सुख की असली परिभाषा क्या? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

13 min
99 reads
सुख की असली परिभाषा क्या? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्नकर्ता: तलब एक हैप्पिनेस (खुशी) है सर, हैप्पिनेस को किस तरह कन्सिडर (मान) कर सकते हैं?...कि मतलब हमारी जो इच्छाएँ हैं वो पूरी हो जाएँ? या उसमें कोई दुख वगैरह उसको कन्सिडर करते हैं? सर एक लाइन (पंक्ति) है कि हर लाइफ़ (जीवन) की एक हैप्पी एंडिंग (सुखान्त) होती है, अगर आप उस समय दुख में हैं तो वो हैप्पी एंडिंग नहीं है, तो वो हैप्पी एंडिंग नहीं है।

आचार्य प्रशांत: तुम लोग कैसी-कैसी तो बातें करते हो, कहाँ-कहाँ से लाइनें लेकर के आते हो, मैं हैरान हूँ। आज शाम को मैं ईशावास्योपनिषद् पर बोलने जा रहा हूँ। इतनी तकलीफ़ मुझे उसको समझने में नहीं हुई जितनी तुम्हारे वचनों को समझने में होती है। किस ऋषि ने ये बात बोली है जो तुमने अभी बोली ये, बताओ? कि हर कहानी की एक हैप्पी एंडिंग होती है और ये सब। ये किस वेद में लिखा है? किस धर्मग्रन्थ से आयी है ये बात?

प्र: सर, फ़ेसबुक की फोटो से...

आचार्य: फ़ेसबुक की फोटो से आयी है। अब मैं यहाँ इसलिए बैठा हूँ कि फ़ेसबुक की फोटोज़ को। (श्रोतागण हँसते हैं।)

आचार्य: तुम क्यों फ़ेसबुक की आड़ी-तिरछी फोटो पढ़ते हो? तुम्हें पढ़ने के लिए कुछ और नहीं है? मैं हैरान, अभी भी झटके में हूँ, सदमे में हूँ; मैं जवाब क्या दूँ तुम्हारी बात का? हर स्टोरी (कहानी) की एक हैप्पी एंडिंग होती है और हैप्पी एंडिंग नहीं हुई है तो अभी...। कौनसी स्टोरी ? हर स्टोरी काल्पनिक है। क्या हैप्पी एंडिंग ? कोई एंडिंग (अन्त) कभी होती नहीं।

प्र: मैंने एक लाइन बोली थी, मैं ऐसे ही पूछ रहा हूँ कि हैप्पिनेस्स में क्या कन्सिडर करेंगे?

आचार्य: हाँ, ये ठीक है। ये अच्छा सवाल है, ये ठीक है। अगर हैप्पिनेस ये है कि तुम्हें कुछ पाना है, वो तुमने पा लिया तो कुछ बातों को बहुत ध्यान से समझना। पाना कभी रुक तो नहीं जाता? पाना कभी रुक तो नहीं जाता? आज ‘अ’ की तलाश है, फिर ‘ब’ की तलाश है। ‘अ’ ‘ब’ में बदल गया, फिर ‘क’ की तलाश है। ‘ब’ ‘क’ में बदल गया, फिर ‘ड’ की तलाश है। ‘अ ब क ड’ बदलते जा रहे हैं पर कुछ है जो बिलकुल नहीं बदल रहा है। क्या नहीं बदल रहा?

श्रोतागण: तलाश।

आचार्य: तलाश। तुम कब कहते हो कि तुम हैप्पी (खुश) नहीं हो? जब तक कुछ मिला नहीं, मिला नहीं माने क्या बाक़ी है अभी?

श्रोतागण: तलाश।

आचार्य: तलाश। तो माने तलाश का ही नाम अनहैप्पीनेस (दुख) है। एक-एक बात को ग़ौर से पकड़ोगे तो ही समझ में आएगी। जब तुम कहते हो कि मैं अनहैप्पी (दुखी) हूँ तो तुम कह रहे हो कि मुझे ‘अ’ की तलाश है, ‘अ’ अभी मुझे मिला नहीं तो यानी तलाश का ही नाम अनहैप्पीनेस है। अब जब तुम्हें मिलता भी है तो ‘अ’ ‘ब’ बन जाता है, ‘ब’ ‘क’ बन जाता है, ‘क’ ‘ड’ बन जाता है पर कुछ है जो लगातार बचा रह जाता है; वो क्या है?

श्रोतागण: तलाश।

आचार्य: तलाश बची है, मतलब क्या बचा है?

श्रोतागण: अनहैप्पीनेस।

आचार्य: अनहैप्पीनेस बची है। ये तो बड़ी गड़बड़ हो गयी! तुमने सोचा था कि तलाश कर-करके हैप्पी हो जाओगे लेकिन तुम ये पाते हो कि तलाश कर-करके भी बची क्या रह जाती है? श्रोतागण: तलाश।

आचार्य: तो क्या बची रह जाती है?

श्रोतागण: अनहैप्पीनेस

आचार्य: तलाश के साथ क्या बची रह जाती है?

प्र: अनहैप्पीनेस।

आचार्य: अनहैप्पीनेस को अगर तुम्हें बचाए रहना है। दूसरे शब्दों में अगर तुमने तय ही कर लिया है कि तुम्हें दुखी रहना है तो उसका एक बड़ा आसान तरीक़ा है, जीवन भर तलाशते रहो। कभी इसके पीछे भागो, कभी उसके पीछे भागो, सदा कुछ लक्ष्य बनाए रहो कि ये पाना है। ये दुखी रहने का बिलकुल प्रमाणित तरीक़ा है।

और अगर तुम पूछो तो दुनिया जो इतनी आज दुखी नज़र आती है। तुम सड़क पर चलते आम आदमी को देखो, तुम्हें आनन्द टपकता नहीं दिखाई देगा उसके चेहरे से। तुम्हें ऊब दिखाई देगी, बोरियत दिखाई देगी, मजबूरियाँ दिखाई देंगी, और लालच दिखाई देगा, दुख दिखाई देगा। उस दुख का कारण उसकी सतत तलाश है, वो तलाश रहा है और उसको भ्रम हो गया है कि कुछ पाने से उसकी तलाश मिट जाएगी। सच तो ये है कि पाने से तलाश नहीं मिटती। तलाश का मिटना ही पाना है।

बात का अन्तर समझना। कुछ पाने से तलाश नहीं मिटेगी, तलाश के मिटने का नाम ही है पाना। जिसकी तलाश मिट गयी, उसने पा लिया और जो तलाशता ही रह गया, उसने ये तय कर लिया कि जीवन मुझे कष्ट में, दुख में, संताप में बिताना है।

बात समझ में आ रही है? बात बहुत सीधी है।

तलाश के मिटने का नाम है पाना। सवाल में गहरे उतरेंगे। तलाश आयी कहाँ से? तलाश कहाँ से आयी? क्या बच्चा तलाशता हुआ पैदा हुआ था? मैं तुमसे सवाल पूछ रहा हूँ — तुम कब तलाशते हो?

श्रोतागण: जब कुछ कमी महसूस होती है।

आचार्य: जब कुछ कमी महसूस होती है। क्या तुम कमी के एहसास के साथ पैदा हुए थे? हम जानना चाह रहे हैं कि तलाश कहाँ से आयी। सबसे पहले हमने ये देखा कि तलाश ही दुख है। अब हम जानना चाह रहे हैं कि ये दुख, ये तलाश आती कहाँ से है। हम कह रहे हैं कि हम इसके साथ तो पैदा नहीं हुए थे। हमारे भीतर ये भावना डाली किसने कि तलाशना ज़रूरी है?

याद रखो, जब तक तुम्हें ये एहसास नहीं दिलाया जाएगा कि तुम हीन हो और कमज़ोर हो और अपूर्ण हो, तुम तलाशोगे नहीं। क्योंकि कौन तलाशता है?

श्रोतागण: जिसका कुछ खो गया है।

आचार्य: जिसका कुछ खो गया। अगर तुम्हारे भीतर ये एहसास नहीं है कि मेरा कुछ खो गया है तो तुम तलाशोगे नहीं। बात ठीक? जब तक तुम्हें ये एहसास न दिलाया जाए कि तुममें कोई खोट है, कोई कमी है, कोई अपूर्णता है; तब तक तुम तलाशोगे नहीं। और बहुत दुर्भाग्य है हमारा कि समाज और शिक्षा और मीडिया और किताबें और हमारे चारों तरफ़ जो माहौल और प्रभाव हैं वो लगातार हमें यही एहसास दिलाते रहते हैं कि हममें कुछ कमी है। ज्यों ही तुमसे ये कहा गया कि तुममें कुछ कमी है, त्यों ही तुम क्या शुरू कर दोगे?

श्रोतागण: तलाशना।

आचार्य: वो तुम्हें सिर्फ़ इतना ही नहीं बताते कि तुममें कोई कमी है, वो साथ ही तुम्हें ये भी बताते है कि उस कमी को तुम पूरा कैसे कर सकते हो। तुमसे कई बार कहा गया, ‘तुम इज़्ज़त के क़ाबिल तब बनोगे, जब तुम्हारे इतने नम्बर आ जाएँ’ और अगर ये नम्बर नहीं आयें तो तुममें कोई?

श्रोतागण: कमी है।

आचार्य: सिर्फ़ इज़्ज़त की ही बात होती तो भी चल जाता। तुमसे ये तक कह दिया गया कि तुम प्रेम के अधिकारी भी तभी हो जब तुम कुछ हासिल करके दिखाओ। लगातार तुमसे कहा गया कि कुछ कमी है तुममें अगर तुमने कुछ हासिल नहीं किया। तुमसे दो बातें कही जा रही है — पहली, तुममें कुछ कमी है; दूसरी, उस कमी को पूरा करने के लिए कुछ हासिल करो।

ये वैसा ही है जैसे किसी स्वस्थ आदमी को पहले तो कहा जाए कि तू बीमार है। फिर उससे कहा जाए, ‘अपनी बीमारी को दूर करने के लिए जा और अपना ऑपरेशन भी करवा।‘ ऑपरेशन वो करवाएगा नहीं जब तक तुम उसको ये कन्विन्स (राज़ी) ही न कर दो कि वो बीमार है। बीमार करना ज़रूरी है। लेकिन दिक़्क़त क्या होती है कि तुमने ऐसे ही लोगों को अपना हितैषी मान लिया है। मैं अक्सर इस मंच से जब तुम से कहता हूँ कि तुम पूरे हो, मूलतः तुममें कोई कमी नहीं है, हीन भावना अपने भीतर मत बैठने दो। ये एहसास लगातार क़ायम रखो कि तुम जैसे भी हो मूलतः ठीक हो। भले तुम सौ बार हारो, भले तुम सौ बार फिसलो, भले तुम्हारे ज्ञान में कमी हो, भले तुमने कुछ अर्जित न किया हो लेकिन फिर भी केन्द्रीय रूप से तुम खोटे सिक्के नहीं हो।

मैंने तुमसे सौ बार ये बात बोली है लेकिन ये बात स्वीकार करने में तुम्हें हमेशा हिचक होती है। तुम्हें यकीन ही नहीं होता, तुम कहते हो, ‘सर ऐसा कैसे हो सकता है? हमारे मन में ये बात बैठ गयी है कि हम छोटे हैं, क्षुद्र हैं।‘

इसी मंच से एक दूसरा व्यक्ति आए जो तुम से बार-बार बोले कि देखो तुममें बहुत कमियाँ हैं और मैं उन कमियों को दूर करने के तरीक़े बता रहा हूँ । तुम्हें बड़ा अच्छा लगता है। लगता है कि नहीं? तुम कहते हो देखो ये हमारा शुभचिंतक है। देखो, ये हमारी कमियाँ दूर करने के तरीक़े बता रहा है।

तुम ये नहीं समझते कि जो तुम्हारी कमियाँ दूर करने के तरीक़े बता रहा है, वो सर्वप्रथम तुम्हें ये एहसास दिला रहा है कि तुममें कमी?

श्रोतागण: है।

आचार्य: है। जो तुमसे ये कह रहा है कि मैं तुम्हारी लाइफ़ को बेहतर बनाने के तरीक़े बता सकता हूँ। तुम देख नहीं पा रहे हो वो तुमसे अभी क्या कह रहा है? वो तुमसे कह रहा है, ‘ज़िन्दगी बेहतर हो सकती है।‘ मतलब अभी कैसी है?

श्रोतागण: अभी ठीक नहीं है।

आचार्य: अभी ठीक नहीं है और तुम उसकी बात सुन लेते हो। तुम गाने गाते हो, ‘हम होंगे क़ामयाब, हम होंगे क़ामयाब एक दिन।’ अगर तुम एक दिन क़ामयाब होगे तो पक्का है कि आज क्या हो?

श्रोतागण: नाक़ामयाब।

आचार्य: नाक़ामयाब। पर तुम ये गीत गाये जाते हो, गाये जाते हो बिना ये समझे कि तुम अपने भीतर हीन भावना भरे जा रहे हो। एक विज्ञापन आता है टीवी पर और उसमें लिखा रहता है, ‘एक शर्टिंग द कम्प्लीट मैन’, ‘रेमंड्स द कम्प्लीट मैन‘ (रेमंड पूर्ण मनुष्य) तुम कहते हो, ‘बहुत अच्छी बात, ये मेरा शुभचिंतक है। ये मुझे कम्प्लीट मैन (पूर्ण मनुष्य) बनाना चाहता है।‘ तुम समझते ही नहीं कि जो तुम्हें कम्प्लीट मैन बनाने का वादा कर रहा है, वो तुमसे कह रहा है कि अभी तुम क्या हो?

श्रोतागण: इनकम्प्लीट (अपूर्ण)।

आचार्य: तुम्हें उसकी गर्दन पकड़ लेनी चाहिए। उसकी जगह तुम जाकर उसे पैसे दे जाते हो, उसका कपड़ा ख़रीद लाते हो। हज़ार तरीक़ों से तुम्हारे भीतर ये ज़हर भरा जाता है कि तुममें कोई खोट है और फिर तुम्हें ताज्जुब होता है कि ‘सर, हममें इतनी हीन भावना क्यों आ गयी है? सर, हम बोल क्यों नहीं पाते? सर, अपने दम पर चलने पर हमारे पाँव क्यों काँपते हैं? सर, हम ज़माने के सामने डँटकर खड़े क्यों नहीं हो पाते? सर, वो मेरा जो सिर है वो हमेशा ग़ुलामी में झुका क्यों रहता है?’

तुम्हारा सिर ग़ुलामी में हमेशा इसीलिए झुका रहता है क्योंकि बचपन से वही हीन भावना ‘स्लो प्वाइज़न’ (धीमा ज़हर) की तरह अब तुम्हारे रक्त में ही मिल गयी है। लेकिन अफ़सोस करने की कोई बात नहीं, जैसे ही तुम इस बात को समझोगे, तुम उस हीन भावना से मुक्त हो जाओगे क्योंकि वो हीनता तुम्हारा स्वभाव नहीं। तुम्हारा स्वभाव विशालता है, तुम पूरे हो, बड़े हो, वृहद् हो।

मैं तुमसे कह रहा हूँ, ‘कभी किसी ऐसी आवाज़ को तवज्जो मत देना जो तुम्हें छोटे होने का एहसास कराती है क्योंकि इससे बड़ा अपराध तुम्हारे साथ किया नहीं जा सकता कि तुम्हारे मन में ये बात डाल दी जाए कि तुम तो तुच्छ हो और कोई सीधे-सीधे आकर नहीं कहता कि तुम तुच्छ हो। तुम्हें तुच्छ बताने के लिए तुम्हें सपने दिखाये जाते हैं तुमसे कहा जाता है, ‘एक दिन बड़े आदमी बनना।‘ अगर तुम्हें एक दिन बड़ा आदमी बनना है तो आज क्या हो तुम?

श्रोतागण: छोटे।

आचार्य: और तुम बड़े मज़े से सुने जाते हो कि हाँ, मैं तो छोटा आदमी ही हूँ, मैं तो छोटा आदमी ही हूँ। तुमसे कहा जाता है, ‘यू मस्ट वर्क हार्ड टु गेट सक्सेस (सफलता पाने के लिए आपको कड़ी मेहनत करनी होगी)’ और तुम सुने जाते हो। तुम ये नहीं देख रहे हो कि तुम पर अभी ‘अनसक्सेसफुल (असफल)’ होने का ठप्पा लगाया जा रहा है। मैं तुमसे कह रहा हूँ मस्त जियो, दम लगाकर पढ़ाई करो। तुम्हें कोई दौड़ दौड़नी है तो खूब दौड़ो लेकिन उसके परिणाम के साथ अपनी क़ीमत को मत जोड़ दो। परिणाम अनुकूल आया तो भी तुम क़ीमती हो और परिणाम प्रतिकूल आया तो भी तुम उतने ही क़ीमती हो। दिल छोटा मत करना।

बात समझ में आ रही है?

परिणामों के फेर में मत पड़ना। परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी मत होने दो क्योंकि जो भी दौड़ तुम दौड़ोगे उसमें सदा तो नहीं जीतोगे। जीत-हार तो खेल हैं, लगे रहते हैं। मैं तुमसे कह रहा हूँ, ‘परिणामों में तुम सबसे ऊपर पाओ अपनेआप को तो फूलने मत लग जाना और अगर सबसे नीचे पाओ अपनेआप को तो छोटा मत अनुभव करने लग जाना।‘ तुम जो हो सो हो। तुम्हारी क़ीमत निर्भर ही नहीं करती बाहर की परिस्थितियों पर। तुम कितना कमा रहे हो, दुनिया तुम्हें कितनी प्रतिष्ठा देती है, इन बातों से तुम्हारी क़ीमत का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। तुम अपनेआप में पूर्ण हो, सोवेरन हो।

क्या ये बात समझ में आ रही है?

हम तलाश पर थे, हम तलाश की बात कर रहे थे। मैं तुमसे कह रहा हूँ तुम्हें जो तलाशना है तलाशो पर पहले पा लो, फिर तलाशो। बात थोड़ी टेढ़ी है, समझने के लिए ध्यान देना पड़ेगा। आमतौर पर हम तलाशते क्यों हैं?

श्रोतागण: पाने के लिए।

आचार्य: पाने के लिए। जब आप पाने के लिए तलाशते हो तो मन में कैसा भाव रहता है?

श्रोतागण: कमी है।

आचार्य: कि कुछ कमी है और तलाश रहा हूँ ताकि कुछ मिल जाए और वो कमी?

श्रोतागण: पूरी हो जाए।

आचार्य: मैं कह रहा हूँ, ‘ऐसा कर लो कि पहले इस भाव में स्थापित हो जाओ कि कमी कोई नहीं है, सबकुछ बढ़िया है, उसके बाद तलाशो।‘

तुम कहोगे, ‘अब तलाशें क्यों?’

मैं कहूँगा, ‘ऐसे ही, मज़े के लिए, खेल-खेल में।‘ खेलते हो तो तलाशते नहीं हो क्या? छुपन-छुपाई, छुपन-छुपाई में क्या करते हो? ख़ुद ही छुपते हो और ख़ुद ही तलाश भी लेते हो। खेल है, ऐसे तलाशो। ऐसे नहीं तलाशो कि जैसे कोई वास्तव में बड़ी क़ीमती चीज़ खो गयी है।

आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories