श्रीभगवानुवाच मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।
श्रीभगवान बोले – मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १२, श्लोक २
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अध्याय बारह, श्लोक दो में जो सगुणरूप कृष्ण को श्रद्धायुक्त होकर भजने वाले को अति उत्तम कहा गया है, तो क्या षड् रिपुओं को ही जीवन से बाहर करना कृष्ण को भजना है? अकर्ता कर्म तथा बिना फल-आकांक्षा के सम्यक कर्म भी भजने के अंग हैं? मैं इसमें भ्रम में हूँ। कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: षड् रिपुओं को जीवन से बाहर करना साधना का एक अंतरिम उद्देश्य है और उसके लिए निष्काम कर्म साधन बनता है। इनमें कोई अलगाव, कोई दूरी नहीं है। ये सब एक दूसरे से जुडी हुई चीज़ें हैं, कोई एक दूसरे से विरुद्ध नहीं है।
निष्काम योगी जो है, उसके जीवन से षड् रिपु अपने-आप हटेंगे। दूसरे सिरे से, अगर कोई कहे कि मुझे अपने जीवन से षड् रिपुओं को हटाना है तो उसे निष्काम कर्म का सहारा लेना ही पड़ेगा। तो एक को अगर आप उद्देश्य बनाएँगे तो दूसरा साधन हो जाएगा, दूसरे को साधन बनाएँगे तो पहला उद्देश्य हो जाएगा।
प्र२: आचार्य जी, आपकी बताई हुई बातों से बहुत कुछ समझ आया पर इस दुनिया में वापस अटक जाती हूँ। सब कुछ पता चलने के बाद भी मन फिर उन बातों में क्यों उलझता है? सारी सच्चाई सामने है फिर मुझे इतनी हैरानी क्यों होती है? घर वालों से अभी मोह का डर भी है, मन अकेला होने से डरता है। कृपया थोड़ा समझाने की कृपा करें।
आचार्य: ये होता नहीं है, इसको महत्व दिया जाता है। यह बात हम मानने से इंकार करेंगे पर कोशिश करो, शायद मान पाओ। मैं मानना कह रहा हूँ, समझना नहीं। एक सीमा के बाद समझने की कोई अहमियत नहीं रहती, मानने की रहती है। आपको ताज्जुब होगा क्योंकि मैंने ही कितनी बार कहा है कि मानो नहीं, समझो। मैंने कहा है कि मान्यता तो अँधी होती है, समझ प्रकाशित होती है, समझ में बोध है, तो मानो नहीं, समझो। पर अगर समझ ही रहे हो तो यह बात भी समझो कि एक बिंदु पर आकर समझ असहाय हो जाती है, उसके बाद बस मानना पड़ता है।
मानो न इस बात को कि तुम्हारे साथ जो भी हो रहा है, उसको महत्व देने वाले तुम्हीं हो। मैं कह रहा हूँ कि मानो इसलिए क्योंकि मानोगे नहीं तो प्रयोग भी नहीं कर पाओगे। जब तक तुम इस भ्रान्ति में रहोगे कि तुम्हारे साथ घटनाएँ घट रही हैं, तुम घटनाओं के सामने दुर्बल और विवश ही रहोगे। मानो कि घटनाएँ घट नहीं रहीं, तुम हो जो उनमें प्राण फूँक रहे हो, तुम हो जो उन घटनाओं में महत्व रख रहे हो। पर हम भाषा ही ऐसी इस्तेमाल करते हैं, हम कहते हैं, "मेरे साथ हो जाता है।" हो नहीं जाता, तुम होने देते हो। और फिर अगर कह रहे हो कि तुम्हारे साथ अमुक चीज़ हो जाती है तो तुम्हारे साथ और भी तो बहुत सारी चीज़ें होती हैं, उनका ज़िक्र क्यों नहीं कर रहे?
दिन भर में आपके साथ कितनी घटनाएँ घटती हैं? अनगिनत। क्या आप सबको बराबर का महत्व देते हैं? आप कुछ पढ़ रहे हैं, कोई आपको टोक दे और चार और लोग इधर-उधर से आकर टोक दें, क्या आप पाँचों की बात को बराबर का महत्व देंगे? हो सकता है कि चार के टोकने से आपको अंतर न पड़ा हो, पाँचवे के टोकने से आप रुक जाएँ। तो अगर आप यह कहें कि साहब, लोग टोक रहे हैं इसलिए मैं रुक गया, तो झूठ बोल रहे हैं न? चार लोग भी तो टोक रहे थे, उनके टोकने से नहीं रुके। पाँचवे के टोकने से रुके न? यानी कि अगर आप चाहते तो इस टोका-टोकी को नज़रअंदाज़ कर सकते थे न? चार के टोकने से आपने ही उपेक्षित किया कि नहीं?
चार जनों ने टोका, आपने ध्यान नहीं दिया। उनकी तो आप यहाँ बात ही नहीं कर रहे। आप यह बता नहीं रहे कि मुझमें सामर्थ्य है कि कोई कुछ भी कह रहा हो, मुझ पर अंतर न पड़े, जबकि वो सामर्थ्य है आप में। आप ख़ुद ऐसा करके दिखाते हैं रोज़। कितनी बातें आपसे कही जाती हैं, आप उन पर कान ही नहीं रखते, है न? आप चुन लेते हैं कि किस बात को महत्व देना है और किसको नहीं। फिर आप किसी एक बात को महत्व दे देते हैं और फिर मुझसे पूछते हैं, “मेरे साथ इतनी महत्वपूर्ण घटना क्यों हुई?” अरे बाबा, घटना हुई। महत्वपूर्ण किसने बनाया उसको? आपने बनाया।
अब आप कह रही हैं, "आचार्य जी, आपने मुझे बहुत समझाया पर मैं इस दुनिया में वापस अटक जाती हूँ।" जैसे कि ये दुनिया में अटक जाना यूँ ही हो जाता हो, बिना आपके अनुमति के और सहमति के हो जाता हो। आप यह कहिए, “मुझे दुनिया में अटकने में रस है। दुनिया में अटकने में कुछ सुख दिखता है, कुछ स्वार्थ है।'” यूँ ही थोड़े ही कोई अटक जाता है। पचास चीज़ें लगी हुई हैं आपको अटकाने में, आप सबमें अटकते हैं क्या?
बाजार निकलते हो, पचास दुकानें हैं, एक-एक में घुस जाते हो? हर दुकान आपको आकर्षित करना चाहती है अपनी ओर से, तो हर दुकान चाहती है कि आपको खींच ले अंदर। लगी है कि नहीं? आप हर दुकान में घुस जाते हो क्या? फिर आप पचासवीं दुकान में घुस गए और वहाँ से बड़े असहाय और दुर्बल होकर कह रहे हैं, "आचार्य जी, यह दुनिया फँसा लेती है।" दुनिया फँसा लेती है तो जो पहले की उनचास दुकानें थीं, उनमें काहे नहीं फँसे?
तो दुनिया ने फँसाया या तुम्हें फँसने का शौक है? दुनिया ने फँसाया या तुम्हें फँसने में मज़ा आता है? आज तक कहीं भी ऐसी जगह फँसे हो जहाँ मज़ा नहीं आता? अब नहीं आता होगा, अब तो किसको आता है, जब फँसे थे तब आता था कि नहीं आता था? कितना आता था! आहाहा! रसधार बहती थी बिल्कुल। अब कहते हो कि फँसे गए। कोई चिड़िया बिना दाने के फँसती है? पहले तो दाना दिखता है, जाल में फँस गए यह बाद में पता चलता है।
लोभ की अधिकता, विवेक की कमी, यही तो सब है जो मारे डाल रहा है। इसी का अभ्यास हम दिन-रात करते हैं, करते हैं न? यहाँ तो मुझे सवाल भेज दिया, सवाल भेजने के एक घंटे पहले क्या कर रहे थे? क्या आध्यात्मिक रस में डूबे हुए थे? नहीं, संसार में डूबे हुए थे। तो एक घंटे का यह श्रवण कितनी मदद कर देगा, भाई, कि कर देगा? थोड़ी-बहुत, जितनी तुम्हारी इच्छा हो। तो मदद भी हमारी कितनी होगी? जितनी हम चाहेंगे। आपकी अगर मदद नहीं हो पा रही है तो बोलिए कि "बादशाह हम। देखा, हमने अपनी मदद नहीं होने दी।"
"सब कुछ पता होने पर भी मन उन बातों में क्यों उलझता है?" अरे, मानते हैं मन को नालायक है, बिना आपके समर्थन के ही उलझ जाता है, क्यों? मन बावरा। मन बावरा वग़ैरह कुछ नहीं है; जहाँ भेजते हो, वहाँ जाता है।
बादशाह मन नहीं है, बादशाह अहम् है। अहम् जहाँ चाहता है, मन वहाँ जाता है। मन तो अहम् की छाया है, ग़ुलाम है, सेवक। जहाँ उसे भेज दोगे, वहाँ पहुँच जाएगा।
"घरवालों से अभी मोह का डर भी है, मन अकेला होने से डरता है।" मोह इत्यादि नहीं समस्या होते, क्योंकि जब तुम मोह को समस्या बनाते हो न तो सारा ठीकरा किसी और के सिर फोड़ देते हो, कहते हो, “उससे मोह है इसलिए ऐसा हो रहा है।” सुनने में थोड़ा अटपटा लगेगा लेकिन जिससे मोह है, उससे स्वार्थ भी होता है सदा। मोह यूँ ही नहीं होता। और स्वार्थ चाहता है सुख। तो फिर सारी समस्या सुलझ गई न। जब सुख मिल ही रहा है मोह के माध्यम से तो मुक्ति चाहिए क्यों?
सब कहते हैं न कि मोह नहीं छूटता, मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति आनंददायिनी होती है, है न? तो मुक्ति के साथ क्या है? आनंद। पर अगर मोह में ही खूब सुख मिल रहा हो तो मुक्ति चाहिए किसको, कि चाहिए?
एक हिंदी फिल्म है, शायद ‘रजनीगंधा’। उसमें तो एक गीत ही है, "कितना सुख है बंधन में।" शायद कोई नवविवाहिता हैं या कोई ऐसी हैं जिनका नया-नया इश्क़ लगा है, वो गा रही हैं। कुछ ऐसे है, "रजनीगंधा प्रीत तुम्हारी महके मेरे तन-मन में," और कुछ-कुछ करके फिर, "कितना सुख है बंधन में।" गाओ। क्या करोगे ग्रंथों का, यही है।
देखिए सुख तो है, मान जाइए। अभी ये जो गाने हैं, तो कुछ देर तक तो आप ऐसे देखेंगे आचार्य जी को कि बात समझ जाओ इशारों से ही, सम्मानपूर्वक विदाई ले लो। और थोड़ी देर बात आप ख़ुद ही उठकर आएँगे और कहेंगे, “आप बाहर निकलिए, गाने सुनने दीजिए।” जब कोई अपनी बिल्कुल मीठी आवाज़ में आपके लिए गा दे कि ‘रजनीगंधा प्रीत तुम्हारी महके मेरे तन-मन में’, और बीच का मैं भूला जा रहा हूँ, ‘कितना सुख है बंधन में’। तो फिर बंधनों में ही महासुख है। क्या करोगे मुक्ति का? मोह ही इतना मीठा है।
(एक स्वयंसेवक मोबाइल में गाने के बोल ढूँढकर आचार्य जी को देते हैं)
मिल गया? ये यूट्यूब वाले बुरा तो नहीं मानेंगे? ये कॉपीराइटेड गाना बजा रहा हूँ। अच्छा, गाने के बोल सर्च करे हैं।
"यूँ ही महके प्रीत पिया की मेरे अनुरागी मन में, रजनीगंधा फूल तुम्हारे महकें यूँ ही जीवन में। यूँ ही महके प्रीत पिया की मेरे अनुरागी मन में। अधिकार यह जबसे साजन का हर धड़कन पर माना मैंने, मैं जबसे उनके साथ बंधी यह भेद तभी जाना मैंने।" भेद जान लिया, भाई। मर्मदर्शी हो गईं। कतई तत्तवज्ञ होकर कहा है। सूत्र पर ध्यान दें श्रोतागण। "मैं जबसे उनके साथ बंधी ये भेद तभी जाना मैंने, कितना सुख है बंधन में।" गजब! जब बंधन में ही सुख हो तो मुक्ति का करेंगी क्या आंटी? वो भी जब इतनी मीठी और सुरीली आवाज़ में गीत हो तो फिर तो रस सरिता।
"हर पल मेरी इन आँखों में बस रहते हैं सपने उनके।" किशन कन्हैया की नहीं बात हो रही है, लग्गूलाल (किसी आम व्यक्ति) की बात हो रही है। आंटी जी की आँखों में लग्गूलाल बसे हुए हैं। "हर पल मेरी इन आँखों में बस रहते हैं सपने उनके, मन कहता है मैं रंगों की एक प्यारभरी बदली बनकर बरसूँ उनके आँगन में।" अब ये चाहती हैं उनके आँगन को गीला करना। कर आओ, भाई। आँगन को और जो-जो उनके घर में जगहें हैं, गीला कर आओ। "रजनीगंधा फूल तुम्हारे महकें यूँ ही जीवन में, यूँ ही महके प्रीत पिया की मेरे अनुरागी मन में।" ये है। खेल सारा समझ में आ रहा है? ऐसे चल रहा है खेल, इसलिए मोह नहीं छोड़ता। कितना सुख है बंधन में!
तो तय कर लो न, मेरा समय क्यों व्यर्थ करते हो? बंधन में ही सुख है तो यहाँ काहे के लिए मुझे हैरान, परेशान कर रहे हो? फिर मुझे विचित्र लगता है कि इतने दिनों से मैं ज़ोर लगा रहा हूँ, इनके बंधन काहे नहीं टूट रहे? पता चलता है टूटेंगे कैसे, वही पकड़ के बैठे हुए हैं।
अभी थोड़ी देर पहले मैं एम. स्कॉट पेक की बात कर रहा था, 'पीपल ऑफ़ द लाइ'। पढ़िएगा ज़रूर, ख़तरनाक किताब है, वो बताती है कि हम अपने साथ कैसे-कैसे धोखे कर सकते हैं।
अगर स्मृति साथ दे रही है तो उसमें एक किस्सा ऐसा है जिसमें एक कोई देवी जी थीं, वो ठीक ही नहीं हो रही थीं। उनकी मनोचिकित्सा चली जा रही, चली जा रही, चली जा रही, और मनोचिकित्सक को फीस भी दिए जा रही हैं, दिए जा रही हैं, हर सिटिंग (बैठक) के दिए जा रही हैं। बाद में धीरे-धीरे, धीरे-धीरे कई साल बाद यह पता चला कि उनको जो बातें बताई जाती थीं, दवाइयाँ दी जाती थीं, वो जानबूझ करके लेती नहीं थीं कि कहीं मैं ठीक न हो जाऊँ। अगर ठीक हो गई तो चिकित्सा बंद हो जाएगी और मुझे चिकित्सा बड़ी अच्छी लग रही है। हम कैसे-कैसे अपने साथ रेब कर सकते हैं, इसकी कोई इन्तेहां नहीं है। बचिए।
जिस दिन आप स्वस्थ होना चाहेंगे, आप स्वस्थ हो जाएँगे। अगर आप स्वस्थ नहीं हो रहे हैं तो जान लीजिए कि आप अपने खिलाफ़ खड़े हैं। और कोई बात नहीं है।
प्र३: आपको सुनता हूँ तो यह बात स्पष्ट होती है कि फिजिक्स (भौतिकी) और अध्यात्म में एक गहरा सम्बन्ध है। बीते वर्षों में आपने अपने व्याख्यानों में, सत्संग में फिजिक्स और विज्ञान को एक अहम महत्व दिया है।
मुझे जीवन में शंका की मूलतः समस्या है। मार्गदर्शन है नहीं, बात-बात पर अविश्वास होता है। जब आप किसी भी शंका का समाधान मुझ तक भेजते हैं तो वह शंका तो कट जाती है परन्तु एक और प्रश्न अंदर उठ जाता है। जीवन में असली, ईमानदार और गहरा सवाल पूछने में अपने-आपको असमर्थ महसूस करता हूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य: संसार के बारे में, पदार्थ के बारे में, भौतिक विषयों के बारे में जो भी शंका हो, उसके उन्मूलन की विधि विज्ञान है। जाओ, जाँचो, परखो, प्रयोग करो। एक बार परखो और सही पाया है या नहीं, यह जानने के लिए दोबारा परखो। जो कुछ तुम्हें प्रतीत हो रहा है, वो किसी और के सामने रखो, वो भी परखकर देखे। यदि यह सिद्ध ही हो जाए कि कितनी भी बार परखा जाए, परिणाम एक ही आना है, तो फिर तुमने जो जाना वो तथ्य है, भौतिक जगत का यथार्थ है। ये विज्ञान की विधि है।
दिक़्क़त इसमें यह होती है कि भौतिक जगत को ले करके हमारी शंका कितनी भी शांत कर दी जाए, शंकालु मन शंकाग्रस्त तब भी रहता है। अगर उसकी भौतिक शंकाएँ शांत नहीं हुई हैं और आप उससे जा करके पूछें कि भाई, क्या बात है, क्यों परेशान हो? तो वो आपको बता देगा कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि ये बारिश इतना रुक-रुक करके क्यों हो रही है? आज सूरज के सामने बादल क्यों हैं? समुद्र में लहरें क्यों उठ रही हैं? छोटा बच्चा बड़ा कैसे हो जाता है? वो पचास तरह की भौतिक बातें आपके सामने रख देगा। आप इन सबके विज्ञानसम्मत उत्तर उसको बता दीजिए। वो उत्तर बिल्कुल ठीक होंगे और उसकी ये जो विशिष्ट जिज्ञासाएँ हैं, शमित भी हो जाएँगी।
हाँ, भाई, बता दिया गया तुमको कि बादलों, और लहरों, और बच्चों, और सूरज और पृथ्वी का रहस्य क्या है। ये बता दिया गया है तो अब उसके पास ये जिज्ञासाएँ नहीं बचीं। तो वो कुछ और जिज्ञासाएँ करेगा, आप उनका भी उत्तर दे दीजिए। फिर जब उसकी जितनी जिज्ञासाएँ शांत की जा सकती थी, आप शांत कर लें तो अंततः उसको एक अकारण शंका रह जाएगी। अब आप उससे पूछेंगे कि भाई, अपनी तकलीफ़ बताओ, तुम्हें शंका क्या है, तुम्हें अकुलाहट किस बात की है? अब तो बताओ। वो बता नहीं पाएगा।
हुआ है आपके साथ कि लगता है कुछ ठीक नहीं है और कोई पूछे कि क्या ठीक नहीं है? तो आप बता ही न पाएँ। ऐसा होता है? लगता है कि कहीं कुछ कमी है, कहीं कुछ अटक रहा है, कहीं कुछ पूरा नहीं है, कहीं कुछ गड़बड़ है, और अगर कोई कहेगा कि भाई, साफ़-साफ़ बताओ, कहाँ कमी है, क्या अटक रहा है, क्या चाहिए? तो आप बता नहीं पाएँगे। ऐसा होता है न?
यह जो अकारण शंका है, ये बाकी सब शंकाओं का मूल है। तो बाकी सब शंकाएँ आप हटा भी दो, जिनको विज्ञान के माध्यम से हटाया जा सकता है और हटाया जाना चाहिए भी, तो भी यह अकारण शंका बच जाती है। विज्ञान कितनी भी तरक्की कर ले, यह अकारण शंका बनी ही रहेगी, बनी ही रहेगी।
इसका मतलब यह नहीं है कि विज्ञान को तरक्की नहीं करनी चाहिए, इसका मतलब है विज्ञान को और, और, और ज़्यादा तरक्की करनी चाहिए ताकि जितनी हमारी भौतक शंकाएँ हैं, वो जल्द-से-जल्द हटाई जा सकें। जब वो भौतिक शंकाएँ जल्दी से हट जाएँगी तो फिर बचेगी क्या हमारे पास? अकारण शंका। तो हमें कम-से-कम यह स्पष्ट तो होगा कि भाई, ये जो ऊपर-ऊपर हमारी इतनी सारी शंकाओं का जंगल दिखता था, ये ऊपर-ऊपर था बस, इस सारे जंगल के पीछे है अकारण शंका।
अब इस अकारण शंका में थोड़ा प्रवेश करते हैं। अकारण तो हमने आज तक यही सुना था कि सत्य होता है, ठीक? अकारण तो सत्य होता है, हमें यही पता था। तो अकारण शंका कहाँ से आ गई भाई? ये क्या चीज़ है? अकारण माने जिसके पीछे क्या है कुछ पता नहीं या कि जिसके पीछे कुछ है ही नहीं।
शास्त्र हमारे हमें बताते हैं कि एक तो सत्य अनादि, अकारण है और एक और है जो अनादि, अकारण है। वो कौन है? माया। बस सत्य और माया में अंतर यह है कि सत्य अनादि भी है और अनंत भी। माया अनादि तो है, अनंत नहीं है। उसको ख़त्म किया जा सकता है। सत्य की तरह माया को अनादि क्यों कहा गया है, विशेषतया अद्वैत में? आप आदि शंकराचार्य के पास जाएँगे तो वो कहेंगे सत्य की तरह माया भी अनादि है। क्यों? क्योंकि माया सत्य से ही आती है और कहीं से वो आती ही नहीं। तो सत्य अनादि है तो माया भी अनादि है।
फिर हमारी यह जो प्रथम शंका है, यह क्या हुई? हमारी यह प्रथम शंका प्रथम माया को ले करके है, उसी प्रथम माया का नाम है – अहम्। आत्मा अनादि, अनंत, उससे सबसे पहले आता है अहम् और फिर बाकी पूरा कारोबार आ जाता है। एक बार अहम् आ गया, अब बाकी सब पीछे कहाँ रहेगा। पूरा संसार खड़ा हो जाता है।
अहम् की आप सारी शंकाएँ सुलझा दीजिए तो भी उसे अपने-आपको ले करके बड़ी शंका रहती है। “मैं हूँ भी कि नहीं हूँ?” वही अहम् माया है। “मैं हूँ भी कि नहीं हूँ? मैं हूँ कौन? मुझे सब पता तो चल गया, सारा ज्ञान तो दे दिया गया पर जिसको ज्ञान दिया गया है, वो कौन है? सब समझा-बुझा दिया बैठा करके, महाज्ञानी हो गए। ज्ञान तो ठीक है, ये ज्ञानी कौन है? ज्ञान तो मिला, पर जिसको मिला है ज्ञान, वो है कौन?”
अब जगत के बारे में तो अहम् को समझा भी दिया जाए, अहम् के बारे में अहम् को क्या समझाया जाए? तो इसलिए वो शंका बनी ही रहती है। वही शंका हमारे रोज़मर्रा के जीवन में अनेक रूपों में प्रकट होती है—बिना बात का डर, बिना वजह का गुस्सा, बिना कारण की खीझ। असल में ये जो हमारी सब वृत्तियाँ हैं, ये सब बिना कारण की ही हैं और उनके पीछे बैठी हुई है अहम् वृत्ति।
अहम् बेचारे की समस्या यह कि उसे किसी और पर भरोसा क्या आएगा, उसे ख़ुद पर ही भरोसा नहीं है। जिसे ख़ुद पर न भरोसा हो, वो किसी और पर क्या भरोसा करेगा? पर वो दुनिया पर भरोसा करना चाहता है क्योंकि उसे ख़ुद पर भरोसा नहीं है। वो कहता है कि मेरा तो कुछ पक्का नहीं, चलो ऐसा करते हैं दुलारे राम पर भरोसा कर लेते हैं, हो सकता है कि उसका पक्का हो मामला। और किसी दूसरे पर भरोसा करना विवशता है अहम् की क्योंकि अपना कुछ पक्का नहीं होता न।
ये सब कहानी सुनी-सुनाई लग रही है न, अपनी ही कहानी है न? कोई सहारा मिल जाए, कोई संगत मिल जाए, किसी का हाथ थाम लें, ये सब आत्मशंका का ही परिणाम है। तो ऐसा करो तुम कि इस शंका को अब विश्वास में बदल दो। शंका माने संदेह न? और संदेह बोलता है कि शायद कुछ गड़बड़ है। संदेह क्या बोलता है? शायद कुछ गड़बड़ है। तुम्हारे लिए समाधान यह है कि तुम कह दो कि शायद नहीं गड़बड़ है, पूरी ही गड़बड़ है।
शक को यकीन में बदल दो। अभी तक तो यही शक है कि मैं हूँ भी कि नहीं हूँ? तुम बोल दो कि पक्का है कि मैं नहीं हूँ। यही शक है कि कहीं मैं खोखला तो नहीं, कहीं मैं मिट तो नहीं जाऊँगा? बोल दो, “हाँ, और इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। हम खोखले हैं, हम मिटेंगे, हमारी हस्ती क्षणिक है इसीलिए तो उसे इतनी सुरक्षा की ज़रूरत पड़ती है।”
आदमी की पूरी जीवन यात्रा और क्या है? अपने-आपको सुरक्षा देने की कोशिश ही तो है। जिसमें दम हो, जिसका वजूद पक्का हो, उसे सुरक्षा देने की ज़रूरत पड़ेगी क्या? और हमें देखिए, हम हर समय तड़पते रहते हैं कि किसी तरह अपने-आपको बचा ले जाएँ। ख़ुद को बचा ले जाने की जो कोशिश है, वही प्रमाण है इस बात का कि हम अपने-आपको लेकर के बड़े संदेही हैं। और अगर अपने-आपको लेकर के संदेह है ही तो अपने-आपको बचाने की कितनी भी कोशिशें कर लीजिए, वो संदेह तो नीचे-नीचे कुलबुलाता ही रहेगा।
उस संदेह को दबाने-छुपाने की कोशिश मत कीजिए, मान ही लीजिए। कहिए, “हाँ गड़बड़ है। अपनी सत्ता में मैं यकीन करना ही नहीं चाहता।” हम डरते हैं कि अपनी सत्ता में यकीन नहीं करेंगे तो मिट ही जाएँगे।
अध्यात्म कहता है – जो अपनी सत्ता में यकीन नहीं करते, उन्हें कहीं फिर यकीन करने की ज़रूरत नहीं रह जाती। वो विश्वास से आगे चले जाते हैं। उन्हें एक ऐसी हिम्मत, ऐसा हौसला, ऐसी वीरता मिल जाती है कि अब वे डरते ही नहीं। दूसरों पर शक करना आसान है, जो अपने ऊपर शक कर ले गया, वो जीत गया।
और वही शक की इकाई अगर दूसरों पर विश्वास भी करने की कोशिश करे, तो उस विश्वास की हैसियत क्या होगी, भाई? जिन्होंने भी हिम्मत करके अपने मन को परखा, अपनी वृत्तियों को देखा, वो मुस्कुरा उठे, उन्होंने कहा, “मैं इस चीज़ के बूते इतने दिनों से खेल रहा था, मैं इसके भरोसे यात्रा कर रहा था? इतनी यात्रा ही मैंने इतने कष्ट झेल-झेलकर ली, बहुत बड़ी बात हो गई। आगे की तो और नहीं हो पाएगी।”
जैसे कि आप गाड़ी में बैठे हों, गाड़ी चला रहे हों और गाड़ी आपकी ज़बरदस्त झटके मारती हो। अंदर पैंतालीस-पचास डिग्री की ऊष्मा हो। इंजन ऐसा हो कि धुआँ साइलेंसर , एग्ज़हॉस्ट से निकलने की जगह भीतर केबिन में भरता हो, और आप दोष देते हों कभी ट्रैफिक को, कभी सड़कों को, कभी मौसम को, कभी दुनिया को।
फिर नौबत ऐसी आ जाए कि आपको उतर करके आपको अपनी गाड़ी को देखना ही पड़े मजबूर होकर। आप कहें, “दुनिया को तो दोष बहुत दे लिया, सड़क को दोष बहुत बहुत दे लिया, थोड़ा अपने-आपको भी देखें।” और आप पाएँ कि चारों टायर चिथड़े हैं, कबके चिथड़े हो गए, गाड़ी रिम पर चल रही थी। आप इंजन खोलें तो जैसे ज्वालामुखी लावा फेंकता है, वैसे ही इंजन भाँति-भाँति के कूलैंट और ऑइल और पानी फेंके। और उसमें भी चीज़ें बिखरी पड़ी हुई हैं, बैटरी दो टुकड़े उलटी पड़ी है, पंखा कब का वीरगति को प्राप्त हो चुका है।
तो फिर अब आप यह नहीं कहेंगे कि मुझे अब इस गाड़ी के भरोसे आगे की यात्रा कैसे करनी है? अब प्रश्न यह नहीं होगा कि इस गाड़ी के भरोसे आगे की यात्रा कैसे करनी है? ये उद्घाटन का पल होगा, रेवेलेशन का। ये वो पल होगा जब आप इस गाड़ी पर संदेह नहीं करेंगे, आपको विश्वाश हो जाएगा। क्या? कि इसके भरोसे अब आगे की यात्रा नहीं हो सकती। आप अगर अब ताज्जुब करेंगे भी तो बस यह कि अभी तक की यात्रा मैंने इसके भरोसे कैसे कर ली! और जैसे ही आप यह प्रश्न करेंगे, जैसे ही आप यह ताज्जुब करेंगे, आपको याद आएँगे अतीत के अपने सारे कष्ट, आपको याद आएँगे वो सब झटके जो आपकी गाड़ी ने आपको दिए, लगातार दिए, वो सब ठोकरें जो आपको खानी पड़ीं, वो सब कष्ट जो आपको सहने पड़े, और फिर मामला बिल्कुल साफ़ हो जाएगा आपको।
आप कहेंगे, “क्यों न पिटता मैं ज़िन्दगी में अभी तक, गाड़ी ही ऐसी थी। इसके बूते मैं यात्रा कर रहा था। मैं तो बीच-बीच में संदेह कर लिया करता था कि कहीं गाड़ी में कुछ गड़बड़ तो नहीं है। बस इतना ही संदेह था मेरा, कहीं गाड़ी में कुछ गड़बड़ तो नहीं है। इससे ज़्यादा मेरी शंका जाती ही नहीं थी। अब स्पष्ट हो गया है कि शंका की कोई ज़रूरत नहीं है, निर्णय आ गया है। और अब मुझे यह प्रश्न बिल्कुल भी नहीं है कि आगे की यात्रा इस गाड़ी के भरोसे कैसे होगी। साफ़ है कि नहीं होगी। इसके भरोसे आगे की यात्रा नहीं होगी। जीवन यात्रा मैं इस गाड़ी पर नहीं कर सकता।” यह आत्म-अवलोकन कहलाता है।
गाड़ी क्या है? तन और मन। साफ़ दिख गया कि अपनी हालत क्या है। अब बताइए, यह प्रश्न कितना महत्वपूर्ण है कि फिर आगे की यात्रा होगी कैसे? अब आप मुक्त हो जाते हैं। आप कहते हैं कि सड़क है, इरादा है और मंज़िल है, तो आगे की यात्रा हो ही जानी है। बात यह नहीं है कि आगे की यात्रा कैसे होगी, अगर मैं गाड़ी से उतर गया हूँ तो अब आगे की यात्रा हो जाएगी। बल्कि नहीं उतरता तो नहीं हो पाती। तो अब मैं थोड़े ही डरूँगा कि आगे की यात्रा कैसे होगी, अब तो हो जाएगी, आसान है, क्योंकि मैं गाड़ी से उतर गया हूँ। तो अब तो हो ही जानी है, अब क्या रोना? रोने के दिन बीते। ये मैं संकेतों में बात कर रहा हूँ। बात समझ में आ रही है कि क्या बोल रहा हूँ?
तो कोई यह न पूछे कि अगर अपने ऊपर यकीन करना छोड़ दिया तो किसके ऊपर यकीन करें? ये वैसी ही बात होगी कि कोई कहे कि गाड़ी से उतर गए, अब आगे की यात्रा कैसे होगी? अब होगी। अपने ऊपर यकीन करना छोड़ दिया तो अब समझ जाएँगे कि किसके ऊपर करना है। जब तक अपने ऊपर यकीन कर रहे थे, तब तक तो आपके सारे निर्णय ही भ्रमित थे, थे कि नहीं? तभी तक तो नहीं पता था कि अब किस पर विश्वास करें, किस पर नहीं। भाई, विश्वास किस पर करना है अगर यह चुनने का साधन ही उलटा-पुलटा हो, तो आप जिस पर भी विश्वास करेंगे, धोखा ही तो खाएँगे।
लोग आते हैं, कहते हैं कि ज़िन्दगी ने बड़े धोखे दिए। मैं कहता हूँ कि धोखे से पहले विश्वास होता है। जिस पर आपको विश्वास न हो, उससे आपको धोखा मिल सकता है क्या? तो ज़िन्दगी ने धोखे दिए या आपने गलत जगह विश्वास किया, ईमानदारी से बताओ?
* श्रोतागण: गलत जगह विश्वास किया।
आचार्य: जिसने विश्वास किया था, वो आपके पीछे डंडा लेकर दौड़ा था कि मुझपर विश्वास करो? उसने आपको ललचाया था, लुभाया था, विज्ञापन दिया था, आकर्षित किया था कि आओ मुझ पर विश्वास करो? कौन गया था उस पर विश्वास करने? कौन गया था कि मैं इस पर विश्वास करूँगा, बोलो? आप। तो अपनी गलती बताइए न कि मैंने गलत जगह विश्वास किया। ये क्यों बोलते हैं कि उसने मुझे धोखा दिया? सारा दोष दूसरे पर डाल दिया। और दोष है किसका? अपना।
यह ऐसी-सी बात है कि मरुस्थल में मृगमरीचिका से आप भ्रमित हो जाएँ और बताएँ कि "ये जो रेत है, ये बड़ी छलती है। ईमान, धर्म नहीं है इस रेत का। ये रेत लोगों को ऐसे दिखाती है जैसे पानी हो।" रेत का क्या इरादा है पानी दिखाने का? और रेत का इरादा हो भी तो आपने रेत पर विश्वास क्यों किया? अपना दोष देखिए न।
एक बार वो आपके भीतर, जो जानता है कि विश्वास करना है या नहीं, सही हो जाए, ठीक हो जाए, स्वस्थ हो जाए, उसके बाद क्या जीवन आपको धोखा देगा और छलेगा? उसी का नाम गाड़ी है। उसकी जो विंडशील्ड है, उस पर टनों राख जमी हुई है, पक्षियों की विष्ठा जमी हुई है, सब कबूतरों ने उसे शौचालय की तरह इस्तेमाल किया है। उसका जो रियर व्यू मिरर है, वो पीछे का हाल नहीं दिखा रहा, वो पुराणों में वर्णित सोलह अन्य लोकों का हाल दिखाता है। तो अब धोखा होगा कि नहीं होगा?
आगे देख रहे हैं, दिखाई कुछ पड़ नहीं रहा है, ऐसी ही हमारी ज़िन्दगी है न? पीछे देख रहे हैं तो जो दिखाई पड़ रहा है, वो है ही नहीं। पीछे चला आ रहा यही ट्रक और जो हमारा पौराणिक रियर व्यू मिरर है, वो क्या दिखा रहा है? कि अप्सराएँ हैं और दुग्ध की नदियाँ बह रही हैं। आपने कहा, “आ, अप्सरा।” ट्रक ज़बरदस्त, वो आ करके हल्के से चूम गया। फिर आप कहते हैं कि बड़ा धोखा हुआ। ट्रक की गलती है?
प्र४: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न है कि क्या धर्मग्रंथों, जैसे श्रीमद्भगवद्गीता, अष्टावक्र गीता, वेदांत इत्यादि का अध्ययन करना आवश्यक है? सत्य से परिचय के लिए इनका क्या महत्व है हमारे लिए? कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य: आवश्यक तो सिर्फ़ वो है जो आवश्यक है, बाकी तो सब साधन हैं। 'आवश्यक' शब्द को समझते हो कहाँ से आ रहा है? अवशता से, अ-वशता। अवशता माने जानते हो क्या होता है? अवश हो जाना माने बेबस हो जाना। तो आवश्यक तो बस वो है जिसके आगे बेबस हो जाओ, अवश हो जाओ। जिस पर कोई ज़ोर न चले तुम्हारा, बस वही आवश्यक है। ग्रंथों पर तो ज़ोर चल ही जाता है, वो आवश्यक कहाँ से हो गए? नहीं चल जाता?
अच्छा किसने-किसने आज ये गीता का बारहवाँ अध्याय पूरा पढ़ा है?
(कुछ श्रोतागण हाथ उठाते हैं)
बाकी चला गए न ज़ोर। सबने थोड़े ही पूरा पढ़ा है। तो ग्रन्थ आवश्यक नहीं हैं, न अनिवार्य हैं। 'अनिवार्य' भी जानते हो कहाँ से आता है? जिसका कोई निवारण नहीं हो सकता, जो अनिवार है। दुर्निवार भी नहीं, जो अनिवार है, वो हुआ अनिवार्य। तो ग्रन्थ अनिवार्य भी नहीं हैं। वो बेचारे तो सीधे-साधे साधन हैं। आपके सामने हैं, आपकी कृपा हुई तो उनके पृष्ठ कुछ प्रकाश आपको दे पाएँगे, नहीं तो नहीं।
लोगों के घर में धर्मग्रंथ पड़े ही रहते हैं न खूब? यहाँ कोई ऐसा है जिसके घर में कोई ग्रन्थ न हो? कोई है ऐसा? धूल जमी होती है उन पर। या उनको कपड़े में बाँध करके, सुगन्धित लाल और पीले वस्त्र में बाँध करके रखा जाता है, उन पर चन्दन का टीका कर दिया जाता है, पाँव भी छू लिए जाते हैं। बस उनको कभी खोला नहीं जाता, पढ़ा नहीं जाता। लोग पंखा भी झल लेते हैं उनको। पढ़ेंगे नहीं बस।
(ऊपर की इंगित करते हुए) वो (परमात्मा) आवश्यक है, जिसको आप अपने से बाहर देखें तो कह लीजिए भगवान, निराकार सम्बोधित करें तो कह लीजिए ब्रह्म और अपने भीतर अगर उसको पाना है तो कह लीजिए शांति, कह लीजिए बोध। वो आवश्यक है, है न? ऐसा कोई है यहाँ पर जो कहे शांति आवश्यक नहीं है? ऐसा तो कोई नहीं होगा न।
शांति आवश्यक है। वो आपको अगर ग्रंथों के बिना मिल रही हो तो कोई ज़रूरत नहीं ग्रंथों की। बोध आवश्यक है। वो आपको अगर ग्रंथों के बिना मिल रहा हो तो ग्रंथों को छुए भी न। पर मैं पूछ रहा हूँ कि ऐसा होता है? क्या हम स्वप्रदीप्त हैं, सेल्फ-इल्युमिनेटेड , कि भीतर से ही ज्ञान फूट पड़ेगा? वैसा हो सकता है, पर होता वैसा करोड़ों, अरबों में किसी एक के साथ है।
हम ऐसे नहीं हैं कि अनायास हमारे भीतर से प्रकाश फूट पड़े। हम ऐसे भी नहीं हैं कि प्रकाशित हो ही नहीं सकते। हम कैसे हैं? बहुत पुरानी उपमा है मोमबत्ती या दीये की, हम वैसे हैं। न तो हम जुगनूं जैसे हैं कि बाहर से रोशनी नहीं चाहिए, हमारी अपनी रोशनी है, न हम सूरज जैसे हैं कि हमारे पास अपनी रोशनी तो है ही, दूसरों को भी देंगे और न ही हम कोयले की खदान जैसे हैं कि हम पर कितनी भी रोशनी डाल दो, हम कभी प्रकाशित नहीं होने वाले।
हम बीच के हैं। हम कैसे हैं? दीये जैसे। अपनी तो रोशनी हमारी छुपी हुई है, लेटेंट है। रोशनी है हममें लेकिन छुपी हुई, सोई, प्रसुप्त। कोई और हो रोशन और आ करके हमें स्पर्श कर जाए तो हम बिल्कुल उसके जैसे हो जाते हैं जिसने छू दिया हमको। कोई दूसरी मोमबत्ती आकर छू जाए हमें तो हम भी रोशन हो जाते हैं। और ये जो रोशनी है, वो फिर उस मोमबत्ती की नहीं है, वो हमारी है। वो आ गई, हमें जगा गई, हम जाग गए।
और जाग्रति, जाग्रति में भेद नहीं होता है। आप यह नहीं कह सकते कि आपकी जाग्रति उधार की है। कोई सो रहा है, आप जगे हुए हैं, आपने उसे झंझोड़कर जगा दिया, तो अब वो जो उसको जाग्रति मिली है, वो उधार की है? क्या उसे वो आपको लौटाएगा सूद समेत? आप उससे ऐसा कहेंगे, दावा करेंगे, ताना मारेंगे कि “देखो, ये तुम्हारी जाग्रति है, ये वास्तव में मेरी है, मैंने तुम्हें दी है”? ऐसा तो नहीं होगा न?
ग्रन्थ मोमबत्तियाँ हैं, ग्रन्थ दीये हैं। वो आपको छू जाएँ तो आपको जगा जाते हैं, प्रकाशित, प्रदीप्त कर देते हैं। नहीं छुएँ तो फिर आप इंतज़ार करते रहिए कि कभी संयोगवश, अनुकंपावश आपके भीतर से भी किरण फूटेगी। और फूट सकती है, पर फिर आपमें सब्र होना चाहिए लाखों वर्ष इंतज़ार करने का। कोई बाहरी प्रभाव न भी हो तो भी ऐसा हो सकता है कि मोमबती अनायास ही जल उठे। हो तो सकता ही है, लेकिन वैसी घटना कभी लाखों साल में एक बार घटेगी। आपके पास उतना समय हो तो ज़रूर प्रतीक्षा करें।
यह पहली बार नहीं हो रहा है कि कोई मुझसे पूछ रहा है कि ग्रन्थ आवश्यक हैं या नहीं। बहुत बार पूछा गया है और मैं हर बार यही कहता हूँ कि आवश्यक नहीं हैं लेकिन तुम देख लो कि तुम्हारा काम उनके बिना चलेगा या नहीं चलेगा। ग्रन्थ तो एक साधन मात्र हैं। तुम्हें उनसे बेहतर कोई साधन मिल गया हो तो मत छुओ ग्रंथों को। या तुम्हें ग्रंथों से अरुचि हो गई हो, तुम्हें ग्रंथों की कोई ज़रूरत न दिखाई देती हो तो मत छुओ। पर अपनी ज़िन्दगी को देखो और मुझे बताओ कि उनके बिना काम चल जाएगा क्या?
हमारा दावा क्या है, यह तो आप देखिए थोड़ा। हमारा दावा है कि ज़िन्दगी में छोटी-से-छोटी बात, वह मुझे बताई दूसरों ने। हाथ पकड़कर अ से अनार लिखवाया माँ ने, ठीक? भारत की राजधानी नई दिल्ली है, ये भी कोई दूसरा न बताता तो भी हम जान नहीं पाते। आज हम बहुत ज्ञानी हो गए हैं तो भी सुबह उठ करके अखबार पढ़ते हैं, तब दुनिया का हालचाल पता चलता है, अर्थात दुनिया का पता हमें किसी के माध्यम से ही मिलता है। हम कह रहे हैं कि दुनिया की जो छोटी-से-छोटी और टुच्ची-से-टुच्ची सूचना भी है, वो भी हमें दी दूसरों ने, है न?
अच्छा, एक बात बताइएगा, आपको किताबें न बताती तो क्या आपको यह भी पता चलता कि आपके बत्तीस दाँत हैं? अरे, आपके दाँत हैं, क्यों नहीं पता होता? और दाँत आँत तो हैं नहीं कि दिखाई नहीं देते। दाँत तो दाँत है, दिखाई पड़ता है कि नहीं पड़ता है? गिना जा सकता है न? दिल पर हाथ रखकर कहिएगा, किताबों ने नहीं बताया होता तो क्या आपको पता होता कि आपके बत्तीस दाँत हैं?
अब एक सूचना दिए देता हूँ। बहुत बड़े-बड़े विद्वान हुए हैं जिन्हें नहीं पता था कि आदमी के मुँह में बत्तीस दाँत होते हैं। अरस्तू को भी नहीं पता था कि बत्तीस दाँत होते हैं, इतना ही नहीं, अगर मैं ठीक याद कर पा रहा हूँ तो अरस्तू का यह भी दावा था कि औरतों के मुँह में आदमियों की अपेक्षा ज़्यादा दाँत होते हैं। उसके तीन बीवियाँ थीं, तब भी उसे यह लगता था कि औरतों के ज़्यादा दाँत होते हैं। ऐसे तो हम हैं। कोई बाहर वाला न बताए तो हमें दाँत का भी पता नहीं।
अच्छा, आपको आज जितने वैज्ञानिक तथ्य पता हैं, मुझे बताइएगा इनमें से आपने कितने जाने हैं ख़ुद प्रयोगशाला में परीक्षण करके? कितने जाने हैं? भाई, प्रयोगशाला उपलब्ध है, जाइए, परीक्षण करिए, ले लीजिए तथ्य। ख़ुद जाना है क्या? अच्छा बताइए, कोई न बताता तो आपको पक्का पता होता कि पृथ्वी गोल है? है कोई यहाँ पर जो दावे के साथ कह सकता है कि "किताबों में न भी लिखा होता तो भी मैं जान जाता कि पृथ्वी तो गोल है ही, ये बहुत सीधी सी बात है, बट ऑब्वियस्ली ''?
होंगे आप बड़े होशियार, हुनरमंद, आप इतना न जान पाते कि पृथ्वी गोल है। आदमी हज़ारों सालों तक नहीं जान पाया कि पृथ्वी गोल है। तो हम कह रहे हैं कि "टुच्ची-से-टुच्ची बात भी हमें तब पता चलती है जब कोई दूसरा बताए। हाँ, आत्मज्ञान, सत्य, वो तो हम ख़ुद ही पता लगा लेंगे। देखिए, उसके बारे में हमें कोई बताए न। ये ऋषि-मनीषी इनके तो नाम से मचती है हमें। हम इनके ग्रन्थ खोलना नहीं चाहते। ये सब तो हम ख़ुद ही पता कर लेंगे। हमें अखबार पढ़ने की ज़रूरत है, उपनिषद् पढ़ने की ज़रूरत नहीं है।"
देखिए साहब, आप उपनिषदों को माफ़ करें। आपने अभी वक्तव्य दिया है, उसके बाद आप उपनिषद् पढ़ेंगे तो भी आपको कुछ मिलने वाला नहीं। पर ज्ञानियों की, आधुनिक इंडीविजुअलिस्ट्स (व्यक्तिवादियों) की यह बड़ी ज़िद रहती है, वो कहते हैं कि हमें और सब चीज़ों के बारे में कोई बाहर का बता दे तो बता दे, जीवन के बारे में हमें मत बताना, वो हम अपने अनुभव से, लाइफ एक्सपेरिएंसेस से सीखेंगे। ऐसे लोग मिले हैं कि नहीं? वो कहते हैं कि ये सब बातें क्या बता रहे हो तुम—डर, प्रेम, सत्य, भ्रम? हम भी जी रहे हैं, क्या हम ख़ुद नहीं जान सकते?
उसको पूछो, “तुझे अपने दाँत पता हैं?” तुझे अपने दाँत तो पता नहीं कि कितने हैं, तुझे सत्य पता चल जाएगा अपने-आप? तेरे शरीर में क्या बीमारी लगी है, यह जानने लिए तू फुदककर डॉक्टर के पास जाता है और तेरी अंतरात्मा में क्या बीमारी लगी है, यह तू ख़ुद पता लगा लेगा? कहता है, “हाँ।” जानते हो ऐसा क्यों कहता है वो? क्योंकि उसकी अंतरात्मा में बीमारी लगी है। चूँकि वो भीतर से बीमार है इसीलिए कह रहा है कि अपनी भीतरी बीमारी मैं ख़ुद ही पता लगा लूँगा। कोई पागल ही कहता है न कि अपने पागलपन का ख़ुद इलाज कर लूँगा?
अगर आप पर पागलपन थोड़ा-थोड़ा सवार हो रहा हो तो आप सबसे पहले क्या करते हैं? चिकित्सक के पास जाते हैं, है न? अगर आप पाते हैं कि आपका मन विचित्र गतियाँ कर रहा है तो आप तुरंत फ़ोन करते हैं, अपॉइंटमेंट लेते हैं और जाते हैं मनोचिकित्सक के पास। करते हैं यही न? ये आप तब करते हैं जब आपका पागलपन थोड़ा सा है। और जब आपका पागलपन पूरा ही हो जाए, तब आप क्या कहते हैं? तब आप कहते हैं, “ओ सब पागलों, इधर आओ। डॉक्टर साहब पधारे हैं, आज तुम्हारा इलाज होगा।” है न? ऐसे हम हैं।
अगर हम थोड़े से पागल होते हैं तो शास्त्रों और ग्रंथों के पास जाते हैं, क्योंकि हमें पता है कि कुछ गड़बड़ हो गई है हमारे साथ, हमें सहायता चाहिए कोई, साधन चाहिए कोई, तो फिर जाएँगे ग्रंथों के पास। ये बता रहा है कि अभी पागलपन थोड़ा है। अभी बचने की उम्मीद है। और जब पागलपन पूरा ही बढ़ जाता है, तब हम कहते हैं, “*नो-नो, आई विल मैनेज ऑन माय ओन, यू डोंट नीड टू टेल मी*” (मैं ख़ुद ही अपना इलाज कर लूँगा, तुम्हें बताने की ज़रूरत नहीं है)। या फिर कि “ये सब बातें तो अब पुरानी पड़ गई न।”
तो पाइथागोरस थ्योरम कितना पुराना है? कितना पुराना है? भाई, पाइथागोरस जितना पुराना है, पच्चीस-सौ साल पुराना है। तो ख़ारिज कर दो उसको, बेकार ही होगा। और ये थोपड़ा कितना पुराना है? ये तो हज़ारों, लाखों साल पुराना है। तब भी जो लोग थे उनका मुँह ऐसा ही होता था। इसको भी बोल दो कि ये बेकार है। दो आँखें लेकर काहे को घूम रहे हो, ये तो बहुत पुरानी बात है। या तो तीन करो, और तीन नहीं हो रही तो ये दोनों फोड़ डालो। पुरानी चीज़ काहे रखे हुए हो अपने चेहरे पर, पुराने चेहरे पर? कुछ लेटेस्ट करते हैं न, कटिंग एज * । कोई बढ़िया * कटिंग एज ले करके आओ और उससे कटिंग कर दो। चेहरे पर भी कुछ कटिंग एज काम करो न, या सारे कटिंग एज काम तुम्हें अध्यात्म में ही करने हैं?
कहते हो कि अब वो पहले वाला अध्यात्म पुराना हो गया, अब हम शास्त्र और ग्रन्थ नहीं पढ़ते। अब आजकल के जो नए-नवेले शास्त्री हैं, हम उनकी किताबें पढ़ते हैं। वो कहते हैं, “नहीं-नहीं, पुरानी किताबें पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं। हम तुमको अध्यात्म का नया विज्ञान बताएँगे।”
जो समयातीत है, वो समय में पुराना कैसे हो सकता है? जो समय से आगे का है, वो पुराने समय का कैसे हो सकता है, बताओ? बोलो। तो ग्रंथों को लेकर यह अनादर क्यों है फिर मन में? और ग्रन्थ कोई स्वार्थ नहीं रखते, वो नहीं कह रहे कि जीवनभर उनसे चिपके रहो तुम। वो तो ख़ुद कह रहे हैं कि जब तर जाओ तो हमें छोड़ देना।
ग्रन्थ कहते हैं कि हम चिता की लकड़ी की तरह हैं। तुम्हारे भीतर जो कुछ मुर्दा है, उसको जला देंगे और साथ-साथ ख़ुद भी जल जाएँगे। ग्रन्थ कहते हैं कि हम चिता की लकड़ी हैं। तुम्हारे भीतर जो कुछ भी मृत है, उसको जला देंगे और फिर ख़ुद भी जल जाएँगे। तुम्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी।
सिर्फ़ और सिर्फ़ किसी बुद्ध को अधिकार है यह कहने का कि वेदों की ज़रूरत नहीं। सिर्फ़ और सिर्फ़ किसी कबीर को अधिकार है यह कहने का कि वेद भी अधर्म को धर्म बता देते हैं। गीता से आगे निकल जाने का अधिकार सिर्फ़ उसको है जो कृष्ण जैसा हो। क्या कृष्ण को ज़रूरत है गीता पढ़ने की? आप अगर कृष्ण हो गए हों तो गीता छोड़ दीजिए। पर क्या आप कृष्ण हो गए हैं?
अहंकार को बहुत अच्छा लगता है कहना कि मुझे गीता की क्या ज़रूरत है? यह कह करके वो अप्रत्यक्ष तौर पर यही कह रहा है कि मैं तो साहब, कृष्ण से कमज़ोर थोड़े ही हूँ। मैं क्या करूँगा गीता पढ़कर? गीता तो कमज़ोर लोगों के लिए है, अर्जुन जैसे। मैं होता उस समय तो अर्जुन को आधा बाण मारता, कहीं का नहीं बचता बच्चू! और बाण मारने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, आँख दिखाकर मार देता। कमज़ोर था पट्ठा, तभी तो कृष्ण के पाँवों में जाकर बैठ गया और बोल रहा है, “मधुसुदन, केशव, कुछ ज्ञान दें।”
अरे! हम आज के लोग हैं। हम किसी के सामने नहीं झुकते। ”आई ऍम द हाईएस्ट अथॉरिटी (मैं सर्वोच्च सत्ता हूँ)"। जो मुझे सही लगता है, मैं वही करता हूँ। तो कोई गीता इत्यादि नहीं चाहिए मुझे। ग्रन्थ पढ़ने का तो अर्थ हुआ ग्रंथकार के सामने झुक जाना न, नहीं झुकूँगा।
मैं अखबार के सामने झुक सकता हूँ, ग्रंथकार के सामने नहीं। अखबार में दो टके का कॉलम लिखा होगा और उसको तुम बड़े रस से पढ़ लोगे। पढ़ते हो कि नहीं? क्या बात बोली, क्या बात बोली! किसने लिखा है? अरुण कुमार। ये किसने लिखा है? पद्मिनी बैनर्जी। और उसने ये दनादन अंग्रेजी मारी है, बिल्कुल उलट दिया है और कह रहे हो कि क्या बात है, क्या बात है, क्या लिखा है, वाह! तब काहे नहीं कहते कि मैं इनकी बात क्यों पढूँ, या कहते हो? तब तो पिक्चर भी देखने जाते हैं तो रिव्यू पढ़कर। तब क्यों नहीं कहते कि हम किसी और की बात क्यों सुनें? कार भी खरीदते हो तो पहले क्या देखते हो? रेटिंग , होटल की बुकिंग भी कराते तो पहले क्या देखते हो? *रेटिंग*।
पर जब ग्रंथों का मसला आता है तो कहते हो कि नहीं, हम किसी की नहीं सुनते। ग्रन्थ पढ़कर तो आदमी बड़ा बायस्ड (पक्षपाती) हो जाता है। कम्युनल (सांप्रदायिक) हो जाएँगे, भाई, अगर ग्रन्थ पढ़ लिए तो। इनमें बड़ी दक़ियानूसी और घिसीपिटी बातें लिखी हैं, बिगेट (कट्टर) कहलाएँगे।
घर में अगर उपनिषद् हों तो उनको किसी तहखाने में छुपाकर रख दो। और खासतौर पर मेहमानों को, और वो भी अगर इंटेलेक्चुअल लिबरल मेहमान हैं, उन्हें बिल्कुल पता नहीं चलना चाहिए कि घर में उपनिषद् हैं। कहेंगे, “हैं? तुम इतने पिछड़े निकले? तुम पद्मिनी बैनर्जी छोड़ करके उपनिषद् पढ़ने लगे? धिक्कार!”
तो ये बड़ा फैशन बनता जा रहा है कि मैं तो देखिए साहब, ग्रन्थ इत्यादि नहीं पढ़ता। लोग इस बात को गर्व लेकर बताते हैं, “*आई हैव नॉट रेड एनी स्क्रिप्चर्स*” (मैंने कोई ग्रन्थ नहीं पढ़े हैं)। जब कोई कहे, “आई हैव नॉट रेड एनी स्क्रिप्चर्स ,” वो करीब-करीब ऐसा ही है कि कोई बोले, “मैं अशिक्षित हूँ।” यह बात गर्व की नहीं है, यह बात निहायत शर्मनाक है। जो यह बात कहे, उसको लज्जा आनी चाहिए कि मैंने कोई ग्रन्थ नहीं पढ़ा। पर यह बात आजकल गौरव का प्रतीक बन गई है। “नहीं, हमारे घर में तो कोई ग्रन्थ नहीं है, *वी आर सेक्युलर एंड लिबरल*” (हम पंथनिरपेक्ष और उदारवादी हैं)।
फिर बताए देता हूँ, जिस घर में धर्मग्रन्थ नहीं हैं, वो घर भूतों का अड्डा है। भूतों का ऐसा अड्डा जहाँ आने से भूत भी घबराएँ। और जब मैं घर कह रहा हूँ तो मेरा अर्थ सिर्फ़ ईंट-पत्थर से नहीं है, मन से है। ये भी घर है। अगर इस घर में ग्रन्थ नहीं हैं तो ये घर भूतों का अड्डा है। ऐसा डरावना श्मशान हैं जहाँ आते भूत-प्रेत थर्राते हैं, आदमी की क्या बिसात?
जब छोटा भूत का बच्चा भुत्तु शोर मचाता है तो भूतनी उससे क्या बोलती है? बेटा, चुप हो जा, नहीं तो ऐसे घर भेज दूँगी जहाँ गीता और ग्रन्थ नहीं हैं। और भुत्तु बिल्कुल ख़ौफ़ खाकर चुप हो जाता है। भुत्तु नहीं, यह तो बिल्कुल गँवार नाम है, एकदम देहाती, भुत्स। (श्रोतागण हँसते हैं)
ये जो ‘भुत्स’ जमात है न, यही आगे चल रही है। आपको दिखाई नहीं देता है कि इन्हीं में सबसे ज़्यादा डिप्रेशन (अवसाद), सबसे ज़्यादा एंग्जायटी (चिंता) है? जितना ज़्यादा ग्रंथों के प्रति अपमान से भरता जा रहा है मन, वो उतना ज़्यादा श्मशान की तरह भयावह होता जा रहा है।
सामरिक कारणों से द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सैनिकों में तनाव के स्तर नापा जाता था। भाई, सैनिकों में तनाव ज़्यादा है तो बढ़िया लड़ेंगे नहीं। उनके मनोरंजन वग़ैरह की भी कोशिशें की जाती थीं। कई बार वो कोशिशें बड़ी भद्दी रहती थीं, लेकिन यह ख़्याल रखने की कोशिश की जाती थी कि सैनिकों में तनाव कम रहे। तो तब नापा जाता था टेंशन का, और स्ट्रेस का और एंग्जायटी का स्तर। अभी भी नापा जाता है। जानते हो पाया क्या गया है? उस समय मोर्चे पर जा रहे सैनिकों में जितना तनाव होता था, उससे ज़्यादा तनाव आज के आम आदमी में हो गया है, ख़ासतौर पर युवाओं में। ख़ासतौर पर ये जो तीस वर्ष से कम की पीढ़ी है, ये भयानक रूप से तनाव से ग्रस्त है।
जो लोग पैंतीस-चालीस पार के हों, वो ज़रा याद करके बताएँ कि आपके समय में आप बहुत सुनते थे डिप्रेशन इत्यादि? सुनते थे क्या? आपको दिख नहीं रहा है कि ये धर्महीनता की बीमारियाँ हैं, ये अध्यात्महीनता की बीमारियाँ हैं?
मन सत्य से जितना दूर होगा, उतना ज़्यादा तनाव में जिएगा।
बहुत सारे पहुँचे हुए मनोचिकित्सकों, मनोविश्लेषकों का भी कहना यही है कि हमारी विधियाँ समस्या के मूल तक कभी नहीं पहुँचती, मूल को नहीं मिटा पाती। वो भी फिर कहते हैं कि आखिरी रास्ता रिलिजन (धर्म) है।
प्र५: आचार्य जी, प्रणाम। मुझे कभी-कभी लगता है कि मैं दो हूँ: एक, जो काम कर रहा है और दूसरा, जो उस होते हुए काम को देख रहा है। एक जो बोल रहा है और जो दूसरा है, वो उस बोलते हुए को सुन रहा है। ये जो गतिविधि मेरे मन में चल रही है, क्या यह यथार्थ है या सिर्फ़ मेरा वहम है? इस गतिविधि के फलस्वरूप अक्सर मैं गलत कार्य का विरोध करने में भी असमर्थ रहता हूँ।
आचार्य: टाइम पास खूब मारते हो। तो दो हैं: एक कर रहा है, एक देख रहा है। इन दो का पता तुम्हें कैसे चला? दो हैं, एक कर रहा है, एक देख रहा है। तो ठीक है, एक कर रहा है, एक देख रहा है, इन दोनों का पता तुम्हें कैसे चला? तो माने तीन हैं। एक कर रहा है, एक करने वाले को देख रहा है और एक तीसरा है जाबाज़, जो करने वाले और देखने वाले दोनों को देख रहा है।
ये क्या है? क्या करोगे इसका? "एक कर रहा है, एक देख रहा है," ये सब मन के खेल हैं, भाई। कहीं से कुछ 'साक्षी' वग़ैरह पर तो नहीं पढ़ आए हो? इस तरह की बातें वही ज़्यादा करते हैं। फिर आकर बोलेंगे, “आक्छी! मुझे भी साक्षी हुआ।” कैसे हुआ? “मेरा मन जो कुछ कर रहा होता है, मैं उसको देख रहा होता हूँ।” मन जो कुछ कर रहा है, आप उसको देख रहे हैं, और ये जो देखने वाला है, इसका आपको कैसे पता चला कि ये देख रहा है? अगर कोई देख रहा तो आपको कैसे पता कि वो देख रहा है?
इसका मतलब आप उसे देख रहे हैं। ऐसे फिर तीन ही नहीं होते, ऐसे फिर तीन हज़ार होते हैं। एक-के-पीछे-एक, एक-के-पीछे-एक। कभी आमने सामने दो आईने रखे हों तो देखा है क्या होता है? कितने प्रतिबिम्ब बनते हैं? अनंत। ये वैसा ही है। ये मन के खेल हैं, इनमें कुछ नहीं रखा। ये बस यही बताते हैं कि मन सही, सार्थक, सम्यक काम में डूबा हुआ नहीं है। क्यों नहीं डूबा हुआ है, प्रमाण क्या है?
जब सही काम में मन डूबता है तो उसके हिस्से नहीं बच सकते, खंडित नहीं रह सकता। जब डूबेगा तो पूरा डूबेगा।
कभी देखा है आदमी डूब गया जो पानी में और एक हाथ उसका बाहर हो? होता है क्या? तैरने में ऐसा होता है कि आधे अंदर हैं, आधे बाहर हैं। डूबने में क्या होता है? पूरे ही गए; हिस्से मिट जाते हैं। आप्लावन पूरा होता है न, पूरा।
और जो ये वाली कहानी है, एक कर रहा है, एक देख रहा है, इसमें क्या मौजूद हैं? हिस्से मौजूद हैं। हिस्सों का मौजूद होना ही बताता है कि मन को अभी तक कुछ ऐसा मिला नहीं कि मन के सारे हिस्सों को समेट ले बिल्कुल। कुछ ऐसा मिल ही नहीं रहा मन को कि सारे हिस्से एक हो जाएँ बिल्कुल। वो छितराए पड़े हैं, जैसे लोहे के टुकड़े हों बहुत सारे, वो तो छितराए अपना पड़े ही रहेंगे। छोटे-छोटे, छोटे-छोटे पड़े हुए हैं। और आ जाए कोई शक्तिशाली चुम्बक, फिर उन टुकड़ों का क्या होता है? वो सब एक साथ उछल करके जाते हैं और चुम्बक से चिपक जाते हैं। और चुम्बक से चिपक गए तो चुम्बक से तो एक हो ही गए, आपस में भी एक हो गए। वास्तव में वो चुम्बक ही बन गए। जब तक लोहा चुम्बक के संपर्क में है लोहा भी चुम्बक हो जाता है। अब उस लोहे पर तुम कोई और लोहे का टुकड़ा चिपका सकते हो।
तो मन के ये तमाम खंड भी एक तभी होंगे जब तुम इन्हें चुम्बक दे दोगे। सच को चुम्बक जानो। आत्मा चुम्बक है। आत्मा में गुरुत्वाकर्षण है, वो खींचती है। फिर ये खंड नहीं बचेंगे, न दृश्य, न दृष्टा। कौन सा दृश्य? कौन सा दृष्टा? एक ही दृश्य बचता है जो देखने लायक है। दृष्टा कहता मैं बाकी इधर-उधर के दृश्य क्या देखूँ? तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती, नज़ारे हम क्या देखें! बाकी सब नज़ारे व्यर्थ हो जाते हैं।
फिर कहाँ बताओगे कि मेरे भीतर एक है जो खिड़की से बाहर झाँक रहा है, एक है जो उसके पीछे खड़ा होकर उसकी पीठ देख रहा है और एक है जो बाहर निकल गया है, कि खिड़की के बाहर झाँक रहा है भैया। ये तीन, चार, पाँच, पचास, ये सब ख़त्म। नहीं तो फिर कोई अंत नहीं है। मन से ज़्यादा खडित कुछ हो ही नहीं सकता। और समझ लो खंडित मन से ज़्यादा बड़ा दुःख नहीं है जीवन का।
तुम्हें फ़ुर्सत कैसे मिल गई? मैंने कहा टाइम पास, तुम्हें फुर्सत कैसे मिल गई कि देखो कि मैं ये क्या कर रहा हूँ? ये सब उपचार के लिए ठीक है। कोई विधि बता दे कि ऐसा कर लो कुछ समय के लिए, तुम्हें राहत मिलेगी, तब तक तो ठीक है। पर ये जीने का तरीका नहीं हो सकता।
कबीर साहेब का कथन है। अभी मैंने अहमदाबाद में कहा था। अब पता नहीं मुझे शब्द ठीक से याद हैं कि नहीं, पर वो कुछ ऐसा था कि अगर धरती फटे तो उसके लिए मेघ हैं। धरती फटे माने खंडित हो जाए, दो हिस्से हो जाएँ, तो उसके लिए मेघ हैं। देखा है न जब धरती तपती है तो उसमें दरार पड़ जाती है। और अगर कपडा फटे तो उसके लिए सुई-धागा है।
"धरती फाटै मेघ मिलै, कपड़ा फाटै डोर । तन फाटै को औषधि, मन फाटै नहिं ठौर।।"
धरती माने वो सब कुछ जो प्राकृतिक है, कपडा माने वो सब जो मानव निर्मित है। ये फटें तो उपचार है। प्रकृति में कुछ फटा तो प्रकृति उसका उपचार कर देगी और मानव निर्मित कुछ फट गया तो मानव निर्मित ही दूसरी चीज़ उसका उपचार कर देगी। लेकिन, साहब कहते हैं कि अगर मन फट गया तुम्हारा, तो फिर उपचार बड़ा मुश्किल है।
यही खंडित मन, पचास टुकड़े। कोई उधर देख रहा है, कोई उधर देख रहा है और कोई इन देखने वालों को देख रहा है। ज़िन्दगी में कोई भी ऐसा दस मिनट का अंतराल गुज़ारा है क्या कि जब तुम एक हो और एक ही दिशा देख रहे हो? यहाँ भी आप बैठे हैं तो बीच-बीच में इधर-उधर के ख़याल आ जाते हैं कि नहीं? यही कहलाता है मन का फटना।
मन एक रहे। होश ही न रहे ख़ुद को देखने का। ये जो चीज़ है न आत्म-अवलोकन, मैं भी इसकी बात करता हूँ, बहुतों को विधि के तौर पर दिया है, पर यह पक्का समझ लेना कि ये है सिर्फ़ दवाई, और दवाई भोजन नहीं होती। अपने ऊपर देखना कोई अच्छी बात होती है क्या? खुसरो साहब का याद है? कि सज-संवर के गई थी मैं पिया को रिझाने के लिए, और जो छब देखि पीयू की, मैं ख़ुद को भूल गई।
अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई। जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई॥ —आमिर खुसरो
अपने को देखना भूल जाता है आदमी। कोई ऐसा जीवन में आ जाए कि मन पूरा एक हो करके बस उसको देखने लग जाए, फिर अपने को देखना भूल जाओगे। ये आत्म-अवलोकन वग़ैरह ख़त्म हो जाएगा। फिर आचार्य जी भी पूछेंगे, अरे, कुछ आत्म-अवलोकन करते हो? अपनी ज़िन्दगी को देखते हो कि नहीं देखते हो? आप कहेंगे, बेहतर चीज़ें देखेंगे न हम, और हम अपने-आपको इस काबिल नहीं मानते कि ख़ुद को देखें।आप कहोगे जब सामने 'वो' (परमात्मा) हो तो ख़ुद को कौन देखे?
तो इसमें बहुत गर्व का अनुभव मत किया करो कि हम ख़ुद को देखते रहते हैं। वो भी हम सात-आठ बन गए हैं जो अलग-अलग कोणों से, इधर से, उधर से ख़ुद को देखते हैं। ख़ुद को देख रहे हो मतलब जीवन में अभी ऐसा कुछ मिला नहीं जो ख़ुद से बेहतर हो। जो ऐसा हो कि उस पर नज़र पड़े और अपना आप भूल जाओ कि अब क्या देखना अपने-आपको। तो टाइम पास बंद।
(एक स्वयंसेवक कबीर साहेब का दोहा पढ़ते हैं)
धरती फाटे मेघ मिले, कपड़ा फाटे डोर। तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहिं ठौर॥ —कबीर साहेब
ठीक है? “धरती फाटे, मेघ मिले और कपड़ा फाटे को डौर। तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहीं ठौर।” इसके बाद एक और है, 'मेरे मन में पड़ गई एक ऐसी दरार’।
मेरे मन में पड़ गई, एक ऐसी दरार। फूटा फटिक पाषाण ज्यूँ, मिले न दूजी बार॥ —कबीर साहेब
फटिक माने जो फटिक पत्थर होता है, जैसे पत्थर अगर टूट जाए तो अब तुम उसको सिल नहीं सकते। कह रहे हैं, ऐसी दरार पड़ जाती है आदमी के मन में कि जैसे पत्थर टूट गया हो। टूटा पत्थर क्या दोबारा एक किया जा सकता है? उसका फिर उपचार बस कबीर के राम हैं, और कोई उपचार नहीं होता।
प्र६: एक बीमारी लेकर आया हूँ कि मैं अपने से बहुत प्यार करता हूँ। समाज, परिवार के लोग कहते हैं कि मैं बहुत अच्छा लड़का हूँ लेकिन फिर वही लोग आकर मुझे थप्पड़ भी मार देते हैं। मैं थप्पड़ खा-खाकर ढीठ हो गया हूँ। प्रेम और ज्ञान की बातें मेरी खोपड़ी में पहुँच नहीं पाती। आपसे झन्नाटेदार चोट चाहिए, मरहमपट्टी से काम नहीं चल पा रहा है।
आचार्य: हैं भाई, तुम्हारे कहने से काम करूँगा मैं?
मेरी जब मर्ज़ी होगी, मारूँगा, जब नहीं होगी, नहीं मरूँगा। चोट देने में क्या रखा है? जब चोट तब दी गई जब तुम चाह रहे थे? ये भी एक चोट है कि जब चोट माँगो तो चोट न मिले। चोट तभी झन्नाटेदार होती है जब अनापेक्षित होती है।