
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। आपने अभी जैन धर्म के बारे में बोला था और लोकधर्म के विषय में भी बोला था जो बाबा जी वाला कल्चर है। तो मेरा नाम अरिहंत है और मैं एक जैन परिवार में पैदा हुआ था। अभी जैन धर्म में एक संथारा नाम की प्रथा है, जिसमें कोई अत्यधिक बूढ़ा हो या बीमार हो तो वो अपनी वॉलंटरी से अपने प्राण देता है स्टार्व करके। और आपने पहले वीडियोज़ में बोला था कि आत्महत्या ठीक नहीं है, लेकिन सही काम के लिए अपने आप को झोंक देना, मतलब आत्म-आहुति देना सर्वश्रेष्ठ होती है।
तो अभी कुछ समय पहले की एक इंदौर की घटना है, जहाँ एक जन-दंपत्ति था जिनकी एक तीन वर्ष की बालिका थी। उसको पिछले वर्ष कैंसर डिटेक्ट हुआ ब्रेन का और सेकंड-थर्ड स्टेज में, और उसका एक बार ऑपरेशन हुआ लेकिन फिर भी वो फिर से कैंसर बढ़ गया और वो आईसीयू में गई और बहुत क्रिटिकल उसकी कंडीशन थी। तो जो उसके पैरेंट्स थे वो उसको एक जैन बाबा जी के पास ले गए, उन्होंने बोला कि इसको संथारा करवाया जाना चाहिए। तो उसका अंतिम समय था, वो क्रिटिकल थी, तो उसको जो पहले टिप-केयर दे दी जानी चाहिए थी, उसकी जगह उसको स्टार्व कराया गया। और इसके सामाजिक और कानूनी पक्ष अलग हो सकते हैं। और बाबा जी ने ऑन-कैमरा ये भी बोला था कि बच्ची की मृत्यु के बाद, कि इसको अगले जन्म में संपत्ति प्राप्त होगी।
तो आचार्य जी, मेरा प्रश्न ये है कि लोक-मान्यता के आधार पर किसी की जान लेना कहाँ तक उचित है?
आचार्य प्रशांत: ये सारी बात अपने लिए होती है, किसी दूसरे की जान लेने के लिए थोड़ी होती है। तीन साल की बच्ची है, उसकी तो अभी चेतना ही विकसित नहीं हुई है। संथारा जानने-समझने योग्य जो लोग हैं, उनके लिए प्रासंगिक हो सकती है, वहाँ प्रासंगिक। छोटी बच्ची के लिए थोड़ी उसकी कोई, वहाँ न उसकी प्रासंगिकता है, न कोई उपादेयता है। ये क्रूरता है, एक प्रकार की।
शरीर कष्ट में है, मैं शरीर को जानता हूँ। शरीर से जो भी मुझे काम लेने थे, वो पूरे हो चुके हैं। और अब आख़िरी कुछ दिनों की बात है। मैं न तो समाज पर बोझ बनना चाहता हूँ, न स्वयं पर बोझ बनना चाहता हूँ। और मुझे नहीं लग रहा कि इस शरीर को और घसीटने से कोई सार्थक प्रयोजन सिद्ध हो रहा है। तो मैं स्वयं, स्वेच्छा से, अपनी चेतना से, अपने बोध, अपने विवेक से खान-पान बंद कर दूँ, वो एक बात है। और ये जो घटना बता रहे हो, बिल्कुल दूसरी बात है।
सिद्धान्ततः अगर कोई व्यक्ति 70 – 80 का हो गया है और उस स्थिति में आ गया है जहाँ अब उसको बहुत अगर दवा भी दोगे या उसकी बहुत पेलिएटिव केयर भी कर लोगे, तो भी वो महीने-दो महीने का मेहमान है। और वो महीने-दो महीने में भी वो अर्ध-मूर्छित ही रहने वाला है, जैसे कि बहुत सारे बीमार लोग अपनी आख़िरी अवस्था में रहते हैं, कि मरने से महीने-दो महीने पहले तो आधे समय बेहोश ही पड़े रहते हैं। किसी को पहचान भी नहीं पा रहे, न चल-फिर पा रहे हैं, बस वो समाज-परिवार पर और अपने लिए भी वो बस एक बोझ बन के रह गए हैं। वहाँ पर वो किन्हीं स्थितियों में ये ठीक हो सकता है, कि व्यक्ति एक ज़िम्मेदारी से भरा हुआ चैतन्य निर्णय ले कि मुझे अब और नहीं जीना है। और ये आत्महत्या नहीं है।
ये ऐसा है कि शरीर तो विदा अब हो ही रहा है, स्वयं ही विदा हो रहा है। लेकिन विदा होते वो 10 – 20 दिन, 40 दिन वो दुनिया को कष्ट देगा, मुझे भी कष्ट देगा, बोझ बनेगा, संसाधन खींचेगा। तो इससे अच्छा है कि मैं अब इसको भोजन देना ही बंद कर दूँ। क्योंकि ये जो भोजन अब भीतर जा रहा है, ये किसी सार्थक काम में नहीं लग रहा है भोजन, ये बस अब दुख को बढ़ाने के काम आ रहा है भोजन। एक भोजन होता है जो भीतर जाता है तो ऊर्जा आती है, और एक भोजन होता है जो भीतर जाता है तो बस अब दुख ही बढ़ाता है। तो वहाँ मैं समझता हूँ कि ये एक गरिमा की बात हो सकती है कि कोई व्यक्ति कहे कि हो गया, इस मशीन को और अब चलाने से कोई लाभ नहीं है। मैं आत्महत्या नहीं कर रहा, लेकिन मैं इस मशीन में अब और तेल नहीं डालना चाहता।
जितना तेल इसमें है, उतना अब ये चल ले, बाक़ी और इसको वो एक बात है, ये बिल्कुल दूसरी बात है। ये तो बच्ची क्या जान रही है, उसके साथ जो हो रहा है, उसमें उसकी चेतना का क्या योगदान है। और आप खाना नहीं खाते, खाना न खाने से शरीर में तो पीड़ा होती ही होगी। शरीर तो भुगवाता ही होगा कि खाने को दे दो। जिस आदमी ने स्वेच्छा और समझदारी से फ़ैसला किया है कि नहीं खाना है, वो उस पीड़ा को होश में झेल जाएगा, क्योंकि उसका ख़ुद का फ़ैसला है भाई। मैंने ख़ुद फ़ैसला किया है, मैं नहीं खाऊँगा। तो अब भूख लग रही है या भीतर बड़ी बेचैनी हो रही है, तो मैं उस बेचैनी को बर्दाश्त कर लूँगा। ज़िम्मेदारी मेरी अपनी है।
पर वो लड़की है, छोटी-सी। आपने खाना नहीं दिया, तत्काल तो मर नहीं ही गई होगी। मुझे नहीं मालूम वो कितने समय तक ज़िंदा रही दो दिन।
श्रोता: पानी भी नहीं दिया था।
आचार्य प्रशांत: खाना नहीं दिया, पानी नहीं दिया, तो वो 2 दिन, 4 दिन, 8 दिन जितने दिन भी ज़िंदा रही, उतने दिन तो वो तकलीफ़ झेल रही है और उस तकलीफ़ के लिए उसकी अपनी कोई रज़ामंदी नहीं है। वो तकलीफ़ वो अपनी चेतना और अपनी स्वेच्छा से नहीं झेल रही है। ये क्रूरता है।
संथारा की मैंने जब भी बात की है, इस अर्थ में की है कि मैं आवश्यक नहीं समझता ज़िंदगी को घसीटते रहना। और ये भी है कि आत्महत्या ज़्यादातर मामलों में कायरता का काम होता है, आप ज़िंदगी का सामना नहीं कर सकते, क्योंकि आप अपने स्वार्थ, अपने बंधन छोड़ना नहीं चाहते तो आप जाकर के देह का ही नाश कर लेते हो। लेकिन जो बिल्कुल बिरले, एक्सेप्शनल मामले होते हैं, वहाँ पर मैंने कहा है कि ये ठीक भी है।
मुझे ही कुछ हो जाए, एक आज से 10 – 20 साल बाद या कभी भी, जब कोई अब संभावना नहीं है कि मैं कुछ कर सकता हूँ। मुझे कुछ हो गया है, मेरे गले में कुछ हो गया है, मैं आपसे बात भी नहीं कर सकता, मैं खाना भी नहीं खा सकता, मैं पानी भी नहीं पी सकता, मैं आधे समय बेहोश पड़ा रहता हूँ, तो फिर मैं अपनी चेतना में एक स्वतंत्र निर्णय करूँगा न कि अब मुझे खाना नहीं खाना है। मैं इस हालत को क्यों घसीटूँ।
पर वो बिल्कुल आख़िरी निर्णय होगा। मान लो ये है कि मैं बोल नहीं सकता, पर मैं लिख सकता हूँ, तो मैं थोड़ी जान दे दूँगा। मैं कहूँगा, चलो, बोल नहीं सकता, मैं लिख के अपना काम कर लूँगा या कुछ और कर लूँगा, स्टीफ़न हॉकिंग्स भी बोल नहीं पाते थे, उन्होंने दूसरे तरीक़े से अपना काम कर लिया था। लेकिन जब कुछ न बचे, एकदम कुछ न बचे, उम्र भी बहुत बढ़ गई है, बिल्कुल दिख रहा हो कि कितनी भी कोशिश कर लो, अधिक से अधिक ज़िंदगी को 10–20–40 दिन और खींच लोगे, तो उस समय एक डिग्निफ़ाइड विदाई के तौर पर संथारा ठीक हो सकता है कि घिसट-घिसट के नहीं मर रहे, ख़ुद ही चले गए।
और मालूम है, जैनों में तो नाम दे दिया गया है, उसको सुंदर यथायोग्य नाम दिया गया है। पर ये बहुत लोग करते भी हैं यूँ ही, बिना नाम दिए। बहुत सारे बुज़ुर्ग हैं जो ये करते हैं। वो हो सकता है खाना पूरी तरह न छोड़ते हों, पर वो इतना कम कर देते हैं, इतना कम कर देते हैं। देखा होगा कि मृत्यु से हफ़्ते भर पहले या महीने भर पहले वो शून्य बराबर खा रहा है तू धीरे-धीरे अपना विदा हो गए।
पशु तक ये काम करते हैं। जिनके घरों में जानवर रहे, उन्होंने देखा होगा ये। जब वो बहुत बीमार हो जाते हैं तो खाना एकदम बंद कर देते हैं, दो दिन, चार दिन खाएँगे नहीं और फिर विदा हो जाएँगे। ठीक है। ज़िंदगी को घसीटते रहना कोई अनिवार्य तो नहीं है। लेकिन ज़िंदगी कीमती बहुत है। जब तक थोड़ी-सी भी संभावना हो कि जीवन का सदुपयोग किया जा सकता है, तब तक जीवन को नहीं छोड़ देना चाहिए। ठीक है? और छोड़ना है तो ये निर्णय अपना होना चाहिए, भाई, कोई और मेरे लिए थोड़ी निर्णय करेगा।
प्रश्नकर्ता: सर, फिर इसमें एक कंट्राडिक्शन भी मिलता है कि वॉलंटरी यूथनेशिया इंडिया में लीगल नहीं है। पर अगर धर्म के नाम पर संथारा किया जाए या फिर कुछ और, तो वो लीगल।
आचार्य प्रशांत: देखो, वो इसलिए भी नहीं है भारत में क्योंकि बहुत बड़ी आबादी है और जो एनफ़ोर्समेंट है किसी भी रेगुलेशन का, उसका बहुत तरीक़े से दुरुपयोग हो सकता है। यहाँ पश्चिमी देशों की तरह मामला नहीं है न कि हर जान कीमती है, क्योंकि बहुत ज़्यादा लोग हैं ही नहीं। वहाँ इतने ज़्यादा लोग होते ही नहीं हैं कि 10–5 मर भी गए तो फ़र्क़ नहीं पड़ रहा। वहाँ एक-एक जान की क़ीमत है।
यहाँ तो आप ये कह दोगे, वॉलंटरी यूथनेशिया है, किसी के फ़र्ज़ी साइन करवा लिए। ग्राम स्तर पर, तालुका स्तर पर, तहसील स्तर पर क्या हो रहा है, किसको क्या पता है। हर तरीक़े का फ़र्ज़ीवाड़ा चल रहा है, क्या पता चलेगा। ये तो इस तरह से हत्याकांड शुरू हो जाएँगे। भारत में आप कह दो कि स्वेच्छा से कोई चाहे तो मृत्यु का वरण कर सकता है, तो स्वेच्छा से तो पता नहीं कितने होंगे, पर इस चक्कर में मारा न जाने कितने लोगों को जाएगा। और कह दिया जाएगा कि इसने तो ख़ुद ही कहा था, कि “यूथनाइज़ मी।”
एक आता था पता नहीं किसका, विज्ञापन एक आता था जिसमें वो एक मर रहा होता है या मर रही होती है बिल्कुल, तो वो लिखवा लेता है कि तेरी संपत्ति से एक करोड़, जाने दस करोड़, कितने करोड़, और वो मरा हुआ बिल्कुल पड़ा हुआ है, उसके आगे अंगूठा लगवा लेता है ऐसे। कभी ऊपर से पानी की एक बूँद गिरती है और जहाँ वन लिखा होता है, वो वन मिट जाता है। कोई विज्ञापन पहले 10–20 साल पहले आता था।
तो ये तो भारत में खूब हो सकता है, कोई मर रहा है, जाकर उसका अंगूठा लगवा लिया कि मैं मरना चाहता हूँ, ख़ुद ही लगा दिया उसने अंगूठा। आप कह दोगे, नहीं, इसमें किसी सरकारी कर्मचारी को विटनेस होना चाहिए, तो सरकारी कर्मचारी तो विटनेस हो जाएगा। उसमें क्या है।
तो इसलिए भारत में उस चीज़ को अभी वैधानिक मान्यता नहीं है और मैं समझता हूँ होनी भी नहीं चाहिए। जब तक आप थोड़े समझदार देश नहीं बन जाते, तब तक आपने यूथनेशिया अलाउ कर दिया तो उसकी आड़ में हत्याएँ होंगी। फिर हम भावना-प्रधान भी तो लोग हैं, किसी का कुछ हो गया, किसी को पता चल गया, “अरे, वो तो आज वहाँ पर वो फलानी के यहाँ गए थे। अब मैं आज जब निराहार रहूँगी, आमरण निराहार रहूँगी।” जब इस तरह के देशवासी हों, तो वहाँ पे आप यूथनेज़िया को लीगलाइज़ नहीं कर सकते। कोई किसी भी बात पर मरने को तैयार हो जाएगा। हमारे देश में तो वैसे ही लोग ज़िंदगी से इतने बेज़ार हैं कि मरने का मौका दो, हर आदमी मरने को तैयार बैठा है।
सड़क पर जाओ, लोग जैसे गाड़ी चला रहे हैं, तुम्हें क्या लगता है, वो जीना चाहते हैं? हँसने की बात नहीं है। अगर तुम ग़ौर से देखोगे तो उनके भीतर कोई बैठा है जो चाह रहा है कि वो मर जाए। पर वो इतना साहस भी नहीं कर पाते हैं कि किसी ख़तरे के काम में, किसी सार्थक काम में जाकर के स्वयं को अर्पित कर दें, तो वो इस तरीक़े से अपनी मौत का आयोजन करते हैं। ऐसे-ऐसे बाइक चला रहे हैं (टेढ़ा-मेढ़ा), ये कर रहे हैं, वो कर रहे हैं, ट्रेन के सामने घुस रहे हैं, ट्रेन से लटक रहे हैं। ये आदमी जीना चाहता है क्या? ना।
अपनी ज़िंदगी की क़द्र करना कोई छोटी बात नहीं होती है। और अपनी ज़िंदगी की क़द्र वही करते हैं जिनकी ज़िंदगी किसी सार्थक काम में लगी होती है।
जब ज़िंदगी का कोई मतलब भी नहीं है और मक़सद भी नहीं है, दो कौड़ी की ज़िंदगी है, तो आदमी ऐसे ही मरने को तैयार रहता है। कुत्ते की मौत भी नहीं, कीड़े की मौत। मर भी गए तो क्या फ़र्क़ पड़ना है? वही टिड्डी वाली बात, एक टिड्डी ग़ायब भी हो गई तो फ़र्क़ क्या पड़ना है? मर गए।
आप भी अपनी ज़िंदगी की खूब क़द्र करने लगोगे। खाना भी ठीक खाओगे, व्यायाम भी करोगे, अपने मेडिकल टेस्ट वग़ैरह भी करा कर रखोगे। जिस दिन आप जानोगे कि आपकी जान क़ीमती है और आपकी जान कभी आपके स्वार्थ के लिए क़ीमती नहीं हो सकती, जिस दिन आपके प्राण किसी ऊँचे यज्ञ में आहुति बनते हैं न, उस दिन आप कहते हो प्राण-रक्षा ज़रूरी है। क्योंकि बात मेरी नहीं है, बात उस यज्ञ की है। मेरे प्राण मेरे होते तो बर्बाद भी कर लेता, पर मेरे प्राण अभी आहुति बनने हैं, आग ठंडी पड़ जाएगी मैं मर गया तो। फिर आप कहोगे कि मुझे प्राण-रक्षा अपनी करनी है।
भारत में कहाँ कोई यज्ञ हो रहा है? हर आदमी बस वही कोई कीड़ा, कोई टिड्डी की तरह जी रहा है। मरने का मौका मिले, खट से मर जाते हैं। और ऐसे ही नहीं मरा जाता कि पंखे से लटक गए। अभी लू चल रही है, धूल उड़ रही है और वहाँ उसने सड़क किनारे खुले में रखा हुआ है और आप वहाँ पर खड़े हो के खा रहे हो। वहाँ बाइक रोकी और वहाँ पर आपने कुछ खाना शुरू कर दिया। ये नहीं है कि आप इतने ग़रीब हो या कि वो आपका लंच है। आप क्या करोगे? वो आप स्वाद के लिए खा रहे हो। टिक्की है वो, गोलगप्पा है या कुछ है। तो ये भी नहीं है कि पेट भरने के लिए खा रहे हो, तुम स्वाद के लिए खा रहे हो।
एकदम धूल उड़ रही है। कई बार आप नोएडा वग़ैरह जाओ तो नाला होता है, भारी नाला, और एकदम ऐसा नाला कि दो सड़क छोड़ के भी उतनी दूर तक उसकी बदबू आ रही होती है। और नाले के ठीक बगल में किसी ने ठेला लगा रखा होता है और इधर-उधर के ऑफ़िसेस से भी लोग उतर के आके वहाँ पे मस्त अपना कुछ खा-पी रहे हैं। ये वो लोग हैं जो अपनी ज़िंदगी से खुश नहीं हैं। आर्थिक कारण है, मैं स्वीकार करता हूँ। ये मत कहने लग जाना कि ग़रीबों का मज़ाक उड़ा रहे हो। ग़रीबों का मज़ाक नहीं उड़ा रहा, मैं किसी गहरी मनोवैज्ञानिक चीज़ की ओर इशारा कर रहा हूँ। ये वो लोग हैं जो कह रहे हैं कि किसी तरह ये ज़िंदगी समाप्त हो जाए बस। “हो जाए इस बार टाइफ़ाइड, और बढ़िया वाला हो जाए।”
देखो, हमें अपने बारे में उतना ही पता होता है। जानते हो न साइकोलॉजी की थ्योरी कि ठीक जैसे एक आइसबर्ग का इतना सा जो हिस्सा होता है वो दिखाई दे रहा होता है, वैसे भी हमें अपने दिमाग़ का, मन का, अपने भीतरी इतना ही हिस्से का पता होता है। बाक़ी हमारे ही भीतर क्या चल रहा है हमें नहीं पता होता। अब ऐसी स्थिति में आप यूथनेज़िया अलाउ कर दोगे तो क्या होगा, सोच लो। हर चौथा आदमी खड़ा हो जाएगा, “मुझे भी जाने दो।” कतारें लगी हुई हैं। और हमारे यहाँ तो ये भी है कि अगर बाबा जी की बूटी लेकर के मरोगे तो सीधे स्वर्ग प्राप्त होगा। कतार और लंबी हो जाएगी कि जल्दी से इस मृत्यु-लोक से प्रस्थान करो। ऊपर अप्सराएँ, हूरें इंतज़ार कर रही हैं।
सुरमा की, सही व्यक्ति की ये दो आपको विरोधाभासी बातें देखने को मिलेंगी, जहाँ ज़रूरी है वहाँ वो जान बचाएगा नहीं। जहाँ जान गँवाना ज़रूरी ही हो जाएगा, सही युद्ध में और सही क्षण में, आप पाओगे कि वो प्राणों का कोई लोभ नहीं कर रहा है। और साथ ही साथ मूर्खता की बातों में वो किसी भी तरह अपने आप को खटाएगा नहीं, मिटाएगा नहीं, गँवाएगा नहीं। सही युद्ध में स्वयं को बचाएगा नहीं, और ग़लत युद्ध में स्वयं को गँवाएगा नहीं। वो प्राण अर्पण करना भी जानता है और प्राण-रक्षा करना भी जानता है। सही जगह पर प्राण अर्पण करेगा बिल्कुल बेख़ौफ़, और मूर्खता की चीज़ों से, ये थोड़ी कि ऐसे बाइक ऐसे चला के सड़क पर मर गए।
बिल्कुल पिचे हुए पड़े हुए हो। इसमें कौन सी तुमने शहादत दे दी है? ये तुमने कौन सी अभी बड़ी बढ़िया चीज़ करके दिखा दी कि ये देखो, रील बना रहे थे, बाइक का पहिया उठा के। जाके डायरिया से मरे हैं, अमर शहीद, हगते-हगते वीरगति को प्राप्त हुए, जाते-जाते लिटरली निर्मल होकर गए हैं क्योंकि मल तो बचा ही नहीं भीतर।
अगर ज़िंदगी सार्थक है तो ज़िंदगी की रक्षा करना भी सीखो।
वरना जो ख़बरें छपती रहती हैं न, कि दो लोग कंचे खेल रहे थे और एक-दूसरे का सर फोड़ दिया और मर गए, लानत है। मरना तो है ही एक दिन पर ऐसे थोड़ी मरेंगे। सोचो अर्जुन ऐसे ही मर चुके होते पहले, भीम से जाकर कंचों का कुछ कर लिया राडा। अब तुम भीम के कंचे और ये सब करोगे तो, भीम ने कहा तेरा गांडीव बाण बाद में तू उठाएगा, पहले तो ये मेरा मुक्का ही काफ़ी है।
छोटे-मोटे झगड़ों में अगर वो पहले ही निकल लिए होते तो फिर कहाँ से आती गीता? जितना मरना ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी है जीना। हमने कहा था न एक बार सही ज़िंदगी के लिए अगर आज मरना पड़े तो मर के दिखाएँगे, और सौ साल जीना पड़े तो सौ साल जी के भी दिखाएँगे।
जैसे अष्टावक्र मुनि कहते हैं, कि आज प्राण चले जाएँ या दस हज़ार साल और जिऊँ, मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता। हम जाते हों तो आज चले जाएँ, और नहीं जा रहे हैं, ज़िंदगी चल रही है। चल रही है तो दस हज़ार साल और चले तो भी मुझे अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि मैं मुक्त ज़िंदगी जी रहा हूँ।