सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु। एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।
आपके प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा सोचकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने 'हे कृष्ण!', 'हे यादव!', 'हे सखे!' इस तरह जो कई बार बिना सोचे-समझे हठात् कहा है और हे अच्युत! आप जो मेरे द्वारा हास्य विनोद के लिए विहार, शय्या, आसन और भोजन इत्यादि के समय अकेले अथवा इन सखाओं के सामने भी मेरे द्वारा अपमानित किए गए हैं — वह सब अपराध अप्रमेयस्वरूप अर्थात अचिन्त्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ११, श्लोक ४१-४२
आचार्य प्रशांत: तो भाई, क्या हो रहा है? कृष्ण अर्जुन के साथ सदा रहते थे और अर्जुन उनको सखा रूप में ही देखता था, हास्यविनोद भी कर लेता था। सखा को तो कई दफ़े हल्के में भी ले लिया जाता है। हल्के में भी ले लेता होगा। भाई, गुरु जब सखा बनकर आपके साथ रह रहा हो तो आप कई दफ़े उसके साथ धृष्टता करेंगे, अमर्यादा करेंगे, सीधे-सीधे कहूँ तो बदतमीज़ी करेंगे। अर्जुन ने भी करी होगी।
लेकिन अब जब कृष्ण ने अपना विकराल रूप दिखा दिया तो अर्जुन को याद आ रहा है, अरे! बाप-रे-बाप, ये तो बड़े आदमी हैं। और इनसे मैंने अतीत में कितनी धृष्टताएँ कर दी हैं, कितनी बदतमीज़ियाँ कर दी हैं। अब याद आ रहा है कि मैं इनके साथ जो खेल-खेल में और मज़ाक-मज़ाक में इनको जिस तरह से सम्बोधित कर देता था, वो सब इनका अपमान था। क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि ये वास्तव में कितने विराट और कितने अनंत हैं।
तो अब अर्जुन कह रहा है, “मुझे माफ़ करिएगा। मैंने आपको अपना सखा मात्र ही समझ करके आपसे बहुत बातें हास्यविनोद में कह दी, वो अपमानजनक बातें थीं। मुझे नहीं कहनी चाहिए थी।”
तो प्रश्नकर्ता कह रही हैं, “प्रणाम, आचार्य जी। अर्जुन श्रीकृष्ण का विराट रूप देखकर स्वयं पर ग्लानि एवं दु:ख अनुभव करते हैं कि किस तरह उन्होंने अनजाने में श्रीकृष्ण को सखा मात्र मानकर उनके साथ साधारण व्यवहार करके उनका अनादर किया। और फिर अर्जुन उनसे क्षमा माँगते हैं। तो पूछा है कि दिव्य दर्शन के बाद श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए क्या पुराने श्रीकृष्ण नहीं रहे? तो क्या अर्जुन का श्रीकृष्ण के प्रति पुराना प्रेम ही अर्जुन के दुःख का कारण बना? कृपया बताएँ।”
हाँ, कृष्ण का एक बार असली रूप देख लिया, कृष्ण की गहरी सच्चाई देख ली, उसके बाद निश्चित रूप से कृष्ण अर्जुन के लिए पुराने कृष्ण तो नहीं रहे। लेकिन यह कोई दुःख की बात नहीं है। अब अर्जुन को असली कृष्ण मिले हैं तो असली लाभ भी मिलेगा न।
पहले अर्जुन को क्या मिले हुए थे? पहले अर्जुन को वही कृष्ण मिले हुए थे जो अर्जुन की छवि के थे। ये तो मेरे सखा मात्र हैं, मेरे सम्बंधी हैं। तो कभी उनको ‘यादव’ बोल दे, कभी ‘सखा’ बोल दे, कभी कुछ बोल दे, कि ये तो ऐसे ही हैं जो अपने साथ घूमते-फिरते रहते हैं। इनका क्या है? हमारे ही जैसे हैं। इनकी बहन से तो मैंने ब्याह किया है। ये कौन से बड़े दूर के हैं। ठीक है?
तो अर्जुन का ऐसा रवैया रहता था श्रीकृष्ण के प्रति। ऐसा नहीं कि वो असम्मान रखता था। सम्मान रखता था, प्रेम रखता था, लेकिन उतना सम्मान नहीं रखता था जितने सम्मान के श्रीकृष्ण अधिकारी हैं। तो अब पछतावा हो रहा है अर्जुन को कि मैंने अनजाने में आपका बड़ा अपमान कर दिया, क्योंकि मैं कभी समझ ही नहीं पाया कि आपकी ऊँचाई क्या है और मैं आपके सामने कितना छोटा हूँ। मुझे माफ़ करें।
पूछ रही हैं, “अब क्या श्रीकृष्ण और अर्जुन के रिश्ते में कुछ गड़बड़ हो जाएगी, क्योंकि पुराना रिश्ता तो अब टूटेगा?”
पुराना टूटेगा लेकिन जो नया बनेगा, वो पुराने से कहीं ऊँचा, सुंदर और बेहतर होगा। क्या चाहते हो कि आप जिसके साथ हो, अगर वो बहुत ऊँचा है, तो उसकी ऊँचाई आपसे छुपी रहे? या ये चाहते हो कि आप जिसके साथ हो, उसकी ऊँचाई आपको स्पष्ट हो जाए ताकि आप उसकी ऊँचाई से लाभान्वित हो सको? बोलो। स्पष्ट हो जाए न। तो अब ये होगा इनके साथ।
कभी ये मत सोचिएगा। कभी मत घबराइएगा कि असलियत सामने आ गई तो पुराना रिश्ता टूटेगा। असलियत सामने आएगी तो असली रिश्ता बनेगा। जो जिस सम्मान का हकदार होगा, उसे वो मिलेगा। रिश्ता इस लायक होगा कि आगे बढ़े, चले, फले-फूले, तो आगे बढ़ेगा, चलेगा। और रिश्ता इसी अधिकार का होगा कि वो हट जाए, नष्ट हो जाए, उसकी जगह कुछ और आ जाए, तो हटेगा।
रही कृष्ण जैसों की बात, तो उनके साथ तो असली ही रिश्ता रखें। इसी में आपका लाभ है।
प्र२: दोस्तों से बात करता हूँ, घर वालों से बात करता हूँ तो तरह-तरह की बातें बोलते हैं कि तुम पैसा कमा रहे हो तो उसको उपयोग करना सीखो, घूम आओ कहीं, कुछ मनोरंजन कर लो या विवाह ही कर लो। लेकिन अभी जितना मैंने अनुभव किया है अपने जीवन में तो उससे लगता है कि ये सब चीज़ें व्यर्थ हैं और कभी ऐसा कर भी लूँ तो अगले दिन वो चीज़ें ऐसी लगती हैं कि जैसे कल जो किया था, वो एक बोझ है और उसकी सज़ा मुझे सहनी होगी।
तो ये सोचकर ही यहाँ पर आया था, लेकिन यहाँ आना भी मुश्किल भरा था। बीच में कई बार सोचा कि आधे रास्ते से ही वापस हो जाऊँ। कल से यहाँ पर हूँ और कई बार वापस जाने का विचार मन में आ गया है। क्या करूँ? किस दिशा में जाऊँ? जीवन में कुछ सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है और कुछ साफ़ भी नहीं हो पा रहा है।
आचार्य: एकदम ही न पता होता तुम्हें कि किस दिशा जाना है तो यहाँ आने से घबराते-कतराते नहीं। कह रहे हो कि जबसे वीडियो देखना शुरू करा है, तबसे पुरानी ज़िन्दगी के प्रति उत्साह कम हो गया है। तो वही तो कारण है कि यहाँ आते समय आधे रास्ते से ही लौट रहे थे। इसलिए नहीं लौट रहे थे कि पुरानी ज़िन्दगी के प्रति उत्साह कम हो गया है, इसलिए लौट रहे थे क्योंकि पुरानी ज़िन्दगी के प्रति उत्साह बचा हुआ है।
फिर कहा कि दिखाई देता है कि वो सब पुराने तौर-तरीके, ढर्रे व्यर्थ हैं। अगर वो व्यर्थ दिखाई ही दे रहे होते तो यहाँ आने में इतना संकोच, इतनी घबराहट नहीं होती। वो व्यर्थ हैं, ऐसा तुम्हें मेरे प्रकाश में लग रहा होगा। वो व्यर्थ हैं, ऐसा तुम्हें जानने वालों ने बता दिया होगा। स्वयं तुम्हें वो व्यर्थ लग कहाँ रहे हैं? इसका प्रमाण ये है कि तुम अभी भी ऐसे लोगों की बातों को उपलब्ध हो जो तुमसे कह रहे हैं कि वो सब व्यर्थ नहीं हैं।
कह रहे हो न कि दोस्त बताते हैं कि चलो-चलो, ऐसे मनोरंजन कर लो। और, और लोग, स्वजन इत्यादि बताते हैं कि ये सब कर लो। जिसको ज़िन्दगी की कुछ बातें व्यर्थ लगने लगेंगी, उसे उन बातों के पैरोकार भी तो व्यर्थ लगने लगेंगे। उन्हें अब वो ‘दोस्त’ थोड़े ही बोलेगा। प्याले में जो भरा हुआ है ज़हर, अगर वो दुश्मन है तुम्हारा, तो उस प्याले को तुम तक लाने वाला दोस्त हो गया? ये तो तुमने खूब बताई।
एक तरफ की कह रहे हो कि दिख रहा है कि साधारण ज़िन्दगी और साधारण ताम-झाम को ज़हर ही जाना जा सकता है, दुश्मन ही जाना जा सकता है। ठीक? उस प्याले को कह रहे हो कि ये तो दुश्मन है मेरा। और जो लोग वही प्याला उठा करके तुम्हें पिलाने की चेष्टा में हैं, वो दोस्त हो गए तुम्हारे?
उन्हीं के पास लौट जाने के लिए ही तो यहाँ से भाग रहे थे न? और तुम तो करीब-करीब भाग ही गए थे। कहना हो कि जबरन तुमको यहाँ लाया गया है। और लाने के बाद भी तुम्हारा विचार यही है कि निकल भागो। तो सबसे पहले तो अपनी स्थिति को ईमानदारी से स्वीकारो।
तुम्हारे साथ बड़ी दुर्घटना हो गई है। तुम्हें मैं मिल गया। तुम तो भले-चंगे जा रहे थे, खुश थे, प्रसन्न। ज़िन्दगी मस्त चल रही थी जैसे किसी भी साधारण औसत आदमी की चलती है। न जानें क्या खोज रहे होंगे यूट्यूब पर, मेरा वीडियो सामने आ गया होगा। न जाने कौन सा नापाक़ पल था।
अधिकाँश लोगों को मैं ऐसे ही मिलता हूँ। खोज कुछ रहे होते हैं, सामने ये (मेरा) थोपड़ा आ जाता है। वो कहते हैं, “ये देखो जोकर।” मज़े लेने के लिए बटन दबा देते हैं, फिर आगे जो होता है उसपर उनका बस नहीं होता। फँस जाते हैं बेचारे!
आप लोगों को जान करके हैरत भी होगी और मज़ा भी आएगा कि ये जो साढ़े तीन लाख सब्सक्राइबर हैं, उसमें से कुछ नहीं तो एक-डेढ़ लाख कामवासना सम्बंधित विषयों से आए हैं। अब ये बात बड़ी अजीब है, क्योंकि वीडियो हैं चार हज़ार, जिसमें से कामवासना और सेक्स इत्यादि से सम्बंधित वीडियो हैं मुश्किल से दस-बीस। और होंगे तो पच्चीस-तीस होंगे। तो एक प्रतिशत भी नहीं।
एक प्रतिशत भी नहीं हैं वीडियो कामवासना इत्यादि से सम्बंधित, लेकिन सब्सक्राइबर सब उन्हीं वीडिओज़ से आते हैं। तो वो खोजने जाते हैं रात में कुछ। अब सर्च में ये सब आ जाता है, तो कहते हैं, “कुछ नए तरीके का मसाला है क्या?”
अब मैं नहीं कह रहा कि तुम वही सब देखकर आए हो। पर ये बात तो बिल्कुल ठीक है कि यूट्यूब पर कोई ‘आचार्य प्रशांत’ सर्च तो करता नहीं। अकस्मात ही मैं मिल जाता हूँ, कोई जानबूझकर तो मुझे खोजता नहीं। जापान की ओर निकले थे, चीन पहुँच गए। ऐसा ही होता है।
नतीजा।? शुरू-शुरू में तो मेरी बातें आकर्षक लगती हैं। क्यों? क्योंकि वो बातें दूर की होती हैं न। तुम्हारे जीवन पर कोई प्रभाव तो डाल नहीं रही होती हैं, जीवन बदल तो रहा नहीं होता है। बातें सच्ची हैं। बातों की ओर तुम खिंचे चले जाते हो। सच में बड़ा कर्षण होता है, वो खींच लेता है चुम्बक की तरह।
तो खिंचे चले आते हो, खिंचे चले आते हो। और तुम्हें पता ही नहीं लगता कि कब वो बातें जो पहले सिर्फ़ तुम्हारे कान के पर्दों तक पहुँच रही थी, अब दिल तक पहुँचने लग गई हैं और तुम्हारा जीवन बदलने लग गई हैं। और जब जीवन बदलने लग जाता है, तब असुविधा होती है। और तब यार-दोस्त और परिवारजनों के भी कान खड़े हो जाते हैं कि कुछ गड़बड़ हो रही है, भाई। फिर वो पता लगाते हैं कि ये गड़बड़ कहाँ से हो रही है। तो जल्दी ही खोज लेते हैं कि ये कोई वीडियो देखा करता है किसी बाबे का। बहुतों के घरों में तो ब्लॉक कर देते हैं पकड़-पकड़कर।
अभी एक का आया है संदेश। यहाँ से गया भाग करके अपने घर। तुमलोग जानते हो, दोस्त तुम्हारा। ये सन्देश भेजा है कि अब घर आया हूँ तो ये लोग आचार्य जी के वीडियो नहीं देखने दे रहे। मुझे लौटना है। घर वाले काहे को लौटने देंगे।
लेकिन अच्छा है। मेरी भी चाल है। मनोरंजन की तरह घुसता हूँ तुम्हारे मन में और भूचाल की तरह सब हिला देता हूँ। मनोरंजन की तरह न घुसूँ तो घुसूँ कैसे? और कोई तरीका ही नहीं है, क्योंकि आज की दुनिया में जिसको देखो, वही तलाश क्या रहा है? मनोरंजन। तो तुम्हारे साथ बेचारा बड़ा धोखा हो जाता है। तुम्हें तो पता ही नहीं था कि ये क्या हो गया हमारे साथ।
लोगों के फ़ोन आते हैं। दिनभर यहाँ फ़ोन बजते रहते हैं। दिनभर, हर पाँच मिनट में फ़ोन आएगा। किसी-किसी दिन तो सैंकड़ों फ़ोन आते हैं। बड़ी खुशी-खुशी बोलेंगे, “एक हफ़्ते से आचार्य जी को सुन रहा हूँ। बहुत ही अच्छा लग रहा है। जीवन में बिल्कुल ताज़ी हवा बहने लगी है।” तो इधर से उत्तर दिया जाता है कि आप ऐसा करिए, अभी आप पंद्रह-बीस दिन और सुन लीजिए।
और फिर पंद्रह-बीस दिन, महीने बाद जब उन्हें फ़ोन करके पूछा जाता है, तो स्वर उदास, मुँह लटका हुआ, हालत ख़राब। कहते हैं कि किस झमेले में फँस गए। थोड़ा सा सच पच जाता है, आचार्य जी तो पूरा ही दे देते हैं। हमें अपच हो गया है, दस्त लग रहे हैं।
थोड़ा-थोड़ा सच अच्छा रहता है ज़ायके के लिए। झूठ से भरी हमारी थाली, उसमें सच की ज़रा से चटनी ठीक रहती है। आचार्य जी ने तो पूरी थाली ही पलट दी। डंडा लेकर पड़े हुए हैं झूठ के पीछे, छुपने ही नहीं देते कहीं।
अब बढ़िया सुविधा है। और तुम्हें जितनी असुविधा होती है, उससे ज़्यादा असुविधा होती है तुम्हारे आस-पास वालों को, क्योंकि तुम तो फिर भी झेल ले जाओ, तुम्हें कुछ तो आकर्षण है मुझसे, तुम्हारे आस-पास वालों को तो मैं फूटी आँख नहीं सुहाता। डिब्बा भर-भरकर गालियाँ आती हैं। न जाने कितने हैं जो पचास तरीके से दुश्मनी निकालने में लगे हैं।
मूल समस्या सबकी एक, कि सच बोला तो बोला, इतना क्यों बोला। थोड़ा-बहुत ठीक रहता है। थोड़ा-बहुत तो सभी बोल देते हैं, “शांत रहिए, गाली-गलौज मत करिए, प्रेमपूर्वक जियें।” इतना तक कह देते आप भी तो चल जाता, पर आप तो बाल की खाल निकाल डालते हैं, गड़े मुर्दे उखाड़ डालते हैं।
हमें बस उतना ही सच चाहिए जितना हमारे जीवन को सम्मान का एक मुखौटा पहना दे। हम भी ये कह पाएँ कि देखो, साहब, हम भी आध्यात्मिक हैं, हम भी सच्चाई में विश्वास रखते हैं। इतना सच चाहिए हमें। इतना सच हमें थोड़े ही चाहिए कि ज़िन्दगी ही कुछ और हो जाए। पुराना जीवन ही मृत हो जाए। तो अब फँसे, जैसे गर्म आलू गले में अटक गया है। अंदर भी नहीं जा रहा और उगला भी नहीं जा रहा। ऐसे हैं आचार्य जी। जो कर सकते हो, कर लो।
मैं तो अब अड्डा जमाकर बैठ गया हूँ। उगल सकते हो तो उगल दो, नहीं तो मैं अंदर जाऊँगा सीधा। और अंदर जाकर जो करूँगा, वो फिर मैं करूँगा, तुम्हारा कोई हक़ नहीं बचेगा। तुम्हें तो मेरी सलाह यही है कि समय रहते मुझे उगल दो। ब्लॉक कर दो चैनल, ख़बर ही न लगने पाए। और रातों-रात अभी भाग जाओ। एकाध-दो दिन बैठ गए तो भागना मुश्किल हो जाएगा।
जब वीडियो देखकर सोचो, इतना बड़ा फ़रेब हो गया तुम्हारे साथ कि तुम यहाँ तक आ गए। तो यहाँ आने के बाद अब क्या-क्या नहीं हो सकता तुम्हारे साथ? जब वीडियो इतने कातिलाना थे, तो कातिल के ठीक सामने बैठोगे तो क्या होगा? निकल ले, भइये रे। ये आख़िरी मौका है निकल लेने का।
सकुशल अभी निकल सकते हो। बाद में भी निकल सकते हो, पर बाद में अगर निकलोगे, जैसे बहुत लोग निकलते हैं कुछ महीने, कुछ साल गुज़ारने के बाद मेरे पास, तो बिल्कुल टूटकर निकलोगे। फिर अपनी आत्मा बेचकर निकलोगे। अभी तुम सम्माननीय तरीके से निकल सकते हो। अभी तुम कह सकते हो कि "हाँ, गए थे, दुकान देखी, माल आज़माया, कुछ पसन्द नहीं आया तो हम निकल आए।"
यहाँ रुक गए और फिर निकलोगे तब तुम्हारा ज़मीर ही तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगा। ऊपर-ऊपर कुछ भी कहते रहो। भीतर-ही-भीतर तुम जानोगे अच्छे तरीके से कि आत्मा बेची है अपनी। जहाँ होना चाहिए था, वहाँ से भागकर आए हैं।
एक तो हमारी कल्पनाएँ ज़बरदस्त होती हैं। हम सोचने लग जाते हैं कि अध्यात्म का तो मतलब ही होता है रूखा-सूखा और नीरस जीवन। अब आ रहे हैं शिविर की ओर, और मन में छवियाँ आ रही हैं बौद्ध भिक्षुओं की धर्मशाला के या ऋषिकेश के साधुओं की, और ख़याल उठ रहा है कि कहीं साल-दो साल बाद मैं भी तो कहीं ऐसा नहीं बन जाऊँगा। और बड़ा ख़ौफ़ आ रहा है कि अरे! बाप-रे-बाप, अध्यात्म में तो यही होता है न।
अब देखो यहाँ सब सफ़ेद ही सफ़ेद पहनकर बैठे हैं। ज़रूर कुछ गड़बड़ है। ये सबको भिक्षु बनाने का इंतज़ाम चल रहा है। कटोरा लेकर सड़कों पर घुमाएँगे ये। और मन फिर प्रतिवाद भी करता है, कहता है, “सबको सफ़ेद पहना रखा है, खुद रंगीन घूमते हैं। ये आदमी गड़बड़ है। भागो।”
कल्पना संसार का अनिवार्य लक्षण है। प्रकृति की राजसिकता का प्रमाण है ये गुण। हम अध्यात्म में भी कल्पना करने लग जाते हैं। तुम्हें यहाँ आने से थोड़े ही डर लगा है, तुम्हें यहाँ आने के बाद जो होगा, उसकी अपनी व्यक्तिगत कल्पना से डर लगा है, भाई।
हमने तो सुना है कि ये आश्रमों इत्यादि में ब्रम्हचारी बना देते हैं। लड़की नहीं मिलेगी क्या? अब ल्यो! जान सूख गई बिल्कुल। एकदम हालत ख़राब है। अध्यात्म का तो मतलब ही होता है न ब्रम्हचर्य इत्यादि। ज़िन्दगी बर्बाद। ये तो कर देंगे कुछ हिप्नोसिस (सम्मोहन) वगैरह, उसके बाद कहीं अगर सही में मेरी कामवासना शिथिल पड़ गई तो?
और याद आया तभी कि एक दोस्त ने क्रोध के किसी क्षण में गरियाते हुए कहा था 'नपुंसक'। और वो गाली लगी कान में गूँजने, कि लगता है अब वो गाली यथार्थ बनने वाली है। भाँति-भाँति की कल्पनाएँ। फिर आते हुए कहा ड्राइवर से, “गाड़ी रोकना, भईया। वापस लौटने की कितने बजे मिलेगी?”
इसको यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) ही मान लो, भाई। यथार्थ बताया जा रहा है। सच्चाई और ज्ञान कोई खौफ़ खाने वाली चीज़ें होती हैं? बोलो। फिर? इतना आंतरिक संघर्ष किसलिए कि आऊँ कि न आऊँ, जाऊँ कि न जाऊँ। मुझे कोई समस्या नहीं होती अगर तुम बिना किसी आंतरिक द्वंद के वापस लौट जाते। ठीक है, कोई बात नहीं लौट जाते। पर तुम्हारे भीतर तो महाभारत मची हुई है। आते हुए लौट रहे थे, फिर पकड़कर लाए गए, फिर तुमको एक अनुकूलन केंद्र में रखा गया, वहाँ से यहाँ लाए गए। यहाँ भी तुम्हारी यही है कि क्या हो रहा है। क्या हो रहा है? मेरा क्या होगा? यह द्वंद बहुत ही अनावश्यक है। यहाँ कुछ नहीं हो रहा है। कुछ बातें हैं सुन लो, ठीक लगे तो मान लेना, न ठीक लगे तो देख लो।
और विश्वविद्यालयों में तो फिर भी कम-से-कम दो साल, चार साल के कार्यक्रम चलते हैं। यहाँ तो पूरा कार्यक्रम ही तीन रोज़ का है। और विश्वविद्यालयों में तो तुम्हारी डिग्री दाँव पर लगी होती है। परीक्षा होगी, उत्तीर्ण नहीं हुए तो डिग्री नहीं मिलेगी। यहाँ तो कुछ नहीं है। विश्वविद्यालयों में तो विद्यार्थी श्रम करता नज़र आता है, मेहनत कर रहा है, ये और वो।
यह तो ऐसी यूनिवर्सिटी है जहाँ शिक्षक ही रोज़ चार घंटे श्रम करता है। बाकी बैठ करके क्या कर रहे हैं, कुछ ख़बर नहीं। कोई बैठ करके दिवास्वप्न में भी हो। अब दिवास्वप्न नहीं कह सकते, यहाँ काम सब रात का है। कोई बैठ करके सपने भी ले रहा हो तो कोई बात नहीं। मेहनत तो शिक्षक कर रहा है। बैठना ही तो है, बैठे रहो, फिर चले जाना।
लेकिन हमारा ये खौफ़, ये बताता है कि दाल में कुछ काला है। दाल में काला ये है कि हम जानते हैं कि हमारी ये ज़िन्दगी झूठ के धरातल पर खड़ी है। और जैसे ही फिर हमें सच की भनक लगने लगती है, हम काँप जाते हैं। भीतर-ही-भीतर हमको पता है कि हमारी बुनियाद खोखली है। और हमें ये भी पता है कि हमारे सामने ये जो इंसान बैठा हुआ है, ये बहुत निर्मम है। इसके हाथ में हथौड़ा है और ये सब खोखली चीज़ों पर वार करे ही जा रहा है।
हम डर जाते हैं। हमारी ज़िन्दगी की बुनियाद ही अगर किसी ने गिरा दी तो पूरी इमारत का क्या होगा? इस खोखली बुनियाद का ही नाम 'मैं' होता है। जो कुछ हम खड़ा करते हैं अपने जीवन का पूरा भवन, वो 'मैं' के केंद्र से ही खड़ा करते हैं न? अपने बारे में हम कुछ ख़याल रखते हैं, अपने बारे में हम कुछ विचार, कुछ धारणा रखते हैं। उसी के अनुसार हम ज़िन्दगी को बढ़ाते हैं। जो हमारी मूल धारणा है, वही झूठी है। और यहाँ ये बात साबित हो जाती है। तो पूरा भवन कँपने लगता है।
अब मैं आपसे पूछ रहा हूँ, एक इमारत है जिसके बारे में आपको पता चलने लगा है कि खोखली बुनियाद पर खड़ी है। आप चाहते हो कि उसी में रहे आओ? बोलो। हाँ, आपकी लागत लगी है उस इमारत में और आप उसमें कई सालों से रह रहे हो तो वो आपका मोह भी हो गया है। पर फिर भी बताओ, अगर अब मैंने दर्शा ही दिया कि उस इमारत की बुनियाद खोंखली है। अब अगर मैंने सिद्ध कर ही दिया कि ये इमारत काँप रही है और ये कभी भी गिर सकती है, तो क्या चाहते हो उस इमारत में रहो? बोलो। या बेहतर ये होगा कि जो हिस्सा गिरने ही वाला है, वो अकस्मात गिरे इससे बेहतर है कि उसे ख़ुद ही गिरा दो और नई इमारत खड़ी कर लो, भाई। कौन रोक रहा है? या फिर अभी ही तुम्हारी इमारत के कुछ हिस्से ऐसे हों कि जिन्हें गिराने की ज़रूरत नहीं तो ज़बरदस्ती मत गिराओ।
अध्यात्म अंधाधुंध तोड़-फोड़ का नाम थोड़े ही है, कि जो ठीक है उसको भी तोड़ दिया। अध्यात्म चिकित्सा की तरह है, बीमारी हटाता है, शरीर कोई थोड़े हटा देता है।
तुम गए, “डॉक्टर साहब, ये एक फोड़ा हो गया है। बहुत दर्द कर रहा है।” डॉक्टर साहब बोले, “ठीक है। पांव में फोड़ा है तुम्हारे, उसको हटाए देते हैं।” काटकर निकाल दिया। और फिर तुम बोलो, “डॉक्टर साहब, गर्दन में भी बहुत दर्द रहता है।” तो बोले ठीक है, “गर्दन भी काटकर निकाले देते हैं।” ऐसा लोटपोट के डॉक्टर झटका किया करते थे।
किसने-किसने पढ़ी है? डॉक्टर झटका किसको-किसको याद है? अरे, तो अध्यात्म के ऋषि-मुनि डॉक्टर झटका थोड़े ही हैं, कि डरे जा रहे हो कि कहीं मेरी ज़िन्दगी में जो कुछ ठीक भी है, वो भी छिन न जाए। कोई कुछ नहीं छीन रहा। क्यों इतना घबरा रहे हो? जो कुछ छीनने लायक होगा, जो कुछ भी तुम्हारी ज़िन्दगी में फोड़े, फुंसी और मवाद की तरह मौजूद होगा, सिर्फ़ वो हटाया जाएगा। जो कुछ भी स्वस्थ है तुम्हारे पास, उसका स्वास्थ्य तो और बढ़ाता है अध्यात्म, कम थोड़े ही कर देता है।
लेकिन मोह और भोग की ललक, वो भी एक जवान आदमी की। वो भी एक ऐसा जवान आदमी जिसके पास बहुत प्यारे प्यारे दोस्त हैं। क्या करें?
एक दफ़े मैंने किसी से कहा था कि तुम मुक्ति से नहीं डरते, मुक्ति की तुम्हारी जो कल्पना है, उससे तुम डरते हो। हम बड़े ज़बरदस्त लोग हैं न। मुक्ति किसको कहा जाता है, हम उसकी भी कल्पना करे बैठे हैं। और हम जानबूझकर खौफ़नाक कल्पना करते हैं मुक्ति की। क्यों खौफ़नाक कल्पना करते हैं मुक्ति की? ताकि मुक्त होना न पड़े।
तो ख़ुद ही खौफ़नाक कल्पना करेंगे कि अरे, मुक्ति का ऐसा मतलब होता है, मुक्ति का वैसा मतलब होता है। और फिर कहेंगे, “अच्छा, मुक्ति इतनी डरावनी होती है! तो फिर हमें नहीं चाहिए।” जब तुम मुक्त हो नहीं तो तुम्हें कैसे पता कि मुक्ति कैसी होती है। और जब तुम्हें पता नहीं कि मुक्ति कैसी होती है, तो तुमने कल्पना क्यों कर डाली? कल्पना इसीलिए कर डाली न ताकि तुम्हारे बंधन सलामत रहें।
अब बन्धनों से इतना मोह है तो लौट ही जाओ। बुला रहे हैं वो बंधन, छन-छन, छन-छन। जंज़ीरें खनक रही हैं। आहाहा, क्या संगीत है!
ये गीता का ग्यारहवाँ अध्याय है आज। इसमें क्या भयंकर लग रहा है तुमको कि कंपे जा रहे हो कि अरे, बाप-रे-बाप, पता नहीं क्या होगा, भागो, भागो, भागो।
खरगोशों से तो नहीं डर गए? पता है न वो खरगोश नहीं हैं। जो लोग यहाँ से भाग-भागकर जाते हैं, वो खरगोश बन जाते हैं। फिर उनको सज़ा ये मिलती है कि वो यहीं पर कैद हो जाते हैं, कि बच्चू अब भागकर दिखाओ। (आचार्य जी जादूगर की तरह हाथ घुमाते हैं) फूशूशूशू… (श्रोतागण हँसते हैं)। यही डर है न?