आचार्य प्रशांत: अर्जुन का द्वंद सामने आता है इन शब्दों में, कह रहे हैं अर्जुन –
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयोयद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।
हम नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना – इन दोनों में से क्या श्रेष्ठ है, हम नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे हमारे अपने धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ६
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। अर्जुन को दुविधा हो रही है कि युद्ध करे या पलायन। मेरे जीवन में युद्ध जैसी स्थिति तो नहीं, पर कुछ पल होते हैं जब दुविधा बनी रहती है। जब स्थितियाँ सामने आती हैं तो उन्हीं स्थितियों के अनुसार आचरण हो जाता है। समझना चाहता हूँ कि दुविधा के पलों में दुविधा के साथ-साथ स्थिति को समझकर आचरण कैसे हो?
आचार्य: दु-विधा – दो हैं। ये दो कौन हैं जिनमें से चुनाव करना हो? ये दो कौन हैं जिनमें से किसी एक पर आचरण करना है? कहीं ऐसा तो नहीं कि मीठा ज़हर और कड़वा ज़हर सामने रखा है और तुम पूछ रहे हो कि बड़ी दुविधा है, कौन सा चुनूँ। काला ज़हर रख दिया गया है और गुलाबी ज़हर, और तुम पूछ रहे हो, “कल्लो को चुनूँ या गुलाबो को?”
आमतौर पर हमारे सामने जो भी विकल्प आते हैं, वो हमें साँपनाथ और नागनाथ में से किसी एक को चुनने की छूट देते हैं। जब ऐसी स्थिति हो तो, भईया, किसी को मत चुनों। सबसे पहले तो ये देखो कि तुम्हारे ये दोनों ही विकल्प आ कहाँ से रहे हैं।
“आचार्य जी, ये दो लड़कियों के रिश्ते लाई है मइया। एक तो जे वाली है, जे बड़ी ही सुंदर है और जे दूसरी वाली है, जे विधायक की भांजी है। आचार्य जी, किनको चुन लें?”
बड़ी विकट दुविधा है। चुनाव करना है, जीवन का प्रश्न है। पत्नी चुननी है। पर ये जो दोनों ही तुम विकल्प सामने रख रहे हो, ये दोनों आ कहाँ से रहे हैं? तुम्हारी मूर्खता से। तुम्हारे अज्ञान से, तुम्हारे लालच से और तुम्हारी वासना से। क्या बताऊँ कि किसको चुन लो।
अपने-आपको देखो, विकल्पों को नहीं। जो अपने-आपको देखने लगे जाता है, उसके सामने जितने भी विकल्प मौज़ूद होते हैं, वो सब कटने लग जाते हैं; सब विकल्प मूल्यहीन पता चलने लगते हैं। शेष बचता है वह जो सही है, शुभ है, सम्यक है, करणीय है। पर उस तक पहुँचने के रास्ते में ये सब विकल्प ही बाधा हैं। समझना एक बात को – सत्य वास्तव में कभी कोई विकल्प होता ही नहीं है। जब तुम अपने सब विकल्पों से पार लग गए तो जो निर्विकल्पता शेष रहती है, उसका नाम सच है। और बात को थोड़ा गाढ़ा करने के लिए यह भी बताए देता हूँ कि झूठे विकल्पों से पार लग नहीं सकते जब तक निर्विकल्पता की चाहत न हो।
दोनों चीज़ें साथ चल रही हैं, समझिएगा। पहली बात, सब विकल्पों को परे ढकेलने के बाद जो राह बचती है, वही राह सही है। दूसरी बात, जब तक उस आख़िरी राह के प्रति प्रेम नहीं होगा, तुम ये दस, बारह, पचास जो विकल्प सामने हर समय जो खड़े रहते हैं, इनको परे ढकेल नहीं पाओगे। वह प्रेम तुममें है, नहीं तो यह सवाल नहीं पूछ रहे होते। सच जानना चाहते हो, बेहतर होना चाहते हो, इसीलिए तो मेरे सामने सवाल लेकर आए हो न।
जिस नीयत, जिस ताकत और जिस प्रेरणा से यह सवाल यहाँ सामने रखा है, उसी साफ़ नीयत के साथ, उसी ईमानदारी के साथ जीवन में जितने विकल्प सामने आएँ, उनको देख लिया करो, परख लिया करो। विकल्प माने एक रास्ता, विकल्प माने एक लक्ष्य, विकल्प माने कुछ करके, कुछ पाने की चाह। क्या करना चाह रहे हो? क्या पाना चाह रहे हो? कौन उसका आकांक्षी है? उसे क्या तृप्ति मिल जानी है? ये पूछ ज़रूर लो।
कोई भी विकल्प आमतौर पर इतनी तहक़ीक़ात बर्दाश्त ही नहीं कर पाता, ढेर हो जाएगा। ये विकल्प आकर्षक तभी तक लगते हैं, जब तक तुम पास जाकर इनका आई. कार्ड (पहचान पत्र) न माँगो। जैसे ही तुमने थोड़ी पूछताछ करी कि साहब, कहाँ से हैं, किस मोहल्ले से हैं, माँ-बाप कौन हैं आपके, वह चंपत हो जाएगा। इस सवाल से तो वह बहुत ही घबराता है। “माँ-बाप का नाम बताना,” जैसे ही तुम पूछोगे, “तेरी पैदाइश कहाँ की है? तेरा श्रोत क्या है? तू आया कहाँ से है?” वो बता ही नहीं पाएगा।
जब भी कभी देखो कि तुम पता करने निकले हो कि तुम्हें कोई इच्छा क्यों उठ रही है, और उस इच्छा का कारण नहीं जानते हो, तो यह मत समझ लेना कि वह इच्छा किसी परमात्मा से आ रही है या किसी बड़े पारलौकिक या आध्यात्मिक बिंदु से आ रही है।
अगर तुम अपने इच्छा का कारण नहीं जानते, अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि इच्छा किसी पीछे के घने अंधेरे नेपथ्य से आ रही है, तो समझ लेना कि वो तुम्हारी इच्छा जंगल के घने अंधेरे से आ रही थी। अपनी इच्छाओं से बस पूछा करिए, “तेरा मम्मी कौन छे? तेरा बापू कौन छे?” वो चुप रह जाए। तो कहिए लावारिस है तू, शायद नाजायज़ भी। हम तेरे साथ तो रिश्ता नहीं रखेंगे। और पूछिए, “अपना पता बता, कहाँ से आई है तू? घर कहाँ है तेरा?” कुछ पता ही नहीं होगा उसे।
आपको पता होता है कि आपके भीतर जो वृत्तियाँ उठती हैं, चाहतें उठती हैं, क्रोध उठते हैं, तमाम तरह के आकर्षण, खिंचाव, सशक्त भावनाएँ, वो कहाँ से आती हैं, कुछ पता है? कभी खोजा? खोजोगे तो कुछ पाओगे नहीं, क्योंकि वो अतीत की एक गहरी काली गुफा से आती है। उसके भीतर तुम कुछ भी ऐसा नहीं पाओगे जिसे देखा जा सकता है, सिर्फ़ अंधेरा है। उसको छोड़ा जा सकता है, उसमें कुछ पाया नहीं जा सकता क्योंकि वहाँ कुछ है ही नहीं अंधकार के अलावा, कालिमा के अलावा।
"कुछ चाहिए।"
"क्यों?"
कुछ उत्तर आया। थोड़ा और आगे बढ़ो।
"क्यों?"
बड़ी मुश्किल से कुछ जुगाड़ करके फिर उत्तर आया। तुम थोड़ा और आगे बढ़ जाओ।
"क्यों?"
अब कोई उत्तर नहीं आएगा। उत्तर देने वाला चिढ़ जाएगा। तुम्हीं हो, तुम्हीं चिढ़ जाओगे। "ये क्या बाल की खाल निकाली जा रही है? हर बात में क्यों क्या बताएँ?" जहाँ तुम पाओ कि क्यों नहीं बता सकते, वहाँ या तो परमसत्ता बैठी हुई है या अंधेरी गुफा। अपनी ज़िन्दगी को देखकर समझ लो कि परमसत्ता के होने की सम्भावना कितनी है।
और याद रखना, अगर परमसत्ता बैठी होती है तो ऐसा नहीं होता कि ‘क्यों?’ अनुत्तरित चला जाता है। ऐसा होता है कि ‘क्यों?’ बोलने वाला ही हट जाता है, मिट जाता है। अगर ‘क्यों?’ है, लेकिन उत्तर कुछ नहीं है, प्रश्न है, जवाब कुछ नहीं मिल रहा, तो समझ लो कि जवाब मिल गया। ऐसे करो अपनी दुविधा का निराकरण।
दो रास्ते हों सामने, दोनों से पूछ लिया करो, “कहाँ से आए, भइया? कहाँ को जाते हो?” और अपने-आपसे पूछ लिया करो, “भइया, तुममें क्यों इतनी चाहत उमड़ रही है इनमें से ये रास्ता चुनने की कि वो रास्ता चुनने की? क्या है तुम्हारे भीतर जो इस रास्ते पर चलना चाहता है कि उस रास्ते पर चलना चाहता है?”
ये सवाल पूछते वक्त यह सोचकर मत डर जाना कि जब ज़िन्दगी में किसी रास्ते पर चलना ही है, तो क्यों न इन दोनों में से किसी एक को चुन लूँ, क्योंकि बिना चले तो कोई रह नहीं सकता। श्रीकृष्ण भी कह गए हैं कि प्रकृति के अधीन हो करके कर्म तो सभी करते हैं। तो मुझे भी कोई राह तो चुननी पड़ेगी। अब ये दो राह सामने आई हैं, तो या तो कल्लो को चुन लेता हूँ, नहीं तो गुलाबो को। यह गज़ब मत कर देना। राहें ऐसी-ऐसी हैं जिनका आपको कुछ पता नहीं चल सकता जब तक आप गलत राह चल रहे हैं।
तुम गलत राहों को ठुकरा कर तो देखो, सही राह खुलती है कि नहीं खुलती। और यह घटिया और झूठा तर्क बिलकुल मत दे दो कि मुझे सही राह मिली नहीं, मैं इसलिए गलत रहा चल पड़ा। बात यह नहीं है। सही राह हमेशा खुली होती है और उपलब्ध होती है। वो तुम्हें इसलिए नहीं मिल रही क्योंकि तुम्हारे मन में झूठी राह चलने का आकर्षण बहुत है, झूठी राह तुम छोड़ ही नहीं पा रहे।
और झूठी राह पर चलने को वैध ठहराने के लिए, जस्टिफाई करने के लिए, तुम कह देते हो, “मैं करूँ क्या? मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं था। मुझे कोई मिला ही नहीं सच्ची राह दिखाने वाला, तो इसीलिए मुझे जो भी मिली राह, मैं उसी पर चल दिया झूठी-झाठी।” यह झूठा, बेईमान तर्क है। मत दो।
तुम्हें रुकना होगा पहले और रुक करके देखो कि सही राह खुलती है या नहीं। जब तक तुम्हारे दोनों हाथ भरे हुए हैं इस विकल्प से और इस विकल्प से और पचास और चीज़ों से, निर्विकल्प सत्य तुमको कहाँ से मिल जाएगा भाई? जब ज़िन्दगी ही पूरी झूठे विकल्पों से भरी हुई है, तो तुम्हें जो कुछ भी मिलेगा, इन्हीं विकल्पों के अंदर का मिलेगा न?
तुम्हारी ज़िन्दगी में पचास चीज़ें हैं और इन्हीं पचास चीज़ों में तुम कभी ये, कभी वो, कभी ये, कभी वो चुनते रहते हो। ज़ाहिर है तुम्हारे सब चुनाव इन्हीं पचास के भीतर-भीतर के ही होंगे। और फिर कहो, “यही पचास तो हैं, बाहर का कुछ मिला नहीं, इक्यावनवें की तो हम तलाश में थे।” पचास में व्यस्त हो, इक्यावनवें का नाम भी क्यों ले रहे हो? बेईमानी हो गई।
और फिर ऐसा भी नहीं है कि इन पचास में तुम्हें तृप्ति, संतुष्टि है। तृप्ति हो तो पचास में ही मगन रहो, फिर किसी सच्चाई की, किसी विज्ञान की, किसी अध्यात्म की कोई ज़रूरत नहीं है। पर आनंद तो छोड़ दो, ख़ुश भी नहीं हो तुम। दिन-रात कहते रहते हो, “हैप्पी-हैप्पी चाहिए, हैप्पी-हैप्पी * । * आई वांट हैप्पिनस, यू वांट हैप्पिनस। विल यू कीप मि हैप्पी?
जॉय (आनंद) तो छोड़ दो, हैप्पिनेस * (ख़ुशी) भी नहीं है तुम्हारे पास। कि है? दिल से बताना। मर रही है पूरी दुनिया, किसके लिए? * हैप्पिनेस मिल जाए बस। ऐसा पगलाए हो हैप्पिनेस के लिए कि दारू पीने के समय को बोलते हो हैप्पी-आवर्स , पिक्चर बनाते हो, 'हैप्पी भाग गई, या भाग जाएगी’। अरे, तुम उसका नाम ‘हैप्पी’ रख दोगे तो वो तुम्हें हैप्पिनेस थोड़े ही दे देगी, उसके पास ख़ुद ही नहीं है। वो भगी जा रही है न जाने कहाँ।
और ये सब क्यों हुआ है? क्योंकि यही जो तुम्हारे पास कुल गिने-चुने पचास विकल्प हैं, इन्हीं में कभी वो टटोलते हो, कभी ये पकड़ते हो। मैं कह रहा हूँ कि इनमें अगर मिल गई है तुम्हें जॉय नहीं, हैप्पिनेस भी, तो खुशी-खुशी इन्हीं को पकड़े रहो, भाई। मिला है?
जानते हो, ये जो पचास हैं, इनमें से उनन्चास तो चीज़ें हैं या व्यक्ति हैं। इनमें से पचासवीं कौन सी है? ये जो पचास तुम्हारे पास विकल्प हैं, इनमें से एक को छोड़ करके तो सब वस्तु हैं, व्यक्ति हैं, लक्ष्य हैं। पचासवीं राह कौन सी है? उस पचासवीं चीज़ का नाम है ‘उम्मीद’। जब उनन्चास से तुम्हारा दिल टूट जाता है, जब उन्नचास से लात पड़ती है, तो पचासवी पकड़ लेते हो। क्या नाम है उसका? उम्मीद।
सारे विकल्प आज़माओ और जब सब विकल्पों में कूटे जाओ, पीटे जाओ, तृप्ति न पाओ तो पचासवाँ विकल्प पकड़ लो, और पचासवें विकल्प का नाम है ‘आशा’। आशा के साथ रहो और आशा तुमको ताक़त दे देगी कि अब फिर से शुरु कर दो, एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह...। मर-मरकर फिर कहाँ पर आओगे? पचास पर। और पचास का नाम है? आशा। अब फिर से आशा बंध गई। फिर तुम वापस शुरू हो जाओगे। लगे रहो!
प्रयास न करने से भी कहीं ज़्यादा घातक होता है गलत जगह पर बार-बार प्रयास करना। यह बात समझिए ध्यान से। ये जो आज के युग का मोटिवेशन (प्रेरणा) है न, जिसने हमने ‘नेवर गिव अप’ (कभी हार मत मानना) के जोश से भर दिया है, ये बहुत ज़हरीला है। एक गलती यह होती है कि कोशिश नहीं करी और दूसरी गलती यह होती है कि गलत जगह पर बार-बार पिटने के बाद भी कोशिश करते रहे और ज़िन्दगी खराब कर ली।
विवेक कोई चीज़ होती है या नहीं? जिन राहों पर चल रहे हो, उनको गौर से देखोगे या नहीं? तुम्हें जो अपने लिए विकल्प प्रतीत हो रहे हैं, उनकी कोई जाँच-पड़ताल करोगे या नहीं, या बार-बार बस आज़माइश करते रहोगे कि कोशिश जारी है?
पत्थर पर फूल उगाने की कोशिश चल रही है। पानी को मथ-मथकर उसमें से घी निकाला जा रहा है और कहा जा रहा है ’नेवर गिव अप’ * । और पानी को मथ-मथकर उसमें से घी निकालने की भी उम्मीद किसकी है? ढाई सौ किलो के उस आदमी की जिसका * कॉलेस्ट्रोल भी साढ़े चार सौ बैठा हुआ है।
पहली बात तो पानी से घी निकलेगा नहीं और दूसरी बात, तुझे उस घी की ज़रूरत भी है क्या? कोई चमत्कार ही हो जाए, पानी से घी निकल भी आए तो वो तेरी सफलता नहीं, तेरी मौत होगी। पर लगे हुए हैं।