सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।
हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १७, श्लोक ३
प्रश्नकर्ता: चरण स्पर्श, आचार्य जी। इस श्लोक में श्रीकृष्ण श्रद्धा की बात कर रहे हैं, कह रहे हैं कि श्रद्धा भी सात्विक, तामसिक, राजसिक होती है। हम अपनी श्रद्धा के रूप को कैसे समझें? कैसे जानें कि हमारी श्रद्धा कैसी है और फिर इसका विकास कैसे करें? कृपया समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: श्रद्धा वास्तव ने प्रकृति के गुणों के अधीन होती नहीं। पर यही तो श्रीकृष्ण की खूबी है, उनका वैशिष्ट्य है कि ऐसे समझाया है उन्होंने कि बात सबको समझ में आ जाए। और इसीलिए गीता दुनिया के सबसे ज़्यादा प्रभावी आध्यात्मिक ग्रंथों में से है।
तो तीन प्रकार की श्रद्धा की आपने बात करी। मैं इन तीनों की बात करूँगा, फिर एक चौथी की भी बात करूँगा।
अहम् प्रकृति का ही एक रूप है। उसे रूप कह लो, हिस्सा कह लो, अंश कह लो, अवयव कह लो, जो कहना चाहो। और जहाँ अहम् है, वहाँ कोई मान्यता है; जहाँ मान्यता है, वहाँ निष्ठा है। उसी निष्ठा को कई बार आप आस्था कह देते हैं। ‘आस्था’ शब्द समझते हैं? वो 'स्थ', स्थापना से जुड़ा हुआ, स्थान से जुड़ा हुआ है। जहाँ जाकर बैठ गए हो, उससे जुड़ा हुआ है। अहम् को कहीं-न-कहीं जाकर बैठना होता है, किसी-न-किसी से जुड़ना होता है, किसी-न-किसी जगह पर स्थापित हो जाना होता है। वही आस्था है, वही निष्ठा है।
लेकिन आम व्यक्ति आस्था और निष्ठा को ही श्रद्धा समझ लेता है। ये श्रीकृष्ण की करुणा है कि वो आम आदमी की भाषा में बात कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि तुम पूरी तरह प्रकृति के वशीभूत हो। तो तुम जिसको अपनी आस्था और निष्ठा कहते हो, वो भी तो प्रकृति के वशीभूत ही है न। और कितने सुंदर तरीके से कह रहे हैं, “सब मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के जैसी ही होती है।” ये पुरुष ही तो श्रद्धामय है, इसीलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा रखता है, वो स्वयं भी वैसा ही है।
किसी इंसान को जानना है, किसी व्यक्ति के मूल अहम् को जानना है तो ये देख लो कि उस व्यक्ति की आस्था और निष्ठा कैसी है, अंततः उसकी श्रद्धा कैसी है।
तो अब तीन तरह के लोग हो सकते हैं या ऐसे कह लो कि मोटे तौर पर तीन तरीके के हो सकते हैं। और जितने भी लोग होते हैं, वो सब इन्हीं गुणों के अलग-अलग अनुपात में मिश्रण मात्र होते हैं – सात्विक, राजसिक, तामसिक।
तो ये जो तामसिक अहंकार है, इसे भी आस्था भी करनी पड़ेगी न, क्योंकि अहंकार का ही मतलब है आस्था। उसे किसी-न-किसी से जाकर जुड़ना है। तो आस्था तो सबमें ही होगी, चाहे वो तामसिक हो, चाहे वो राजसिक हो। हाँ, जो तामसिक अहंकार है, वो किसमें आस्था रखेगा? वो सब प्रकार की मूर्खताओं में आस्था रखेगा।
और इसी अध्याय के अन्य श्लोकों में श्रीकृष्ण ने बड़ा विविध विवरण दिया है कि जो तामसिक आस्था होती है, जिसको कह रहे हैं तामसिक श्रद्धा, वो कैसी होती है? वहाँ पर किसके प्रति आप निष्ठावान हो जाते हो? कह रहे हैं, “राक्षसों के प्रति, सब तरह की दुष्टताओं की प्रति।” आपकी उनमें बड़ी आस्था आ जाती है। आप कहते हो कि ये सही जगह है, इससे जुड़ जाएँगे तो शांति मिल जाएगी। ये वो आदमी है जो जेब में देसी कट्टा ले करके चलता है और सोचता है कि इस प्रकार का बल अगर मिल गया तो मुझे बड़ा चैन मिलेगा, सुकून मिलेगा, सब डरेंगे मुझसे। ये है राक्षसी बल के प्रति आस्था रखना।
फिर वो आता है जो राजसिक है। वो किसके प्रति आस्था रखता है, जिसको आप कह दोगे राजसिक श्रद्धा? वो आस्था रखता है उन सब देवताओं के प्रति जो उसकी मनोकामनाएँ पूरी कर देते हैं। तो वो आस्था रखेगा, उदाहरण के लिए, किसी की कंपनी में काम कर रहा है तो उस कंपनी की व्यवस्था पर। वो कहेगा कि देखो, यहाँ के नियम-कायदों पर चलो, बड़ी तरक्की करोगे। और वो कहेगा कि यहाँ के जो नियम-कायदे हैं, वो मेरे लिए बड़े पवित्र हैं, बड़े अनुकरणीय हैं, बड़े सेक्रेड हैं।
जहाँ तुमने किसी चीज़ को कह दिया सेक्रेड , तहाँ तुमने यही तो घोषित कर दिया कि तुम्हारी उसमें आस्था है। पर तुम्हारी उसमें आस्था क्यों है, भाई? तुम्हारी आस्था इसलिए है क्योंकि तुम्हें ये लालच है कि तुमने इन नियम-कायदों का पालन करा तो तुमको फल मिलेगा।
तुम्हारी ये जो आस्था है, ये फलप्रसू है। ये तुम्हें कुछ फल देगी, इसलिए तुम आस्था रख रहे हो। तुम कुछ पा लेना चाहते हो। और पा भी क्या लेना चाहते हो? वो जो बहुत स्थूल है, कुछ रुपया पा जाओगे, पैसा पा जाओगे, धन-सामग्री पा जाओगे। दुनिया की चीज़ें सब इकठ्ठा हो जाएँगी। कुछ इज़्ज़त-शोहरत इकठ्ठा हो जाएगी। ये राजसिक आस्था है कि मैं जिसमें आस्था रख रहा हूँ कि अगर मैं उसको कुछ दूँगा तो उससे मुझे कुछ मिल जाएगा।
फिर आती है सात्विक आस्था, जिसको श्लोकों में कहा गया सात्विक श्रद्धा। ये होती है ज्ञान के प्रति, बोध के प्रति। यहाँ भी तुम चाह रहे हो कुछ पाना ही। इच्छा यहाँ भी कुछ पाने की ही है, बस यहाँ जो पाना चाहते हो, वो ज़रा सूक्ष्म है, वो अतिशय सूक्ष्म है। लेकिन यहाँ पर भी अहम् बचा ही हुआ है। बस कह सकते हो कि वो अहम् का शुद्धतम रूप है क्योंकि उसमें तुमने जितनी भी स्थूल चीज़ें थीं, मोटी, भोथरी, उनकी कामना छोड़ दी है। अब क्या माँग रहे हो? झीनी चीज़। वो तुम माँग रहे हो। ये सात्विक श्रद्धा या सात्विक आस्था हुई।
और मैंने कहा था कि इन तीन प्रकार की श्रध्दाओं के बाद एक चौथी की भी बात करूँगा। चौथी जो है, वो वास्तविक श्रद्धा है। उसको न आस्था बोल सकते हैं, न निष्ठा। आस्था इसलिए नहीं बोल सकते क्योंकि आस्था में कोई चाहिए जो कहीं जाकर स्थापित होता हो। ये जो चौथी श्रद्धा है, इसमें जो श्रद्धालु है, वही विदा हो रहा है। तो वो जाकर स्थापित कैसे होगा, कहीं बैठ कैसे जाएगा? ये असली श्रद्धा है। ये त्रिगुणातीत श्रद्धा है।
इस श्रद्धा का प्रकृति से अब कोई सरोकार नहीं। प्रकृति त्रिगुणात्मक है। जहाँ भी तीन गुणों की बात हो रही हो, जहाँ भी सत-रज-तम की बात हो रही हो, तो किसकी बात हो रही है? प्रकृति की बात हो रही है।
तो जहाँ कहीं भी श्रद्धा का सम्बन्ध गुणों से बताया जा रहा हो, वहाँ निश्चित रूप से अहम् वाली श्रद्धा की ही बात हो रही है, क्योंकि अहम् भी प्रकृति का हिस्सा है। अब अहम् की श्रद्धा में दम कितना होगा? चाहे वो तामसिक हो, चाहे वो सात्विक हो। हाँ, सात्विक श्रद्धा, सात्विक सारे ही गुण तामसिक और राजसिक गुणों से श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि जो सत की तरफ बढ़ आया, उसकी संभावना प्रबल हो जाती है कि अब वो सब गुणों का उल्लंघन कर जाएगा। अब वो प्रकृति का ही अतिक्रमण कर जाएगा।
सत सिर्फ़ इसलिए रज और तम से श्रेष्ठ है, अन्यथा सब गुण ही हैं, अन्यथा सब गुणों में प्रकृति में बद्धता ही है। फिर भी सतोगुण बाकी दोनों गुणों से श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि सतोगुण द्वार खोल देता है गुणातीत निकल जाने का।
तो गुणातीत श्रद्धा फिर कौन सी हुई? जिसमें अहम् कहीं है ही नहीं किसी पर विश्वास करने के लिए, कि श्रद्धा के लिए, कि आस्था और निष्ठा करने के लिए, कि मान्यता रखने के लिए। जहाँ कोई है ही नहीं जो कहे कि हम तो फलाने को मानते हैं। जब तक आप हो फलाने को मानने वाले, तब तक आप जिसको भी मान रहे हो अपनी सुविधा और अपने संरक्षण के लिए ही मान रहे हो।
एक मानना ऐसा भी होता है जिसमें मानने वाला मौजूद नहीं होता इसीलिए जो माना जा रहा होता है, वो चीज़ सच ही होती है। जब तक कोई मानने वाला मौजूद है, जब तक कोई विश्वासी या श्रद्धालु मौजूद है, तब तक जिस विषय पर विश्वास या श्रद्धा करी जा रही है, वो विषय सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि अहम् सत्य पर विश्वास कैसे कर लेगा, भाई? अहम् अगर सत्य पर विश्वास करने लग गया तो अहम् के लिए बड़ा जान का जोखिम।
तो एक भूल है जिसके प्रति ज़रा सतर्क रहिएगा। निश्चित रूप से वास्तविक श्रद्धा में किसी के ऊपर श्रद्धा नहीं करी जाती। इसी श्रद्धा की बात बुद्ध ने करी, इसी श्रद्धा की बात कृष्णमूर्ति ने करी। उन्होंने कहा कि कोई होना ही नहीं चाहिए जिस पर तुम श्रद्धा करो। उन्होंने कहा कि कोई अथॉरिटी (सत्ता) नहीं होनी चाहिए। अंततः तुम्हारी श्रद्धा का कोई विषय नहीं होना चाहिए। वो किस श्रद्धा की बात कर रहे थे? त्रिगुणातीत श्रद्धा की।
लेकिन त्रिगुणातीत श्रद्धा में ऐसा ही थोड़े ही होता है कि जिस पर श्रद्धा करनी है, वो ही विलुप्त हो गया। उससे पहले कौन विलुप्त होता है? जो श्रद्धा करने वाला है। अगर तुमने कहीं ये गज़ब कर दिया कि श्रद्धा करने वाला तो बचा हुआ है लेकिन अब वो किसी पर श्रद्धा नहीं करता, तो तुमने बहुत भयावह काम कर डाला। जानते हो अब तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे, "मैं हूँ। मैं हूँ।" मैं कौन? "मैं अहम् ही हूँ। मैं हूँ लेकिन अब मैं किसी पर श्रद्धा नहीं करता। त्रिगुणातीत श्रद्धा में कोई विषय तो होता नहीं। तो मैं किसी पर श्रद्धा नहीं करता। मैं हूँ।"
तुम किसी पर श्रद्धा नहीं करते अहम् होते हुए भी, तो जानते हो तुम किस पर श्रद्धा करते हो? अहम् पर ही। वो अहंकार जो कहे कि मैं किसी को नहीं मानता, वो वास्तव में खूब मानता है, पर किसको? अपने-आपको ही मानता है। और ये जो अपने-आपको मानने का खेल है, ये बहुत गड़बड़ है। गड़बड़ इसलिए नहीं है कि इससे किसी का दिल दुःख जाएगा या कोई अनैतिक बात हो गई, इत्यादि, इत्यादि। गड़बड़ इसलिए है क्योंकि तुम अपने-आपसे परेशान हो।
जो अपने-आपसे परेशान है, वो अपनी ही सलाह मानने लग जाए, वो अपने पर ही आस्था करने लग जाए, तो वो डूब गया। अब उसे कोई नहीं बचा सकता।
अपने-आपको मानना, अपने-आप पर श्रद्धा रखना, कह देना कि मैं हूँ और मैं अपनी राह ख़ुद बना लूँगा ऐसा ही है जैसे कोई आदमी डूब रहा हो और उसकी ओर कोई हाथ बढ़ाए कि बाहर आजा। वो कहे, "न, हम किसी का सहारा नहीं लेते। हम बच लेंगे।" कैसे? वो अपने पाजामे का नाड़ा पकड़ लिया है उसने और कह रहा है कि ये देखो, हमें सहारा मिल गया न। डूबता हुआ आदमी अगर अपने पाजामे का नाड़ा पकड़ लेगा तो बच जाएगा क्या?
पर ऐसे बहुत होते हैं। वो कहते हैं, "नहीं, हम कोई बाहर वाला आदमी नहीं चाहिए। हम स्वयं को ही स्वयं का सहारा देंगे। देखो, हाथ में हमारे है हमारा नाड़ा। इससे इतना ही होगा कि जब तुम्हारी लाश मिलेगी तो वो भी नंगी होगी, बेपजामे की। इतना नाड़ा खींचोगे तो मुर्दे पर पजामा भी नहीं पाया जाएगा।
तो एक ओर तो मैंने इस चौथी प्रकार की श्रद्धा की बात करी, और ये उच्चतम है, ये हर साधक का अंतिम लक्ष्य होनी चाहिए। दूसरी ओर मैं सावधान भी किए दे रहा हूँ कि जब तक वो अंतिम पड़ाव आ न जाए, तब तक अपने-आपको झूठ-मूठ ही मत जतला दीजिएगा कि साहब, हम तो पहुँच गए और अब हमें श्रद्धा का कोई विषय नहीं चाहिए।
जो कहे कि हमें श्रद्धा का कोई विषय नहीं चाहिए, भूलिएगा नहीं कि उन्होंने किसको चुन लिया है अपनी श्रद्धा के विषय के रूप में? स्वयं को। वो जानते हो, कहाँ पहुँच गए? वो प्रकृति से बाहर तो नहीं ही गए हैं, प्रकृति के भीतर भी वो किस तल पर फँस गए? तामसिक तल पर।
अक्सर जो लोग दावा करते हैं कि वो त्रिगुणातीत हो गए, वो वास्तव में तमोगुणी हो गए हैं। वो गुणों से आगे नहीं निकल गए, वो गुणों में भी जो सबसे नीचे वाला गुण है, वहाँ फँस गए।
अपने जीवन से श्रीकृष्ण को तभी विदा कीजिएगा जब अपने जीवन से सबसे पहले आप विदा हो चुके हों। जब तक आप हैं, तब तक बहुत आवश्यक है कि श्रीकृष्ण रहें। जब आप और श्रीकृष्ण एक हो जाएँगे, तब दोनों विदा हो जाएँगे। फिर जो बचेगा, उसे कहते हैं निराकार। वो निर्गुण है, उसे किसी प्रकृति की ज़रूरत नहीं। निर्गुण है वो तो उसमें अहम् नहीं। जब अहम् नहीं तो कृष्ण भी अब आपके लिए निर्गुण-निराकार ही रह गए।