तुम्हें भी ये ख़ास अनुभव हुए? || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)

Acharya Prashant

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तुम्हें भी ये ख़ास अनुभव हुए? || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत सारे गुरु हैं जो बोलते हैं कि अनुभव ही सबकुछ होता है, एक्सपीरियंस। जब तक आप अनुभव न करें तो आप उसको सच न माने। तो मेरा प्रश्न है कि क्या अनुभव ही सच है?

अचार्य प्रशांत: गुरु लोग तो चलिए ऐसा बोलते होंगे कि भई, अनुभवी सत्य है और जो चीज़ तुम्हारे अनुभव में हो उसको ही सच मानो। लेकिन सिर्फ़ गुरु ही ऐसा नहीं बोलते, हर आदमी की यही धारणा है। हम सभी अपने अनुभवों को सच तो मानते ही हैं न? इसमें ही समझ लीजिए कि आदमी का अपनी तरफ़ और ज़िन्दगी की तरफ़ पहला अज्ञान है, मूल नासमझी है कि अनुभव को ही सच मान लिया। ये कह दिया कि जिस चीज़ का मुझे अनुभव हो गया वो चीज़ सच्ची ही होगी क्योंकि मुझे उसका अनुभव हुआ है।

प्र: तो मेरा प्रश्न ये है कि अध्यात्म में जैसे आप भी ये बोलते हैं कि जब तक आपको…।

आचार्य: (प्रश्नकर्ता को टोकते हुए।) नहीं, अध्यात्म हटाइए बात अध्यात्म, वगैरह ये कुछ नहीं। अध्यात्म कर ले तो वो बंबो-जंबो बन जाता है।

प्र: जैसे आपके भी मैंने वीडियो सुने तो आपने ये बोला है कि पूरे तरीक़े से जाँचिए किसी चीज़ को और गहराई तक उसको परखिए। तो जब तक मैं उसको अनुभव नहीं करूँगा, जब तक मैं वेरीफाई नहीं करूँगा तो मेरे को कैसे पता लगेगा कि ये सच है।

आचार्य: वेरिफकेशन और अनुभव दो बहुत अलग-अलग बात होती है। किसी चीज़ को जाँचना एक बात है, किसी चीज़ का अनुभव बिलकुल दूसरी बात है। इन दोनों को एक कैसे मान लिया आपने? अनुभव को ही तो जाँचना होता है। अनुभव के माध्यम से नहीं जाँचना होता, अनुभव को जाँचना होता है। अनुभव कैसे कसौटी हो गया सच्चाई की?

मान लीजिए बाहर तापमान है पैंतालीस डिग्री ठीक है? ये अच्छे से समझिए। बाहर तापमान है पैंतालीस डिग्री और आप पसीने में बिलकुल लथ-पथ हैं। शरीर पर पसीना-ही-पसीना है और गर्मी भी खूब लगी हुई है आपको। और आप इस कमरे के भीतर आते हैं यहाँ एसी ही चल रहा है ठीक है, और तीस डिग्री इस कमरे का तापमान है। तीस डिग्री इस कमरे का तापमान है, एसी ही चल रहा है। आप पैंतालीस डिग्री से आये हैं आप गर्म भी हैं और आपके शरीर पर पसीना भी है। बाहर से इस कमरे में घुसते ही आपको क्या अनुभव होगा?

प्र: थोडा ठंडा या रिलीफ़।

आचार्य: आपको काफ़ी ठंडा लगेगा, आपको बहुत ठंड लगेगी क्योंकि पन्द्रह डिग्री का अन्तर है। आपको ठंड लगेगी दो वजहों से कि एक तो तापमान का अन्तर है और दूसरे आपके शरीर पर पसीना है। वो पसीना जब उड़ेगा कि यहाँ ठंडी जगह पर आकर के — यहाँ क्यों उड़ेगा? क्योंकि बाहर नमी भी थी और इस कमरे में एसी ही चल रहा है तो यहाँ पर ह्यूमिलिटी कम है। जब यहाँ ह्यूमिलिटी कम है तो आपके शरीर की जो ह्यूमिलिटी है एसी उसको सोख लेगा, इसलिए तो इसी के पीछे पानी गिरता रहता है न! तो आपको ज़बरदस्त ठंड का अनुभव होगा क्या होगा? अनुभव होगा।

अनुभव होगा, जबकि तापमान तीस डिग्री है। अब आधा घंटा बीतने दीजिए, तापमान अभी भी तीस डिग्री है कुछ बदल नहीं गया। और आप पाएँगे कि आप कह रहे हैं यार टेम्प्रेचर थोड़ा कम करो न गर्मी लग रही है, ये तीस पर क्यों सेट है इसी इसको बाईस पर सेट करो। ये क्या हुआ, आपका अनुभव कैसे बदल गया? बाहर की जो परिस्थितियाँ थीं जो बाहरी स्टिमुलस है वो तो वही है, अनुभव कैसे बदल गया? इसका मतलब अनुभव झूठी बात है वो तो समय के साथ बदलता रहता है। इसका मतलब अनुभव बाहर की चीज़ पर नहीं निर्भर कर रहा, अनुभव यहाँ इस पर नहीं निर्भर कर रहा है कि तापमान कितना है बाहर का।

अनुभव यहाँ बाहर के तापमान पर नहीं निर्भर कर रहा, अनुभव यहाँ आपके तापमान पर निर्भर कर रहा है। आधे घंटे बाद क्या हुआ? आपका पसीना सूख गया है, ठीक है? और मेंटली , मानसिक तौर पर भी आप एक्लिमेटाइज (वातावरण के अनुकूल) हो गये है। तो शारीरिक तौर पर भी जो आपका अनुभव है वो बदल गया और मानसिक तौर पर भी बदल गया। शारीरिक तौर पर दो बातें हुई हैं, पसीना सूख गया है और जो शरीर में गर्मी थी वो गर्मी भी कम हो गयी है। और मानसिक तौर पर क्या हुआ कि आप बाहर से अन्दर आकर के यहाँ के तापमान में एक्लिमेटाइज (वातावरण के अनुकूल) हो गये हैं, ठीक है।

तो अब आप बोल रहे हैं कि मुझे गर्मी लग रही है। आधे घंटे पहले आप क्या बोल रहे थे कि बाप-रे-बाप! ‘क्या जबरदस्त ठंड है यहाँ पर!’ ये अनुभव कैसे बदल गया? अनुभव इसलिए बदल गया क्योंकि अनुभव करने वाला बदल गया। आप बदल गये न? आप का मन बदल गया और आपके शरीर की स्थिति बदल गयी तो आपका अनुभव भी बदल गया। लेकिन जब अनुभव बदलता है तो हम ये नहीं कहते कि ये जो अनुभव हो रहा है मुझको इसका लेना-देना मेरे मन से है, जो मेरे भीतर जो अनुभव करने वाला है, जिसे हम कहते हैं, अनुभोक्ता, एक्सपीरियंसर।

हम ये नहीं कहते है कि अनुभव उसका फंक्शन है, अनुभव उसके कारण हो रहा है। हम सोचते हैं बाहर की किसी चीज़ को मैंने जाना, उसका मुझे अनुभव हो गया तो वो बाहर की चीज़ से लेना-देना है अनुभव का। अनुभव का लेना बाहर की किसी चीज़ से है ही नहीं, वो तो आपके भीतर क्या चल रहा है उसी अनुसार आपको अनुभव हो जाया करते हैं। लोग सोचते हैं अनुभव सच है।

अनुभव इतनी हल्की, इतनी उथली और इतनी झूठी चीज़ हैं कि आपको विज्ञान आप जिस चीज़ को चाहे अनुभव करा सकता है। अभी ये मेरा वीडियो देखने के बाद आप इतना कर लीजिएगा — इंटरनेट पर तो होंगे ही कि गूगल पर ऑप्टिकल इल्यूजन सर्च कर लीजिएगा, ऑप्टिकल इल्यूजन। और आप देखिएगा कि आपको ही कैसे-कैसे अनुभव होने शुरू हो जाते हैं, आपको ही कैसे-कैसे अनुभव होने शुरू हो जाते हैं। और आपको दिखाई देगा कि आपको जो अनुभव हो रहा हो झूठा है। लेकिन ये जानने के बाद भी कि वो अनुभव झूठा है, आपको अनुभव होता रहेगा आपकी स्क्रीन पर। आप अभी प्रयोग करके देख लीजिएगा।

इसी तरीक़े से आप बस अनुभव का नाम बताइए, आपको वो अनुभव एक इंजेक्शन लगा कराया जा सकता है। आपको डरना है, आपको डर का इंजेक्शन लगाया जा सकता है। ऑप्टिकल इल्यूजन्स की मैंने बात करी — आप भूख का अनुभव करना चाहते हैं, आपका पेट कितना भी भरा हो आपको एक गोली खिलाई जा सकती है कि आपको तब भी भूख का अनुभव होना शुरू हो जाएगा। आप खुशी का अनुभव करना चाहते हैं, आप डोपामीन के बारे में जानते ही हैं। आपको इंजेक्शन लगाए जा सकते हैं केमिकल्स के जिनके द्वारा आप बिलकुल खुश हो जाएँगे; आप बहुत ज़्यादा भी खुश हो सकते हैं, आप खुशी से पागल भी हो सकते हैं।

इससे मुझे याद आता है, चूहों पर हुआ था एक प्रयोग। चूहों पर प्रयोग हुआ था जिसमें चूहों को या तो गोली दी गयी थी, या इंजेक्शन दिया गया था जो उनके ब्रेन का जो सेक्सुअल सेंटर था उसको एक्साइट करता था। तो उनको ये अनुभव होने लग जाता था चूहों को झूठा अनुभव, बिलकुल झूठा अनुभव कि जैसे उनको सेक्सुअल प्लेज़र मिल रहा है, ऑर्गेज़्मिक प्रेशर मिल रहा है। और इसमें मज़ेदार बात ये हुई कि कुछ चूहों को इतना ज़्यादा मिल गया वो प्लेज़र की वो प्लेज़र लेकर के मर ही गये। इतनी उनको खुशी मिल गयी कि वो मर ही गये।

मर गये ये बात पीछे की है, ज़्यादा भयानक बात ये है कि वो एक झूठी खुशी से मर गये। वो एक ऐसी खुशी से मर गये जो उन्हें वास्तव में मिल भी नहीं रही थी, उनके दिमाग में बस एक इंजेक्शन लगाया जा रहा था। तो इतनी झूठी चीज़ होता है अनुभव।

आपको जो भी अनुभव हो रहा है वो समझ लीजिए कि यूँही है, मन का खेल है, भ्रम है, माया है; उसका सच से कोई सम्बन्ध मत जोड़ दीजिएगा। सच अनुभवातीत है, अनुभवों के पार है और उस तक जाने का रास्ता यही कि सबसे पहले अनुभवों के भ्रम से बाहर आओ।

प्र: तो अगर जैसे देखा जाए कि किसी आदमी को बहुत दुख है, बहुत दुख में है वो। और उसने कुछ मूवी देख ली या फ़िल्म देख ली जिसमें उसको हल्का सा हँसा दिया और उसको अनुभव हुआ कि वाह! ‘दुख थोड़ा-सा दुख कम हो गया!’ तो क्या ये झूठा अनुभव है?

आचार्य: नहीं, ये झूठा या सच्चा इस बात पर निर्भर करता है न कि बाहर वाली चीज़ के बारे में आप बात कर रहे हैं। आप कहने लग जाते हो कि — आप एक बात बताइए — कमरा ठंडा था कि गरम था?

प्र: कमरा ठंडा था या गर्म था ये मेरे अनुभव के ऊपर डिपेंड करता है।

आचार्य: लेकिन आप क्या बोलते हो, आप ये थोड़े ही बोलते हो कि मैं ठंडा हो गया या मैं गर्म हो गया। पहले भी आप जब घुसे थे इस कमरे में तो आपके मुँह से तुरन्त क्या निकला था?

प्र: कि बहुत ठंडी है यहाँ पर।

आचार्य: कमरा ठंडा है। घुसते ही आपने ये तो नहीं बोला न कि मैं गर्म हूँ। आप जब कमरे में घुसे तो आपका स्टेटमेंट क्या था, वक्तव्य क्या था?

प्र: कमरा ठंडा है।

आचार्य: कमरा ठंडा है। आपने ये तो नहीं बोला न, मैं गर्म हूँ। आधे घंटे बाद आपका स्टेटमेंट क्या था?

प्र: कमरा गर्म है।

आचार्य: कमरा गर्म है, आपने ये तो नहीं बोला न मैं ठंडा हो गया हूँ? ये ग़लती है अनुभव के साथ। आप हमेशा ये सोच रहे होते हो कि आपको जिस चीज़ का अनुभव हो रहा है वो चीज़ बदल रही है या आप उस चीज़ के बारे में कुछ जान रहे हो, अनुभव करके।

जबकि आप जिस चीज़ के बारे में जान रहे हो, आप उसके बारे में कुछ नहीं जान रहे। आप वास्तव में अपने बारे में कोई चीज़ बोल रहे हो लेकिन अपनेआप के प्रति आप में ज्ञान है तो आप ये जानते भी नहीं कि आप अपने बारे में कोई बात बोल रहे हो। योर स्टेटमेंट इज़ अबाउट योरसेल्फ (आपका वक्तव्य आपके बारे में है)। लेकिन आपके मुँह से जो बात निकलती है वो कमरे के बारे में होती है, अपने बारे में नहीं होती।

फिर इस बात पर ग़ौर करिए। कमरे में जैसे ही आप घुसे आपने कहा, 'अरे कमरा कितना ठंडा है!' आपने ये थोड़े ही बोला, ‘मैं कितना गर्म हूँ!’ अब कमरे का जो तीस डिग्री तापमान है, वो तीस डिग्री है, आधे घंटे-एक घंटे-दो घंटे लेकिन आधे घंटे बाद आप क्या बोल रहे हैं, 'अरे, ये कमरा कितना गर्म है! चलो, तीस को बाईस पर करो एसी को!’ कमरा नहीं गर्म है, आप अब ठंडे हो गये पहले से। पहले भी कमरा नहीं ठंडा था, आप बहुत गर्म थे।

प्र: तो जब हम लोग विज्ञान की बात करते हैं। तो विज्ञान में तो हमेशा बाहर की बात होती है जैसे। तो वो जो है उसमें अनुभव की बात नहीं है उसमें एब्सॉल्यूट मेजरमेंट की बात है।

आचार्य: हाँ, बिलकुल-बिलकुल। विज्ञान में अनुभव की बात नहीं हो रही है।

प्र: तो उसमें अगर बोला जाएगा, 'कमरा गरम है।' तो गर्म या ठंडा नहीं बोला जाएगा, उसका टेम्प्रेचर बोला जाएगा।

आचार्य: टेम्प्रेचर (तापमान) बोला जाएगा। और किस चीज़ के रिस्पेक्ट में, किस स्केल (पैमाना) पर, किस रेफरेंस (संदर्भ) में आप उसकी हीट मेज़र (ऊष्मा का मापन) कर रहे हो ये देखा जाएगा। तो विज्ञान इस बारे में बहुत ईमानदार हैं, हम इतने ईमानदार नहीं होते हैं। भई, अनुभवों का क्या है, आप भी थोड़ी-सी पी लो तो आपको भाँति-भाँति के अनुभव होने लगेंगे। और आपको तो यही लगेगा न, आपके सारे अनुभव सच्चे हैं। और आपको पीने के बाद लगेगा ये आठ उंगलियाँ हैं।

मतलब मैं बोलूँगा कि ये उड़ रहा है। ये उड़ रहा है, ये अलमारी उड़ रही है और मेरे आठ उंगलियाँ हैं। अब आपको तो ये लग रहा है अलमारी उड़ रही है, आठ उंगलियाँ हैं। और आपकी नज़र में आपका अनुभव बिलकुल सच्चा है, और गुरुदेव बोल गये हैं अनुमान नहीं, अनुभव। जो बात तुम्हारे अनुभव में है, उसी को ही सत्य मानो।

ये तो उन्होंने बताया ही नहीं कि जो अनुभव करने वाला है, ये कौन है। नतीजा ये होता है कि जितने लोग अनुभव की बात करते हैं, वो सब वास्तव में अपने अहंकार को ही प्रोत्साहन दे रहे हैं। वो ये कह रहे हैं कि जो मुझे लग रहा है, जैसा मुझे प्रतीत हो रहा है वही चीज़ सच है। वो ये देख ही नहीं रहे कि तुम्हारी अपनी हालत क्या है? तुम पैंतालीस डिग्री पर हो या तुम पच्चीस डिग्री पर इसकी वो बात ही नहीं करना चाहते।

मैं फिर पूछ रहा हूँ, एक शराबी है उसको दिख रहा है अलमारी उड़ रही है और उसके हाथ में आठ उंगलियाँ हैं। और उसको पक्का भरोसा है कि उसका अनुभव सच है। आप उसे कैसे यकीन दिलाओगे कि नहीं अलमारी नहीं उड़ रही? क्योंकि उसको तो अनुभव हो रहा है कि अलमारी उड़ रही है। आपको कैसे पता आप नशे में नहीं हैं? क्या शराबी मानता है कि नशे के कारण उसको झूठा अनुभव हो रहा है? वैसे ही कोई भी नहीं मानना चाहता कि नशे के कारण उसको झूठा अनुभव हो रहा है।

इसलिए जानने वालों ने कहा है कि बेटा किसी भी अनुभव पर यकीन मत करना, सब अनुभव इंद्रियों और मन का धोखा हैं। तो फिर अनुभव सत्य कैसे हो सकता है? या अनुभव से सत्य की पहचान कैसे हो सकती है? इसलिए फिर आपको उपनिषद् बता गये हैं कि सत्य का कोई अनुभव नहीं हो सकता।

कोई भी चीज़ जो अनुभव में आती है, वो अनुभोक्ता के ही आयाम की है। आप जिस चीज़ का अनुभव कर रहे हो, वो चीज़ आप ही के जैसी है। आप ही ने तो पकड़ा न, उसको आप ही ने तो देखा न उसको; तो वो आपसे बहुत भिन्न नहीं हो सकती है। तो फिर मुझे बताइए अहंकार को सच का अनुभव कैसे हो जाएगा? क्योंकि अहंकार और सच तो बहुत अलग-अलग आयामों के हैं। अहंकार को जो भी अनुभव होंगे वो अपने ही डायमेंशन (आयाम) के, अपने क्षेत्र के होंगे। तो उनकी कोई बहुत वैलिडिटी (वैधता) नहीं होती है।

लेकिन ये सब खूब चल रहा है कि मुझे ऐसा अनुभव हुआ था, ‘मुझे ऐसा अनुभव हुआ था।’ आपको कुछ भी अनुभव हो सकता है, आदमी रात को सो रहा होता सपने में उससे कैसे-कैसे अनुभव हो जाते हैं। तो उसको सच मानोगे क्या? ये तो तुम ख़ुद भी जानते हो कि सपने के अनुभव सच नहीं होते। सपने में आपने किसी का कत्ल कर दिया तो सुबह आप जाते हो क्या पुलिस स्टेशन आत्मसमर्पण करने कि मैंने कत्ल कर दिया और मुझे अनुभव हुआ और अनुभव तो सच होता है। ‘तो रात में मैंने जो कत्ल किया वो भी सच होगा तो मैं आया हूँ।’ पर सपने के बाद तो जागने के बाद ही पता लग जाता है कि वो झूठा था।

दिक्कत ये है कि जागृतावस्था में जो सपने लिए जाते हैं उनका कभी पता नहीं लगता कि वो झूठे हैं। वो पता लग सके, ये जो जाग्रत अवस्था है हमारी, जिसमें हम आँख खोलकर के बात कर रहे हैं, इसके आगे की जाग्रति हमें मिल सके इसी को फिर अध्यात्म बोलते हैं या सेल्फ़ नॉलेज बोलते हैं।

प्र: पर जो अध्यात्म चल रहा है उसमें तो यही बोला जाता है कि जो गुरु हैं, मुझे ये हो गया, ये ऐसा हो गया, ये वैसा हो गया।

आचार्य: ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि लोग जो मूल दर्शन है, जो अहम् की बात करता है — ‘मैं क्या हूँ? ये जो पूरी बात करने वाला कौन है? अन्दर बेचैनी किसकी है? सब कामों को करने वाला कौन है? सब अनुभवों को लेने वाला कौन है?’ इसकी बात करने वाला जो मूल दर्शन है, लोग उससे छिटके हुए हैं। वो बहुत सरल और सर्वसुलभ किताबें हैं, सबको उपलब्ध हैं, अवेलेबल हैं। लेकिन लोग उनसे दूर हैं, उनके प्रति अज्ञान हैं। उन किताबों की तरफ़ जा भी नहीं रहे और उनको कोई प्रोत्साहित भी नहीं कर रहा, उन किताबों को पढ़ने को। तो फिर लोग इस तरह के झांसों में आ जाते हैं कि अनुभव करो, अनुभव करो।

और देखिए, अनुभव किसी को किसी भी चीज़ का दिलाया जा सकता है, ठीक है। अभी आपको एक इंजेक्शन लगा दिया जाए आपको अनुभव होने लगेगा कि तारे बिलकुल इस कमरे में उतर आया है और चॉंद आपकी थाली पर रखा हुआ है। अब इसमें एक चीज़ और ये फिर पूछने वाली है कि ये जो अनुभोक्ता है — एक्पीरियंसर ये आता कहाँ से है। और बड़ा मज़ेदार है ये जानना। एक्सपीरियंसर आता है पुराने एक्सपीरियंसेस से। उसने आज तक जो कुछ भी जाना है, सुना है, अतीत में अनुभव करा है, उसी से वो एक्स्पीरिंसर खड़ा हुआ है।

हमने कहा कि जो अनुभव है, एक्सपीरियंस वो निर्भर करता है एक्स्पीरिंसर के ऊपर, है न? कि भई, अलग-अलग लोगों को एक ही चीज़ का अलग-अलग अनुभव होता है, वो चीज़ तो अलग नहीं है लेकिन अनुभव अलग है इसका मतलब जो एक्सपीरियंस करने वाला है वो अलग है। लेकिन हम ये नहीं मानते हैं कि वो अनुभव हमारे भीतर किसी चीज़ से है। हम अपने अनुभव की सारी ज़िम्मेदारी उस चीज़ पर डाल देते हैं। जैसे हमने कहा न कमरे में घुसते ही कि कमरा ठंडा है, हमने ज़िम्मेदारी कमरे पर डाल दी। हमने ये नहीं देखा कि कमरे का हमें जो अनुभव हो रहा है, वो हमारी स्थिति के कारण हो रहा है।

तो अब ऐसे समझ लो कि एक मन्दिर है, उसमें घंटियाँ बज रही हैं। उस मन्दिर के सामने से एक श्रद्धालु हिन्दू गुज़रेगा, उसे कुछ अनुभव होगा। उसी के सामने से किसी और धर्म का कोई गुज़र जाएगा, उसे कोई अनुभव नहीं होगा या अनुभव होगा भी तो कुछ अलग होगा। हो सकता है कि उसे थोड़ा-सा हड़बड़ाहट का भी अनुभव हो जाए, कुछ उल्टा ही अनुभव हो जाए। लेकिन उसे वो अनुभव तो नहीं होगा जो किसी श्रद्धालु को हो रहा है।

इसी तरीक़े से कोई चर्च है, कोई मस्जिद है उसमें से भी कुछ आवाजें आ रही हैं। उसके सामने से जब उस धर्म को मानने वाला कोई गुज़रेगा तो उसे एक अनुभव होगा, दूसरे किसी को नहीं होगा। तो फिर ये अनुभव भी किस पर निर्भर कर रहा है? ये अनुभव भी निर्भर कर रहा है, जो अनुभोक्ता है, जो एक्सपीरियंसर है उसकी अतीत की सारी कंडीशनिंग पर। तुम्हें कैसा बना दिया गया है तुम्हारे अतीत के द्वारा ये चीज़ निर्धारित कर देती है कि तुम्हें अब अनुभव कैसे होंगे। समझ में आ रही बात?

तो ये जो एक्सपीरियंसर है इसमें अपनेआप में कोई सच नहीं है। तो इसे एक्सपीरियंस में क्या सच आ जाएगा। इसको तो इसके पूरे जीवन काल में जो घुट्टी पिलाई गयी है उसी से इसका निर्माण हुआ है, एक्सपीरियंस का। तो ये जो एक्सपीरियंस कर रहा है वो कहा से सच हो जाएगा। तो अनुभवों को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए।

प्र: तो मेरे को ये लग रहा है कि क्या भारत में ख़ासकर जो अनुभव के पीछे जो दौड़ है, ख़ासकर कि ये जो अध्यात्म में जो अनुभव से आपको मुक्ति दिलाता है वो इसलिए है कि ये जो भौतिकतावादी, कंज़्यूमैरिज्म।

आचार्य: वो कंज़्यूमैरिज्म ही है। हम अपने एक्सपीरियंस को कंज़्यूम कर रहे हैं तो हम बाज़ार जाते हैं तो वहाँ भी हम भाँति-भाँति की चीज़ों का अनुभव लेना चाहते हैं। एक नये फ़्लेवर की आईसक्रीम आयी है, हम उसका अनुभव लेना चाहते हैं। वैसे ही ध्यान की एक नयी विधि आयी है, जिसमें न एक बड़े, बढ़िया झिलमिल-झिलमिल भीतर अनुभव होते हैं। हम उसको भी कंज़्यूम करना चाहते हैं, आइसक्रीम की तरह हमें उसका भी अनुभव लेना हैं।

प्र: जैसे बढ़िया रिसॉर्ट में जाकर।

आचार्य: जैसे बढ़िया रिसॉर्ट में जाकर के।

प्र: ऐसा होता भी है।

आचार्य: हाँ, बिलकुल-बिलकुल। एक आध्यात्मिक आप क्रियाएँ कर रहे हैं और उसमें भीतर कुछ भी गुन-गुन-गुन हो रहा है।

प्र: तो मेरा ये प्रश्न है कि जो सो कॉल्ड मेडिटेशन है जिसमें सॉंस अन्दर बाहर करते हैं, और कुछ-कुछ करते हैं, पन्द्रह मिनट तक और उसके बाद अचानक बहुत हाई -सा (ऊँचा सा) मिलता है, कई लोग बोलते हैं किक मिलता है। तो क्या इसमें ड्रग्स लेने में क्या फ़र्क है?

आचार्य: नहीं, वो तो देखिए। अभी हमने बात करी न अन्दर आते हैं, आपके शरीर की स्थिति बदली तो आपके अनुभव बदल जाते हैं। आपके शरीर का पसीना सूख गया था तो आपको ठंडक लगने लग गयी न? जैसे-जैसे पसीना सूखता जाएगा वैसे-वैसे आपको ठंडक लगेगी। पसीना आता है इसलिए है कि पसीना भाप बने और आपके शरीर की गर्मी लेकर उड़ जाए भाप और आपको थोड़ी ठंडक लगे। तो शरीर की स्थिति बदलती है अनुभव तुरन्त बदल जाते हैं। बदल जाते हैं कि नहीं बदल जाते हैं?

आप कभी आजमाकर देख लीजिएगा आपको बहुत गर्मी लग रही हो, उसी वक्त आपको ठंडा पानी मिल जाए। आपको ऐसा लगेगा जैसे ही कि आप जिस कमरे में बैठे हो वो कमरा ही बदल गया।

प्र: शीतलता मिल गयी।

आचार्य: सबकुछ कुछ-कुछ बदल गया पूरा आपका जो, जो एक्सपीरियंस ही है वही बदल जाएगा। जैसे ही बिलकुल झुलसते हुए गले में ठंडा पानी जाएगा। तो शरीर की स्थिति बदलने के साथ आपके अनुभव बदल जाते हैं। अब आप अगर कोई क्रिया वगैरह कर रहे है, जिसमें आप बहुत तेजी से साँस अन्दर-बाहर, अन्दर-बाहर कर रहे हैं। तो आपके शरीर में ऑक्सीजन बढ़ जाता है, आपके शरीर की स्थिति बदल गयी। तो उससे आपका शरीर जो अनुभव ले रहा है वो बदल जाते हैं। पर इन अनुभवों में कोई दम थोड़े ही है, इनमें कोई गहरी बात थोड़े ही होती।

प्र: रूट प्रॉब्लम (मूल समस्या) भी सॉल्व (हल) नहीं हुई उससे।

आचार्य: रूट प्रॉब्लम (मूल समस्या) इससे थोड़े ही सॉल्व (हल) हो जाएगी, ज़िन्दगी की।

प्र: जैसे पुस्तक वितरण करते थे हम लोग। तो एक लड़की मिली थी वहाँ पर जो बहुत परेशान थी।

आचार्य: (प्रश्नकर्ता को टोकते हुए) ऐसे बोला करिए — किताबें बेचते थे हम लोग या किताब बाँटते थे हम लोग। ये जो हमारी जनता सुन रही है, ये खेद की बात है कि ऐसी हालत में पहुँच गयी है जहाँ इनको वितरण शब्द का मतलब नहीं पता होगा, आधों को।

प्र: स्टॉल लगाते थे मॉल में और वहाँ पर आपकी किताबों को हम लोगों को बुला-बुलाकर बोलते थे कि पढ़िए है।

आचार्य: हाँ ठीक है आगे बढ़िए।

प्र: एक लड़की आयी थी तो मैंने उससे पूछा कि आपके लिए काम की किताबें हैं, आप पढ़िए। और वो उस समय में बहुत परेशान थी क्योंकि उसका ब्रेकअप हुआ था और बहुत परेशान थी, बहुत डिप्रेस थी। तो मैंने उसको ये जो किताब रखी है, 'द लवर' यही वाली किताब सुझाई थी। और इससे मैंने बोला कि आपको मूल समस्या तक जानने का हल मिलेगा। कि क्यों हुआ, कैसा? मतलब क्या था? तो बोलती है, 'नहीं मुझे नहीं चाहिए, मैं एक मूवी देखकर आऊँगी। दो-तीन घंटे मुझे बढ़िया अनुभव होगा। तो मतलब उस समय मुझे ये बात समझ में आया कि…

आचार्य: देखिए ठीक है। इसमें जो प्रिंसिपल हैं, जो समझा जाना चाहिए वो ये है कि हमारे भीतर कुछ बैठा है जो बहुत बेचैन है, ठीक है। और उस बेचैनी को मिटाने के लिए वो तरह-तरह के अनुभव लेना चाहता है। सबसे पहले तो हम ये समझें कि हम नये-नये एक्सपीरियंसेस क्यों लेना चाहते हैं? आपने सुना होगा न बहुत लोग कहते हैं कि लाइफ़ का तो मतलब ही है ये एक्सपीरियंस लो, वो एक्पीरियंस लो। हम क्यों लेना चाहते हैं वो एक्सपीरियंसेज? वो हम एक्सपीरियंसेज इसीलिए लेना चाहते हैं क्योंकि भीतर एक तड़प, एक बेचैनी है, एक मूल अधूरापन है, इनकंप्लीटनेस।

हमको लगता है कि इस चीज़ का अनुभव ले लें, वहाँ जाएँ घूम आएँ, ये स्वाद ले लें, फ़लानी चीज़ को आँखों से देख लें, फ़लानी चीज़ के बारे में सुन लें, फलाने तरीक़े का कोई शारीरिक अनुभव ले लें; तो इससे जो हमारी बेचैनी है वो मिट जाएगी। तो सबसे पहले तो ये समझिए कि जो अनुभव लेने के लिए इतना आतुर रहता है वो कौन है? वो अहंकार है हमारा। अहंकार को ही सारे अनुभव होते हैं और अहंकार ही मूल समस्या है। अहंकार ही मूल तड़प, बेचैनी अज्ञानता, अपूर्णता सबकुछ है, ठीक है।

ये सिद्धान्त याद रखने वाली बात है कि जब मैं कहता हूँ, मुझे अनुभव हो रहे हैं तो माने मेरे अहंकार को अनुभव हो रहे हैं। आत्मा तो न कर्ता है, न भोक्ता है; आत्मा न कर्ता है न भोक्ता है, ठीक है? ये मूल सिद्धान्त है। जो भोक्ता नहीं है वो अनुभोक्ता भी नहीं हो सकता तो उसे अनुभव भी नहीं होंगे।

आत्मा को कोई अनुभव नहीं होता, सत्य को कोई अनुभव नहीं होता क्योंकि अनुभव करने के लिए कोई दूसरा चाहिए न। मुझे इस किताब का अनुभव हो इसके लिए मैं और ये किताब अलग-अलग होनी चाहिए। सत्य दो तो होते नहीं तो सत्य को दूसरे किसी का क्या अनुभव होगा। तो सारे अनुभव अहंकार को होते हैं और अहंकार होता है पगला। अहंकार होता है पगला। पगला न होता तो परेशान क्यों होता! वो पगला होता है इसीलिए उसको अपने हिसाब से सब उल्टे-पुल्टे, अनुभव होते रहते हैं जैसे अभी हमने शराबी की बात करी कि उसको न जाने कैसे-कैसे अनुभव होते रहते हैं!

अब वो आकर के बहस करे कि नहीं साहब, अनुभव तो होते-ही-होते हैं। ‘मेरे शरीर में यहाँ पर फूल खिला था मुझे अनुभव हुआ है। और मेरे फ़लाने गुरुजी कहते हैं कि जब तुम ऐसे आगे बढ़ जाओगे अध्यात्म में और तुम सिद्धि पा लोगे तो तुम्हें वैसा अनुभव होगा।’ मैं बिलकुल इनकार नहीं कर रहा, अनुभव हो सकता है लेकिन उस अनुभव में कोई सच्चाई नहीं है। ठीक वैसे, जैसे शराबी को आकाश में फूल खिला हुआ दिखाई दे रहा है। वो अनुभव उसे हो रहा है। आप उसे ये समझाने की कोशिश मत करिए कि ऐसा अनुभव नहीं हुआ, अनुभव तो हुआ लेकिन वो अनुभव झूठा है, ठीक है?

वैसे ही लोगों को तमाम तरीक़े के जो अनुभव होते हैं कि मैंने ये किया, मैंने वो किया, लोग बोलते हैं मैं फ़लाने गुरुजी की तस्वीर के सामने खड़ा हो गया और मुझे एनर्जी का अनुभव हुआ। बिलकुल हुआ होगा? लेकिन तुम्हें कोई भी अनुभव हो सकता है उसमें क्या बात है? वो तो तुम्हारे मन की स्थिति पर निर्भर करता है न?

भई, आप किसी साँप की तस्वीर के आगे खड़े हो जाइए उसमें हो सकता है आपको भय का अनुभव हो जाए क्योंकि आप साँप से डरते हैं। एक आदमी जो साँप खाता है, उसको आप उसी साँप की तस्वीर के सामने खड़ा कर दीजिए उसके मुँह से लार बहने लगेगी। दोनों के अनुभव अलग-अलग क्यों हैं?

प्र: क्योंकि इनका पास्ट अलग-अलग है।

आचार्य: क्योंकि जो अनुभोक्ता है, जो अनुभव करने वाला है वो अलग है। यही आदमी है जो साँप से डरता है इसको आप किसी तरीक़े से साँप को खाने की आदत दिला दीजिए, तो ये साँप की तस्वीर के आगे खड़ा होगा तो इसको डर नहीं लगेगा, इसके भी मुँह से लार बहेगी। अब बताइए मुझे साँप से जो एनर्जी आ रही थी वो बदल गयी क्या? वैसे ही आप कहते हैं कि फ़लाने की तस्वीर से एनर्जी आया करती है, ठीक है। जिसकी तस्वीर से एनर्जी आ रही है उसकी शक्ल आपको न दिखाई दे, उसकी पीठ भर दिखाई जाए।

प्र: क्योंकि एनर्जी तो कहीं से भी आएगी।

आचार्य: तस्वीर में एनर्जी तो हर तरफ़ से आनी ही चाहिए। अगर-अगर एनर्जी तो एक फ़िजिकल चीज़ होती है, भाई आग की एक गेंद है वो गरमा-गरम है और उससे हीट रेडिएट हो रही है। उस गेंद को आप ऐसे रखें तो भी उससे ही रेडिएट होगी, उस गेंद को आप ऐसे रखें तो भी उससे हीट रेडिएट होगी।

तो ये जो बोलते हैं कि गुरुजी की तस्वीर के आगे मुझे एनर्जी का अनुभव हुआ। तो गुरुजी के चेहरे की जगह; गुरु जी के हाथ की तस्वीर होती सिर्फ़ या कंधे की तस्वीर होती, या घुटने की तस्वीर होती है तो भी आपको एनर्जी का अनुभव होता? आप देख नहीं रहे हैं कि वो जो अनुभव हो रहा है वो तस्वीर से नहीं हो रहा है वो आपके मन की एक चाल है। वो आपका मन आपको भीतर-भीतर घुमा रहा है, वो भ्रम है मन का। अनुभव हो रहा है आपको, मैं बिलकुल इनकार नहीं करता लेकिन उस अनुभव को सच मत मानिए। वो अनुभव वैसा ही है जैसे शराबी का आकाश-कमल। कि उसको लग रहा है बिलकुल शराबी को, उसको बिलकुल लग रहा है लेकिन वो जो लग रहा है वो ऐसी सी चीज़ है, फ़ालतू की बात है।

हम जानते नहीं हैं क्या? हम किसी चीज़ को कुछ समझ लेते हैं, अनुभव तो हो गया न हमको? आप रात में बाहर निकले और पेड़ का पत्ता हिल रहा है आपको लगने लग जाता है, भूत हिला रहा है। तो अनुभव तो आपको हो ही गया और उस अनुभव का प्रमाण ये है कि आप बिलकुल डर गये, आपके कान लाल हो गये। लेकिन कुछ था थोड़े ही वहाँ पर, अनुभव किसी भी चीज़ का हो जाता है।

इस तरीक़े से अब जैसे ये गिलास भी है (पानी के गिलास को दर्शाते हुए)। जब आप दर्शन में और गहराई से जाते हैं तो आपको बताते हैं कि इसका (ग्लास) भी अनुभव आपको आपकी दैहिक उपस्थिति के कारण हो रहा है। अगर एक शरीर न हो थ्री डायमेंशनल (त्रिआयामी) और एक माइंड न हो, जो थ्री डायमेंशनल एक्स्पीरियंसेज को रिसीव करने के लिए कंडीशंड हो, तो आपको इस ग्लास का कोई अनुभव नहीं होगा।

ये जो हमारा माइंड है, ये थ्री डायमेंशनल ऑब्जेक्ट्स को एक्सपीरियंस (अनुभव) करने के लिए कंडीशंड (संस्कारित) है। तो इसीलिए आपको इस ग्लास का अनुभव हो रहा है। माने इस ग्लास का अनुभव भी एक तरह की कंडीशनिंग से ही आ रहा है। तो इसको भी सच्चाई नहीं माना जाता। इसीलिए फिर जानने वालों ने कहा 'जगत मिथ्या'। उन्होंने कहा कि शराबी को जिस फूल का या खम्भे का अनुभव हो रहा है वो तो झूठा है ही, जब तुमने शराब नहीं पी रखी उस वक्त भी तुमको ये जो गिलास का अनुभव हो रहा है ये भी कोई ख़ास सच्चा नहीं है इसीलिए कुल मिला करके पूरा ही पूरा जगत मिथ्या।

प्र: तो जब भी कोई अनुभव की बात करें तो प्रश्न, मुझे अपने से करना चाहिए कि ऐसा क्या है? मेरे अन्दर जो मुझे ऐसा दिखा रहा है।

आचार्य: बिलकुल।

प्र: तो वो करने से मैं बच सकता हूँ क्योंकि अनुभवों के चक्कर में कई बार फँस जाते हैं हम लोग और उसी को सच मानकर हम लोग उसी को बड़ा मान लेते हैं।

आचार्य: अब ये गिलास है ये मैंने आपको दिखाई, ठीक है? मैंने कहा कि ये जगत मिथ्या, उसके बाद मैंने क्या किया?

प्र: उसको पिया।

आचार्य: अब अगर आप इसे ग़ौर से देखें तो समझ जाएँगे कि मेरे लिए क्यों ज़रूरी हो जाता है, अपने अनुभवों को सच मानना। क्योंकि इस गिलास का सम्बन्ध मेरे शरीर के स्वार्थ से है। इस गिलास में ऐसा कुछ है जो मेरे शरीर के काम आ रहा है। अगर मुझे अपनेआप को सच मानना है और अहंकार अपनेआप को तो सच मानता ही है, शरीर से जुड़ा हुआ अहंकार है अपनेआप को तो सच मानता ही है। उसे अगर अपनेआप को सच मानना है तो उसने इस गिलास को सच मानना पड़ेगा।

भई, मैं सच हूँ तो मेरा गला सच है, मेरा गला सच है तो मेरी प्यास सच है, मेरी प्यास सच है तो पानी सच है और पानी सच है तो ये गिलास सच है तो मुझे इस ग्लास को सच मानना पड़ेगा। क्योंकि सबसे पहले मैं किसको सच माने बैठा हूँ? मैं शरीर को सच माने बैठा हूँ। और शरीर को सच मानने का नतीजा ये होता है कि आप एक झूठ में प्रवेश कर जाते हो क्योंकि शरीर का हिसाब-किताब अलग है, आपका हिसाब-किताब अलग है।

आप शरीर से सम्बन्धित ज़रूर हो लेकिन आप शरीर ही नहीं हो। क्योंकि शरीर के इरादे, शरीर के ढर्रे बिलकुल अलग हैं। और आप — आप माने वो जो बोलता है 'मैं', शरीर ‘मैं’ नहीं बोलता, आप माने जो बोलता है 'मैं देवेश हूँ' — आपके इरादे, आपकी इच्छाएँ, आपकी मुक्ति बिलकुल अलग चीज़ हैं। शरीर को कोई मुक्ति नहीं चाहिए आपको चाहिए। तो ये दिक्क़त है अपनेआप को शरीर मानने में। लेकिन हम अपनेआप को शरीर मानते हैं जब अपने आप को शरीर मानते हैं तो फिर हमारे लिए ज़रूरी हो जाता है अपने सारे शरीर सम्बन्धी अनुभवों को सच मानना।

प्र: पर अनुभव तो सारे शरीर सम्बन्धी हैं ऐसा लगता है कि शरीर सम्बन्धी नहीं हैं। मुझे पता नहीं है ये चीज़। जैसे, जलेस (ईर्ष्या) या फिर किसी के प्रति शत्रुता रखना, या कुछ गुस्सा आना। तो क्या जैसे किसी के प्रति आकर्षण रखना, किसी के प्रति प्रेम का भाव होना तो ये सब भी एक तरीक़े से शारीरिक अनुभव हैं।

आचार्य: व्यक्ति के प्रति ही तो जलेसी (ईर्ष्या) रख रहे हैं, वो शरीर ही तो है। एक शरीर दूसरे शरीर — एक देही दूसरे देही से ईर्ष्या रख रहा है।

प्र: क्योंकि अगर कुछ नहीं है, परिभाषित नहीं कर सकते विषय तो ईर्ष्या किससे रखोगे? तो सारे शरीर के सन्दर्भ में ही हैं सारे तो ये अनुभोक्ता हैं। जिस इकाई को हम लोग सच मानते हैं वो ही शरीर है।

आचार्य: तो जो लोग वाक़ई जरा ज़िन्दगी समझदारी से जीना चाहते हों। उनके लिए ये पहली ज़रूरत है कि वो अपने अनुभवों पर भरोसा करना थोड़ा कम कर दें। बल्कि वो अपने अनुभवों की ही जाँच-पड़ताल किया करें। ये दो बिलकुल अलग बातें हैं — अपने को सच मान लेना और अपने अनुभवों का परीक्षण करना, अपने अनुभवों की जाँच-पड़ताल करना।

जैसे हमने शुरू में ही कहा था कि विज्ञान भी अनुभव पर ही चलता है कि भाई, आपने क्या देखा? विज्ञान भी इसी पर चलता है। पर विज्ञान में और आम आदमी की बुद्धि में एक मूल अन्तर ये है कि विज्ञान जो कुछ देखता है उसको पचास बार मेज़र (मापन) करता है, उस पर प्रयोग करता है और बहुत ठोस तरीक़े से जानने की कोशिश करता है कि भाई, जो कुछ देखा गया उसमें यथार्थ कितना है।

आम आदमी, अगर उसको ख़ास तौर पर कोई अच्छा अनुभव हुआ है तो उसको तो तुरन्त ही ऐसा मान लेगा कि ये सच ही है। बुरा हुआ हो तो भी मान लेता है अगर जो बुरा अनुभव है वो अहंकार को बढ़ाता हो, आपकी धारणाओं को और पुख्ता करता हो। तो हम बहुत जल्दी में रहते हैं ये मानने में कि अनुभव तो सच ही है। अनुभव में जितना गहरे जाओगे, जितना उसकी जाँच-पड़ताल करोगे उतना पता चलेगा अनुभव और अनुभोक्ता के सम्बन्ध के बारे में — द रिलेशनशिप बिटवीन द एक्सपायरेंस्ड, द एक्सपीरियंसर एंड द एक्सपीरियंस। उसी को फिर शास्त्रीय के तौर पर कहते हैं कि ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान। ये जो त्रिपुटी है इसका जो सम्बन्ध है आपस में, ये तीनों कैसे एक ही चीज़ हैं। ये जिसको दिखने लग गया, वो ज़िन्दगी के बहुत सारे झंझटों से फिर बचने लग जाता है। क्योंकि उसका झूठे अनुभवों में, विचारों में भावनाओं में — ये सब अनुभव के क्षेत्र की चीज़ें हैं विचार और भावना भी, इनमें उसका फिर यक़ीन कम हो जाता है।

वरना आप यही माने रहते हैं कि मैं ही बादशाह हूँ मुझे ऐसा लग रहा है तो ठीक ही होगा या कि मेरे भीतर ऐसी भावना उठी है, ये झूठ कैसे हो सकती है? जो अपनेआप को जितना जाँचने-परखने के लिए अपने भीतर जाता है उसे उतना ज़्यादा पता चलता है कि जो कुछ भी ये तुम्हारे भीतर से उठ रहा है न, तथा-कथित भीतर से — द सो कॉल्ड इनसाइड — वो सब ऐसा ही है। वो एक काम चलाऊ सच है, वो असली सच नहीं है।

प्र: तो जो प्रचलित अध्यात्म है जो बोलता है कि ऐसा अनुभव करो, ये करो।

आचार्य ये अनुभवों वाला अध्यात्म तो बिलकुल और दो कौड़ी का है। ये सड़क किनारे के ठेले का अध्यात्म है।

प्र: इससे तो न हो, ज़्यादा अच्छा है।

आचार्य: इससे अच्छा तो ये है कि आपको बिलकुल, आप एक साधारण जीवन बिताएँ, कोई उसमें अध्यात्म वगैरह न रहे, बजाय इसके कि आप ये अनुभव वाले अध्यात्म में चले जाएँ कि गुरुजी आपको फ़लाने तरीक़े का अनुभव कराएँगे, फ़लानी आपको दैवीय ऊर्जा का अनुभव करा देंगे और भीतर से कुछ मण्डल उठेगा उसका अनुभव करा देंगे और ये होगा, वो होगा।

प्र: कई बार तो मुझे लगता है कि प्रेशर (दबाव) में आकर के वो लोग अनुभव किए बैठे रहती है, तो लगता है कि अगर मुझे नहीं हो रहा तो मेरे अन्दर कोई कमी है, तो वो भी।

आचार्य: अनुभव वाले अध्यात्म से ही नहीं अनुभव वाले जीवन से भी बचो। ऐसा जीवन जो अनुभवों के पीछे पागल हो कि नये तरीक़े के कपड़ों का अनुभव मिल जाए, नये तरीक़े के पर्यटन का अनुभव मिल जाए, नये तरीक़े के शारीरिक सम्बन्धों का अनुभव मिल जाए, नये तरीक़े के खाने का अनुभव मिल जाए। जैसे ये जीवन मूर्खता-पूर्ण है वैसे ही वो अध्यात्म मूर्खता-पूर्ण है, जो अनुभवों के पीछे भागता है। और भूलना नहीं है हमें कि जो ये अनुभोक्ता है ये अपने ही डाइमेनशन , अपने ही क्षेत्र की चीज़ों का अनुभव कर सकता है। तो अहंकार को सच का कोई अनुभव नहीं हो सकता।

प्र: पर मेरा प्रश्न ये है कि अगर मान लो अनुभवों से आपको अच्छा लग रहा है, और मान लो भले ही अस्थायी तौर पर आप अपने दुखों को भूल जा रहे हैं। तो उसमें क्या बुराई है?

आचार्य: ड्रग्स हैं, फिर तो ड्रग्स हैं; ये तो ड्रग्स हैं फिर।

प्र: तो इससे बाद में झटका लगेगा?

आचार्य: ड्रग्स से जो कुछ होता है आप जानते ही हैं। अनुभव अच्छा हो जाता है ड्रग्स से, ड्रग्स लोग लेते ही अनुभव के लिए हैं। तो इस तरह की चीज़ें न कि फ़लानी नयी चीज़ का अनुभव कर लो। चाहे वो आध्यात्मिक चीज़ हो, चाहे वो बाज़ारू चीज़ हो और वो अनुभव कर लो, वो अनुभव बड़ा अच्छा लगेगा। ये तो सीधे-सीधे ड्रग्स की बात है।

प्र: अभी तो अच्छा लग रहा है लेकिन कब तक लगेगा?

आचार्य: कब तक? दूसरी बात अभी भी अच्छा लग रहा है तो सिर्फ़ इसीलिए लग रहा है क्योंकि वो नशा लेकर तुम सच्चाई से बच पा रहे हो थोड़ी देर के लिए। या अपने आपको तुम एक तरह की वैकल्पिक सच्चाई में डाले दे रहे हो।

प्र: वो पूरी तरह से अच्छा नहीं लग रहा होता है। कहीं-न-कहीं पता होता है कि हाँ, मिसिंग (खोया सा) है कुछ।

आचार्य: सब पता होता है।

प्र: ये तो क्लियर हो गया कि अनुभव तो झूठा है मतलब उसमें कोई सच्चाई नहीं है। लेकिन सच क्या है फिर?

आचार्य: सच कोई चीज़ होती है तो बताते कि सच क्या है? आप पूछें कि ये गिलास क्या है? तो बता दूँ गिलास क्या है। अभी शुरुआत करने के लिए आप इतना ही समझ लीजिए कि अनुभवों को नकारते चलना ही सच की दिशा में आगे बढ़ना है। सच कुछ है नहीं, बस उसकी दिशा में बढ़ा जा सकता है और सच की दिशा है स्वयं को नकारने की दिशा। तो अपनेआप को नकारना माने अनुभोक्ता को नकारना, जो एक्सपीरियंसर है उसको नकारना। तो अपने एक्सपीरियंसेज को बहुत गम्भीरता से मत लीजिए।

आप अपने एक्सपीरियंसेज को जितना कम गम्भीरता से लेंगे, आप जितना ज़्यादा देखते जाएँगे कि आप ही हैं जो अपने एक्सपीरियंसेज , अनुभवों का एक तरह से निर्माण करते हैं, उतना ज़्यादा आप सच की तरफ़ बढ़ते जाएँगे। बाक़ी सच कोई चीज़ थोड़े ही है कि हाथ में रख के दे दी जाए। न कोई जगह है, न कुछ वस्तु है कि उसकी परिभाषा आपको बता दी जाए।

तो सच क्या है? ये प्रश्न कुछ बढ़िया नहीं। लेकिन सच की तरफ़ बढ़ा जा सकता है और सच की तरफ़ बढ़ना माने 'अपना घटना'। आप सच की तरफ़ बढ़े माने आप कम हुए, आप कम हुए माने अनुभवों में आपका जो विश्वास है, अपने अनुभवों में आपका जो विश्वास है वो कम हुआ; यही सच की तरफ़ आपकी गति है।

प्र: और देखा जाए तो इनसे काफ़ी सारी आफ़तों से भी बचने का अच्छा मार्ग है कि अच्छा-अच्छा अनुभव हो रहा है, ख़राब अनुभव हो रहा है।

आचार्य: हाँ, उसके पीछे तड़पना नहीं है। अच्छा हो रहा है, बुरा हो रहा है, सुख है, दुख है उसके पीछे बहुत ज़्यादा तड़पना नहीं है।

प्र: अगर उसको सच मानूँगा तो उसके पीछे भागूँगा, फिर उसमें भी समय लगाऊँगा।

आचार्य: आदमी की ज़िन्दगी और किसमें बीतती है! कि किसी तरीक़े से अच्छे अनुभव मिल जाएँ! ‘अच्छे अनुभव मिल जाएँ, दुःखी और जो बुरे अनुभव हैं उससे बच जाए!’

अच्छे और बुरे अनुभव — दोनों को ही बहुत महत्व नहीं देना है। जो आदमी ये सीख लेता है वो सच की ओर बढ़ने लगता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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