एक स्केल (पैमाना) बनाएँ कि मटेरियल साइंस (सामग्री विज्ञान) से लेकर मटेरियलिटी (माद्दा) प्योर मटेरियलिटी (सुद्ध माद्दा), फिज़िक्स (भौतिक विज्ञान) से लेकर और इधर स्पिरिचुअलिटी (आध्यात्मिकता) है, तो फिज़िक्स (भौतिकी), सोशियोलॉजी (समाजशास्त्र), साइकोलॉजी (मनोविज्ञान), फिलॉसफी (दर्शनशास्त्र) , स्पिरिचुअलिटी (आध्यात्मिकता); इन सबके अपने कॉन्सेप्ट्स (संकल्पनाएँ) हैं। जो एक नम्बर की हरामखोरी हो रही हैं वह स्पिरिचुअलिटी के कांसेप्ट के साथ क्यों हो रही है, यह मेरा सवाल हैं।

आचार्य प्रशांत: क्योंकि वहाँ जो प्रूफ़ (प्रमाण) है वो सिर्फ़ और सिर्फ़ सब्जेक्टिव (व्यक्तिपरक) हो सकता है।

कोई भी कांसेप्ट (संकल्पना) अपने प्रमाण पर आधार लेता है न। अध्यात्म किसके विषय में होता है? अहम् के विषय में। तो वहाँ जो भी बात कही गई है, अन्ततः इसलिए कही गयी हैं कि आनन्द मिलेगा। अब आनन्द मिला या नहीं मिला इसका प्रमाण कौन दे सकता है? उसका प्रमाण पूरे तरह से सिर्फ़ सब्जेक्टिव (व्यक्तिपरक) होता है इसीलिए उसका कोई ऑब्जेक्टिव फ़ाल्सिफ़िकेशन (वस्तुपरक मिथ्याकरण) नहीं हो सकता, बस इसी बात का फ़ायदा सारे जो फ़्रॉड (ढोंगी) हैं वो उठा लेते हैं। भाई! मैं कह दूँ उदाहरण के लिए कि इसको ले लो (चाय का कप उठाते हुए) और इसमें जो चाय है उसको अपने सिर पर डाल लो और फिर आसमान की ओर मुँह करो और बोलो ‘पों पों फ़ो!’। और इससे तुमको तत्काल आनन्द मिल जाएगा। और मैंने ये जो बात बोली, इस बात के इर्द-गिर्द एक पूरा कल्ट (धर्म-सम्प्रदाय) ही निर्मित हो जाएगा और सब यही करते हैं। और ये उनका सिद्धान्त हैं—‘ऐसा करने से ऐसा होता है’। ठीक! सिद्धान्त में आख़िरी बात क्या है कि ऐसा करने से आनन्द मिलता है। वो सब-के-सब कह रहे हैं ‘आनन्द’। अब तुम उन्हें कैसे साबित करोगे कि आनन्द नहीं मिल रहा। वो कहेंगे, ‘मुझे अनुभव हो रहा हैं न।’

तो बाक़ी सब कॉन्सेप्ट्स में जो प्रूफ़ होता हैं वो ऑब्जेक्टिव (वस्तुपरक) होता है। अध्यात्म अकेला है जिसमें बात सब्जेक्टिव एक्सपीरियंस (व्यक्तिपरक अनुभव) पर आ जाती है इसीलिए यहाँ हर आदमी कह रहा होता है कि नहीं, होते हैं, भूत होते हैं, मैंने एक्सपीरियंस किया है। अब ये बात विज्ञान में नहीं चलेगी कि मैंने एक्सपीरियंस (अनुभव) किया है, विज्ञान में आप कोई उल्टी-पुल्टी बात कर दो, बोल दो कि प्रकाश की गति थ्री इंटू टेन टू दि पावर ऐट (तीन गुणा दस की घात आठ) (3 × 10⁸) नहीं होती है, फ़ोर्टी फ़ाइव इंटू टेन टू दि पावर ऐट (पैंतालीस गुणा दस की घात आठ) (45 × 108) होती है।

‘कैसे होती हैं?’ ‘मैंने एक्सपीरियंस (अनुभव) किया है।’

तो वहाँ चलेगी नहीं ये बात न, क्योंकि वहाँ बात ऑब्जेक्टिव (वस्तुपरक) है इसीलिए फ़ाल्सीफ़ाई (ग़लत सिद्ध करना) हो सकती है। अध्यात्म में फ़ाल्सिफ़िकेशन (मिथ्याकरण) का कोई खेल ही नहीं चलता, गुरु जी ने कुछ बोल दिया और जो उन्होंने बोला वो बोल रहा है, ‘ये मेरा अपना अनुभव है’। और एक बार किसी ने बोल दिया ‘मेरा अनुभव है’ तो तुम कैसे सिद्ध करोगे कि वो झूठ बोल रहा है।

तो इसी बात का फ़ायदा जितने ठग हैं सब उठाते हैं गुरु वगैरह बनकर के और वही सब जो कह रहे हो चल रहा है ‘दो कौड़ी की बात’। इसलिए अध्यात्म में जिस एक शब्द से एकदम, एकदम सतर्क हो जाना चाहिए वो है ‘अनुभव’। जैसे ही कोई बात करे—‘एक्सपीरियंस’ (अनुभव), मिस्टिकल एक्सपीरियंस (रहस्यमय अनुभव), फलाना एक्सपीरियंस। कम एंड एक्सपीरियंस ए ग्रेट पीस (आओ और एक महान शांति का अनुभव करो) कि मैं कोई फलानी बहुत बड़ी चीज़ करने जा रहा हूँ, कोई महान कॉनसिक्रेशन (पवित्रीकरण) होने जा रहा हैं, कम एंड एक्सपीरियंस समथिंग (आओ और कुछ अनुभव करो)। समझ लो ठगी का यहाँ पर भयानक उत्सव होने जा रहा है, जितने मूर्ख हैं वो सब फँसने जा रहे है। क्योंकि एक्सपीरियंस तो एक्सपीरियंस है।

ऐसी कोई मशीन आज तक बनी ही नहीं जो एक्सपीरियंस की वैलिडिटी (वैधता) को मेज़र (नापना) कर सके। कुछ भी बोल दो, ‘हुआ है एक्सपीरियंस’। और एक्सपीरियंस तो कैसे भी हो सकता है, तुम्हें सम्मोहित कर दूँ, एक्सपीरियंस हो जाएगा; तुम्हें नशा दे दूँ, एक्सपीरियंस हो जाएगा; तुम्हें डरा दूँ, एक अलग एक्सपीरियंस हो जाएगा, तुम्हें कुछ और हो जाएगा। यही बात मैं तुमसे बोल रहा हूँ, तुम इसे एक स्वस्थ चित्त से सुन रहे हो, तुम्हें एक अनुभव हो रहा है; यही बात बोल रहा हूँ, तुम इसे डरे मन से सुनो तो तुम्हें दूसरा अनुभव होगा; यही बात बोल रहा हूँ, तुम अन्यमनस्क होकर सुनो, तुम्हें तीसरा अनुभव होगा।

तो अनुभव का तो कुछ हिसाब ही नहीं हैं, कुछ भी अनुभव हो सकता है। और जो पॉप स्पिरिचुअलिटी (लोकप्रिय आध्यात्मिकता) है वो अनुभव को पैमाना बनाती है। वो कहती है, ‘अगर अनुभव हो रहा है तो सत्य है।’ और अहंकार की इससे बड़ी बात नहीं हो सकती कि मेरा अनुभव ही सत्य है, अनुभव सत्य है क्योंकि मेरा अनुभव है। इससे भयानक कोई बात नहीं हो सकती, कोई ये कह रहा हो। खेद की बात ये है कि अहंकार की बड़ी-से-बड़ी घोषणा अध्यात्म के क्षेत्र में ही होती है, यहीं पर अहंकार गरजता है खूब।

प्र: क्या धर्म भी एक कारण हो सकता हैं? क्योंकि जो मटेरियल कॉन्सेप्ट्स हैं फिज़िक्स में, या फिलॅासफी (दर्शनशास्त्र) में, साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) में; देयर इज नथिंग लाइक रिलीजन दैट कैरीज आल दीज़ कांसेप्ट्स एंड टीचेस (धर्म जैसा कुछ भी नहीं है जो इन सभी अवधारणाओं को वहन करती हो और सिखाती हो।)

आचार्य: डर, डर, डर। किसी को डरा दो तो वो मजबूर हो जाता है तुम्हारी बात मानने के लिए। डर, और डर का ही जो जुड़वा भाई है लालच, इसीलिए तो ये हैं ‘स्वर्ग और नर्क’। जब बाबा जी ने बोल दिया की फलाना सिद्धान्त है तो मान न, नहीं मानेगा तो नर्क मिलेगा, ख़त्म बात; मान, मान। अध्यात्म उस दिन शुरू होगा जिस दिन हर वो धार्मिक किताब जो मान्यता पर आश्रित है, जला दी जाएगी; और हर वो गुरु या ज्ञानी जो आपसे बातों को मानने के लिए बोलता है, खदेड़ दिया जाएगा।

हर उस व्यक्ति को हटा दो जो आपसे कहता है कि तुम्हें मेरे साथ होने के लिए अपनी तर्कशीलता को परे रखना होगा, ये आदमी ख़तरनाक है, अपराधी है; भगाओ इसको। मुझे इतना अफ़सोस होता है, भारत को जो दुर्दशा है उसकी वजह ये थोड़ी है कि यहाँ पर अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव था, दुर्दशा का कारण है तार्किकता का अभाव; आध्यात्मिकता का अभाव नहीं है हमारी। समझ में आ रही हैं बात।

यहाँ पर स्प्रिचुअल वेल्थ , अध्यात्मिक कोष की कोई कमी नहीं थी कभी भी। आज भी आप अध्यात्म में अस्सी–नब्बे प्रतिशत वही किताबें पढ़ रहे हैं जो हज़ार साल से ज़्यादा पुरानी हैं, तो वो सब तो हमेशा से उपलब्ध थीं। यहाँ किस चीज़ की कमी रह गयी? तार्किक ज्ञान की, विज्ञान की। भारत क्या आध्यात्मिक कमी से हारा है? अध्यात्म था, तार्किकता नहीं थी। और जब तार्किकता नहीं होती तो फिर कोई आध्यात्मिक बात भी समझ में नहीं आती। जब तार्किकता नहीं होती तो आध्यात्मिक बात भी बस अन्धविश्वास बन जाती हैं।

प्र: विज्ञान और दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में जब कोई फूहड़ बात करता है, तो देयर गेम इज (वहाँ खेल ये है) कि जो पीअर कम्युनिटी (सहकर्मी समुदाय) है वही बता देगी रिव्यू (समीक्षा) करके कि ये बकवास है।

आचार्य: नहीं, बता तो कोई भी सकता है। जो भी आप उस पर आक्षेप कर रहे हैं, आपत्ति कर रहे हैं उसको स्वीकृत-अस्वीकृत करने का एक निश्चित पैमाना होता है न। पैमाना क्या होता है कि तुम जो भी बात कह रहे हो, इट शुड बी इंडिपेंडेंटली वेरीफाइएबल (स्वतंत्र रूप से सत्यापन योग्य होना चाहिए)।

साहब! मैंने किसी मॉलिक्यूल (अणु) पर कोई परीक्षण करा है अमेरिका में और मैंने लिखा कि ऐसी-ऐसी स्थिति में इतना प्रेशर (दबाव) है, इतना टेंपरेचर (तापमान) है, ऐसा उसका केमिकल एनवायरनमेंट (रासायनिक पर्यावरण) है और इस समय ऐसे में मैंने उस पर बोम्बार्डमेंट (बमबारी) कर दिया—मान लीजिए बीटा रेज (बीटा किरणों) का—और फिर मैंने लिखा कि बीटा रेज (बीटा किरणें) इसमें ऐसे डालने से ऐसा-ऐसा हुआ। और उससे एक नया पार्टिकल (कण) डिस्कवर (खोज) हो गया। ऐसे करके मैंने एक पेपर निकाल दिया।

इंडिपेंडेंटली वेरीफाइएबल का क्या मतलब होता है? कि आपने जो बात लिखी है वो अब भारत में बैठकर एक व्यक्ति जाँच सकता है। वो कहेगा, ‘अच्छा, इतने टेम्परेचर (तापमान) पर, इतने प्रेशर (दाब) पर, ऐसे एन्वाइरन्मेंट (वातावरण) में, बीटा रेज़ (बीटा किरणों) का इतना कंसंट्रेशन (सान्द्रता) इस पर डालने पर ये कह रहे हैं कि फलाना पार्टिकल (कण) पैदा होता है, मैं जाँच लेता हूँ।’ लो, जाँच लिया गया।

अध्यात्म में कैसे जाँचोगे? वहाँ तो जो हो रहा है वो सबकुछ अनुभव के तल पर हो रहा है। ऐसा अनुभव हुआ हमको, ऐसा हुआ अनुभव। और जो ये अनुभव की बात कर रहे हैं ये आन्तरिक जगत में इतने अनाड़ी हैं कि ये जानते ही नहीं हैं कि तुम्हें क्या अनुभव हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है वो इस पर भी निर्भर कर सकता है कि आज तुमने प्याज़ खाई थी या नहीं खाई थी।

आप प्याज़ खाइए, आप प्याज़ नहीं खाइए; आपके अनुभव बदल जाते हैं। आप सो रहे हैं, आपको कैसा सपना आएगा वो इस बात से बदल जाएगा कि आपने एक बल्ब खुला छोड़ दिया या नहीं। आप सो रहे हैं और आपके कमरे में रोशनी है, तो आपको सपने में बम धमाके और दिन में घटने वाली घटनाएँ दिखाई देगी जिनमें प्रकाश शामिल होगा। और अगर बल्ब बन्द है, तो अन्धेरे के ज़्यादा घटनाओं की सम्भावना है।

तो अनुभव तो आपका इन छोटी-छोटी बातों से बदलता रहता है, अनुभव में क्या सत्यता है। लेकिन हमने अनुभव को ही—अनुभव हुआ न मुझे! गुरु जी के चरणों में बैठकर के अपार शांति का अनुभव हुआ। तुम्हें न पता होता कि वो गुरुजी हैं, तब भी ऐसा अनुभव होता क्या? तुम्हारी उन गुरुजी में इतनी आस्था नहीं होती तो भी होता? किसी और धर्म के मानने वाले आ जाते हैं, उन्हें भी होता हैं क्या?

तुम देख नहीं रहे हो? कि तुम्हें जो अनुभव हुआ वो इसीलिए हुआ क्योंकि तुम पहले से ही एक कहानी में मान्यता रखे हुए थे, इसीलिए तो वो अनुभव हुआ। अनुभव का क्या है, अनुभव तो कुछ भी हो जाता है, किसी को भी हो जाता है। और मानना पड़ता है कई बार कि अनुभव हुआ, क्योंकि जिन्हें अनुभव नहीं हुआ उन्हें पहले से ही घोषित कर रखा होता है कि जो महापापी होता हैं उसको अनुभव नहीं होता।

कह रहे हैं कि जितने भी सज्जन लोग होते हैं, वो जैसे ही गुरु जी के चरणों में बैठते हैं उनको अपार शांति मिलती हैं। और जितने व्यभिचारी होते हैं वो जब गुरु जी के चरणों में बैठते हैं तो उन्हें कुछ नहीं होता। तो तुम्हें कुछ हुआ कि नहीं हुआ? हिम्मत है तो बोलकर बता दो कि तुम्हें कुछ नहीं हुआ। तो ऐसे तो अनुभव होते हैं। और खेल ही सारा एक्सपीरियंस, एक्सपीरियंस, एक्सपीरियंस।

ताज़ा गिनती तक लोगों को मुझसे कुछ तीन-हज़ार-तीन-सौ-छप्पन तरह की समस्याएँ हैं, जिसमें से ढाई हज़ार से ज़्यादा तो कुल मिलकर के यही है कि ये किताबों की बात करते हैं, अनुभव की बात नहीं करते। अनुभव बताइए, अनुभव।

अनुभव मैं क्या बताऊँ? अनुभव ये कि ऐसे आँख बन्द करके (दोनों हाथों को ऊपर उठाकर साँस तेजी से भीतर लेते हुए) ‘हुआ, हुआ-हुआ’।

और मुझे इतना बस करना है और देखो फिर पूरा जगत लौटने लगेगा ज़मीन पर—‘हुआ, इनको भी हुआ’। अध्यात्म है कि सियारों का बाड़ा! जिसको देखो ‘हुआ-हुआ’। बस एक इस वजह से, बस एक यही वजह है, इंडिपेंडेंट वेरीफिकेशन (स्वतंत्र सत्यापन) नहीं हो सकता। और जो बात बतायी गयी है वो बतायी ही ऐसी गयी है कि वो फ़ाल्सीफ़ाई (मिथ्या सिद्ध करना) नहीं करी जा सकती, उसको आप कभी साबित नहीं कर सकते कि वो बात झूठ है।

तो आप किसी को कितना भी समझा लो कि वो बात झूठ है, पर आप उसे कभी भी शत-प्रतिशत झूठा साबित नहीं कर सकते। तो एक प्रतिशत उसके मन में ये रह जाएगा कि क्या पता होता ही हो। और अगर होता ही हो तो फिर रिस्क (ख़तरा) कौन ले, क्या पता होता ही हो। क्या पता होता ही हो क्योंकि आप कभी भी, कोई साइंटिफ़िक प्रूफ़ (वैज्ञानिक प्रमाण) उपलब्ध नहीं है न, कैसे बताओगे। आप उसको समझा सकते हो, तरीक़े-तरीक़े से आश्वस्त कर सकते हो, लेकिन कभी भी ऑब्जेक्टिवली (निष्पक्ष) प्रूव (सिद्ध) नहीं कर सकते कि ये सब जो बेकार की बातें हैं, ये ग़लत हैं। उसके मन में संशय का एक कोना बचा रह जाएगा। और संशय के उस कोने का नाम होता है ‘डर’। वो कहेगा कि अगर एक प्रतिशत भी सम्भावना है कि ऐसा कुछ होता है, तो मैं भी फिर उस पिक्चर (चलचित्र) की तरह कोर्ट (अदालत) की सीढ़ियों पर उल्टी करता हुआ मरूँगा; रिस्क कौन ले, रिस्क कौन ले।

मुझे कुछ हो जाए, कुछ हो जाए; तो जितने ये फूहड़ घूम रहे हैं अन्धविश्वासी जो अध्यात्म के नाम पर बदतमीज़ियाँ उड़ाते हैं, इनकी चाँदी हो जानी है। ये कहेंगे, ‘देखो इन्होंने भूत से इनकार किया, भूत इनसे बदला ले रहा है। इन्होंने फलानी चुड़ैल का अपमान किया, वो चुड़ैल बदला ले रही है। देखा! मानता नहीं था, ज़्यादा पढ़-लिख गया है न, मैकाले की संतान। आइआइटी आइआइएम वगैरह करके बहुत अपनेआप को पता नहीं क्या समझने लगा है। इसे पता ही नही था कि ये आइआइटी आइआइएम एक तरफ़ और देसी डायन एक तरफ़। अब, अब पता चला।’

मुझे कोविड हुआ था, कितनों को बड़ी प्रसन्नता हुई थी। बोले—‘कोविड इसको हुआ ही इसीलिए है, उल्टा-पुल्टा बोलता रहता था। देखो, गुरुजी का श्राप लगा है, कोविड हो गया है इसको।’ मुझे वायरस (विषाणु) से थोड़ी हुआ था, मुझे गुरुजी के श्राप से हुआ था। और अभी कुछ और हो जाए मुझे—दैव ने खून पिया है इसका। और कुछ हो भी सकता है क्योंकि ज़िन्दगी है क्या, उल्टी-पुल्टी चीज़े किसी के साथ भी होती रहती हैं। चलती ही रहती हैं।

और कुछ हो जाएगा, वो ये सिद्ध करने को पर्याप्त होगा कि देसी डायन न सिर्फ़ होती है बल्कि बड़ी मजबूत है। मैं लेकिन कितना भी कुछ कह लूँ वो सिद्ध करने को पर्याप्त नहीं होता, बस ये गड़बड़ है। मैं कितना भी समझा लूँ कि ये सब बेकार की बातें हैं, एकदम फूहड़ बातें हैं; मैं शत-प्रतिशत कुछ नहीं सिद्ध कर सकता। तो एक प्रतिशत जो संशय है वो निन्यानवे प्रतिशत तर्क से जीत जाता है क्योंकि हम अज्ञानी लोग हैं।

आत्मज्ञान के अभाव में जो चीज़ होनी-ही-होनी है उसका नाम हैं ‘अन्धविश्वास’। अगर आत्मज्ञान नहीं है तो अन्धविश्वास निश्चित है। वो किसी भी तरह का हो सकता है। पढ़े-लिखे पाश्चात्य संस्कृति के लोगों में आजकल एक अंग्रेज़ी क़िस्म के कई नये अन्धविश्वास आने लग गये हैं न। वो डायन की नहीं बात करते, वो रेकी की बात करते हैं। अन्धविश्वास वो भी बराबर का है, पर वो ज़रा पढ़े-लिखों का लगता है। गाँव का गँवार वो सब नहीं जानता, जो नए-नए लेटेस्ट सुपरस्टीशंस (नवीनतम अन्धविश्वास) हैं।

अन्धविश्वास तो रहेगा ही रहेगा, चाहे आप अशिक्षित हो या शिक्षित हो। अन्धविश्वास का सम्बन्ध इस बात से नहीं है कि आप पाँचवीं पास हो, या पीएचडी हो। अन्धविश्वास के होने, ना होने का सम्बन्ध है कि आप आत्मज्ञानी हो या नहीं हो। आत्मज्ञान अगर नहीं है, तो जो पाँचवीं पास वाला होगा वो डायन में मानेगा और जो पीएचडी होगा वो जो और रेकी-पेकी और जो पचास तरीक़े की चलती हैं चीज़ें आजकल, उनमें मानेगा। हैं अन्धविश्वास दोनों बराबर के। और ये पाँचवीं पास और पीएचडी, दोनों में साझा क्या है? आत्मज्ञान नहीं है दोनों में। तो अन्धविश्वास का प्रकार बदल जाएगा बस—देसी अन्धविश्वास बनाम विदेशी अन्धविश्वास, हिन्दी अन्धविश्वास बनाम अंग्रेज़ी अन्धविश्वास, लेकिन अन्धविश्वास तो रहेगा।

प्र: क्योंकि वेरीफ़ाइएबल (सत्यसाधनीय) नहीं है इसीलिए स्प्रिचुअल फिगर (आध्यात्मिक व्यक्ति) को अथॉरिटी (अधिकार) और पॉवर (शक्ति) चाहिए होती हैं ?

आचार्य: हाँ, और क्या बिलकुल। अब समझ रहे हो न कि जो पूरा जो रिलीजन (धर्म) का क्षेत्र है उसमें जो पादरी, पुरोहित वर्ग होता है पूरा, वो इतना ज़्यादा संवेदनशील क्यों होता है मान, मर्यादा, इज़्ज़त, सम्मान इत्यादि के प्रति। और क्यों वो बड़ी-बड़ी टोपियाँ पहनते हैं और इतनी मालाएँ पहनते हैं, इतना उनको आभूषित करके रखा जाता है। ऊँचे उनके मंच होते हैं, उनसे महाराज, बादशाह वगैरह करके बात करी जाती है; ये क्यों हैं? क्योंकि अगर उनसे डरकर नहीं रहेंगे लोग, तो सवाल कर लेंगे।

अन्धविश्वास के लिए ज़रूरी है कि कोई सवाल न करे। गुरु जी अगर लोगों के बीचोबीच बैठने लग गए, तो लोग सवाल करेंगे न। तो गुरु जी का बहुत ज़रूरी है, बहुत ऊपर बैठें और दिखाई दे कि उनके पास बहुत ताक़त है, बहुत सत्ता है। ताकि कोई सवाल न कर पाए, डरे।

भाई! सच तो स्वभाव है। तो आपको अगर किसी को झूठ स्वीकार कराना है, तो कुछ तो विशेष प्रबन्ध करना पड़ेगा न। वो विशेष प्रबन्ध क्या होता है? डराओ, नहीं तो कोई झूठ क्यों मानेगा। डराओ, और खुलेआम डराओगे तो नैतिकता पर सवाल आ जाएगा, तो छद्म तरीक़ों से डराया जाता है। पी.आर. करके डराओ, बड़ी-से-बड़ी छवि बनाकर डराओ, पैसा दिखाकर डराओ, राजनैतिक पहुँच दिखाकर डराओ; ये सब करके डराओ। डराना छोड़ दिया तो खेल ख़त्म हो जाएगा।

कोई वजह है न, कि जैसे महलों का कारोबार चलता रहा है, वैसे ही धर्म-स्थलों का कारोबार चलता रहा है; उतनी ही शान के साथ, उतनी ही भव्यता के साथ, उतना ही वहाँ पैसे का खेल रहता है। ताक़त दोनों ही जगहों से प्रक्षेपित की जाती है। महल हो, मन्दिर हो, मस्जिद हो, गिरजा हो; तुम देख रहे हो? ये सब एक मामले में एक जैसा दिखते हैं—‘ताक़त’। इन सब से ताक़त विकीर्ण होती रहती है। और कई बार तो इनके सबके जो आकार होते हैं वो भी लगभग एक जैसे होते हैं।

किसी छोटे बच्चे को बताओ नहीं कि गुम्बद किसका है, तो वो समझ नहीं पाएगा कि वो राजमहल का गुम्बद है—हाँ!—या किसी मन्दिर, या मस्जिद, या किसका है। कहेगा, ‘एक से ही दिख रहे हैं।’ वो सब सीट्स ऑफ़ अथॉरिटी (प्राधिकार की सीटें) हैं। डराना ज़रूरी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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