अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।
जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मन:कल्पित घोर तप को तपते हैं, वे दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १७, श्लोक ५
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। तप किसे कहते हैं और शास्त्रसम्मत एवं मन:कल्पित तप का भेद क्या है? कृपया समझाने की अनुकम्पा करें।
आचार्य प्रशांत: 'शास्त्र किसको कहते हैं?' ये परिभाषा समझ लें तो फिर ये भी समझ जाएँगे कि शास्त्रसम्मत सीख, सलाह, कोई भी बात क्या होगा जिसे हम कह देते हैं शास्त्रसम्मत। शास्त्र को ही जान लिया तो शास्त्र की बात बड़ी आसानी से जान जाएँगे।
सब शास्त्र किसके लिए लिखे गए? शुरुआत यहीं से करिए। कुछ शास्त्र लिखे गए, कुछ शास्त्रों को हम कह देते हैं कि वो दैवीय वरदान हैं, अपौरुषेय हैं। प्रश्न बहुत बड़ा ये नहीं है कि कहाँ से आए, ज़्यादा बड़ा प्रश्न, मैं समझता हूँ, ये है कि किसके लिए आए।
इस पर ख़ूब बहस होती है कि फलाने शास्त्र का वास्तविक रचनाकार कौन था। बुद्धिजीवियों को देखिए, एक कोई छोटी से किताब होगी, उसके पीछे मोटी-मोटी छः सौ किताबें लिखी गई होंगी कि उस छोटी सी किताब का वास्तविक रचयिता कौन है। बड़ा मज़ा आता है हमें इस प्रकार का अनुसंधान करने में कि ये किसने लिख दी थी। 'अ' ने लिखी कि 'ब' ने लिखी, कि 'अ' और 'ब' ने मिलकर लिखी, कि 'स' ने लिखी थी और 'अ' और 'ब' ने चुरा ली। कहीं ऐसा तो नहीं कि 'स' लिख रहा था और पीछे से 'द' फुसफुसा रहा था।
इस प्रकार का अनुसंधान, जो कि बहुत हद तक तुक्केबाजी होता है बस, ये हमें बड़ा रस देता है। एक बात हम कभी नहीं पूछते। 'किसके लिए लिखी गई?'
शास्त्र किसके लिए लिखे गए? बताइए, किसके लिए लिखे गए?
श्रोतागण: हमारे लिए।
आचार्य: हमारे माने किसके लिए? अहम् के लिए। दोहराइए ज़ोर से, शास्त्र लिखे गए हैं?
श्रोतागण: अहम् के लिए।
आचार्य: अहम् के लिए। शास्त्र लिखे गए हैं अहम् के लिए। सब शास्त्रों का उद्देश्य एक है और इस बात को शास्त्र स्वयं ही स्पष्ट कर देते हैं। अगर हममें न हो विवेक देख पाने का तो शास्त्र स्वयं ही स्पष्ट कर देते हैं कि क्यों लिखे गए हैं। वो कहते हैं कि आपके जीवन में जो ताप है, संताप है और ज्वर है, उसको मिटाने के लिए ये शास्त्र हैं, भाई।
बहुत ईमानदार वक्तव्य होते हैं शास्त्र। वो कह देते हैं कि तुम्हारे जीवन में जो कष्ट है, दुःख है, उनको मिटाने के लिए ये शास्त्र हैं। और ज़रा आगे बढ़ो तो ये भी बता देते हैं कि तुम्हारे जीवन में जो दुःख है, उस दुःख का नाम है अहम्, 'मैं'। वही दुःखी है और वो आप अपना दुःख है। हम कहते हैं न, "मैं दुःखी हूँ।" शास्त्र समझाना शुरू करते हैं, “मैं दुःखी हूँ," ठीक कहा। अब बोलो, "मैं दुःख हूँ। मैं दुःखी हूँ और मैं ही आप अपना दुःख भी हूँ।"
तो सबकुछ इसलिए है ताकि इस 'मैं' में जो आग लगी रहती है, उसको शीतल किया जा सके। एक तरह का आंतरिक अग्निशमन यंत्र हैं शास्त्र। भीतर से हम सब लगातार जल रहे हैं। इसको स्वयं शास्त्र कहते हैं 'तापत्रय'। तीन प्रकार के ताप हैं जो हर आदमी को भीतर से राख किए रहते हैं। उन सब तापों से ठंडक देने के लिए शास्त्र हमें दिए गए।
इससे ये भी फिर स्पष्ट हो जाएगा कि फिर जिन्होंने शास्त्र दिए हमें, उनको हम नाम क्या दें। आप परेशान हो, आपकी परेशानी दूर करने के लिए कोई आपको एक भेंट, एक उपहार दे रहा है, आप उसे क्या नाम देना चाहोगे? नाम आप उसका नहीं जानते। बहुत पीछे का है वो। हमें नहीं पता कौन था और कहाँ से आया। लेकिन उसके बारे में एक बात तो आप निश्चित रूप से कह सकते हो। क्या?
वो आपको नहीं जानता, व्यक्ति रूप में वो आपको नहीं जानता और व्यक्ति रूप में उसे पता है कि आप भी उसे नहीं जान पाएँगे, लेकिन फिर भी वो आपके लिए एक अनुपम भेंट छोड़ करके गया है। इससे निश्चित रूप से उसके बारे में एक बात तो बोल सकते हो। बोलो, क्या? वो बात बोल दो, उसका और नाम पता फिर जानने की फिर ज़रूरत नहीं रहेगी। क्या बोल सकते हो उसके बारे में?
श्रोतागण: ऋषि-मुनि।
आचार्य: अरे! क्या बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। सीधे कहिए कि प्यार करता था कोई आपसे, और इतना प्यार करता था, और इतना प्यार करता है, और इतना प्यार करता रहेगा कि उसे आपके बारे में कुछ भी नहीं पता, पर आपके लिए कुछ छोड़ गया है। और जो छोड़ गया है, उसके बदले में आप उसे अब कुछ दे भी नहीं सकते।
दोनों बातें समझिए, जिसके लिए छोड़ गया है, उसको वो जानता भी नहीं और जिसके लिए छोड़ गया है, उससे वो कुछ पा नहीं सकता। और प्यार किसको कहते हैं? यही प्रेम है। जिन्होंने लिखा, उन्होंने इसलिए लिखा क्योंकि प्रेम जानते थे वो। इसलिए आपके लिए ये सब बातें छोड़ गए। आपके हितार्थ के लिए ये सब बातें छोड़ी गई हैं।
तो अब शास्त्र समझ लीजिए कि क्या हैं। शास्त्र वो जो अहम् की शांति में आपकी सहायता करें। बहुत सीधी परिभाषा है – जो भी ग्रन्थ अहम् के विसर्जन में आपकी सहायता करे, उसका नाम है शास्त्र। जो ग्रन्थ अहम् को मिटाने में, या अहम् को शांत कर देने में या अहम् के आँसू पोछने में सहायक नहीं सिद्ध हो रहा, उसे हम शास्त्र नहीं कहेंगे।
तो अब बताइए कि पाँचवें श्लोक में जब कहा जा रहा है शास्त्रसम्मत तप, तो निश्चित रूप से किस तप की बात हो रही है? अहम् तो तप ही रहा है पहले से, जल ही रहा है। अहम् तो ताप में पहले से ही है। ये किस तप की बात हो रही है? ये एक ख़ास तरह का तप है जो आपको ताप से मुक्ति दिला देता है। तो शास्त्रसम्मत तप कष्ट ही है एक तरह का जो आपको आपके नियमित कष्टों से मुक्ति दिला देता है। इसी को कहते हैं अनुशासन।
अनुशासन भी एक तरह की पीड़ा ही है, पर अनुशासन वो पीड़ा जो आपको आपकी नियमित और निरंतर चलने वाली पीड़ाओं से आज़ाद कर देती है। तप और अनुशासन बहुत दूर की बातें नहीं हैं, एकदम जुड़ी हुई बातें हैं। तो शास्त्रसम्मत तप वो हुआ जो आपके पूर्ववर्ती ताप को शमित कर दे, जो भीतर लगी हुई आग को बुझा दे, ये हुआ शास्त्रसम्मत तप।
फिर दूसरा यहाँ कहा गया है मन:कल्पित तप। वो कौन सा तप होगा? वो होगा आग को आग से बुझाने की कोशिश, कि ऐसे सूरमा हैं कि भीतर लगी हुई है आग और पी रहे हैं पेट्रोल। और कह रहे हैं, "भाई, अ फेलो नीड्स ड्रिंक्स , ड्रिंक्स (पेय) तो चाहिए होते हैं न।" भीतर आग लगी हुई है और उसमें डाल रहे हैं *अल्कोहल*। " माय थ्रोट इस पार्च्ड, फेलो नीड्स सम ड्रिंक्स " (मेरा गला सूखा हुआ है, कुछ पीने के लिए चाहिए)।
ये मन:कल्पित तप है जहाँ हम अपना उपचार ख़ुद ही करने लग जाते हैं, कि भाई, भीतर आग लगी है तो कुछ शीतल पेय तो डालना पड़ेगा न। और वो शीतल पेय क्या है? थोड़ा पेट्रोल लेकर आना ठंडा वाला। पेट्रोल नहीं तो ठंडी बियर। भीतर आग लगी हुई, गए और बैठ गए, और ठंडी बियर डाल रहे हैं अंदर — ये मन:कल्पित तप है। तुमने ख़ुद ही हिसाब लगा लिया कि ये बियर जाएगी भीतर और ठंडा कर देगी। मन ने ही कल्पना कर ली कि ऐसा तप कर ले तो काम हो जाएगा। और ये नहीं समझ आ रहा कि कल अब फिर ज़रूरत पड़ेगी, और आज जितनी बियर पीनी पड़ी है, उससे ज़्यादा कल पीनी पड़ेगी। ये मन:कल्पित तप है।
दिक्कत सारी ये होती है कि हम अपनी सीमित बुद्धि के ही शिकार हैं। हमें अपनी सीमित बुद्धि के कारण ही दुःख मिलता है, और जब हमें दुःख मिलता है तो हम अपनी ही बुद्धि लगा करके उस दुःख से बाहर आना चाहते हैं।
भैयालाल गए आम के बाग में। उनकी जेब में थे दो हीरे और ऊपर लटका हुआ था आम। (श्रोतागण मुस्कुराते हैं) मुस्कुरा रहे हैं माने समझ गए कि आगे क्या होने वाला है। नाम ही है भैयालाल। तो भैयालाल ने एक हीरा निकाला। बढ़िया भारी था वो गिट्टी-पत्थर जैसा। बोले कि मारते हैं, आम मिलेगा। और भैयालाल तो भैयालाल, मारा तो आम तो मुस्कुरा रहा था और हीरा गायब।
भैयालाल की अक्ल, हीरा मारकर आम तोड़ रहे थे। तो भैयालाल ने वही अक्ल और लगाई फिर, और दूसरा हीरा निकला। बोले, "देखो, निशाना तो हमारा बेहतरीन है ही। अब हम ये हीरा बिल्कुल वैसे ही फेंककर मारेंगे जैसा हमने पिछले फेंककर मारा था। और इस वाले पर नज़र रखेंगे, तो ये जहाँ जाकर गिरेगा, वहाँ हमें दोनों मिल जाएँगे।"
अरे, तुम्हारा निशाना इतना ही ठीक होता तो सबसे पहले तुम आम नहीं गिरा लेते? और अगर तुम्हारी बुद्धि ज़रा भी ठीक होती तो तुम उससे भी पहले हीरा मारकर आम गिराते क्या? पर जिस बुद्धि से तुमने तय किया कि हीरा मारकर आम गिराना है, उसी बुद्धि से अब तुम तय कर रहे हो कि दूसरा हीरा फेंक करके पिछले हीरा वापस लाना है। और जिस कुशलता से तुमने पिछले हीरा फेंका जो बिल्कुल चूक गया आम से, उसी कुशलता का दोबारा उपयोग करके तुम अब फिर हीरा फेंक रहे हो, और आत्मविश्वास तुम्हारा ये है कि मैं बिल्कुल साधकर इसे वैसे ही फेंकूँगा जैसे पिछले वाला फेंका था। इतना तुम्हें अगर साधना आता ही होता तो पिछले वाले में काहे चूकते?
पर बलिहारी जाएँ तुम्हारी बुद्धि की भी और तुम्हारे निशाने की भी। जैसी तुम्हारी बुद्धि, वैसा तुम्हारा निशाना। दोनों ही बिल्कुल तुम्हारे जैसे हैं, भैयालाल। ऐसे जीते हैं हम। इसको कहा जाता है मन:कल्पित तप। अपने-आपही तय कर लिया कि क्या करेंगे जिससे सुख-शांति मिल जाएगी।
शास्त्र हमें इसीलिए दिए देने वालों ने ताकि तुम अपनी छोटी बुद्धि को नाहक इतना कष्ट मत दो। और बुद्धि छोटी है, ये बात कोई अवमानना की नहीं है। बुरा मत मानो, अपमान नहीं कर दिया तुम्हारा। ये स्नेह की बात है, क्योंकि जिन्होंने तुम्हें ये ग्रन्थ दिए हैं, एक दिन उनकी बुद्धि भी तुम्हारी ही तरह छोटी थी। उनके ऊपर भी किसी का स्नेहाशीष भरा हाथ था, तब जा करके वो एक दिन इस हालत में पहुँचे कि शास्त्रों के रचयिता हो पाए।
वो भलीभाँति जानते हैं कि आदमी पैदा तो छोटी बुद्धि के साथ ही होता है, पैदा तो जानवर ही होता है। और उसको छोड़ दो जंगल में तो वो बुद्धि छोटी-की-छोटी ही रह जानी है। वो भलीभाँति जानते थे कि तुमने कोई गुनाह नहीं कर दिया अगर तुम्हारी बुद्धि छोटी है, क्योंकि सभी की बुद्धि एक दिन छोटी ही होती है। तो जिस चीज़ से उनको मदद मिली, वो चीज़ वो तुम्हारे लिए छोड़कर गए — शास्त्र।
उन्होंने कहा कि हमें भी कहीं से सीख मिली थी। कहाँ से मिली, अब ये क्या बताएँ, पर ये पक्का है कि कहीं से मिली थी हमें भी। चूँकि हमें कहीं से मिली थी तो इसीलिए आने वाली सब पीढ़ियों के लिए हम कुछ सीख छोड़कर जा रहे हैं। इस सीख का पालन करो। इसलिए नहीं कि तुम सदा के लिए हम पर आश्रित हो जाओ या निर्भर हो जाओ, इस सीख का पालन करो ताकि इस सीख का पालन कर-करके तुम भी एक दिन इस काबिल हो जाओ कि स्वयं ही शास्त्र रच सको। इस सीख का पालन करो ताकि इस सीख का पालन करके तुम भी इस काबिल हो जाओ कि एक दिन तुम भी और लोगों के लिए कुछ छोड़कर जा सको।
एक तो शास्त्रों को पढ़ने में बड़े-से-बड़ा तप ये नहीं होता कि शास्त्रों की सीख का पालन कैसे करें। शास्त्रों को पढ़ने में हमें ज़्यादा बड़ी पीड़ा ये होती है कि किसी और की बात पढ़े ही क्यों। और आजकल तो वो पीड़ा बहुत बढ़ गई है, कि ये लोग होते कौन हैं हमें ये सब बातें सिखाने वाले? हू आर यू टू प्रीच? (हमें उपदेश देने वाले तुम होते कौन हो) अष्टावक्र हैं कौन? उनके क्रेडेंशियल्स (परिचय) बताओ, भाई।
तो शास्त्रों को पढ़ करके और समझ करके जो पीड़ा उठेगी, वो तो बाद की बात है। शास्त्र जब सामने रखा होता है तो यही बड़ी पीड़ा की बात हो जाती है क्योंकि शास्त्र, अगर तुम मुमुक्षा से भरे हुए नहीं हो, तो तुम्हें अपने मुँह पर तमाचे जैसे लगेंगे। जो मुमुक्षा से भरा हुआ है, वो शास्त्रों को देखकर आह्लादित हो जाएगा। वो कहेगा कि कुछ आया जो मुझे अब बचाएगा। कुछ मिल गया सहारे के लिए।
लेकिन जिसमें मुमुक्षा नहीं है, जिसका अहंकार बड़ा सघन है, उसके सामने जब शास्त्र आएगा तो उसे ऐसा लगेगा जैसे किसी ने गहरा अपमान कर दिया। वो कहेगा, "ये देखो, न जाने कौन आ गए हैं और कहाँ-कहाँ की बातें बता रहे हैं। अरे, तुम्हारी क्यों सुनें? हम अपनी नहीं सुन लेंगे! हाँ, हम परेशान हैं लेकिन हम भैयालाल हैं। हम दो हीरे अब उधार पर लाए हैं। तो पिछले दो जो खोये थे, वो तो पाएँगे ही और साथ में आम। अब चार हीरों की बाज़ी लगेगी, हम भैयालाल हैं। ये शास्त्र वग़ैरह काहे को पढ़ें, भाई? तुम होते कौन हो हमें कुछ बताने वाले।" भैयालाल अगर दूसरों की सुन लें तो भैयालाल कैसे रह गए।
श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण हैं, इस बात को वो तब से जानते थे। वो पहले ही अर्जुन को बताए दे रहे हैं। वो कह रहे हैं, "जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मन:कल्पित तप करते हैं, वो दम्भ और अहंकार से युक्त हैं और कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं।" अब और क्या कहें, बता तो दिया कि भैयालाल की हालत क्या है।
प्र२: इस अध्याय में तीन गुण वाले यज्ञ, तप और ध्यान के बारे में भगवान कृष्ण ने अर्जुन के साथ विस्तार से चर्चा की। हम लोग पढ़ रहे थे तप के बारे में तो आपने अभी बता दिया। यज्ञ और दान वो किसको कह रहे हैं? मन के बारे में तो स्पष्ट है कि हल्का रहता है तो सत है। अगर क्रियाशील है या आलस या प्रमाद है तो तमोगुणी मन है। तो यज्ञ और दान से किस ओर इशारा कर रहे हैं, क्या है उसका तात्पर्य?
आचार्य: समझेंगे। जब हम दान की बात करेंगे तो उसी से जुड़ी हुई एक बात और स्पष्ट होगी विसर्जन, कि दान और विसर्जन में सम्बन्ध क्या है।
जो लोग अहम् के निचले तलों पर जीते हैं, उनके पास जो कुछ भी होगा, वो क्या होगा? उन्होंने अपने लिए क्या इकठ्ठा कर रखा होगा? वस्तुएँ। और जो भी चीज़ें उन्होंने अपने लिए इकट्ठी कर रखी होंगी, जो कुछ भी उन्होंने अपने इर्द-गिर्द जमा कर रखा होगा, उसका उनके जीवन पर प्रभाव क्या पड़ रहा होगा? अहम् अपने आस-पास जो कुछ इकठ्ठा करता है, उसका अहम् पर ही प्रभाव क्या पड़ता है? बढ़ता है। अहम् बढ़ता है, माने क्या बढ़ता है? अहम् के लिए कष्ट बढ़ता है न।
तो अहम् के निचले तलों पर जब हम जी रहे होते हैं तो हमने बहुत कुछ है जो अपने आस-पास और अपने भीतर संग्रहित कर रखा होता है, इकठ्ठा, ये पहली बात। और दूसरी बात ये कि हमने जो कुछ भी इकठ्ठा कर रखा होता है, हम जानते नहीं हैं कि वो वास्तव में क्या है। हमने जो भी इकठ्ठा कर रखा होता है, वो हमें कष्ट ही देता है। तो ऐसे में छोड़ने का एक ही अर्थ है कि अपने कष्ट से मुक्ति पाओ। इस तल पर जिसको आप दान कहते हो, वो वास्तव में दान कम होगा, त्याग और विसर्जन ज़्यादा होगा।
अगर आप नहाने जाते हो कीचड़ में लथपथ, तो क्या आप ये कहोगे कि आपने अपने कीचड़ का दान कर दिया? आपने निजात पा ली, आपने राहत पा ली। यही बड़ी बात है न? ये त्याग है, ये विसर्जन है। लेकिन आम बोलचाल की भाषा में इसको भी क्या कह देते हैं? दान। कह लीजिए, कोई दिक्कत नहीं है उसमें।
हमें दान से लेकिन वास्तव में कम मतलब होना चाहिए। हमें तो मतलब होना चाहिए विसर्जन से, त्याग से, छोड़ने से। आप कहेंगे कि साहब, त्याग ही करना है तो किसी सुपात्र को क्यों न दे दें, कम-से-कम उसका भला होगा? मंशा बिल्कुल ठीक है, नीयत बिल्कुल ठीक है, लेकिन इसमें दो फेर हैं। पहली बात, अगर आप अहम् के निचले तलों पर जी रहे हैं तो आप पता कैसे करेंगे कि सुपात्र कौन हैं और दूसरी बात, आप अगर अहम् के निचले तलों पर जी रहे हैं तो जो कुछ भी आपके पास है, आपका उससे लोभ बहुत होगा, उससे मोह और राग बहुत होगा, और आपने अपने-आपको बोल दिया कि मैं छोडूँगा तभी जब कोई सुपात्र मिल जाएगा।
तो ये आपने अपने लिए क्या कर दिया? बहाना तैयार कर दिया न छोड़ने का। क्योंकि, साहब, हम तो दान देते हैं और दान तो सुपात्र को ही दिया जाता है न, सुपात्र अभी हमें मिल नहीं रहा – अभी हमें मिल नहीं रहा तो हम छोड़ नहीं रहे।
तो जो अपनी हालत से जितना ज़्यादा परेशान हो, उसको तो मैं ये सलाह भी नहीं दूँगा कि तुम सुपात्र खोजो। तुम ये थोड़ी कहोगे कि कीचड़ में लोटने वाला सुअर मुझे जब तक मुझे नहीं मिलेगा, तब तक मैं अपने-आपसे कीचड़ को दूर नहीं करूँगा, “मैं तो साहब वो सूअर खोज रहा हूँ जो खुश हो जाए मेरे द्वारा त्यक्त कीचड़ को पा करके।”
अरे भैया, कोई मिले-न-मिले तुम्हे तुम्हारा दान ग्रहण करने के लिए, तुम तो त्यागो। कोई मिल गया सुपात्र, बहुत अच्छी बात है। नहीं मिला तो नदी में बहा आओ। इसी को कहते हैं विसर्जन। कोई मिल गया सुपात्र तो बहुत अच्छी बात है। नहीं मिला तो अपने पास मत रखे रहना ये कहकर कि अभी तो सुपात्र की तलाश चल रही है। और ये भी याद रख लेना कि तुम अभी इस हालत में हो नहीं कि सुपात्र और कुपात्र में अंतर कर पाओ। काफ़ी सम्भावना इस बात की है कि जिसको तुम सुपात्र समझो, वो कुपात्र निकले।
तो साधना के आरम्भ में दान इत्यादि छोड़ो। दान तो बड़ी ऊँची बात होती है। साधना के आरम्भ में तो विसर्जन। अहम् के निचले तलों पर तो विसर्जन। फिर बात आगे बढ़ती है। धीरे-धीरे, शनैः-शनैः साधक को कुछ ऐसा मिलने लगता है जो वास्तव में उसके काम आ रहा है। उसे कैसे पता चलता है कि उसके काम आ रहा है? क्योंकि उसका पुरानापन मिटने लगता है। साधक में एक नयापन छलकने लगता है।
पुराना जो 'मैं' होता है, वो अब एक बीती हुई कहानी की तरह लगता है। अतीत की कहानी भर था वो पुराना सबकुछ। अभी हम उससे कुछ रिश्ता-नाता नहीं रख पाते। उसको सोचते हैं तो ऐसे सोचते हैं जैसे कोई दूसरा आदमी था। पुरानी सब बातें स्मृति में अभी भी हैं भले ही, लेकिन उन बातों से अब हम कोई नाता नहीं रख पाते। ऐसा लगता है जैसे कोई पुराना, दूसरा इंसान था। ये इस बात का लक्षण है कि साधना अब आगे बढ़ने लगी है। अब आप नए होने लगे हैं। नयेपन का और कोई मतलब नहीं होता। नयेपन का इतना ही मतलब होता है कि पुराना अब नहीं रहा। नयेपन का और कोई अर्थ नहीं है, भाई। नया माने यह नहीं कि कुछ नया आ जाएगा और आप में जुड़ जाएगा नया। न।
तो अब आपको कुछ ऐसा मिल गया है जो साफ़ है, सुन्दर है, आनंदप्रद है। या ऐसे कह लीजिए कि आपके भीतर से जो पुराना था, जो आनंदप्रद नहीं था, वो हट गया है। जैसे कहना हो, कह लीजिए। आपके मिजाज़ पर है, जो आपके कहने का तरीका हो, अंदाज़ हो, उस पर है।
अब आप जान गए हैं स्वयं को, अब आप जान गए हैं मूल अहम् वृत्ति को। अब आप जान गए हैं कि कैसे दुनिया के हर आदमी में ये तीन गुण ही चालित हैं और ये तीन गुण ही उसको नचा रहे हैं। अब आप जान गए हैं दुनिया के सब दुःख-दर्द के मूल को, या ऐसे कह दीजिए कि जानने लग गए हैं, शुरुआत हो गई है, कुछ रोशनी आने लग गई है। अब आपकी पात्रता बढ़ने लगी है दान करने की। अब आप पात्र हुए दान करने के, क्योंकि दान का अर्थ है कुछ ऐसा देना जो दूसरे के काम आए।
ये जो 'देव' शब्द है, इसको समझते हैं क्या है। 'देवता', जो दे दे। और उससे क्या मिले आपको? कुछ ऐसा जो आपको बर्बाद कर जाए, उसे देवता कहेंगे क्या? देवी-देवता वो जो आपको कुछ ऐसा दे जाए कि आप खिल उठें, चमक उठें। अब आप दान करने की अवस्था में पहुँचने लगे हैं, अब दान करिए।
लेकिन अब आप जो दान करेंगे, वो ऐसी चीज़ों का नहीं होगा कि दान के नाम पर आपने किसी कुपात्र को चुन लिया और उसको और ज़्यादा लैस (सुसज्जित) कर दिया उसी के विनाश के हथियारों से, कि दान के नाम पर आपने शराबी को बोतल पकड़ा दी। अब आप ये नहीं करेंगे। अब आपका दान वास्तविक होगा। अब अँधा दान नहीं होगा।
अब दान ऐसा नहीं होगा कि भीतर बहुत कचरा भरा हुआ था, मन पर बड़ी ग्लानि थी, खूब कुकर्म करे थे तो बड़ा अपराधभाव था, तो दुनिया भर के इधर-उधर के लोगों को बुला करके, कुछ भिखारियों को जमा करके उनको खाना खिला दिया, गरीबों में कपड़े बाँट दिए इत्यादि, इत्यादि। और ये सब कुछ किस ख़ातिर किया? ताकि भीतर का जो ग्लानिभाव, ताकि भीतर लगातार जो शर्म और अपराध की भावना रहती है, वो थोड़ी कम हो जाए। अब आप ये दान नहीं करेंगे।
अब आप प्राणदाता हो जाएँगे, अब आप जीवनदाता हो जाएँगे। और दान काहे का दान अगर जीवनदान नहीं है? और क्या चीज़ है किसी को देने लायक? और जीवन काहे का जीवन अगर वो सिर्फ़ हाड़ और माँस का संचालन है, साँसों का चलना भर है। तो दान माने जीवनदान, और जीवनदान माने चेतनादान। अब आप जो दूसरे को देंगे, वो निश्चित रूप से ऐसा होगा कि आपके द्वारा प्रदत्त वस्तु के उपयोग से वो व्यक्ति अपनी चेतना को शीर्ष पर पहुँचा पाएगा। तब तो दान हुआ।
अगर आप दूसरे को जो दे रहे हैं, उससे उसकी चेतना उठती है, उसके दुःख कटते हैं, तो ये दान है। अन्यथा आप जो कुछ दे रहे हैं, उसको दान मत कह दीजिएगा। उसके लिए ज़्यादा उचित शब्द है विसर्जन, कि मैंने विसर्जित किया। उस विसर्जन में किसी को मिल गया तो मिल गया, वो अलग बात है, लेकिन मैं अपने कृत्य को दान कह करके अपने अहंकार को और सुशोभित नहीं करूँगा।
ये वही बात होगी कि आप कीचड़ से लथपथ नहाने गए और बाहर आ करके दुनियाभर में डंका पीट रहे हैं कि आज मैंने सुअरों के लिए दान का आयोजन किया। अरे भैया, तुम अपने लिए नहा लो। तुम्हारा कीचड़ कीड़ों को और अन्य जीवों को मिला कि नहीं मिला, वो बाद की बात है, तुम पहले अपनी फ़िक्र करो।
श्रीकृष्ण तीन प्रकार के दानों की भी बात करते हैं। अब वो बात स्पष्ट हो रही होगी।
जो तामसिक तल पर व्यक्ति है, वो दान अगर करेगा भी तो कैसा करेगा? वो दूसरे को चीज़ भी ऐसी देगा कि दूसरे का बेड़ा गर्क हो जाए। ले, भाई, ये मेरी ओर से आज मुफ़्त! हो गया। बाज़ार निकल जाइए, वहाँ भी बहुत बैठे हैं आपको दान करने वाले। सब कंपनियाँ कुछ चीज़ें मुफ़्त दे रही होती हैं कि नहीं? तो दान वो तो कर रही हैं, पर उनकी मुफ़्त चीज़ें आपने ली नहीं कि हो गया काम, क्योंकि वो है तामसिक दान। उस दान में देने वाला तो डूबता ही है, ग्रहण करने वाला और डूबता है।
राजसिक दान कौन सा है? जैसे दिवाली का तोहफ़ा। लगता तो ऐसे है कि दूसरे को मुफ़्त ही दे आए, पर भीतर-भीतर महत्वाकांक्षा क्या रहती है? कुछ मिलेगा ज़रूर बदले में। ये राजसिक दान है।
सात्विक दान क्या है? कि दूसरे को कुछ बातें बता दी, ज्ञान दे दिया। ये उच्चतम कोटि का है। जब तक दाता मौजूद है, तब तक सात्विक दान से ऊँचा दान कोई होता नहीं। और दाता कौन होगा? हम दे रहे हैं तो दाता तो अहम् ही होगा। तो अहम् जो श्रेष्ठतम दान दे सकता है, वो है सात्विक दान।
और फिर अब समझ ही गए होंगे कि कौन सा दान आएगा। कौन सा? जिसमें कोई देने वाला नहीं, बँट रहा है यूँ ही। देने की कोई अभिलाषा भी नहीं। अरे, जब बचाने की ही अभिलाषा नहीं तो देंगे कैसे, भाई? देने की तो वो सोचे न जो बचाने की भी सोचता हो। अब उसके लिए देना, बचाना सब एक बराबर हो गया। उसकी हस्ती ही बाँटती है। वो न चाहे तो भी उसे देना पड़ता है। उसे विचार करके बचाना नहीं है तो विचार करके वो बाँटेगा कैसे? उसकी मौजूदगी ही दान है।
और उसकी कोई व्यक्तिगत मौजूदगी नहीं। व्यक्ति के रूप में वो परिलक्षित हो सकता है। जीव है, भाई। शरीर की विवशता है कि व्यक्ति के रूप में परिलक्षित होगा ये दाता भी। पर वास्तव में शरीर भर है, शरीर में कोई दाता नहीं बैठा हुआ है। शरीर है, शरीर के भीतर कोई बैठा नहीं है जो कहे, 'मैं शरीर हूँ’।
अब दान निरंतर है, अब बँट रहा है। इसी दान के लिए ज़्यादा मीठा नाम है प्रेम। वो दे ही रहा है, वो दे ही रहा है, और देने से उसका कुछ घट नहीं रहा। कुछ उसके पास सीमित होता, कुछ संचित होता तो घट भी जाता। अब उसे देने से कोई इंकार नहीं क्योंकि अब उसे पाने से कोई इंकार नहीं। वो बिल्कुल अब पोपला हो गया है, ख़ाली, खोखला। सब दिशाओं से ले रहा है और सब दिशाओं को दे रहा है। अब देना उसके लिए कोई विशेष कृत्य नहीं।
आप नहीं कहोगे कि जब ये मुस्कुराते हैं और हाथ बढ़ाकर देते हैं तो देते हैं। नहीं। उसकी साँस साँस में देना है। वो कुछ भी करे, वो दे ही रहा है। वो सो रहा है तो भी दे रहा है, वो चल रहा है तो भी दे रहा है, वो क्रोध कर रहा है तो भी दे रहा है। जब वो कह रहा है कि मैं तुझसे कुछ छीन रहा हूँ, तब भी वो दे ही रहा है। अब देना ऐसा हो गया।
पर ये बहुत आगे की बात हो गई न। मेरी आदत है उतनी आगे की बात बीच-बीच में कर जाना। उतनी आगे की बात आप न भी करें तो चलेगा। बस समझ लें कि तामसिक और राजसिक से कैसे बचना है। इन दोनों को कदापि दान न कहें। जो तमस की, रजस की अवस्थाओं में बैठे हों, उन्हें दान नहीं चाहिए, उन्हें चाहिए विसर्जन। तुम तो छोड़ो, छोड़ो, अंधाधुंध छोड़ो। ये देखे बिना छोड़ो कि किसी को मिला कि नहीं मिला। फिर ऐसे धीरे-धीरे तुम वहाँ पहुँच जाओगे जहाँ तुम सुपात्र हो जाओगे देने के भी, फिर बँटेगा।