असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्। अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।
वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है?
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १६, श्लोक ८
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। जगत का मूल आधार क्या है, ये नहीं जान पाने के कारण शायद मैं सत्य से विमुख रहा हूँ। यही मान लिया था कि जीवन में फ़र्क़ क्या पड़ता है इन सब बातों से। क्या सृष्टि, स्थिति, विनाश, ये जो मानसिक मॉडल हैं बुद्धिजनित, ये बस एक भ्रम हैं? अगर ये सब भ्रम हैं तो ये जगत इतना प्रकट और दृश्यमान क्यों है?
आचार्य प्रशांत: "वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है?"
सबसे पहले तो ये समझना पड़ेगा कि बात जगत की हो रही है, लेकिन कहा जा रहा है कि काम से और स्त्री-पुरुष संयोग भर से ही उत्पन्न समझते हैं उसे आसुरी प्रकृति के लोग। तो निश्चित रूप से यहाँ पर बात जगत के जनों की हो रही है, जगत के प्राणियों की हो रही है, अर्थात बात अपनी हो रही है।
हम हैं तभी तो जगत है न? हम हैं तभी तो जगत है। और ऐसे नहीं कि हम हैं तभी तो जगत में रहने वाले लोग हैं। हम ना हों, तो कौन होगा जो कहेगा कि जगत है?
जगत और जगत का दृष्टा साथ-साथ चलते हैं न? जगत दृश्य है, जीव दृष्टा। तो आसुरी प्रकृति वाला मनुष्य फिर अपने बारे में कुछ कह रहा है और कृष्ण उसकी भर्त्सना कर रहे हैं। आसुरी प्रकृति का मनुष्य अपने बारे में क्या कह रहा है? वो कह रहा है कि जगत आश्रयरहित है, माने ‘मैं आश्रय रहित हूँ’। आश्रयरहित माने? कोई है नहीं जो मुझसे ऊपर हो, जिस पर मैं आश्रित हूँ, जो मेरी छाँव हो, कि जो मेरी बुनियाद हो।
“मैं बेबुनियाद हूँ, मैं निर्मूल हूँ”, ये कह रहा है आसुरी प्रकृति वाला मनुष्य। वो कह रहा है, "ना! कोई परमात्मा इत्यादि नहीं। मेरी कोई जड़ नहीं है ज़मीन के नीचे। मैं बस उतना ही हूँ जितना मैं ज़मीन के ऊपर दिखाई देता हूँ। मेरी कोई बुनियाद नहीं है, निर्मूल हूँ मैं।" मूल तो सतह से नीचे होता है न? मूल माने जड़। वो कह रहा है, "ना! मैं आश्रयरहित हूँ। ना मेरे सिर के ऊपर कोई है, ना मेरे पाँव के नीचे कोई है। अर्थात मैं उतना ही हूँ जितना ऊपर से नीचे तक दिखाई दे रहा हूँ। मैं कौन? ये (देह)।”
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, "जो ऐसा कहे, उसे असुर जानना।” जो कहे कि “ना मेरे नीचे कुछ है, ना मुझसे ऊपर कुछ है; मैं बस उतना ही हूँ जितना दिखाई देता हूँ”, सो असुर हुआ।
“वे आसुरी प्रकृति वाले कहा करते हैं कि जगत आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है।” तो वो कह रहे हैं, "देखो, सत वगैरह कुछ नहीं। हमारा सत-वत से कोई लेना-देना नहीं। सत से नहीं आए हैं हम, हम कहाँ से आए हैं? वो तो स्त्री और पुरुष का संयोग हुआ तो हम आ गए।”
तो उन्होंने 'मैं कौन हूँ?' प्रश्न का उत्तर धड़ल्ले से दे दिया है, बात निपटा दी है बिलकुल। क्या कहकर? “मैं कौन हूँ? मैं वो शरीर हूँ जो माँ और बाप की रज से पैदा हुआ है। मैं कौन हूँ? मैं वो शरीर हूँ जो माँ और बाप के रज कणों से पैदा हुआ है।” श्रीकृष्ण कह रहे हैं, "जो ये समझे कि वो स्त्री-पुरुष के संगम से उत्पन्न शरीर मात्र है, वही असुर है। जो समझे कि बस वो अपने माँ-बाप के शारीरिक मिलन से पैदा हुआ शरीर है, वो असुर है।”
वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि काम ही मेरा कारण है। अगर व्यक्ति कहे कि, "सत्य मेरा मूल नहीं", तो वो निश्चित रूप से कह रहा है फिर कि उसका मूल क्या है? कामवासना। अगर 'मैं कौन हूँ?' प्रश्न का उत्तर आत्मा नहीं है, तो फिर 'मैं कौन हूँ?' प्रश्न का उत्तर हुआ वासना की पैदाइश। कोई पूछे, “मैं कौन हूँ?” तो या तो इसका उत्तर होगा शरीर से परे आत्मा, और अगर उसका वो उत्तर नहीं है तो फिर उसका जो उत्तर है, वो बड़ा घिनौना है। वो क्या है? कामवासना की पैदाइश!
जो भी लोग एक अभौतिक या पराभौतिक सत्य के इन्कार में जीते हैं, वो वास्तव में अपने-आपको गाली दे रहे हैं, क्योंकि अगर सत्य नहीं है तो हम कौन हुए? वासना का उत्पाद। पर ये उन्हें पता भी नहीं है।
वो कह तो देते हैं कि “मैं सिर्फ़ पदार्थ में, और जगत में, और बुद्धि में, और कारण में, और तर्क में और रेशनालिटी में यक़ीन रखता हूँ। मैं नहीं समझता कि आदमी की बुद्धि के आगे कुछ है।” आदमी की बुद्धि के आगे अगर कुछ नहीं है, आदमी के मस्तिष्क से आगे अगर कुछ नहीं है, तो फिर हर व्यक्ति मात्र कामवासना का सह-उत्पाद है, *ए बाइप्रोडक्ट ऑफ ए सेक्सुअल अर्ज*। पर ये कह दो तो कहेंगे, "अरे, बड़ी अवमानना करी। गंदी बात बोल दी। ये तो हमें आपने गाली ही दे दी।”
फिर पूछ रहे हैं, "जगत का मूल आधार क्या है?"
इसका उत्तर ऐसे दिया जाता है कि देखो, आमतौर पर जिसको तुम ‘जगत’ कहते हो, उसको प्रमाणित करने वाला है ही कौन। फिर समझ जाओगे कि जगत का मूल आधार क्या है।
जब तुम कहते हो कि जगत है, तुम्हें कैसे पता जगत है? तुम स्वयं हो इन्द्रियों और मन से निर्धारित, तुम्हारे अलावा कोई है ये प्रमाणित करने वाला कि जगत है? तुम ना हो तो कोई बोलेगा कि ये जगत है?
तो जगत का कोई स्वतंत्र, या मुक्त या अनाश्रित प्रमाण है नहीं उपलब्ध। ये जो चेतना है जो जगत को देखती है, सिर्फ़ यही कह रही है चिल्ला-चिल्लाकर कि जगत है। इस चेतना के अलावा कोई नहीं आज तक कहने आया कि जगत है।
"ये तो ऐसी बात हो गई… अच्छा, तो माने जगत है नहीं, ऐसा बस हमें लग रहा है?"
हाँ, बस तुम्हें ही लग रहा है। तुम ना हो तो किसी को नहीं लग रहा कि जगत है।
"नहीं, पर है तो!"
भाई, तुम्हीं तो कह रहे हो कि 'है तो'। तुम्हारे ही मुँह से तो बात निकल रही है।
"हाँ, नहीं पर दिख तो रहा है।"
अरे! भाई, तुम्हारी ही तो आँखों को दिख रहा है।
"अच्छा, अच्छा, अच्छा।"
“तो यहाँ तक तो ठीक है कि जगत की हस्ती को ही सत्यापित, सर्टिफाई करने वाले सिर्फ़ हम हैं।”
'हम' नहीं, 'सिर्फ़ हम' हैं। कोई मुक्त प्रमाण, कोई इंडिपेंडेंट प्रूफ़ उपलब्ध नहीं है। हम ना हों तो कोई और प्रमाण नहीं है।
"तो मेरी आँखें देखती हैं इसलिए है। मेरी आँखें मिट्टी को देखती हैं तो मिट्टी है।"
लेकिन बात ज़रा-सा और सोचा तो और उलझ गई, कैसे? ये आँखें माँस हैं न, माँस? माँस ही तो हैं आँखें, और ये माँस कहाँ से आया? मिट्टी से आया। माने मिट्टी मेरे देखे है और मेरा देखना मिट्टी से है। मिट्टी ना हो तो आँख ही नहीं होगी। आप मिट्टी को देख रहे हैं, और मिट्टी को देखने वाली आँख कहाँ से आयी? मिट्टी से आयी। ठीक? आप जो कुछ भी खाते हैं, वो पैदा कहाँ हो रहा है? मिट्टी से। तो आप देख रहे हो मिट्टी को और जिस उपकरण से आप देख रहे हो मिट्टी को, जो बनकर आप देख रहे हो मिट्टी को, वो आया है मिट्टी से। तो ये तो बड़ा बंधा हुआ तंत्र हो गया, क्लोज़्ड लूप हो गया।
आप कह रहे हो कि मिट्टी है। आपने कहा, "मिट्टी है।" और मिट्टी ने कहा, "आप हैं।” अरे, भाई, आपके और मिट्टी के अलावा कोई है तीसरा जो कह सके कि मिट्टी भी है और आप भी हैं? नहीं, वो तीसरा कोई है नहीं। बिलकुल नहीं है, कोई नहीं है।
तो इसका मतलब हुआ कि अभी तक जिसको हम 'जगत' कहते हैं, उसका आश्रय कौन था? हम थे। और जिसे हम 'मैं' कहते हैं, उसका आश्रय कौन था? जगत। ये तो बढ़िया है!
मुन्नू से पूछो, "तू कौन है?" तो कहता है, "टुन्नु का भाई।" और टुन्नु से पूछो, "तू कौन है?" तो कहता है, "मुन्नू का भाई।" और यहाँ कोई ऐसा है ही नहीं जो दोनों को पूछ सके, "अरे, भाई, तुम दोनों कौन हो?" ये कोई बताने वाला नहीं है। क्योंकि ये तो दोनों जो भी हैं, एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, बिलकुल जुड़े हुए हैं। ये जुड़वा भाई ही हैं, मुन्नू और टुन्नु। माने जीव और जगत ये जुड़वा भाई ही हैं।
जीव से पूछो, "तू कौन है?" वो कहता है, "वो जो जगत में रहता है।" जीव से पूछो, "तू कौन है?" तो वो कहता है, "वो जो जगत में रहता है या वो जो जगत को देखता है।" जगत से पूछो, "तू कौन है?" तो कहता है, "वो जो जीव की उत्पत्ति करता है।"
मुन्नू ने कहा कि, "हम टुन्नु के भाई", टुन्नु ने कहा कि, "हम मुन्नू के भाई", हमारी तो खोपड़ी घूम आयी। इसका मतलब जगत का अभी तक हमने जो आश्रय बना रखा था, वो आश्रय झूठा है। आश्रय माने आधार, बुनियाद। अभी तक हम जिस आधार पर सोचते थे कि दुनिया तो है ही, वो आधार ही गड़बड़ है। तो फँस गई बात।
जब फँस गई बात तो कुछ लोगों ने कुछ पाया। बड़े खोजी थे, बड़े जिज्ञासु थे, साधना की, प्रयोग किए। उन्होंने कहा, “थमो, सारी दिक़्क़त ये थी न कि ये टुन्नु और मुन्नू के अलावा कोई तीसरा नहीं मिल रहा था जो इन दोनों को निष्पक्ष और निरपेक्ष भाव से देख सके?”
जब मुन्नू को देखा जाता था तो देखने वाला कौन होता था? टुन्नु। और जब टुन्नु को देखा जाता था तो देखने वाला कौन होता था? मुन्नू।
ये जो कुछ खोजी लोग थे, वैज्ञानिक थे ये अंतर्जगत के। बाद में इनको नाम दे दिया गया ऋषि वगैरह। पर वास्तव में ये वैज्ञानिक थे। उन्होंने कहा, "हमें तीसरा मिल गया।" उन्होंने कहा, "संभव है ये टुन्नु और मुन्नू दोनों को एक साथ देख पाना कोई तीसरा हो करके।" उन्होंने तीसरे की तो बहुत ज़्यादा बात करी नहीं लेकिन इतना ज़रूर बता दिया कि ये जो दोनों हैं, इनसे हटा जा सकता है।
जीव और जगत दोनों से हटा जा सकता है, और हटना प्रमाणित करता है कि जीव ना जगत का आधार है, जगत ना जीव का आधार है। ये जो हट जाता है, वो उन दोनों का आधार है, क्योंकि वो उन दोनों को देख पाता है। जीव बेचारे की बाध्यता ये है कि वो देखेगा तो सिर्फ़ एक को, किसको? जगत को। जगत की भी बाध्यता ये है, मजबूरी ये है कि वो देखेगा तो सिर्फ़ एक को, किसको? जीव को।
ये जो कुछ लोग थे, इन्होंने कहा, "नहीं, संभव है दोनों को एक साथ देख पाना।" इन दोनों को एक साथ देखा जा सकता है। इन दोनों को एक साथ देख लेने को उन्होंने कह दिया ‘साक्षित्व’, उसी का नाम दे दिया ‘आत्मा’।
आत्मा के बारे में ज़्यादा बोले नहीं, बोले, “वो बातचीत की बात नहीं है, उसके बारे में ज़्यादा बोलचाल नहीं करनी चाहिए। लेकिन ये पक्का है कि ये जो दोनों हैं, ये पकड़ में आ गए। ये दोनों ही अर्धसत्य हैं। इन दोनों में ही कोई पूर्णता नहीं है, ये पारस्परिक रूप से निर्भर हैं। इन दोनों की पहचानें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। इनकी कोई भी आत्मनिर्भर, स्वतंत्र, मुक्त पहचान नहीं है।” टुन्नु, मुन्नू का भाई, मुन्नू, टुन्नु का भाई।
तो फिर ये समझ में आ गया कि जगत का जो आधार है, वो जीव भर है। उसमें कोई निरपेक्ष सत्यता नहीं है, एकदम नहीं है। इससे मदद मिली, क्या मदद मिली? मदद ये मिली कि जीव जब जगत को ही सत्य जान लेता है तो वो जगत में ही चैन तलाशने लग जाता है, जो उसे मिलता नहीं। अगर जगत ही सत्य है तो जीव बेचारा फँस गया क्योंकि अब उसे जगत में ही रहना पड़ेगा न और जगत में ही चैन तलाशना पड़ेगा। करता भी वो यही कोशिश है पर वो कोशिश सफल होती नहीं।
जब उस तीसरे की खोज हो गई तो पता चल गया कि कोई ज़रूरी नहीं है जगत में ही चैन तलाशना। जगत काम-चलाऊ है। झूठा तो नहीं है पर पूरा सच भी नहीं है जगत, एक काम-चलाऊ चीज़ है। चैन अगर पूरा चाहिए और असली चाहिए तो दुनिया में नहीं मिलेगा। वो बाहर मिलता है। ये जो जीव जगत का द्वैत है, इससे हटकर मिलता है। उसी का नाम है ‘साक्षी’ या ‘अद्वैत’।