प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अध्यात्म में भाषा का क्या महत्व है?
आचार्य प्रशांत: भाषा बड़े चमत्कार कर सकती है। जो शब्द तुम बोलते हो, वो तुम बोलते ही भर नहीं हो, सुनते भी हो। अपना ही कहा तुम सुनते भी हो। जैसे जानवर होते हैं न, जुगाली करते हैं। जुगाली का क्या मतलब होता है? जुगाली जानते हो न क्या होता है? क्या होता है? गाय-भैंसों का जानते हैं क्या होता है? पहले (चारा) अंदर जाता है, फिर जो अंदर का होता है वही बाहर आता है, पुनः अंदर जाता है। हमारा भी वैसा ही है। जो अंदर होता है, वही शब्द रूप में बाहर आता है, और बाहर आता है तो पुनः अंदर जाता है। इसीलिए भाषा बड़ी अनोखी चीज़ है।
अपने शब्द बदल डालो, मन बदलेगा। अपने शब्दों में नयापन ले आ दो, सफ़ाई ले आ दो, मन में भी नयापन और सफ़ाई आएँगे। जिसकी भाषा बदलने लग जाती है, यकीन जानिए उसका मन बदलने लग जाता है।
पुराने मनीषियों को ये बात समझ में आती थी, इसीलिए जब उन्हें शास्त्रों का अध्ययन करना होता था तो वो पहले शास्त्रों की भाषा सीखते थे। वो कहते थे, “मैं जैसा हूँ वैसा रहकर के नया शास्त्र जान ही नहीं पाउँगा, और मुझे बदलना है अगर, तो मेरी भाषा को बदलना होगा।” पहले भाषा आएगी। जब नई भाषा आएगी तब ही नया शास्त्र आ सकता है। अनुवाद बड़ी गड़बड़ बात है। अनुवाद का मतलब होता है – “भाषा मेरी पुरानी रहेगी। मैं जो भाषा जानता हूँ, भाषा मेरी वही रहेगी, शास्त्र नया रहेगा।” ऐसे में बात पूरी बनती नहीं।
तुम उसका विपरीत भी करके देख सकते हो। तुम अपनी भाषा को और मलिन कर दो, तुम देखो तुम्हारा धीरे-धीरे जीवन भी और मलिन होता चला जाएगा। इसीलिए अनर्गल, अनाप-शनाप बकने से बचना चाहिए; इसीलिए दुर्वचनों का प्रयोग करते समय सतर्क रहना चाहिए; गाली-गलौज से इसीलिए सावधान रहना चाहिए। जो तुम गाली दूसरे को दे रहे हो, वो गाली हो सकता है दूसरा ना भी सुने, हो सकता है दूसरा सुनने से बच भी जाए, लेकिन तुम तो सुन ही रहे हो। किसी और को जो कह रहे थे वो सबसे पहले किसने सुना?
प्रश्नकर्ता: ख़ुद ही ने।
आचार्य जी: ये तो गड़बड़ हो गयी। किसी और के लिए जो पकाया, वो सबसे पहले किसने खाया?
प्रश्नकर्ता: ख़ुद ही ने।
आचार्य जी: गड़बड़ हो गयी। गाली किसको दे दी?
प्रश्नकर्ता: अपने आप को।
आचार्य जी: बचो। जब आप ब्रह्म की स्थिति में परमात्मा को समर्पित करके कुछ बातें बोलते हो, परमात्मा नहीं आता सुनने के लिए। परमात्मा को कोई मतलब ही नहीं है कि आप कौन-सी आरती गा रहे हो। कौन आता है सुनने? तुम ख़ुद सुनते हो! वहाँ महत्व है इसका। परमात्मा नहीं प्रसन्न हो जाएगा; तुम्हारा अपना उद्धार होगा।
ये जो खड़े होकर के पाठ, जाप, मंत्र, शब्द, भजन-कीर्तन इत्यादि होता है, उससे बाहर की कोई सत्ता नहीं जो तुमसे संतुष्ट या प्रसन्न हो जानी है। जो भी कुछ कह रहे हो, ये स्वयं को सुना रहे हो; तुम सुन लेते हो।
जो भी कहते हो, कहते वक़्त सावधान रहना। दूसरे से जो भी कहा, वो सर्वप्रथम तुमने सुना। झूठ अगर कहा तो कानों को झूठ की लत लगा दी तुमने। छल कहा तो कानों को छल की लत लगा दी तुमने। जैसे ज़बान होती है न, उसे जो खिलाते जाओ उसको उसी की लत लग जाती है, वैसे ही कानों को झूठ की लत लग सकती है। कान को झूठ की लत लग गयी तो फिर अगर कोई आएगा सच बोलने, तो कान उसकी बात सुनेंगे ही नहीं; कान विद्रोही हो जाएँगे। कान कहेंगे, “हमें नहीं सुनना।” जैसे ज़बान नहीं खाना चाहती न, चटोरी हो गई ज़बान, तो उसके बाद उसे कुछ सूखा खिलाओ, कुछ सात्विक खिलाओ, तो मना कर देती है, वैसे ही कान हो जाएँगे। फिर कानों में अगर मंत्र पड़ेंगे, श्लोक पड़ेंगे, दोहे पड़ेंगे, तो कान कहेंगे, “भद्दी बात।” कान मस्तिष्क को सन्देश भेजेंगे, “सो जाओ”। दिनभर अगर तुमने मादक संगीत सुना है, उत्तेजनापूर्ण, भ्रमपूर्ण, मसाले से भरा हुआ, दिनभर तुम्हारे कानों ने यही ग्रहण किया है, और शाम को अगर फिर उन्हें मिले कृष्ण के श्लोक सुनने को, तो कान कहेंगे, “नहीं सुनना।”
ऐसे होता है न कि चटोरे आदमी को पता भी हो कि सामने जो रखा है वो उसकी सेहत के लिए अच्छा है, तो वो कहेगा, “भाई, बीमार रहना पसंद है, ये नहीं खा पाएँगे—दलिया नहीं खाऊँगा, खिचड़ी नहीं खाऊँगा, नीम का रस नहीं पीऊँगा।” क्योंकि दिनभर जो उसने सेवन करा है, उस सेवन ने उसे वही बना डाला है। अब वो जो बन गया है, उसका और दलिया-खिचड़ी और नीम का कोई मेल नहीं हो रहा। ठीक वैसे ही तुमने दिनभर जो शब्द सुने हैं, तुमने दिनभर जो गीत सुने हैं, वो इस गीता से अब मेल ही नहीं खाते। तो गौर कर लेना दिनभर कौन से गीत सुनते हो। दिनभर जो गीत सुन रहे हो, वो सुनने के बाद गीता तुम्हें प्यारी नहीं लगेगी। दिनभर जो वचन सुने जा रहे हो, पिए जा रहे हो, उन वचनों के बाद कृष्ण के वचन तुम्हें सुहाएँगे नहीं।
गीता कोई घटना नहीं है; गीता एक निरंतरता है। वो निरंतरता होगी तो ‘पूरी होगी’, और नहीं होगी तो ‘नहीं होगी’। नदी ऐसा नहीं होता कि ज़रा-सी देर के लिए है। नदी होती है तो पर्वत से लेकर समुद्र तक पूरी होती है, नहीं तो नहीं होती। नदी ऐसा नहीं है कि बीच में अचानक ज़रा-सी देर के लिए प्रकट हो गयी, फिर नदी नहीं है। गीता भी नदी है। आ रही है बात समझ में?
इस जगह को घाट जानना, यहाँ हम उतर भर रहे हैं नदी में। घाट में नदी पैदा नहीं होती, घाट में नदी में उतरा जाता है। हम उतर रहे हैं नदी में। और उतरोगे तो तब जब (नदी) पहले हो, और होगी तो पूरी होगी, नहीं तो नहीं होगी। तो ये मत समझना कि यहाँ आते हो तो यहाँ गीता पाठ हो जाना है। यहाँ का पाठ बस घाट है। ये जो पाठ है, ये बस घाट है। नदी ही सूख गयी तो घाट क्या करेगा? सूखी नदी पर भी तो घाट हो सकते हैं न? घाट है, नदी ही नहीं है, कहाँ उतरोगे?
दिनभर ऐसे रहा करो कि फिर जब यहाँ पर आओ तो सूखे ना आओ, बहाव के साथ आओ। फिर मैं तुम्हें तुम्हारे ही बहाव में उतरने में मदद कर सकता हूँ। पर तुम वो बहाव ले के ही नहीं आए, तो ये घाट क्या करेगा? आ रही है बात समझ में?
साधारण व्यक्ति और गुरु में ज़रा-सा यही अंतर होता है: आम आदमी घट होता है, घड़ा, गुरु घाट होता है। घट मतलब जिसमें कुछ है, और सीमा है; घाट मतलब जो एक अनंतता में प्रविष्ट कराने का साधन बन जाए। एक अनंत बहाव है, उसमें जो उतार दे वो गुरु। और बहाव नहीं है, एक सीमितता है, तो घट। जीवन समझ लो घट से घाट तक की यात्रा हो गयी।