ऐसे देखो अपनी हस्ती का सच || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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ऐसे देखो अपनी हस्ती का सच || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता : ऐसा, मतलब जैसे की न इस चीज़ को हम याद रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन हमेशा नहीं याद होता है हम नश्वर हैं। मतलब हमेशा नहीं याद रहता है कि दिन में हर पल याद रहता है, ऐसा नहीं है, लेकिन दो-तीन बार हम याद करने की क़ोशिश करते हैं मतलब ख़ुद से नहीं याद होता है। ख़ास करके जब सारा दिन बीत जाता है तो एक बार तो हम एक पल के लिए कोशिश करते हैं, कि सुबह से मतलब रात तक जो किया क्या सार्थक कुछ किया?

अगर आज ही साँस ख़तम हो जाए, कल सुबह ही न देख पायें तो क्या कुछ और बाकी है? मतलब जीवन में कुछ पल देखतें हैं न कि कुछ बहुत चाहत नहीं है, फिर भी एक डर सा लगता है, लगता है कि ठीक है अभी और पाँच साल बाद भी हो सकता है, अभी छोड़ दो, अभी क्या करना है? ऐसा होता है।

आचार्य प्रशांत: वो इसलिए होता है क्योंकि नश्वरता तुमको कभी-कभी ही दिखाई दे रही है, लगातार नहीं। दिन में एक-आध बार ही विचार करना पड़ रहा है। नश्वरता विचार करके नहीं पता चलती। ज़िंदगी को अगर देख रहे हो ग़ौर से, तो नश्वरता के अलावा और दिखाई क्या पड़ेगा भाई? एक बच्चा होता है छोटा, देखो कितनी तेज़ी से बदलता है, महीने भर का होता है तो कैसा था? और छः महीने का होते ही कैसा हो जाता है।

उसका भी एक व्यक्तित्व बनने लगता है, तुम्हे नश्वरता नहीं दिख रही, सब बदल गया। तुम कह रही हो की दिन भर के बाद रात को मैं नश्वरता का विचार करती हूँ, तो दिन कहाँ गया? मिट गया न, लौटेगा? तो विचार क्या करना है? नश्वरता तो सामने ही है। संसार ही समूचा नश्वर है, जहाँ देखोगे, वहाँ कुछ मिटता हुआ ही पाओगे, यही तो नश्वरता है न। क्या दिख नहीं रहीं हैं चीज़ें बदलती हुई, समझना जिसको ये दिख गया कि संसार बदल रहा है उसको ये भी दिख जाएगा कि वो भी प्रतिपल बदल ही रहा है। इसके बाद वो अहंकार नहीं रख सकता। अहंकार ये मानकर चलता है कि तुम्हारी सत्ता में कुछ शाश्वतता है।

जहाँ तुम्हे दिखाई दिया कि संसार बदल रहा है और संसार के साथ साथ तुम भी बदल जाते हो, वैसे ही तुम्हे अपने ऊपर अभिमान रखना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। तुमको दिख जाएगा कि तुम तो कुछ हो ही नहीं, समय की कठपुतली मात्र हो, अब अभिमान करोगे कैसे, बताओ? प्रकृति की विकासधारा ने तुमको जैसा बना दिया तुम बन गए, उसके बाद तुम्हारे बचपन ने तुमको जैसा बना दिया तुम बन गए।

तुम छोटे शहर में पैदा हुए तुम एक तरह के हो गए, तुम बड़े शहर में हुए तुम दूसरे तरीके के, तुम भारत में हुए तुम एक तरीक़े के, तुम यूरोप में हुए तुम दुसरे तरीके के। दो बच्चे हों छोटे, एक लड़की पैदा हुई हो, एक लड़का पैदा हुआ हो, और आस-पास ही पैदा हुए हों, या पैदा होने की तिथियों में भी बस कुछ दिनों का ही भेद हो, और पाओगे कि छः महीने के होते नहीं हैं, दोनों के व्यक्तित्वों में अंतर दिखाई देना शुरू हो जाता है। तुम्हें दिख नहीं रहा है कि हम कुछ नहीं हैं, हम कुछ हैं ही नहीं, हम बस वो हैं जैसा हमको प्रकृति ने और समय ने बना दिया है।

और प्रकृति भी कुछ नहीं है, समय की लम्बी धारा का नाम प्रकृति है, विकास की करोड़ो वर्षों की यात्रा का नाम प्रकृति है। अब तुम हो कहाँ, बताओ? जैसे कि हम बस प्रभावों का एक संकलन मात्र हों, जैसे कि एक थाली पर पाँच-दस चीज़ें इधर-उधर से ला कर रख दी गई हों, थाली पर रख दी गई हैं, थाली की नहीं हैं। अभी हैं, अभी नहीं रहेंगी। जैसे कि किसी दीवार के सामने से बहुत सारे लोग गुज़र रहे हों, और उनकी छाया दीवार पर पड़ती हो। छाया दीवार पर पड़ती है तो लगता है कि दीवार का कुछ रंग-ढंग बदल गया, लगता है न? जिस दीवार पर छाया न हो वो दीवार अलग, जिस दीवार पर स्त्री की छाया हो वो दीवार अलग, जिस दीवार पर पुरुष की छाया हो वो दीवार अलग। पर उनमें से कौन सी छाया दीवार की है? लोग बदल रहे हैं, दीवार बदल रही है। हम उस दीवार जैसे हैं, हम कुछ हैं ही नहीं। बाहर भी सब बदल रहा है सब नश्वर है, भीतर भी सब बदल रहा है सब नश्वर है। हाँ, ग़ौर से देखोगे नहीं तो ये बदलाव दिखाई नहीं देंगें, बदलाव दिखाई नहीं देंगें तो अहंकार बचा रहेगा।

अहंकार इसी धारणा पर बचा रहता है कि वो शाश्वत है, शाश्वत अहंकार है ही नहीं, बार बार इसीलिए तो कहा गया कि जो नित्य है उसका नाम आत्मा है। अहंकार अनित्य है वो शाश्वत कैसे हो सकता है? अहंकार लगातार बदल रहा है, तुम कुछ हो ही नहीं। जिसको ये दिख गया कि वो कुछ नहीं है, वो आपे से ख़ाली हो जाता है, वो आपा फिर भूल जाता है। बड़ी चोट लगती है अहंकार पर, अहंकार टूट जाता है, मिट जाता है।

तुम कुछ सोच रहे हो तुम इसलिए सोच रहे हो, क्योंकि समय नें तुम्हारे शरीर का जैसा निर्माण कर दिया है, तो तुम्हारे मष्तिस्क में उस तरह की गतिविधि आनी समय ने तय कर दी है। वो तुम्हारी सोच है ही नहीं। सोच है, सोचने वाला कोई नहीं है। सोच मात्र है, एक प्रक्रिया चल रही है, प्रक्रिया के केंद्र पर कोई नहीं बैठा है। ख़ाली हो तुम, शून्य, एकदम खोखले। अब बताओ, तुम कैसे अभिमान कर पाओगे अपने ऊपर? नश्वरता लगातार दिखाई देनी चाहिए। रात को बैठ कर करने वाला विचार नहीं है नश्वरता, याद रहेगा? नश्वरता माने- बदलाव, नश्वरत माने- प्रभाव, नश्वरता माने- समय।

घड़ी की टिक-टिक ही नश्वरता है, साँस का आना-जाना ही नश्वरता है। नश्वरता इसमें नहीं है कि साँस चलनी बंद हो गई, नश्वरता इसमें है कि साँस चल रही है। हर साँस के साथ कुछ बदल रहा है, कोई साँस पिछली साँस जैसी होती है? साँस की मौज़ूदगी ही तुम्हारी नश्वरता का देवतक है। कहाँ तुम, किस चीज़ को स्थायी मानकर बैठी हो, पर अहंकार के लिए बड़ा जरुरी होता है सब स्थायी मानना। कुछ स्थायी नहीं है तो वो भी फिर स्थायी नहीं है, स्थायी नहीं है तो मिटा।

बारिश हो तो बूंदों को देखा करो, खाना बना लो उसके बाद रसोई को देखा करो, लोग खाना खा लें उसके बाद उनकी थालियों को देखा करो। नश्वरता दिखाई देगी। रात में नौ बजे, दस बजे सब टीवी देख रहे हैं कोलाहल है, और ग्यारह- साढ़े-ग्यारह बजे मरघट सा सन्नाटा, सब सो गए हैं। ग़ौर करोगी सिर्फ़ नश्वरता दिखाई देगी, लगातार दिखाई देगी। एक घंटे के अंदर ही देखो क्या हो गया? नौ- दस बजे, पिक्चर चल रही थी, गीत बज रहे थे, नुन्नू रो रहा था, नन्नी हँस रही थी, दादी बड़बड़ा रही थी, और साढ़े ग्यारह बजे? साधो रे!, ये मुर्दों का गाँव। कहाँ गए वो जो हँस रहे थे? कहाँ गए वो जो रो रहे थे? कहाँ गयी दादी जो बड़बड़ा रही थी। माहौल इतना कैसे बदल गया, यहाँ तो बहुत रौशनी थी, बत्तियाँ कैसे बंद हो गईं, अँधेरा कैसे आ गया। यही तो नश्वरता है।

सब ने खा पी लिया है, और सब झूठे बर्तन देखो कैसे पड़े हुए हैं। ये थालियाँ, ये कटोरियाँ, ये चम्मच थोड़ी देर पहले बहुत साफ-सुथरे थे और सजे हुए थे, और अभी ये एक दूसरे के ऊपर पड़े हुए हैं बदहाल हालत में, अव्यवस्थित, गंधाते, यही तो नश्वरता है। नहीं दिखती? जिस भगोने में, जिस कढ़ाई में खीर पकती है, क्या खुशबू उठती है उससे? और थोड़ी देर में उसका हाल देखना, कहाँ गयी खीर? खीर भीतर गयी और टट्टी बन गयी। और कढ़ाई का हाल है? बोलो, जिस कढ़ाई में स्वादिस्ट पकवान बना होता है, उसका हाल क्या होता है?

प्र: सूखा हो जाता है पूरा।

आचार्य: और खीर का क्या हुआ?

प्र : खा लेते हैं हम लोग।

आचार्य: नहीं, भीतर गई वो तो दिख रही है, भीतर क्या बन गई? और किसको बोलोगे, नश्वरता? ये सब दिखा नहीं और रात में बैठ करके विचार करोगे कि अरे ! बड़े लोग बता गए हैं कि जीवन नश्वर है। बड़े लोग क्या बता गए हैं? तुम्हारे सामने नहीं है बात?

कंघा करती हो तो बाल टूटता है कि नहीं टूटता है? हाँ , वो जो टुटा हुआ बाल है उसको देखा करो(बाल उठा कर देखने का इशारा करते हुए), वो तुम हो, थोड़ी देर पहले वो तुम्हारी पहचान का हिस्सा था, था कि नहीं? बोलती हैं, बाल भी कोई बांका नहीं कर सकता मेरा। थोड़ी देर पहले उस बाल को कोई छूता तो तुम कहती, तूने मुझे छुआ, वो तुम्हारी पहचान का हिस्सा था कि नहीं ? और अभी वो क्या है? अभी वो क्या है? अभी वो तुम्हारे लिए सिर्फ़ एक झंझट है। तुम सोचती हो इसको कहाँ फेंक दें। फिर उसको गुड़ीमुड़ी करके, कहीं कूड़ेदान में डाला, कहीं कुछ करा, कहीं कुछ करा। वो थोड़ी देर पहले ज़िंदाथा भाई, तुम उसे बड़े शान से लेकर चलती थीं, मैं ज़िंदा हूँ, ये मेरे बाल हैं, क्या हुआ? क्या हुआ? यही तो नश्वरता है बेटा।

बाल टूटा दिख गया, और भी बहुत कुछ है जो लगातार टूट रहा है, बस वो थोड़ा सूक्ष्म है आँखों को दिखाई नहीं देता। जो टूटे हुए बाल को देखकर मौत का ख़्याल न करे, वो आदमी या तो अँधा होगा या नशेड़ी। या तो उसे दिख ही नहीं रहा, या फिर वो देख कर भी अनदेखा कर रहा है। खीर, कंघी, टीवी, घर की जितनी चीज़ें हैं, सब किसका संदेश दे रही हैं?

प्र: नश्वरता का

आचार्य: तो रात में क्या विचार करना?

प्रश्नकर्ता: इनके क्वेश्चन (प्रश्न) में, जब आप ज़वाब दिए कि नश्वरता है और सब बदलता है, कुछ कर नहीं सकते हो, तो क्या वाक़ई?

आचार्य: कुछ कर नहीं सकते हो, तुम हो ही नहीं करने के लिए, तुम क्या करोगे? तुम्हारा होना ही एक भ्रम है। भई, किसी का होना तब माना जाए न जब वो कम- से-कम थोड़ी देर तो बचे। ये तौलिया एक सेकेंड को आए, और ग़ायब हो जाए, तो क्या मैं कहूंगा कि तौलिया है? एक सेकेंड को तौलिया था, थोड़ी देर में वो पैंट बन गया, फिर कोटी बन गया, फिर पगड़ी बन गया, फिर पतलून बन गया, फिर ये बनियान बन गया, तो इनमें से मैं किसी को भी कह सकता हूँ कि वो हैं? इस तौलिया को तौलिया तभी तो मानेंगे जब कम-से-कम घंटा-दो-घंटा तो ये शाश्वत रहे, मौज़ूद रहे, तब तो कहेंगे तौलिया है।

अभी यहाँ तौलिया रखा है, मैं कह रहा हूँ थोड़ी देर में यहाँ पर गमछा रखा हो, और तौलिया गायब हो गया, गमछा आ गया और कितनी देर में? एक ही पल में। फ़िर गमछा क्या बन गया? रूमाल बन गया, फ़िर शर्ट बन गया, फ़िर कुर्ता बन गया, फ़िर नाड़ा बन गया। और जितना उसको देखो उतना पाओ कि ये तो प्रतिपल बदल रहा है। तो उसको क्या नाम दोगे? क्या वो है भी? क्या वो है भी? क्या उसकी कोई सत्ता है? कोई हैसियत, कोई अस्तित्व? है क्या? नहीं है न? हाँ। तो ऐसे हम हैं। ये हमारा अहम् है, ये प्रतिपल बदलता है, तुम कभी कोई एक टिकी हुए चीज़ हो ही नहीं। तो कैसे कह दें कि तुम हो भी? हो ही नहीं। हैं कुछ नहीं, पर दम्भ पूरा है, कि हमसे बड़ा और कौन? हमसे महत्वपूर्ण और कौन? ऐसे ही दम्भी खोखलेपन को कहतें हैं,अहंता। है खोखला, लेकिन? दम्भ पूरा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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