तीन युवा और तीन सवाल: पढ़ाई, कैरियर, परिवार || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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तीन युवा और तीन सवाल: पढ़ाई, कैरियर, परिवार || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। थोड़ा-सा पहली बार आया हूँ तो थोड़ा-सा बता दूँ कि कैसे आप तक पहुँचा। बहुत ज़ोर से भाग रहा था, मास्टर्स (स्नातकोत्तर) में एडमिशन (प्रवेश) लिया। कैरियर के लिये ही तमाम चीज़ें, आशाएँ और एम्बिशन्स (महत्वाकांक्षा) ढेर सारे। ज़ोर से भाग रहा था, आपकी वीडियो अचानक पड़ गयी तो पहले तो कुछ दिन तक बहुत अच्छा लगा, दो-चार दिन तक। फिर मैं भागने लग गया और फिर काफ़ी तकलीफ़ में मतलब, एक टाइम ऐसा भी आ गया, धीरे-धीरे लोगों से कंसल्ट (सलाह) करने लगा कि किसी तरह से आपकी बात ग़लत प्रूव (साबित) हो जाये कि मैं आगे बढ़ पाऊँ क्योंकि मैं बढ़ नहीं पा रहा था। मुझे ऐसा लगता था कि कुछ ग़लत हो जाएगा अगर आपकी बात ग़लत प्रूव किये बिना अगर मैं आगे गया तो।

तो धीरे-धीरे रोकने की कोशिश करता था। प्रॉमिस (वादा) भी किया था कि नहीं, वीडियोज़ नहीं देखनी हैं, किसी भी हाल में ब्लॉक कर देना है चैनल या जो भी। लेकिन फिर धीरे-धीरे पता नहीं एक दिन ऐसे ही लगभग पाँच-छः महीने बीत गये थे। लॉकडाउन का टाइम था, अचानक से मैंने कब छत पर था और वीडियोज़ खुल गयी। तो उस पर थोड़ी जमने लगी फिर से बात कि शायद मैंने ग़लत इन्टरप्रेट (व्याख्या) कर लिया है। फिर धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा, फिर से भागना चालू हो गया। फिर धीरे-धीरे आना-जाना लगा रहा, फिर ठीक हो गया कि मुझे लगा कि नहीं अब भागने से काम नहीं चलेगा, जानना पड़ेगा, समझना पड़ेगा।

तो फिर तब से लगातार सुन रहा हूँ। काफ़ी टाइम हो गया है लेकिन अभी भी वो है सवाल कि कौन से पाथ (रास्ता) पर जाना है। काफ़ी सारी प्रॉब्लम्स (समस्या) सॉल्व (हल) हो गयी हैं। आपको सुनता हूँ, ओशो को सुनता हूँ, कृष्णमूर्ति को भी सुनता हूँ। बातें समझ में आती हैं लेकिन अभी भी वो वाली चीज़ है कि कैरियर किस साइड (तरफ़) में लेकर जाना है। क्योंकि मास्टर्स मेरा ख़त्म हो रहा है तो इस वजह से अब थोड़ा मैं कोशिश कर रहा हूँ कि क्या चूज़ (चयन) करूँ।

म्यूज़िक (संगीत) भी करता हूँ, गिटार बजाता हूँ, पियानो बजाता हूँ, गाने में बचपन से ही बहुत इंट्रेस्ट (रुचि) है। तो आजकल जो आप कहते हैं, जगह-जगह एक्सपेरिमेंट्स (प्रयोग) करो। देखो, क्या तुमको और शांति देता है, क्या और आंतरिक मौज देता है। तो यह सब चीज़ें करता रहता हूँ। बट (परन्तु) अभी भी कभी-कभी उन्हीं कामों को करते वक़्त ऐसा लगता है कि कुछ चीज़ें छायी हुई हैं दिमाग़ पर तो नहीं हो पा रहा है या फिर शायद मेरे लिये है नहीं यह काम। तो डाउट (संशय) बने रहते हैं, तो एग्ज़ैक्टली (सटीकता से) अभी चूज़ (चयन) नहीं कर पा रहा हूँ कि कौन-कौन से काम करूँ, किस तरीक़े से और आगे बढ़ूँ। क्योंकि अभी फायनेंशियल (आर्थिक रूप से) भी इंडिपेंडेंट (स्वतंत्र) होना चाहता हूँ।

तो यह सब चीज़ें हो रही हैं। आगे क्या करना है, इसको लेकर थोड़ा मैं फिक्स (उलझन) में हूँ। तो मैंने सोचा कि एक बार आपसे मिलकर इस पर बात कर लूँ, फिर ही कुछ डिसीज़न (निर्णय) लूँ। मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: जितनी बातें बोल रहे हो इनमें कितनी गहराई है, कितना दम है, पहले इसका प्रयोग तो कर लो। अभी तो यह ऐसा है कि तुमने बैठकर के एक बैटल-प्लान (युद्ध-योजना) बना लिया है कि मेरे कुछ सैनिक इधर से आगे बढ़ेंगे, कुछ यहाँ से होंगे, यह होगा। फिर सामने वाला दुश्मन आएगा, फिर यह करेंगे, फिर वो करेंगे और ऐसे करके।

इन बातों में हक़ीक़त कितनी है पहले वो जाँचना पड़ेगा न। तो ज़मीन पर कुछ करके देखो पहले, वरना बहुत सारी चीज़ें खड़ी रहेगी, यह भी कर सकते हैं, वो भी कर सकते हैं।

अभी तो तुमने दो आंकलन कर रखे हैं — एक अपने बारे में और एक दुनिया के बारे में। अपने बारे में यह कि तुम्हें क्या करना पसंद हैं और किस चीज़ को तुम कितने समर्पित हो। और दुनिया के बारे में यह कि दुनिया में फ़लानी-फ़लानी चीज़ें जो करने लायक हैं। हो सकता है यह दोनों ही आंकलन अभी बिलकुल सटीक न हो और ज़्यादातर होता भी यही है। आप अपने बारे में जो सोचते हैं जब आप ज़मीन पर आकर के उसकी जाँच-पड़ताल करते हैं तो वो चीज़ ज़रा अलग निकलती है। इसी तरीक़े से दुनिया के बारे में सोचते हैं जब आप दुनिया के क़रीब जाकर के, उसको आज़माकर के जाँचते हैं तो वो चीज़ भी अलग निकलती है।

तो आप तो दो-दो असम्पशंस (धारणा) पर, मान्यताओं पर चल रहे हैं और उसमें कुछ ऐसा नहीं है कि बड़ी भूल कर दी। अभी पढ़ रहे हो तो अभी हो सकता है तुम्हारे पास इतना मौक़ा या समय भी न रहा हो कि तुम चीज़ों को आज़माओ। लेकिन जो तुम अपने आगे भविष्य के लिये निर्णय करना चाहते हो, वो कुर्सी पर बैठकर नहीं होंगे। वो तो चीज़ों को आज़माकर के, ठोकरे खाकर के और बहुत सतर्क रहकर के ही होंगे। एक चीज़ का परीक्षण करो, देखो उसमें क्या हो रहा है। दूसरी चीज़ का करो, देखो उसमें क्या हो रहा है।

तुम्हारे मन में जो दो छवियाँ हैं, वो दोनों बदलेगी। अपनेआप को जैसा सोचते हो, अपने बारे में भी तुमने कई बातें बोली। हो सकता है छः महीने बाद अपने बारे में कुछ दूसरी बातें बोल रहे हो। और दुनिया को जैसा सोचते हो, हो सकता है दुनिया भी एकदम अलग पता चले। तो प्रयोग करो, अनुभव लो और अनुभव लेते वक़्त बिलकुल ख़्याल रहे कि अनुभव तुम इसलिए नहीं ले रहे कि अनुभव से चिपक जाना है। अनुभव तुम प्रयोग करने के लिये ले रहे हो, अनुभव तुम जाँचने के लिये कर रहे हो। समझ रहे हो?

प्रयोग करना, परीक्षण करना और आसक्त हो जाना, लिप्त हो जाना — यह दो अलग बातें हैं, यह याद रखना।

प्र२: नमस्ते आचार्य जी। पिछले छः-आठ महीने से आपको यूट्यूब के माध्यम से सुनने लगा हूँ। उसी समय ही कॉलेज से पास-आउट (उत्तीर्ण) भी हुआ था। तो उस समय हर चीज़ ऐसी थी कि निश्चित रहती थी कि दोस्त जो कह रहे हैं, वैसा ही कुछ करना है या माँ-बाप ने कुछ बोल दिया, वैसा ही कुछ करना है या भैया लोगों ने क्या किया है, वैसे कुछ करना है। मतलब, नौकरी, शादी फिर दो बच्चे और फिर अपना आराम से पैसा जमा करना और वो सब।

जब से आपको सुनने लगा हूँ तो मन के बारे में तो जिज्ञासा है ही, वो तो जान ही रहा हूँ। आपके वीडियोज़ से जितना भी सीखने को मिलता है और जितना अपने लिये सीख सकता हूँ वो तो सीखता ही रहता हूँ लेकिन आपकी वो बात भी इतनी सही लगती है कि सही काम चुनो और उस काम में डूब जाओ।

तो मन ने इस बात को इतनी बुरी तरीक़े से पकड़ा कि कहीं पर भी टिक नहीं पा रहा है। मतलब, जो पहले चीज़ें सोच रखी थी कि नौकरी करनी है फिर पैसा इत्यादि सब कमाना है, जुटाना है, बच्चे, यह सब वो जो नॉर्मल (सामान्य) होता है सब, वो सब।

अब वो कह रहा है कि मतलब यह भी ढ़ूँढ़ कि सही काम क्या है और उसमें जुट भी जा। और वो इससे भी डरता है कि चीज़ भी कब करेगा तू पैसा कब कमायेगा? और तो मन दो हिस्सों में बँट गया है। पहले मन सीधा अपना-अपना आराम से चल रहा था लेकिन आपको सुनने के बाद से ऐसा-ऐसा हो गया है। और मन ने इस चीज़ को पकड़ लिया है। एक-दो बार कोशिश भी की कि छोड़ ना भाई। मतलब, क्या करेगा यह सब सही काम, यह सब आगे कुछ मिलना होगा तो मिल जाएगा। लेकिन मन यह भी डरता है कि यह सब भी तो करना है, शादी करनी है, यह करना है, वो करना है। और साथ ही साथ कि सही काम को भी चुनना है।

तो फिर वो बोलता है कि या तो वो चुन या यह चुन और वो डरता भी रहता है। और या मैं ही डर रहा हूँ या मैं ही कहानियाँ बुन रहा हूँ। कुछ समझ नहीं आ रहा है, बहुत कन्फ्यूज़ंस (संशय) हैं, जबसे आपको सुनने लगा हूँ। उससे पहले तो जो था, जैसे जी रहे थे वैसे ही था, जैसे सब जीते हैं वैसे ही जी रहा था। उसके बाद से ही कन्फ्यूज़न यह हो गयी है।

और मन यह भी कह रहा है कि करना है, लगना है — किसी ऊँचे काम में, किसी अच्छे काम में। तो उसमें भी वो ढंग से कुछ पकड़ नहीं पा रहा है, तो कहीं पर भी बैठ नहीं पा रहा है। या तो न उस दुनिया में ढ़ूँढ़ पा रहा है, न इस दुनिया में, तो बड़ी कन्फ्यूज़न (संशय) हैं। तो इस वजह से मन अशांत ही रहता है और कहीं पहुँच ही नहीं पा रहा है, कुछ निष्कर्ष ही नहीं निकल पा रहा है।

आचार्य: तो दो रास्ते हैं या तो सुनना एकदम बंद कर दो या सुनना और बढ़ा दो। कन्फ्यूज़न, संशय, अनिर्णय इनका तो मतलब होता है, बीच में कहीं अटके हुए हो। या तो एकदम ही मन को स्पष्ट कर लो तो कन्फ्यूज़न (संशय) मिट जाता है। स्पष्टता आ गयी, क्लैरिटी (स्पष्टता) के सामने कन्फ्यूज़न ख़त्म हो जाएगा। या फिर तुम भी वैसे ही बेहोश हो जाओ जैसे ज़्यादातर लोग रहते हैं। बेहोशी में, नशे में भी तो कोई कन्फ्यूज़न (संशय) या तकलीफ़ थोड़ी बचती है या बचती है? वहाँ भी सब ठीक रहता है।

तुम अभी त्रिशंकु की तरह लटके हुए हो, अधर में हो बिलकुल अपनी आदतों और अपने बोध के बीच तुम त्रिशंकु बने हुए हो। आदतें पुरानी हैं, बहुत पुरानी हैं, सर्वव्यापक हैं, तुमको खींच रही हैं। बोध नया-नया है, वो रोशनी की तरह है और प्रेम की तरह है, तुमको पुकार रहा है। और इन दोनों के बीच में तुम कभी इधर झूलते हो कभी उधर गिरते हो। यह स्थिति तो निश्चित रूप से असुविधा की है। झंझट में फँस गये हो। न इधर के हो न उधर के हो, तो किधर के भी होकर देख लो।

मैं तो सलाह ही यह देता हूँ कि तुम बेहोशी की तरफ़ बढ़ जाओ। अगर बेहोशी तुमको रास आ गयी तो यह संशय, दुविधा की सारी तकलीफ़ से निजात मिल जाएगी। और अगर बेहोशी नहीं रास आयी, तो फिर तुम्हें साफ़ हो जाएगा कि साहब अब तो होश की तरफ़ ही बढ़ना है। बेहोशी की दुनिया को अलविदा करनी है। लेकिन यहाँ बीच में लटके रहने से तो सिर्फ़ तकलीफ़ ही झेलोगे — माया मिली न राम।

और फिर मुझसे पूछ रहे हो बेहोशी और होश में किसका चयन करें? और मैं बोल दूँ — होश का तो ऐसा भी लगेगा कि मैंने पक्षपात किया। मैं तो ज़ाहिर है कि मैं तो यही बोलूँगा कि अंधेरे की तरफ़ क्या जा रहे हो, रोशनी की तरफ़ बढ़ो। और यह बोलूँगा तो ऐसा लगेगा जैसे मैं ही एक तरफ़ झुका हुआ हूँ।

तो मैं उल्टी बात बोल रहा हूँ। आप पूरी कोशिश करिए, अपनेआप को बेहोशी में डूबो देने की। वो जितनी चीज़ें तुम गिना रहे हो न, पैसा कमाऊँगा, फिर यह करूँगा, फिर वह करूँगा, ऐसा करना है, वैसा करना है। उनकी तरफ़ बढ़कर देख लो न। उनको आज़माने की कोशिश करके देख लो। अगर बात बन जाती है तो फिर कहना ही क्या। अच्छी बात है।

भाई अध्यात्म का भी जो एकमात्र लक्ष्य है — वो शांति ही है। तुमको अगर वही सब करके शांति मिल जाती है जो पूरी दुनिया कर रही है तो फिर तुम्हें अध्यात्म की कोई ज़रूरत ही नहीं हैं। सच भी हमें इसलिए चाहिए होता है क्योंकि झूठ अशांत करता है। अगर झूठ बेचैन न करे तो सच की कोई ज़रूरत नहीं।

तो फिर कोई पूछे कि साहब इंसान को सबसे पहले चाहिए क्या, सच या चैन? तो जवाब सच नहीं है, इंसान को चैन चाहिए। वास्तव में इंसान सच की तरफ़ भी अपनी बेचैनी के कारण बढ़ता है। चैन पहली चीज़ है क्योंकि बेचैनी ही परेशान करती है न। झूठ के साथ भी अगर चैन मिल रहा हो तो बढ़िया बात है, ले लो, ले लो। या यह देख लो कि जो लोग झूठ में जी रहे हैं। उनकी ज़िंदगी आंतरिक तौर पर कितनी छटपटाहट और बेचैनी से भरी हुई है, यह देख लो।

असल में चाहे किताबे हो, चाहे मार्गदर्शक लोग हो, यह सब बार-बार बोलते हैं, “आओ, आओ, मुक्ति की ओर आओ, सच की ओर आओ — तमसो मा ज्योतिर्गमय।“ तो हमें ऐसा लगता हैं कि बुलाया जा रहा है हमें, बुलाया जा रहा है हमें। कहीं हमें फँसाने के लिये तो नहीं बुलाया जा रहा? ज़रूर जो बुला रहा है उसका कोई स्वार्थ होगा अपना, तभी वो हमें बुला रहा है। रोशनी की तरफ़ बुला रहा है फिर रोशनी में बुलाकर लूट लेगा। तो फिर हमें क़िताबो पर शक़ होने लगता है, उन क़िताबो के लेखकों पर, ऋषियों पर शक़ होने लगता हैं।

इसलिए मैं आपसे कह रहा हूँ, आप उन्हीं घनघोर अंधेरों में गुम हो जाये। घोंसला बनाये, दुनिया बसाये। क्या पता सुख मिल ही जाये, क्या पता वहीं शांत हो जाये।

और अगर वहाँ नहीं शांत होते तो फिर एक मन के साथ, एकाग्र होकर के, सुनिश्चित होकर के होश, सच और रोशनी की तरफ़ आना। सच्चाई उनके लिये थोड़ी हो सकती है जिन्हें झूठ अभी भी बड़ा प्यारा और रोचक लगता हो कि हो सकती है।

और झूठ बड़ा रोचक होता है — क्या ख़ुशबूएँ होती हैं, क्या अदाएँ होती हैं। लहरे उठती हैं, फूल खिलते हैं, रोशनियाँ जगमगाती हैं। जब तक वही सब तुमको प्यारा-प्यारा लग रहा है, तब तक सच की ओर तुम वैसे भी बढ़ नहीं पाओगे। पहले झूठ का झूठ तो देखो। पहले झूठ से घिन आनी तो शुरू हो। वो घिन जिसे नहीं आ रही है, वो तो फँसेगा।

प्र३: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपको क़रीब-क़रीब एक साल से सुन रहा हूँ। और काफ़ी क्लैरिटी (स्पष्टता) मिली है। ख़ासकर कैरियर को लेकर के और रिलेशनशिप्स (सम्बन्धो) को लेकर के। बहुत चेंज (बदलाव) आया है। जो बहुत कुछ करना चाहता था वो सब एक तरीक़े से ड्रॉप (छोड़) कर दिया है सबकुछ।

अब आगे ऐसा है कि पुराने ढर्रों पर वापिस जाना नहीं चाहता बिलकुल। जानते हुए कि यह ग़लत है, अब आगे ही जाना है। तो सब यह सोचता हूँ कि आगे ही जाना है, एक छोटी-सी कहीं मन की आवाज़ आती है कि अगर बैकफ़ायर (निष्फल) हुआ तो? तो मैं कहता हूँ कि जो होगा देखा जाएगा क्योंकि पीछे तो मैं जा नहीं सकता।

अब एक टर्निंग-पॉइंट (परिवर्तन-बिंदु) पर हूँ। तो मैं आपसे बस यही सलाह चाहता हूँ कि किन चीज़ों का ध्यान रखूँ? कहाँ मैं चूक सकता हूँ? कैसे मैं अपना आंकलन करूँ?

आचार्य: सिर्फ़ छोड़ा नहीं जाता बेटा। कुछ समुचित करने के लिये पाना भी पड़ता है। नहीं तो जो कुछ छोड़ रहे हो न, वो बार-बार पीछे से आकर लपकेगा। खाली जगह छोड़ोगे अगर तो दस लोग उस पर बैठने के लिये आतुर हो जाएँगे, जैसे रेलवे का जनरल डब्बा हो। मन में भी ऐसा ही है। पुराना कूड़ा-कचरा अगर हटा दिया है तो उसको किसी नये उद्देश्य से, नये काम से भरना भी पड़ता है।

यह नहीं कह सकते तुम कि मैं अभी तक जो कुछ कर रहा था वो सब मुझे व्यर्थ लग रहा है, वो मैंने हटा दिया है। और अब ज़िंदगी बिलकुल बेरंग है, सूनी है, ऐसे नहीं काम चलेगा। जीने वाले को काम तो करना पड़ेगा न।

मैंने यह कभी नहीं सिखाया कि काम मत करो। मैंने कहा है कि घटिया काम करोगे तो अधूरे मन से करोगे। काम भी घटिया होगा और करने में मज़ा भी नहीं आयेगा। मैंने कहा बढ़िया काम चुनो और डूब के करो। तो यह तो होना ही नहीं चाहिए कि जवान लोग आ करके कह रहे हैं कि अरे अब हमारे पास करने को कुछ काम नहीं है, पहले काम था।

खाली जगह हम बनाते हैं, बिलकुल बनाते हैं। इसलिए बनाते हैं ताकि उस पर उसको बिठा सके जिसका हक़ है। मंच है, उस पर मुख्य अतिथि की जगह है और उसपर आकर के इधर-उधर लंगूर सब बैठ गये हैं। मंच सजा हुआ है, समारोह है कोई पर अभी मुख्य अतिथि आये नहीं हैं। तो उस पर कौन आकर के बैठ गये? सब इधर-उधर के अंजु-पंजु आकर अपना बैठ गये हैं। तो जाकर के तुम क्या करोगे? मंच से सबको हटाओगे। और फिर? पूरा कार्यक्रम बीतने दोगे बिना मुख्य अतिथि के ही?

सिर्फ़ हटाना ही काफ़ी है? कैसा लगेगा कि सबको तो हटा दिया है और कुर्सी ऊपर पड़ी हुई है? उसपर कोई बैठने वाला भी तो आना चाहिए न? तभी तो हटाने की सार्थकता हुई कि नहीं?

तुम लोग यहीं पर चूक जाते हो। हटाने को तैयार हो, भरने को तैयार नहीं हो। अब भरने वाला जो काम है वो एक झटके में नहीं हो जाता, उसमें प्रयोग करने पड़ते हैं। एक चीज़ आज़माओ, थोड़ा आगे बढ़ें। फिर थोड़ा आज़माओ, फिर थोड़ा आज़माओ। तभी मैं कहता हूँ उसमें निरंतर श्रम लगता है। क्योंकि एक काम करना पड़ेगा, उसका सही-ग़लत पहचानना पड़ेगा। फिर अगली सीढ़ी, फिर अगली सीढ़ी, फिर अगली सीढ़ी, इस तरह से निरंतर यात्रा है जीवन।

प्र३: तो जैसे आचार्य जी, मैंने कहा कि टर्निंग-पॉइंट पर हूँ। मैं चाहता हूँ कि जो आगे करूँ, मैं सत्य को ध्यान में रखकर करूँ।

आचार्य: हाँ।

प्र३: क्योंकि अब पुराना नही कर सकता जैसे लोग करते आ रहे हैं।

आचार्य: हाँ।

प्र३: तो टर्निंग-पॉइंट पर मैं बस यह सलाह चाहता हूँ कि कहाँ मैं चूक सकता हूँ?

आचार्य: चूक तुम इसमें सकते हो कि तुम जो कुछ भी करो, उसका इस्तेमाल तुम किसी निचले उद्देश्य के लिये करना शुरू कर दो। देखो सत्य को ध्यान में रखकर करूँ, यह बात थोड़ी स्पष्ट नहीं होती है। सत्य को ध्यान में रखकर के कुछ नहीं किया जाता। जो भी किया जाता है वो सत्य को समर्पित किया जाता है, सच्चाई को।

किसी के पास कोई डिग्री है, किसी के पास कोई कला है, किसी के पास किसी तरह का ज्ञान है। और दुनिया में इन सब तरह के लोगों की ज़रूरत है। विज्ञान के लोगों की भी ज़रूरत है, आर्ट्स (कला) के लोगों की भी ज़रूरत है, आर्किटेक्चर (वास्तुकला) वाले की भी ज़रूरत है, इंजीनियर (अभियंता) की भी ज़रूरत है, नर्तक की भी ज़रूरत है, वकील की भी ज़रूरत है — इन सबकी ज़रूरत है।

बात यह है कि वकालत में किसकी पैरवी कर रहे हो? किसको जिताना चाहते हो? समझ में आ रही है बात? बात यह है कि एमबीए करा है तो किसकी मार्केटिंग (व्यापार) कर रहे हो? क्या बेचना चाहते हो? समझ रहे हो बात को? यही ख़याल रखना होता है कि जो कुछ भी मैंने हासिल करा है — डिग्री, नॉलेज (ज्ञान), मन में जितनी ज्ञान संपदा है, मैं उसका उपयोग किस उद्देश्य के लिये कर रहा हूँ, बस यह ध्यान रख लेना।

कोई भी चीज़ व्यर्थ नहीं होती। दुनिया में जितनी भी कलाएँ हैं और जितनी भी तरह का ज्ञान है, सब बढ़िया है अगर उसका इस्तेमाल बढ़िया है। और सब व्यर्थ हैं अगर उसका इस्तेमाल बेकार है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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