प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अध्यात्म और मनोविज्ञान, दोनों ही मन की व्याख्या करते हैं। इनमें क्या अन्तर है?
आचार्य प्रशांत: ये जो है ये मनोज्ञान से आगे की बात है, तो इसमें वास्तव में प्रवेश भी वही कर पाएगा जो पहले मन के विज्ञान को समझता हो। उपनिषद् भी जब कोषों का वर्णन करते हैं तो उसमें कौनसे कोष आते हैं?
श्रोता: पाँच कोष हैं।
आचार्य प्रशांत: कौनसे हैं?
श्रोता: अन्नमय कोष, फिर प्राणमय, फिर मनोमय, विज्ञानमय, फिर आनन्दमय।
आचार्य प्रशांत: फिर आत्मा, तो विज्ञान को पार करे बिना आत्मा भी नहीं मिलेगी। तो जिसके मन में और मन की संरचना में, मन की प्रक्रियाओं में और मन के विज्ञान में रूचि हो वही आगे चलकर अध्यात्म में प्रवेश कर सकता है। जो अभी अन्न के ही तल पर अटका हुआ है, शरीर के ही कोष पर अटका हुआ है उसके लिए अध्यात्म नहीं है। पहले वो उन्नति करके ज़रा ये सवाल तो पूछे कि ये मन बला क्या है, कभी इधर भागता है, कभी उधर भागता है, कभी यहाँ से प्रभावित हो जाता है, कभी बेचैनी आ जाती है इसको, कभी सुख आ जाता है। ये चीज़ क्या है। जो ये सवाल पूछना शुरू कर दे फिर उसके लिए आगे चलकर आत्मा और ब्रह्म जैसी बातें सार्थक होती हैं, आरम्भ में ही नहीं।
असल में आरम्भ में ही ये ग्रन्थ किसी के हाथ पहुँच गये तो बड़ा नाश हो जाता है और बड़ा दुरूपयोग हो जाता है। क्योंकि उसको कुछ समझ तो आ नहीं रहा और ये हाथ में दे दिया गया और ये रट रहा है संस्कृत। और जीवन भर के लिए फिर वो इनसे विमुख हो जाएगा। वो कहेगा, हमने भी पढ़ा हुआ है। जैसे कि आप कहते हैं न कि आपके मित्र थे उनके घर में बहुत किताबें थीं पर किताबों की कोई उपयोगिता नहीं थी, किताबों का कोई प्रयोग नहीं था। लेकिन उनको ये धारणा ज़रूर हो गयी होगी कि अष्टावक्र को तो मैं भी जानता हूँ।
श्रोता: हाँ, बिलकुल।
आचार्य प्रशांत: अब जानते कुछ नहीं हैं लेकिन ये धारणा आ गयी है कि मैं अष्टावक्र को जनता हूँ। तो नतीजा क्या निकलेगा? नतीजा ये निकलेगा कि जहाँ कहीं भी अष्टावक्र की चर्चा होगी, उनका मन बहुत रूचि नहीं लेगा, वो कहेंगे, ‘अष्टावक्र को तो मैं जानता ही हूँ, पहले से जानता हूँ मैं क्या रूचि लूँ, मैं क्या समर्पण दूँ। तो अच्छा ही है कि ये लोगों के हाथ में न पहुँचे और जब बिलकुल सही समय आये ठीक उस वक्त इनको प्रवेश दिलाया जाए।
प्र: समय की बात बिलकुल सही है। क्योंकि जहाँ तक पहले भी कइयों ने पढ़ रखी थी तो मुझे समझ नहीं आया कि उन्होंने कैसे पढ़ ली, क्योंकि मैं कुछ श्लोक में फँस गया हूँ, मैं आगे नहीं बढ़ पा रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: हाँ, बिलकुल। आप लोगों की ज़िन्दगियाँ देखिए और फिर उनके दावे देखिए, वो कह रहे हैं मैंने अष्टावक्र को पढ़ रखा है, मैंने कृष्ण को पढ़ रखा है, उपनिषद् को पढ़ रखा है, कबीर को पढ़ रखा है, रुमी को पढ़ रखा है और फिर उनकी ज़िन्दगी देखिए तो आपको ताज्जुब... कहेंगे। तुम ज़िन्दगी ऐसी जी रहे हो, तुम कह रहे हो उनको पढ़ रखा है, यें कैसे हो गया?
मैं कॉलेज में था तो मैंने फाउंटेनहेड पढ़ी आइन रैंड की, कॉलेज में सभी पढ़ते हैं, बड़ा प्रचलन है, मैंने भी पढ़ी और फिर मैं मिलूँ जिससे भी दस में से तीन जने, चार जने बोलें हमने भी भी पढ़ी है। और मुझे बड़ा अचम्भा हो जाए, मैं कहूँ मैंने पढ़ा तो मेरे बिजली कौंध गयी, कुछ आविष्ट हो गया मेरे ऊपर, बिजली का आवेश चढ़ गया, इलेक्ट्रीफाइड हो गये और ये इतने सोये लोग और आलसी और इनके भीतर कोई ज्वाला नहीं, कोई आग नहीं और ये कहते हैं हमने भी फाउंटेनहेड पढ़ी है।
तो ये आज से बीस-बाईस साल पहले की बात है तो मुझे बड़ा अचरज हुआ था। और वही आज भी है, आप लोगों का ज्ञान देखिए और उन लोगों का जीवन देखिए, तो वहाँ कोई संयोजन ही नहीं है, वहाँ कोई मेल ही नहीं है। ज्ञान के तल पर वो उद्धृत कर रहें पता नहीं कहाँ का कौन सा श्लोक और जीवन उनका बिलकुल खाई में, गर्त में बीत रहा है।
प्र२: आचार्य जी, कार्य के सम्बन्ध में भारत के कई हिस्सों का भ्रमण करना पड़ता है। कई भागों में मैंने जातिवाद की कुप्रथा को देखा। इतने आध्यात्मिक ग्रन्थों, ऋषियों और सन्तों की पूरी श्रृंखला होने के बाद भी ऐसा कैसे हो गया?
आचार्य प्रशांत: देखिए, ये कितने कमाल की बात है कि जिस धार्मिक मूल से ये बात उठी है कि न तुम वर्ण हो, न आश्रम हो, किसी से भी तादात्म्य मत रख लेना। अरे! वर्ण-आश्रम छोड़ दो; तुम वो देह ही नहीं हो कि जिसका कोई वर्ण हो, कि जिसकी कोई आयु हो, कोई आश्रम हो। देह ही नहीं हो तुम। उसी धार्मिक प्रवाह पर जातिवादी होने का सबसे ज़्यादा इलज़ाम लगता रहा है और इलज़ाम पूरी तरह गलत भी नहीं है। भाई जिन लोगों को उपनिषद् उपलब्ध थे उन्हीं लोगों ने न जातिवाद को मूल से समाप्त नहीं होने दिया, न सिर्फ़ समाप्त नहीं होने दिया बल्कि पोषण भी देते रहे।
और ये कितने-कितने ताज्जुब की बात है कि सारे उपनिषद् और कृष्ण और अष्टावक्र हों, सारे आपके ऋषि-मुनि, सारे आपके दार्शनिक शाखाएँ – सांख्य, न्याय, योग सब आपको लगातार शरीर से ही मुक्त कराने की कोशिश करते रहे और आप बार-बार बोलते रहे नहीं साहब शरीर की तो जात होती है। अरे! शरीर की जो होती होगी सो होती होगी, उससे तुम्हें लेना-देना क्या जब तुम शरीर से साझा ही नहीं हो, शरीर से मुक्त हो तुम्हें जात से क्या लेना-देना। तो कितनी अजूबी बात है कि भारत जैसे देश में जातिप्रथा चलती रही, इससे ज़्यादा बड़ा आश्चर्य नहीं हो सकता।
प्र२: जबकि धर्म में उनके कहीं भी था ही नहीं।
आचार्य प्रशांत: कहीं नहीं था। आप कहाँ अष्टावक्र कहाँ पर बात कर रहे हैं वो तो साफ़ बोल रहे हैं कि वर्ण झूठा है। धर्म भी झूठा है, अधर्म भी झूठा है, सब ये मानसिक प्रपंचनाएँ हैं। प्रपंच में फँसकर आत्मा को भुला दिया। जाति महत्वपूर्ण गयी, आश्रम महत्वपूर्ण हो गया, तमाम तरह के रश्मों-रिवाज़ महत्वपूर्ण हो गये और जो केन्द्रीय बात थी – सत्य, आत्मा वो विस्मृत हो गयी। होना तो ये चाहिए था कि दुनिया तमाम तरह के विभाजन खड़े कर लेती तो कर भी लेती मन के आधार पर, शरीर के आधार पर, आर्थिक आधारों पर, तमाम तरह के आधार हो सकते हैं विभाजन खड़े करने के। पर भारत को तो सारे भेदों, सारे विभाजनों से आगे और ऊपर होना चाहिए था। लेकिन भारत में ही ये सारे भेद गहराई पकड़ गये, ये बात ही बड़े अचम्भे की है।
श्रोता: पकड़ गये या पकड़ा दिए गये?
आचार्य प्रशांत: पकड़ गये, पकड़ा दिए गये, तमाम तरह के संयोग से थे, यही तो माया कहलाती है। यही तो माया है कि जहाँ सत्य का गढ़ होना चाहिए था वहाँ पर तमाम तरह के भ्रम फलते-फूलते रहे, यही माया है।
प्र: जो आपने बात बोली न वो बहुत प्राकट्य है, विदेशी जो हैं उसका यूज़ कर रहें, उन्होंने यूज़ किया। ये न्यूज़, जब अंग्रेज आये होंगे तो उनको इस बारे में पता था।
आचार्य प्रशांत: वास्तव में कितने ही उपनिषद् हैं जो अंग्रेजों के आगमन के बाद पुनः स्थापित हुए हैं, पुनः अविष्कृत हुए हैं, पुनः रचे नहीं गये लेकिन एक तरह उनका पुनः अविष्कार हुआ है, वो खो गये थे। कितने ही ग्रन्थ हैं जो अंग्रेजों के दो-सौ वर्ष के काल में ही फिर खोजे गये और फिर मैक्स्मुलर इत्यादि तमाम बुद्धिजनों ने उनकी प्रशंशा की, उनको सम्मान दिया।
तो फिर भारतियों ने भी कहा, ‘अच्छा! हमारी विरासत में, हमारी परम्परा में इतना कुछ है।’ तो हमने भी उनकी ओर ध्यान देना शुरू किया। कुछ उपनिषद् तो अभी १००-१५० साल पहले मिले हैं। आप कहते हैं उपनिषद् तो हज़ारों साल पुराने हैं, कुछ उपनिषद् अभी मिले हैं और वो समय के नीचे दबे हुए थे-दबे हुए थे। क्या नहीं दबा हुआ था – ढकोसले नहीं दबे हुए, प्रपंच नहीं दबे हुए थे, तमाम तरह की सड़ी-गली परम्पराएँ नहीं दबी हुई थीं, वो सब फल-फूल रही थीं सारी बीमारियाँ फल-फूल रही थीं और जो जिन ग्रन्थों में मूल स्वास्थ्य है वो विस्मृत हो गये थे।
प्र: अभी तक मैं भी यही मानता था कि कुछ जो है इनमें वो तो हो नहीं रहा है, साइंस में तरक्की हो रही है वो स्टीवन हाकिंग ने जो किया था दिमाग में कहीं-न-कहीं था कि जो उसने कहा कि यहाँ पर शुरुआत हुई, महाविस्फोट से शुरुआत हुई थी लेकिन उससे पहले क्या था वो जवाब...
आचार्य प्रशांत: देखिए, बात सीधी है, जगत में पदार्थ के तल पर अगर आपकी जिज्ञासा है तो आप विज्ञान के पास जाएँ।
प्र: बिलकुल।
आचार्य प्रशांत: मन की जिज्ञासा इसी में है कि प्रकाश क्या है, दीवार क्या है, सीमेंट क्या है, लकड़ी क्या है, कोशिकाएँ क्या हैं, तन्तु क्या हैं तो विज्ञान के पास जाइए। पर अगर आपकी जिज्ञासा शान्ति को लेकर है, सरलता को लेकर है, प्रेम को लेकर के है तो वहाँ विज्ञान से कुछ नहीं मिलने वाला और न विज्ञान दावा करता है कि वो आपको प्रेम के बारे में या शान्ति के बारे में कुछ समझा ही देगा।'
तो ये आपके ऊपर है कि आप किस चीज़ को कितना मूल्य देते हैं। आप इसको मूल्य देते हैं, आप इसको मूल्य देते हैं, आप इसको मूल्य देते हैं (आसपास रखी वस्तुओं की ओर इशारा करते हुए) तो आप विज्ञान की शास्त्र के पास, अर्थशास्त्र के पास जाइए; और अगर आप शान्ति को और प्रेम को मूल्य देते हैं तो फिर आप आध्यात्मिक शास्त्रों के पास जाइए।
प्र: विज्ञान से सत्य जो आता है, कुछ नया आ नहीं रहा है, वो ये सिर्फ़ बता रहे हैं कि ये सत्य है, सत्य तो पहले से था, ग्रेविटी (गुरुत्वाकर्षण) जो थी वो थी, हमारे कहने से, निकालने से वो नयी नहीं बन गयी। न्यूटन के जो नियम हैं जो कि
आचार्य प्रशांत: नहीं, वैसे आप यदि देखेंगे तो आत्मा भी पहले से थी, बात थोड़ासा उससे हटकर है। गुरुत्वाकर्षण किसके ऊपर काम करता है? पदार्थ पर न, देह पर लगता है न। तो जिस हद तक देह में आप आपकी रूचि है और देह को आप महत्त्व देते हैं और देह के प्रति आपकी जिज्ञासा है और देह से आपका तादात्म्य है, उस हद तक न्यूटन ही भगवान है। क्योंकि उसने देह के बारे में कोई बड़ी बात बताई, गुरुत्वाकर्षण देह पर ही काम करता है, पदार्थ पर ही काम करता है। लेकिन अगर आपकी जिज्ञासा प्रेम पर है, तो प्रेम पर तो कोई ग्रेविटी नहीं लगती न, वहाँ तो कोई गुरुत्वाकर्षण नहीं लगता।
प्रश्न बस ये है कि जो परे है, जो बियॉन्ड है उसमें हमारी रूचि कितनी है। मेरी रूचि ही बस इसमें है कि मेरी थाली पर क्या रखा और मेरी जेब में कितना है, तो फिर अध्यात्म मेरे लिए है ही नहीं और होना भी नहीं चाहिए। अभी जब रूचि ही नहीं जगी तो क्या करना है। हाँ जिसकी रूचि जग गयी हो, जो पूछे और कहे कि क्या सिर्फ़ पेट भरने के लिए जी रहा हूँ, भोगने के लिए जी रहा हूँ, क्या सिर्फ़ ज्ञान इकठ्ठा करने के लिए जी रहा हूँ। जिसकी फिर ये जिज्ञासा उठने लग जाए उसके पास अध्यात्म के आलावा और कोई आश्रय नहीं है, उसको उधर जाना ही पड़ेगा।
विज्ञान में एक आदमी ने जो जाना, दूसरा आदमी उसके उसके आगे से शुरू करता है। आपको किताबों में जो पढ़ाया गया वो सब क्या था? जो किसी ने जान लिया। अब आपने बैठकर के ‘C’ भाषा खुद तो नहीं रची न।
प्र: हाँ, बिलकुल किसी ने रची है।
आचार्य प्रशांत: किसी ने ‘c’ रच ली अब उसके बाद आपने ‘C’ में सॉफ्टवेयर लिख दिया। ठीक है न? अध्यात्म में ऐसा नहीं होता, अध्यात्म में हर आदमी को शून्य से शुरुआत करनी पड़ती है। इसीलिए विज्ञान की परम्परा हो सकती है। भाई! न्यूटन के बाद कोई और आएगा, फिर कोई और आएगा, फिर आइंस्टीन आएगा और फिर आइंस्टीन को फ़ायदा मिलेगा उन सब बातों का जो दूसरे लोगों ने पहले ही खोज रखी हैं। पर अध्यात्म में सबको शून्य से शुरुआत करनी पड़ती है। क्योंकि हर आदमी पैदा माँस का लोथड़ा होता है, क्योंकि हर आदमी पैदा वृत्तियों के साथ होता है।
तो हर आदमी को अपना ध्यान खुद लगाना पड़ेगा, हर आदमी को अपना केन्द्र और अपनी आत्मा खुद खोजनी पड़ेगी। हर आदमी को परमात्मा की प्राप्ति वैसे ही यात्रा करके करनी पड़ेगी जैसी यात्रा बुद्ध की और महावीर की हुई थी। आप ये नहीं कह सकते कि बुद्ध ने यात्रा कर ली है न, अब मुझे करने की ज़रूरत है। लेकिन विज्ञान में ऐसा नहीं है, विज्ञान में अगर किसी ने ये बल्ब बना दिया तो उस बल्ब का फ़ायदा आपको मिल रहा है भले ही आप बिलकुल न जानते हों कि ये बल्ब काम कैसे करता है, किसी ने कार रच दी है, आप कार में चलते हैं इंजन के बारे में किसको कितना पता है। अध्यात्म में ऐसा नहीं होता, अध्यात्म में हर आदमी को अपनी पूरी यात्रा खुद करनी पड़ेगी, आश्रित होकर नहीं रह सकते आप। हाँ, ये है कि पुराने लोगों से आपको प्रेरणाएँ मिल जाएँगी। पर प्रेरणा मिलना एक बात होता है।
प्र: शुरुआत शून्य से करनी पड़ती है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, लेकिन राह आपको खुद ही चलनी पड़ेगी। प्रेरणा मिल जाएगी, गवाही मिल जाएगी लेकिन काम आपको खुद ही करना पड़ेगा। इसीलिए बुद्धों और महावीरों के होने के बाद भी भारत में आप चारों तरफ़ आध्यात्मिक निर्धनता पाते हैं। क्योंकि उन्होंने जो करा उन्होंने कर लिया, सवाल ये है कि आज के लोगों ने क्या किया। हर आदमी को खुद करना पड़ेगा। इसका आशय अब ये नहीं है कि बुद्ध और महावीर ने जो योगदान दिया उस योगदान की कोई कीमत नहीं है, उस योगदान के लिए सब आभारी हैं। लेकिन वो योगदान अधिक-से-अधिक प्रेरणा और गवाही बन सकता है। उस योगदान से ऐसा नहीं हो सकता कि बुद्ध ने आपके लिए आधी यात्रा कर दी और अब आपको बस आधी ही शेष करनी है, आपको भी पूरी ही करनी पड़ेगी यात्रा जैसे कि बुद्ध को पूरी ही करनी पड़ी थी यात्रा।
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