प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, अभी आपसे कई मीडिया चैनल्स ने पहलगाम आतंकी हमलों के बारे में प्रश्न पूछा था। तो आपने अपने उत्तर में भगवद्गीता का उल्लेख किया था तो मुझे ये बात तो बहुत रोचक लगी है, तो इस बात को मैं थोड़े और विस्तार से जानना चाहता हूँ कि आपने भगवद्गीता का उल्लेख क्यों किया था इसमें।
आचार्य प्रशांत: देखिए कोई भी चीज़ गड़बड़ हो जाती है तो हम उसे सुधारना चाहते हैं, कोई बीमारी लग जाती है तो हम उसका इलाज करना चाहते हैं। ये है (माइक की ओर इंगित करते हुए) ये खराब हो जाए ये बिल्कुल चीखने चिल्लाने लगे ये बहुत पागलों सा व्यवहार करने लगे तो मुझे इसे ठीक करना पड़ेगा ना? विक्षिप्त हो गया ये, पर इसे ठीक करने की अनिवार्य शर्त ये है कि पहले मैं इसको समझूँ और समझे बिना कुछ सुधार नहीं हो सकता।
जिस चीज़ को सुधारना चाहते हो उसको समझना पड़ेगा। इसी तरीक़े से आपको कोई बीमारी लग गई है कोई कीटाणु, जीवाणु, बैक्टीरिया आपको कुछ लग गया है आपको अगर उस बीमारी को खत्म करना है तो पहले आपको वो जो जीवाणु है ना जो पैथोजन है जो बीमारी का जीव है कारक है, आपको उसकी पूरी प्रक्रिया समझनी पड़ेगी कि वो पैदा कैसे होता है? आप में कैसे आता है? आप में फलता फूलता कैसे है? आपको नुकसान कैसे पहुँचाता है? ये सारी बातें जब आप समझ जाते हो तो फिर उसका इलाज बहुत आसान हो जाता है ना।
तो ये जो बीमारी है आतंकवाद की अगर हम इससे निपटना चाहते हैं इसका सामना करना चाहते हैं तो पहले इसे समझना पड़ेगा। ये आतंकवाद चीज़ क्या होती है? इसका जन्म कैसे होता है? और क्योंकि आतंकवाद मनुष्य के मन की एक चीज़ है, आतंकी बाहर-बाहर से तो वैसे ही दिखता है जैसे दूसरे लोग दिखते हैं दो हाथ, दो पाँव, दो आँख उसके भी होती है पर उसके भीतर कुछ बदल गया होता है। तो आतंकवाद क्योंकि मनुष्य के भीतर की चीज़ है तो इसलिए वो ग्रंथ वो स्रोत हमारे लिए बहुत लाभकर होते हैं आतंकवाद को समझने में जो हमें इंसान के भीतर क्या चलता है इस बात से परिचित कराते हैं।
आतंकवाद की शुरुआत कहाँ होती है? बंदूक से नहीं होती है इंसान के मन से होती है।
बंदूक बाद में आती है आतंकवाद शुरू यहाँ पर होता है (दिमाग की ओर इंगित करते हुए) और यहाँ क्या चल रहा होता है ये हमें गीता जैसे ग्रंथ बहुत स्पष्टता से बहुत गहराई से और बहुत विस्तार में बताते हैं। तो इसलिए गीता बहुत उपयोगी है अगर आप सचमुच आतंकवाद को समझना चाहते हैं और उसका खात्मा करना चाहते हैं। और इसीलिए बात आपको रोचक लगी, बहुत-बहुत लोगों को रोचक लगी है। वो छोटी सी मेरी बात थी मीडिया चैनल्स के साथ, पर लोगों को वो बात जो है वो थोड़ी गहरी लगी है जानना चाहते हैं, इसी तरीक़े से हम इस बीमारी को आतंकवाद कहते हैं गोलीवाद नहीं कहते हत्यावाद नहीं कहते, इसको एक खास नाम दिया गया है आतंकवाद।
तो ये जो बीमारी है, ये आपके मन में डर भय दहशत पैदा करने का काम करती है तभी इसका नाम ही है आतंकवाद आतंकी का निशाना बस वो लोग नहीं होते जिन्हें गोलियों से मार दिया जाता है, गोलियों से तो चंद लोगों को मारा जाता है। आतंकी का निशाना वो करोड़ों लोग होते हैं जिन तक ना गोली पहुँचती है, ना गोली की आवाज पहुँचती है, जिन तक बस हत्याकांड की ख़बर पहुँचती है। असली निशाना वो करोड़ों लोग होते हैं इसीलिए इसे आतंकवाद कहा गया है ताकि उन करोड़ों लोगों के भीतर आतंक बैठ जाए यही आतंकवाद का उद्देश्य होता है। तो आतंकी आप पर चढ़ बैठता है आपके भीतर डर बैठा करके।
जरूरी नहीं आप पर गोली चलाए 150 करोड़ लोग हैं भारत में। बहुत मुट्ठी भर लोगों पर गोली चलाई गई बाकी लोगों पर गोली नहीं चलाई गई, लेकिन इरादा ये था कि जितने 150 करोड़ लोग हैं आतंक सब में बैठ जाए। तो ये आतंक यानि भय, डर ये क्या चीज़ होते हैं? कोई कैसे सफल हो जाता है आपको डराने में, डर चीज़ ही क्या है? और डर से कैसे मुक्त रहा जाए, ये बात भी भगवद्गीता सिखाती है। तो आतंकवाद जन्म कैसे लेता है, आतंकवाद कैसे आपको ग़ुलाम बनाना चाहता है, झुकाना चाहता है, डराना चाहता है दूसरी बात। और तीसरी बात कि आतंकवाद को जवाब कैसे देना है हमें ये बात भी गीता सिखाती है।
तीनों बातें गीता सिखाती है क्योंकि गीता की तो पृष्ठभूमि ही लड़ाई के मैदान की है ना।
वहाँ भी सामने कोई खड़ा हुआ था बड़ी भारी ताकत लेकर के। पांडवों से लगभग ड्योढ़ी उसके पास सेना थी और बड़े-बड़े महारथी थे उसके पास और राज्य भी उसी के पास था। तो ऐसी स्थिति में भी शत्रु से डरे बिना उसका सामना कैसे किया जाए? ये बात भी गीता सिखाती है। तो इस नाते मैंने कहा था कि ऐसी जब घड़ियाँ राष्ट्र के सामने आती हैं, तब तो गीता और ज़रूरी हो जाती है। अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे लेकिन पहले ही अध्याय में कहते हैं कि मेरी खाल जल रही है, मेरी टांगे कांप रही हैं, मेरे रोएँ खड़े हो रहे हैं। मेरे भीतर विषाद है, आवेग है, शोकाकुलता है, उत्तेजना है, मैं कैसे शांत और स्थिर होकर के युद्ध करुँ? वो बोले मैं गांडीव रख रहा हूँ और वो धम्म से बैठ जाते हैं रथ पर और ये सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हैं।
और इनके पास बहुत अच्छे तरीक़े के आयुध हैं, माने हथियार हैं। एक बाण नहीं चलता बिना गीता के। तो ज़िन्दगी की जो सबसे बड़ी लड़ाइयाँ होती हैं न, वो सिर्फ़ शस्त्रबल से या बाहुबल से या बुद्धिबल से नहीं जीती जा सकतीं। शस्त्र भी हैं अर्जुन के पास, और बाहु भी हैं अर्जुन के पास। महाबाहु कहलाते हैं, और बुद्धि के भी वे तीव्र हैं। लेकिन उसके बाद भी जब तक गीता नहीं आई, तब तक युद्ध जीतना तो छोड़ दो, अर्जुन युद्ध में ठीक से प्रवेश भी नहीं कर पाए। जब युद्ध सामने खड़ा हो, तब तो गीता एकदम अनिवार्य हो जाती है। समझ में आ रही है बात?
तो चलो अब पहली बात पर आते हैं कि आतंकवाद का जन्म कहाँ से होता है? और इसको हम गीता के प्रकाश में समझेंगे कि आतंकी आता कहाँ से है? आतंकी माँ के गर्भ से नहीं पैदा होता। आतंकी पैदा होता है एक माहौल से, और उस माहौल को जो वो अपनी अज्ञानगत प्रतिक्रिया देता है, जो उसका इग्नोरेंट रिएक्शन होता है अपने माहौल के प्रति — उससे आतंकी पैदा होता है। जितनी भी काउंटर टेररिज़्म रिसर्च है, और साइकोलॉजी और सोशियोलॉजी खूब रिसर्च हुई है। क्योंकि पिछले 20–30 सालों में आतंकवाद सिर्फ़ भारत जैसे विकासशील देशों की नहीं, बल्कि विकसित देशों की भी बीमारी बन गया है।
9/11 जानते हो न? तो खूब रिसर्च हुई काउंटर टेररिज़्म रिसर्च — कि आतंकवादी कैसे पैदा होता है, कैसे पनपता है? तो पता चला कि जिन जगहों पर गरीबी सबसे ज़्यादा होती है, अशिक्षा सबसे ज़्यादा होती है, और माहौल में धार्मिक कट्टरता होती है माने धर्मांधता होती है, ऐसी जिसमें सवाल पूछना मना होता है — उन जगहों से सबसे ज़्यादा आतंकी पैदा होते हैं। गरीबी, अशिक्षा और कट्टरता का माहौल, धर्मांधता का माहौल। इसके अलावा भी बहुत सारे और कारक होते हैं 5-6। उदाहरण के लिए राजनीतिक अस्थिरता। जहाँ राजनीतिक अस्थिरता ज़्यादा होती है, उन जगहों से आतंकवादी ज़्यादा निकलते हैं। जिन जगहों पर कानून व्यवस्था ठीक नहीं होती, रूल ऑफ लॉ नहीं होता वहाँ से आतंकी ज़्यादा निकलते हैं।
जिन जगहों पर पहले से ऐसे संगठन सक्रिय होते हैं जो युवकों को ब्रेनवॉश करके, गुमराह करके, उग्रवादी संस्थाओं में दाख़िला कराते हैं वहाँ से आतंकी ज़्यादा निकलते हैं। तो और भी कई कारक थे, लेकिन जो प्रमुख कारक निकले हैं, वो हैं — अशिक्षा, गरीबी, और धर्मांधता का माहौल। इसके अलावा कुछ ऐसी बातें निकली हैं, जिन्हें हम कैज़ूअल फैक्टर नहीं बोल सकते माने "कारक" नहीं बोल सकते पर वो बातें कोरिलेटेड हैं। माने, जहाँ से उग्रवादी निकलते हैं, उन जगहों पर आमतौर पर ये चीज़ें भी पाई जाती हैं। तो उनमें से एक है—तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या। महिलाओं का समाज में गिरा हुआ स्तर। एक हाई फर्टिलिटि रेट।
ये सब भी उन समाजों के लक्षण होते हैं, जिन समाजों से आतंकी पैदा होते हैं। समझ में आ रही है बात? ये सब के सब किधर की ओर इशारा कर रहे हैं कि मनुष्य पैदा तो पशु ही होता है ना। और अगर उसको सही शिक्षा नहीं मिली तो फिर वो पशु ही रह जाता है। मनुष्य पैदा तो पशु ही होता है। भाई पृथ्वी पर 4 बिलियन साल पहले जीवन की शुरुआत हुई थी और मनुष्य का होना हमारी प्रजाति होमोसेपियंस का होना उस 4 बिलियन साल की तुलना में बड़ी ताज़ी-ताज़ी घटना है। और उसमें भी आगे ये कि जंगल से हम एकदम ही ताज़े-ताज़े बाहर आए हैं। बहुत समय नहीं हुआ हमें। सिर्फ़ 10,000 साल पहले मनुष्य ने खेती शुरू करी है। इससे पहले तो जंगल में ही अपना घूमता रहता था और कुछ मिल गया उठा के खा लिया यही सब चलता था, तो हम पशु ही हैं अभी भी। हम अभी भी पशु ही हैं।
लगभग 70,000 साल पहले तक मनुष्य में ये क्षमता भी नहीं थी कि, जैसे आप आज सोच लेते हो ना आपके पास जो सोचने की क्षमता है जो कॉग्निटिव एबिलिटीज़ हैं, 70,000 साल पहले तो वो भी नहीं। और 70,000 साल पहले बहुत पास की बहुत हाल की बात है। क्योंकि पृथ्वी पर जीवन बहुत-बहुत पहले से है। एक बिलियन कितना होता है 100 करोड़ तो चार बिलियन वर्ष पहले से पृथ्वी पर जीवन है। और मनुष्य ने तो हाल में सोचना शुरू किया और सोचने के बाद भी वो अभी सिर्फ़ 10,000 साल पहले तक जंगल में ही रहता था। हम अभी भी जानवर ही हैं। और जानवर ना नैतिकता जानता है, ना करुणा जानता है, जानवर तो बस अपने प्रकृति प्रदत्त स्वार्थ जानता है। बंदर को केला चाहिए तो चाहिए, शेर को मांस चाहिए तो चाहिए। बस जानवर के साथ ये गनीमत रहती है कि शेर का जब पेट भर जाएगा, उसके बाद वो ज़बरदस्ती हत्याकांड नहीं करेगा हिरणों का।
मनुष्य में वो सब स्वार्थ भी हैं जो पशुओं में रहते हैं। लेकिन साथ ही साथ मनुष्य में बुद्धि भी है तो इसके कारण वो उस स्तर की हिंसा कर सकता है जिस स्तर की हिंसा कभी जानवर कर ही नहीं सकते।
तो मनुष्य ना सिर्फ़ पशु है, बल्कि बहुत खतरनाक पशु है। अब आपने इस पशु को सही शिक्षा दे के अगर इंसान नहीं बनाया, आप एक ऐसी जगह पैदा हो रहे हो जँहा किन्हीं कारणों से शिक्षा को महत्व ही नहीं दिया जाता। और बहुत सारे देश हैं जहाँ शिक्षा को सिर्फ़ इसलिए महत्व नहीं दिया जाता क्योंकि अगर शिक्षा को महत्व दे दिया गया तो उनको लगता है कि मज़हब खतरे में पड़ जाएगा। क्योंकि देखिए विज्ञान बहुत सारी ऐसी बातें बताता है जो कि आपकी मान्यताओं के विपरीत जाती हैं। तो आप कहते हो कि हम इनको विज्ञान पढ़ने ही नहीं देंगे, क्योंकि अगर इन्होंने विज्ञान पढ़ लिया तो फिर ये हमारी परंपरा से और हमारे मजहब से ही दूर चले जाएँगे। तो शिक्षा कई बार तो संयोगवश या अन्य कारणों के वश उपलब्ध नहीं होती और कई बार जानबूझ करके समाज को अशिक्षित रखा जाता है ताकि समाज अंधविश्वासी रहे। और उसके ऊपर जो धर्म के ठेकेदार बैठे हैं वो राज कर सकें। समझ में आ रही है बात?
तो हम जो वहाँ पर जो बच्चे पैदा होते हैं फिर उनको पढ़ने नहीं देते। हम कहते हैं, अगर इन्होंने पढ़ लिख लिया तो ये हमारे काबू से बाहर हो जाएँगे। असल में पढ़े लिखे आदमी को वैचारिक रूप से ग़ुलाम बनाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। उसे भी बनाया जा सकता है बिल्कुल पर जो बिल्कुल निरक्षर है, कुछ जानता नहीं उसको बेवकूफ बना लेना, अपने सामने झुका लेना, उसे कोई भी पट्टी पढ़ा देना थोड़ा ज़्यादा आसान होता है। तो एक तो ज़्यादातर आतंकवादियों में आप ये पाएँगे कि वो पढ़े लिखे नहीं हैं या कम पढ़े लिखे हैं।
अपवाद भी होते हैं, ऐसे भी आतंकवादी पकड़े गए हैं जिन्होंने डॉक्टरेट कर रखी थी। इंजीनियर आतंकवादी भी पकड़े गए हैं। ये सब हैं पर उनकी तादाद कम है। ज़्यादातर जो आतंकवादी हैं ये अविकसित जगहों से निकलते हैं। दक्षिण एशिया,अफ्रीका, उत्तरी अफ्रीका, वेस्ट एशिया और इन सब जगहों पर ही सामाजिक हालात अच्छे नहीं है। तो वो जो पशु पैदा होता है उसे इंसान बनने का पूरा मौका नहीं मिलता। ये बात गीता बहुत साफ़ करके कहती है कि जिनके पास उठी हुई चेतना नहीं है वो तो अभी जीवित ही नहीं है।
श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन से — अर्जुन तुम इतना शोक कर रहे हो कि मैं युद्ध कैसे करूँ, तुम्हें लग रहा है कि ये बेचारे कहीं मर गए तो मैं क्या करुँगा। अर्जुन कहते हैं कि ये सब मेरे अपने सगे संबंधी हैं इनको मार के अगर राज्य मिल भी गया तो उस राज्य का क्या करुँगा। एक जगह आकर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं ये मरे हुए हैं जो पहले से मरे हुए हैं उनको यदि मारना भी पड़ा तो उसमें शोक की क्या बात है? इस बात को समझना पड़ेगा क्या कह रहे हैं श्रीकृष्ण।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि वास्तव में जीवित कहलाने का अधिकारी भी सिर्फ़ वही है जिसके पास मनुष्य की चेतना हो वरना वो मनुष्य ही नहीं है। तो आप ये कैसे कह रहे हो कि मैंने एक मनुष्य को मार दिया वो तो मनुष्य अभी है ही नहीं। वो मनुष्य अभी है ही नहीं तो आतंकवादी हमें समझना पड़ेगा कि पनपता है अज्ञान के अंधेरे में। ज्ञान जितना कम होगा वहाँ से उग्रवाद के उठने की संभावना उतनी ज़्यादा होगी। इसको व्यक्तिगत स्तर पर भी समझा जा सकता है,
जिस व्यक्ति के पास जितना कम ज्ञान होता है उसको उतनी आसानी से क्रुद्ध, कुपित और उत्तेजित किया जा सकता है। और जो व्यक्ति दुनिया को जितना ज़्यादा जानता है, और स्वयं को जितना ज़्यादा जानता है उसको आतंक की और हिंसा की राह पर धकेलना बड़ा मुश्किल हो जाएगा।
उसको किसी भी राह पर ज़बरदस्ती धकेलना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। वो कहेगा मेरे पास मेरा भीतरी प्रकाश है मैं अपनी राह खुद बना लूँगा, तुम लोग मुझे मत बताओ कि मुझे ये करना चाहिए वो करना चाहिए। धर्म बड़ी व्यक्तिगत चीज़ होती है वो सत्य और मेरे बीच का हमारा निजी रिश्ता है तो तुम मुझे मत बताने आओ बाकी सारी बातें कि ऐसा करोगे तो ऐसा होगा, ये करोगे तो स्वर्ग-नर्क और ये जन्नत-दोज़ख ये सब हो जाएगा। वो मैं देख लूँगा, क्योंकि मेरे पास बाहरी शिक्षा भी है, मेरे पास भीतरी ज्ञान भी है, जो धार्मिक किताबें हैं, मेरे पास आंखें भी हैं, और मेरे पास बुद्धि भी है।
मैंने ख़ुद पढ़ रखी है वो किताबें और मैं स्वयं उनका अर्थ करना जानता हूँ। और जहाँ अर्थ नहीं कर सकता वहाँ मैं ये भी जानता हूँ कि किस तरीक़े से और कहाँ जाकर के उसका अर्थ पूछा जाए। तो कोई मेरा मालिक बनने की कोशिश ना करें। कोई मुझे कठपुतली की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश ना करें। आ रही है बात समझ में? जब आप ये समझ जाते हो कि आतंकवाद पैदा ऐसे होता है, तो फिर आप ये भी जान जाते हो कि आतंकवाद को जड़ से कैसे समाप्त करना है। देखो बंदूक चलाने की, बम बरसाने की ज़रूरत कई बार होती है और जब वैसी ज़रूरत आ ही जाए तो क्या करें, दुर्भाग्य की बात है लेकिन बंदूक भी चलाई जाएगी और बम भी बरसाया जाएगा, लेकिन
अगर आतंकवाद को जड़ से समाप्त करना है तो उसे वहीं समाप्त करना पड़ेगा जहाँ वो पैदा होता है और वो पैदा होता है इंसान के मन में।
इंसान के अंधेरे मन में। उस अंधेरे को मिटाना पड़ेगा तब जाकर के आतंकवाद का मूलचूल, समूल माने जड़ से नाश होगा। नहीं तो फिर आप मारते रहिए। रक्तबीज की कहानी पता है ना, रक्तबीज की क्या कहानी थी?
प्रश्नकर्ता: जैसे-जैसे रक्त गिरता है, वैसे-वैसे वहाँ दानव।
आचार्य प्रशांत: हाँ तो रक्तबीज एक असुर था और उसकी खास बात ये थी कि उसको मारा जाए। तो जहाँ-जहाँ उसके खून की बूंदे गिरे वहाँ-वहाँ एक रक्तबीज और खड़ा हो जाए। एक दानव और खड़ा हो जाए मारना बड़ा मुश्किल है। तो सिर्फ़ मारने से आतंकवादी नहीं मरता, हर आतंकवादी रक्तबीज होता है और कहीं ना कहीं वो चाहता है कि वो मारा जाए या कम से कम जो उसके आका होते हैं वो चाहते हैं कि वो मारा जाए। क्योंकि जब वो मारा जाता है ना, तो फिर उसकी शहादत की कहानियाँ सुना करके रक्तबीज की तरह 100 और आतंकी खड़े किए जाते हैं। उसको नायक, शहीद हीरो का दर्जा दे दिया जाता है। तो आप बाहर से उसको मार दोगे तो आप 100 और पैदा कर दोगे।
हमें बहुत सफलता वैश्विक स्तर पर, माने किसी भी देश को मिली नहीं है बहुत सफलता सिर्फ़ बंदूक के माध्यम से आतंकवाद का सफाया करने में, नहीं मिली है। अब पूरी जनसंख्या तो कहीं तुम उड़ा नहीं दोगे। एक को मारोगे उसकी खबर जाती है, अब तो सोशल मीडिया है उसकी खबर जाती है और बाकी जो उसको देखते हैं वो और रेडिकलाइज़ हो जाते हैं। वो और ज़्यादा उत्तेजित इंस्पायर्ड अनुभव करते हैं कि हमें भी यही ज़िन्दगी चाहिए।
अभी बहुत होता था कि एक आतंकी मरता था और उसकी शव यात्रा निकलती थी तो उसमें हज़ारों लोग जाकर के शामिल होते थे। और जो लोग शामिल हो रहे होते थे, उनमें जो जवान लोग होते थे उन्हीं में से फिर कुछ जाकर के बंदूक उठा लेते थे। तो मैं नहीं कह रहा हूँ कि कोई आपके सामने बंदूक लेकर के खड़ा है तो उसका जवाब आप बंदूक से ना दें। वो आखिरी विकल्प होता है जो दुर्भाग्य से कई बार हमें अपनाना पड़ता है।
तो बंदूकें चलती हैं, बंदूकें चलेंगी, बम चलते हैं, आगे भी बमों का इस्तेमाल होगा, बल प्रयोग करना पड़ेगा आतंकवाद के खिलाफ़ लेकिन उसे आखिरी समाधान नहीं मिलने वाला बल्कि उससे हो सकता है कि समस्या और ज़्यादा बिगड़ जाए। क्योंकि उसके शरीर में नहीं थी ना समस्या, कि आपने शरीर को गोली मार दी तो आपने आतंकवाद को गोली मार दी। शरीर में थोड़ी समस्या थी, आपने उसके यहाँ छाती में गोली मार दी उसकी छाती में थोड़ी कुछ खराब था। खराब कुछ कहाँ था? कुछ उसके मन में खराब था तो उसका उपचार वहाँ करना पड़ेगा।
वैसे ही अब आते हैं दूसरी बात पर, कि नाम है उसका आतंकवाद टेररिज़्म वो आपको मारना नहीं चाहता। वो आपको टेरराइज़ करना चाहता है वो एक दो या दस-बीस-पचास लोगों की हत्या करके 50 करोड़ या 100 करोड़ लोगों को दहशत में रखना चाहता है उसको कहते हैं आतंकवाद। टेररिज़्म दहशतगर्दी। आ रही है बात, क्योंकि उसको पता है कि आप डर जाओगे। और गीता कहती है, डरना कैसा? तुम क्या खो सकते हो? तुम्हें बचाना क्या है? तुम्हें क्या बचाना है? तुम तो पैदा हुए हो सही काम करके अपने बंधन तोड़ने के लिए, मुक्ति के लिए पैदा हुए हो तुम। कुछ बचाने के लिए नहीं पैदा हुए हो, तुम 'लिबरेट' हो जाने के लिए पैदा हुए हो। तो तुम बचाने की क्या कोशिश कर रहे हो? डर तो तब होता है ना जब आदमी कहता है कि फ़लानी चीज़ बचा लूँ, बचा लूँ। बचाने के लिए तो हुए ही नहीं।
मनुष्य जीवन तो इसलिए है कि अपने बंधन काट सको। ये जो भवसागर है उसके पार लग सको। इसमें गठरी बांधने वाला कोई हिसाब नहीं है कि तुम कहो मेरा कुछ हो जाएगा खो जाएगा। नहीं अर्जुन से ये थोड़ी कहते हैं श्रीकृष्ण कि अपने आप को बचाओ और न अर्जुन को ये भरोसा दिलाते हैं, कि लड़ोगे तो जीत ज़रूर मिलेगी। एक बार भी उससे नहीं कहते कि मैं तुम्हारे साथ हूँ, मृत्यु तुम्हें छू नहीं सकती, कुछ भी नहीं कहते हैं बस निष्काम होकर के युद्ध करो, यही धर्म है। क्योंकि तुम जान गए हो अब अर्जुन कि सही कर्म क्या है और वो सही कर्म तुम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं कर रहे हो वो निष्काम कर्म है, निःस्वार्थ कर्म है।
तो जो चीज़ सही है इस दृष्टि से नहीं कि उससे मुझे कोई व्यक्तिगत लाभ हो जाएगा, बल्कि इस दृष्टि से कि समष्टि को उससे लाभ होना है, उसको फिर करो ना। डरना क्या है? जितना ज़्यादा आप व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए जिओगे आप उतना ज़्यादा डरे- डरे रहोगे। और उतना ज़्यादा फिर आपको आतंकवाद का निशाना बनाया जा सकता है। समझ रहे हो बात को? मैं अगर ऐसा हो जाऊँ कि मैं डरता ही नहीं, तो कौन आतंकवादी फिर आकर के मेरे ऊपर आतंक आज़माएगा? उसे पता है, मैं डरता तो हूँ नहीं।
डराने की कोशिश समझो, उसी को की जाती है जो डर सकता है। और भारत अगर गीता का हो जाए, तो भारत डरना ही बंद कर दे।
दुनिया में कोई भी लोग, अगर गीता के हो जाएँ — कोई भी व्यक्ति, अगर गीता का हो जाए, कोई भी समाज या समुदाय — तो डर तो चला जाएगा न। क्योंकि डर तो आता ही है आत्मज्ञान के अभाव से। जो स्वयं को जितना कम जानता है, वह उतना डरा-डरा जीवन जीता है। और जैसे-जैसे तुम अपनी असलियत से परिचित होते जाते हो, वैसे-वैसे तुम्हारा डर बिल्कुल कम होता जाता है। जो जितना कम डरेगा, वह आतंकवादियों के लिए उतना अनुपलब्ध होता जाएगा। क्योंकि आतंकवादी आता है अपना काम निकलवाने, तुमसे तुमको डरा करके। और तुम डर ही नहीं रहे, तो आतंकवादी का तो सारा खेल ही खराब हो गया न? समझ में आ रही है बात?
और अगर तुम डर गए, और तुममें भावना आ गई कि "मैं बदला लूँगा;” दो तरह की आमतौर पर भावना आती हैं किसी ऐसे बर्बर हत्याकांड के बाद: एक शोक की, और दूसरा नफ़रत और बदले की। शोक होता है क्योंकि आपने लाशें गिरती देखी हैं — विभत्स दृश्य है। एक शोक की बात आती है। अर्जुन भी शोक में थे। इसलिए मैंने कहा कि गीता ऐसे मौकों पर बहुत ज़रूरी हो जाती है। अर्जुन विषादयोग — गीता का पहला अध्याय ही अर्जुन के शोक से शुरू हो रहा है। अर्जुन भी शोक में हैं। और आप अपने सामने जब देख रहे हो कि आपके ही साथ के लोग हैं, देशवासी हैं, और निरपराध हैं बिना बात के उनको मार दिया गया है। जो बच गए, बिलख-बिलख के रो रहे हैं — तो शोक तो होता है। और दूसरी फिर भावना क्या आती है? एक उग्रता चढ़ती है, भयानक क्रोध चढ़ता है। और भावावेश में आप कहते हो कि "मुझे दुश्मन को मार देना है।"
गीता इन दोनों बातों के लिए मना करती है, खासकर भावना में आकर उग्र प्रतिक्रिया करने के लिए। अगर युद्ध जीतना है,तो शांत होकर लड़ना पड़ेगा। अगर युद्ध जीतना है तो जो वास्तविक शत्रु है, उसको भी पहचानना पड़ेगा और स्वयं को भी।
पर उसके बाद आप लड़ते तो हो बाहर-बाहर, भीतर से आप स्थिर रहते हो। बाहर ज़बरदस्त गति होती है, क्योंकि बाहर आप बहुत उग्रता से लड़ रहे हो पर भीतर-भीतर आप बिल्कुल शांत रहते हो। और ऐसा योद्धा मारा तो जा सकता है, हराया नहीं जा सकता। अर्जुन का भी यही होना था। श्रीकृष्ण कोई गारंटी नहीं दे रहे थे कि जीतोगे, लेकिन एक बात पक्की थी अर्जुन हार नहीं सकते थे। यह ज़रूर हो सकता था, कई की तरह कि वे वीरगति को प्राप्त हो जाते वो हो सकता था पर हारना? असंभव था। क्योंकि हारने के लिए आपको ज़िन्दा रहना पड़ता है न।
जो कह दे कि "मैं जान गया हूँ कि यही मेरे लिए सही युद्ध है," वो तो लड़े बिना जाएगा ही नहीं। लड़ता ही जाएगा। "मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।" वो हार कभी स्वीकार ही नहीं करेगा। वो हारा कैसे? जब तक एक भी साँस बची है, वो लड़ता जाएगा। तो आप उसे हरा नहीं सकते। हाँ, मार दो वो सब तो फिर जीवन के संयोग होते हैं। मारा गया कोई। समझ में आ रही है बात ये? लेकिन एक चीज़ पक्की है अगर आप बिल्कुल उत्तेजित होकर, आवेश में कोई निर्णय ले लेते हैं, तो आप बिल्कुल वही काम कर रहे हैं जो आतंकवादी आपसे करवाना चाहते थे। समझ में आ रही है बात?
अब उदाहरण के लिए, सिर्फ़ मारा नहीं है मारने से पहले धर्म पूछा है। ये एक सोची-समझी चाल है, भारतीयों को ही भारतीयों के ख़िलाफ़ बाँट देने की। हमें उस चाल को सफल नहीं होने देना है। समझ में आ रही है बात? वो जिन्होंने मारा, उन्होंने पूछा —"पहले बताओ, तुम हिंदू हो?" तो ऐसा लगेगा कि जैसे वो सिर्फ़ हिन्दुओं के ही दुश्मन थे। नहीं, वो सिर्फ़ हिन्दुओं के दुश्मन नहीं थे। वो भारतीयों के दुश्मन थे। वो भारतीयों को भारतीयों से बाँटना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें पता है ये ख़बर अब बाहर जाएगी। हर जगह यही छपेगा कि "धर्म पूछ के मारा," "कलमा नहीं पढ़ पाया, इसलिए मारा।" तो उनको सिर्फ़ हिन्दुओं का दुश्मन मत मानो।
वो हर भारतीय का दुश्मन है चाहे वो हिंदू हो, चाहे मुसलमान हो, इसलिए चाहे वो कश्मीरी हो, और चाहे भारतीय मुसलमान हो। उनके भी हित में यही है कि वे आतंकवाद की न सिर्फ़ मौखिक निंदा करें, बल्कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ जो यह लड़ाई है, उसमें हर स्तर पर सक्रियता से भाग लें। क्योंकि जो आपके ख़िलाफ़ है, वो वास्तव में किसी धर्म वगैरह का नहीं है। उसको समस्या भारत राष्ट्र के सिद्धांत से है। उसको समस्या सिर्फ़ किसी धर्म से नहीं है कि आपको लगे कि वो हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ है। नहीं नहीं, उनको समस्या भारत राष्ट्र के सिद्धांत से ही है।और जो भारत राष्ट्र का सिद्धांत है, वो बड़ा आध्यात्मिक है।
वेदांत के जो सूत्र हैं, वो सरल होकर के आपके संविधान में एक सामाजिक और लीगल भाषा रूप पाते हैं। उनकी समस्या उस बात से है। समझ में आ रही है बात? तो संघर्ष तो ज़रूर होना चाहिए, लेकिन संघर्ष को हम अपने तरीक़े से करेंगे, अपनी शर्तों पर करेंगे, अपने बोध से करेंगे। कोई आकर आपसे प्रतिक्रिया ले जाए तो वो जीत गया।
उदाहरण के लिए — मुझे पता है कि मैं तुम्हारे कंधे पर पीछे से ऐसे मारूँगा, तो तुम चिल्ला के पीछे मुड़ोगे। तो मेरे लिए तो ये मज़ेदार खेल हो गया न? मैं बार-बार पीछे से जाऊँगा, तुम्हारे कंधे पर मारूँगा, तुम चिल्ला के पीछे मुड़ोगे, मैंने कहा — देखा, ये मेरा ग़ुलाम है! मैं जब चाहता हूँ, इसको चिल्लवा देता हूँ, और पीछे मुड़वा देता हूँ! इसकी जो क्रियाएँ हैं, वह मेरे हाथ में आ गई हैं। अब यह होती है प्रतिक्रिया। आप जब प्रतिक्रिया करते हो, तो आप दूसरे के ग़ुलाम हो जाते हो। और जब आप भावनात्मक प्रतिक्रिया करते हो, तो आप अपने ही भीतर की पशुता के ग़ुलाम हो जाते हो।
यानि इमोशनल रिएक्शन देने वाला, दोनों तरफ़ से ग़ुलाम हो गया भीतर से भी और बाहर से भी। इमोशन कहाँ से उठता है? शरीर से। जो हमारे मुख्य भाव होते हैं, वो सब के सब वो भी होते हैं जो पशुओं में भी पाए जाते हैं। तो आप अगर इमोशनल रिएक्टिवनेस दिखा रहे हो,तो आपकी पशुताई प्रदर्शित हो रही है उसमें। और वो इमोशनल रिएक्टिवनेस आप दूसरे द्वारा ट्रिगर किए जाने पर दिखा रहे हो, तो दूसरा भी आपका मालिक हो गया। मतलब आप दो तरह से ग़ुलाम हो गए — शरीर के भी, और समाज के भी। आप शरीर और समाज, दोनों के ही ग़ुलाम हो गए, अगर आपने दूसरे के भड़काने पर प्रतिक्रिया कर दी।
गीता इसलिए है ताकि शांत युद्ध लड़ा जा सके। श्रीकृष्ण कहते हैं, "विगतज्वर युद्धस्व।" विगत माने — आगे निकल जाओ। ज्वर माने — उत्तेजना, गर्मी से। विगतज्वर युद्धस्व माने "उत्तेजना के परे जाओ और फिर युद्ध करो।" युद्धस्व माने "लड़ो।" लड़ो लेकिन ताप के साथ नहीं शीतलता के साथ।
काँपते हुए नहीं! देखा है न, क्रोध में हाथ कैसे काँपने लगते हैं? काँपते हुए नहीं लड़ना है। स्थिर होकर के लड़ना है। लड़ना तो ज़रूर है। और जब श्रीकृष्ण साथ होते हैं, तो आदमी फिर यह नहीं सोचता कि लड़ाई का अंजाम क्या होगा। वो कहता है, "लड़ाई अगर सही है, तो ज़रूर लड़ेंगे। परिणाम की परवाह नहीं, लड़ी जाएगी लेकिन अंधी लड़ाई नहीं लड़ेंगे। तो जब भी कभी किसी राष्ट्र के सामने हिंसक चुनौतियाँ खड़ी हो जाएँ, उस राष्ट्र को गीता की बड़ी ज़रूरत पड़ेगी। जब भी किसी व्यक्ति के सामने भी भारी चुनौतियाँ खड़ी हो जाएँ, उस व्यक्ति को भी गीता की बड़ी ज़रूरत पड़ेगी। हम क्या सोचते हैं? कि गीता तो एक धर्मग्रंथ है मात्र, जिसका उपयोग मंदिर में हो जाएगा या धार्मिक आयोजनों में हो जाएगा? हमने धर्म को जीवन का एक छोटा-सा कोना बना रखा है।
गीता जीवन का कोना नहीं है — गीता जीवन का आधार है। आपको कोई भी सही काम करना है, तो आपको गीता का प्रकाश चाहिए।
और गीता बस कोई ऐसी पुस्तक नहीं, जिसको आपने रख दिया और आप पूज लेते हो। उसमें गहराई से प्रवेश करके उसको समझना पड़ता है। और जो गीता को समझ गया वो जीवन में हार तो नहीं सकता। वो किसी का फिर ग़ुलाम तो नहीं बन सकता। ना तो उसको बहका करके आतंकवादी बनाया जा सकता है, और ना किसी आतंकवादी के भड़काने पर वो अंधी प्रतिक्रिया करने वाला है। जो गीता का व्यक्ति है, जो गीता को जानता है, समझता है उसको आप बहकाकर के आतंकवादी नहीं बना सकते। और किसी आतंकवादी द्वारा भड़काया भी नहीं जा सकता। समझ में आ रही है बात ये?
तो गीता, वेदांत, अध्यात्म ही — दुनिया का पूरा बोध साहित्य, ये इसलिए नहीं होता कि जब शांति होगी, तब हम इसको पढ़ लेंगे। लोग ऐसे ही कहते हैं —"जब थोड़ा शांत होंगे, तब जाकर बैठेंगे, पढ़ेंगे गीता वगैरह।" नहीं! जब युद्ध की घड़ी हो, तब उठाओ गीता को। जब जीवन में संघर्ष और चुनौतियाँ खड़ी हों, तब उठाओ गीता को। अर्जुन को गीता कब मिली थी? किसी वन के शांत कोने में? जब अर्जुन बिल्कुल नहा-धोकर शांत चित्त से आए थे और श्रीकृष्ण से बोले थे, चरण स्पर्श करके कि मुझे कुछ ज्ञान दीजिए? नहीं! जब घोर युद्ध छिड़ा हो, तब मिलती है गीता। और तभी उपयोगिता है गीता की।
इसका मतलब ये भी है कि जो लोग जीवन के युद्धों, संघर्षों, चुनौतियों से दूर भागते हैं उन्हें गीता कभी मिलेगी ही नहीं। अर्जुन भी श्रीकृष्ण के साथ इतने सालों से थे, अर्जुन को भी गीता कब मिली? जब अर्जुन अपने आप को महाभारत में पाते हैं। दोनों सेनाओं के बीचों-बीच खड़ा है उनका रथ। जब इतनी बड़ी चुनौती अर्जुन स्वीकार कर लेते हैं, तब श्रीकृष्ण आते हैं और कहते हैं — अब मैं तुम्हें वो परम ज्ञान बताता हूँ, जिसके बाद तुम्हारे लिए शांत होकर लड़ना संभव हो पाएगा। क्योंकि अर्जुन मैदान में तो आ गए थे, पर बड़े विचलित थे। और लगभग वो तय कर चुके थे लड़ूँगा नहीं। तब कहते हैं यहाँ तक तुमने कर लिया, बहुत अच्छी बात। अब मैं तुम्हें सहारा देता हूँ। पर वहाँ तक तो ख़ुद ही करना पड़ेगा ना, जहाँ तक अर्जुन ने किया था। मतलब चुनौतियाँ स्वीकार तो स्वयं ही करनी पड़ेंगी। जो उन चुनौतियों को स्वीकार करते हैं, स्वीकार करने के बाद वह पाते हैं कि तब गीता उनके लिए उपयोगी हो गई। समझ में आ रही है बात ये?
तो गीता का संदेश जीवन से भागने का नहीं है। गीता का संदेश है, जीवन की सब चुनौतियाँ स्वीकारो। उन्हीं चुनौतियों से जूझ करके मुक्ति मिलनी है। सब चुनौतियाँ बंधन है एक प्रकार के और जो बंधनों से जूझेगा नहीं मुक्ति क्या पाएगा? लेकिन आप अगर बेड़ियों में जकड़े हुए हो और बिना समझे कि ये बेड़ियाँ आपको किस तरह से जकड़े हुए हैं, आप उनसे उलझना शुरू कर दो तो क्या नतीजा निकलता है? आप और उलझ जाते हो ना?
पांच सात रस्सियों में आपको बांध दिया गया है, और अपने हाथ पाँव आप उल्टे-पुलटे फेंकना शुरू कर दो, तड़प करके छटपटा के कि मुझे आज़ाद होना है किसी तरीक़े से तो क्या होगा? आप और उलझ जाओगे तो एक ओर तो ये संकल्प होना चाहिए कि मुझे बंधनों में फंसे नहीं रहना है, मुझे चुनौतियों के आगे घुटना नहीं टेकना है। और दूसरी ओर, एक शांत बोध और ज्ञान होना चाहिए कि अब ये चुनौतियाँ है क्या? मैं इनको गहराई से समझूँगा और उस समझने से ही फिर संघर्ष का मार्ग पता चलेगा और फिर विजय मिलेगी। बिना समझे जो संघर्ष किया जाता है, उसमें विनाश निश्चित होता है।
आप अपने दुश्मन को समझते तो हो नहीं पर जाकर उलझ गए तो आप जीतोगे कि हारोगे? गीता कहती है समझो, समझना बहुत ज़रूरी है। समझना बहुत ज़रूरी है। अर्जुन को क्या समझाया था श्रीकृष्ण ने? अर्जुन को अर्जुन का ही मन समझाया था, अर्जुन को अर्जुन के ही भीतर ले गए थे। श्रीकृष्ण बोले, 'देखो तुम्हारे भीतर क्या चल रहा है। अब बताओ फंसना है इसमें? अब बताओ?' जो अपने ही भीतर फंसा रहे वही समझ लो दुर्योधन है, वही दुस्साशन है। और दुर्योधन से याद आया, तुमने कहा ना कि वो मीडिया चैनल्स पर इंटरव्यू दिया था। जब उन्होंने पूछा, मैंने पहली बात ही यही कही थी कि अरे भाई, श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि ऐसा कोई काल नहीं था जब तुम नहीं थे या मैं नहीं था और ये जो ज्ञान भी है जो भी मैं तुमसे कहने जा रहा हूँ ये ज्ञान भी सनातन है। ये पहले भी चलता रहा है, तुम भी रहे हो पहले और मैं भी रहा हूँ। पहले बस तुम्हें याद नहीं है मुझे याद है।
मैंने कहा, अरे! जब श्रीकृष्ण फिर सदा से रहे हैं और रहते आए हैं और अलग-अलग रूपों में वो हर जगह हर समय मौजूद होते ही हैं, चेतना की बात है, सूक्ष्म बात है ये प्रतीकात्मक बात है, और अर्जुन भी लगातार होते हैं। तो फिर दुर्योधन भी तो लगातार होते होंगे ना? जब श्रीकृष्ण भी सदा हैं और अर्जुन भी सदा हैं तो फिर दुर्योधन, दुस्साशन, शकुनी ये लोग भी सदा ही होंगे। तो ये हर काल में होते हैं और ये हर काल में कपट ही करते हैं। तो ये सामने आ जाए और कपट करें और लाक्षागृह में आपको जलाने की कोशिश करें, धोखे से आपको वन में भेज दें, अज्ञातवास में भेज दें, तो घबराने की कोई बात नहीं है। तो सदा-सदा का किस्सा है चलता आया है।
पहली बात – तो घबराना नहीं है, दूसरा – रण से भागना नहीं है, तीसरा – बिना गीता के रण में उतरना नहीं है। बिना गीता के रण में उतरोगे चाहे वो कोई रण हो ज़िन्दगी की छोटी लड़ाईयाँ, चाहे बड़ी-बड़ी वैश्विक अंतरराष्ट्रीय लड़ाईयाँ, चाहे अपने ही भीतर की लड़ाईयाँ, अंतर्द्वंद जो हमारे मन में चलते रहते हैं। अपने ही भीतर जो कॉन्फ्लिक्ट्स रहती हैं। कोई भी लड़ाई। जब तक श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण से मेरा मतलब है वो जो आपको बोध देता है। गुरु, सत्य, आत्मा उनके पथ प्रदर्शन के बिना नहीं जीती जा सकती।
कोई भी लड़ाई हो तो शस्त्र सफल तभी हो पाएगा जब उससे पहले शास्त्र आया हो। शास्त्र के बिना अगर शस्त्र उठा लोगे तो तुम भी तो फिर आतंकवादी जैसे ही हो गए।
उसने भी कुछ समझा नहीं है, पर शस्त्र उठा लिया है। और उसकी प्रतिक्रिया में तुम भी कुछ समझे बिना शस्त्र उठा लो तो फिर तुम भी उसी जैसे हो गए। कितना सुंदर दृश्य है, कुरुक्षेत्र का कि चारों तरफ आपको हथियार ही हथियार और योद्धा ही योद्धा दिखाई दे रहे हैं। लेकिन वो सब कुछ रोक दिया गया है कोई युद्ध शुरू ही नहीं हो रहा है क्यों? क्योंकि श्रीकृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, अर्जुन युद्ध से पहले ज्ञान ज़रूरी है। लड़ाई नहीं – पहले ज्ञान। अब कल्पना करो गीता ना होती और युद्ध शुरू हो जाता तो क्या होता, सोचो? बहुत लोग कहते हैं, जी हटाइए क्या करना है, गीता का क्या करना है ज्ञान का, ये आरपार की लड़ाई का वक़्त है। मैं इन लोगों से पूछ रहा हूँ – तुम श्रीकृष्ण से ज़्यादा होशियार हो गए?
वो कह रहे हैं कि अर्जुन अगर युद्ध करना है तो पहले कुछ बातें समझनी होंगी और पूरे 18 अध्याय समझाते हैं। तब जाकर के सार्थक युद्ध अर्जुन कर पाते हैं। और 18 अध्याय तो छोड़ दो बहुत लोग हैं, जिन्हें कहीं का एक श्लोक नहीं पता, पर वो लड़ने को बड़े तत्पर रहते हैं। कहते हम जाएँगे हम धर्म युद्ध लड़ेंगे। अरे तुम क्या धर्म युद्ध लड़ोगे तुम्हें धर्म ही नहीं पता। समझ में आ रही है बात ये? ये गीता की धरती है और इसीलिए ये भले ही राजनैतिक रूप से, सामरिक रूप से पराजित हो जाए पर आध्यात्मिक रूप से कभी पराजित नहीं होती। गीता की धरती है ना तो अभिजित रहती है जैसे गीता अभिजित है। क्योंकि गीता को कोई हरा नहीं सकता तो इसीलिए फिर गीता की धरती भी आध्यात्मिक तल पर कभी हारती नहीं है। हम और तरीकों से भले ही ग़ुलाम हों गए हों, हमें पराजय मिली हो अतीत में, पर एक तल हमारा ऐसा रहा है जिसको कभी कोई पराजित नहीं कर पाया। और हम उस तल के जितने ज़्यादा संपर्क में आएँगे, हम उतना ज़्यादा विजय होते जाएँगे।
अगर हमें बाहर-बाहर भी हार मिली है तो समझिए ये कि उसका भी कारण ये है कि जो आम आदमी है ना भारत का वो गीता, वेदांत, उपनिषद् इनका नाम भले ही सम्मान से लेता है पर इनको समझता नहीं है। हमने इनको समझा होता तो हम मर तो सकते थे, हार कभी नहीं सकते थे। बाहर वाले लोग आज भी वही पुरानी गलती कर देते हैं। वो जैसे हमले पर हमला अतीत में करते रहे, पिछली शताब्दियों में करते रहे वैसे ही हमले वो अब कर देते हैं। उनको समझ में नहीं आता कि, भारत के पास कुछ ऐसा है जिसे कोई हमला हरा नहीं सकता और भारतीय अपने उस हीरे की जितनी ज़्यादा कद्र करेंगे उतने ज़्यादा इनविंसिबल होते जाएँगे, अपराजय होते जाएँगे। समझ में आ रही है बात ये?
सिर्फ़ पूजो नहीं समझो गीता को। सिर्फ़ ये मत कहो कि श्रीकृष्ण मेरे आराध्य हैं, देवता हैं उन्होंने जो बात कही है, उन्होंने जो दर्शन दिया है, उसको गहराई में जाकर के समझो फिर वो जीवन में उतरता है और फिर देखते हैं कि कौन तुम्हें डरा सकता है या परास्त कर सकता है। ठीक है?
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: बता दी बात विस्तार में?
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: चलो संतुष्ट,चलो।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, सर जी।