संसार है मोतियों की माला, और कृष्णत्व है उसमें छुपा धागा || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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संसार है मोतियों की माला, और कृष्णत्व है उसमें छुपा धागा || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

श्रीभगवानुवाच मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्। तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।

श्रीभगवान बोले – हे अर्जुन! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विराटरूप तुझको दिखलाया है, जिसे तेरे अतिरिक्त दूसरे किसी ने पहले नहीं देखा था।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ११, श्लोक ४७

श्रीभगवानुवाच सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।

श्रीभगवान बोले – मेरा जो चतुर्भुज रूप तुमने देखा है, वह सुदुर्दश है अर्थात् इसका दर्शन बहुत ही दुर्लभ है। देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ११, श्लोक ५२

प्रश्नकर्ता: परम पूज्य आचार्य जी, भगवान श्रीकृष्ण के जिन दो रूपों का वर्णन उक्त श्लोकों में है, कृपया उसका तात्पर्य समझाएंँ। श्रीकृष्ण अर्जुन को ऐसा क्यों कहते हैं कि उनके विकराल रूप को अर्जुन से पूर्व किसी ने नहीं देखा?

दूसरी तरफ भगवान के चतुर्भुज रूप के दर्शन को भी दुर्लभ कहा। कृपया अर्थ स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांत: तो क्या देख रहे हैं अर्जुन ग्यारहवें अध्याय में? अर्जुन देख रहे हैं कि भूत से लेकर भविष्य तक जो कुछ है, श्रीकृष्ण हैं। वो देख रहे हैं कि जिस दिशा में हैं, श्रीकृष्ण हैं। वो देख रहे हैं कि पृथ्वी में जितनी भी योनियाँ हैं, वो सब श्रीकृष्ण हैं। वो देख रहे हैं कि श्रीकृष्ण ही हैं वो जिनकी पूजा कर रहे हैं महात्मा, श्रीकृष्ण ही हैं वो जिनके प्रताप से राक्षस डर-डरकर भाग रहे हैं। वो देख रहे हैं कि श्रीकृष्ण ही जन्म दे रहे हैं और श्रीकृष्ण ही के विकराल मुँह में समस्त प्राणी जा-जाकर समाए जा रहे हैं। तो क्या देखा है अर्जुन ने? थोड़ा समझिएगा।

अर्जुन को दिव्य नेत्र प्रदान करने का जो पूरा प्रसंग है, वो क्या है? एक तो ये तरीका है कि हम इसको एक दिव्य कथा की तरह ले लें और कहें कि हाँ, वास्तव में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कोई दिव्य नेत्र ही प्रदान करे थे और उससे अर्जुन को वास्तव में कोई रूप दिखाई दिया था विशिष्ट। ऐसे भी देखा जा सकता है। और ऐसे अगर आप देख रहे हैं तो उसमें कुछ गलत या कुछ बुरा नहीं है, ठीक है।

एक दूसरा तरीका भी है। वही तरीका आदि शंकराचार्य ने लिया अपने ‘गीता भाष्य’ में और वही तरीका मैं भी लेना चाहता हूँ। अर्जुन को इन हाड़-माँस की आँखों से अभी भी वही सब कुछ दिख रहा है जो उसे पहले दिखता था या जो किसी भी अन्य सामान्य आदमी को दिखता है। अर्जुन देख रहा है तो उसे कौरव दिखाई दे रहे हैं, पांडव दिखाई दे रहे हैं। अर्जुन देख रहा है आसमान की ओर तो उसे सूरज दिखाई दे रहा है, पक्षी दिखाई दे रहे होंगे। अर्जुन को ज़मीन दिखाई दे रही है। और मानसिक तल पर, स्मृति के तल पर अर्जुन ने आज तक जो कुछ देखा है, उसको वो सब भी स्मरण है।

तो फिर उसने विशेष क्या देख लिया? उसने बस वो देख लिया जो साधारण आदमी साधारण आँखों से देखते हुए भी देख नहीं पाता। उदाहरण के लिए, जब आप इस पेड़ को देखते हैं तो आप कहते हैं कि ये पेड़ है। जब आप इस खम्भे को देखते हैं तो कहते हैं खम्भा है। जब आप जन्म को देखते हैं तो कहते हैं जन्म हुआ, जब आप मृत्यु को देखते हैं तो कहते हैं मृत्यु हुई।

आप ऐसा तो नहीं कहते न कि पेड़ खम्भा है। आप ऐसा तो नहीं कहते न कि जन्म मृत्यु है। आपको इनमें कोई एकीकृत करने वाला तत्व दिखाई नहीं देता, कि दिखाई देता है? कोई आपसे पूछे कि पेड़ और खम्भा। तो आप कहेंगे कि पेड़ और खम्भा, ये दो अलग अलग वस्तुएँ हैं।

आप यहाँ बैठे हैं। मैं कहूँ, “जीव और खम्भा।” तो आप कहेंगे, “बिल्कुल, चेतन और जड़, दोनों बिल्कुल अलग है। ये चेतन है, ये जड़ है।” ठीक? “जन्म और मृत्यु।” आप कहेंगे, “दो बिल्कुल अलग-अलग सिरों कि बातें हैं।”

इसी तरीके से जब भी आप कुछ भी देखते हैं इन आँखों से, तो आपको सीमाएँ दिखाई देती हैं। इन आँखों से कुछ भी ऐसा देखा है जिसमें सीमा न हो? जो कहीं समाप्त न होता हो? असीम हो? नहीं न?

श्रीकृष्ण के समझाते-समझाते और उनके स्नेह से, उनकी संगति से, उनके आशीर्वाद से अर्जुन उस स्थिति में पहुँच गया है जहाँ वो जिधर भी देख रहा है, उसको एक केंद्रीय तत्व दिखाई दे रहा है। जैसे कि आपके सामने एक माला लाई जाए जिसमें अलग-अलग तरह रत्न हों, माणिक हों और पत्थर हों। मालाओं में क्या-क्या गुथा हो सकता है, भाई? बताइए, मुझे इन पत्थरों का ज़्यादा पता नहीं। मुझे हीरा पता है। और क्या लगा होता है? (श्रोतागण कुछ पत्थरों का नाम बताते हैं) नीलम, पन्ना और मोती।

तो इस तरह की माला है। अब माला में ये सब अलग-अलग दिखाई दे रहे हैं न? कैसे दिखाई दे रहे हैं? अलग-अलग। इन आँखों से क्या दिखाई देता है? कि ये सब अलग-अलग चीज़ें हैं। इन आँखों से क्या नहीं दिखाई देता माला में? वो जो सूत्र है जो इन सबको एक साथ पिरोए हुए है। अर्जुन को वो दिखने लग गया है, या कह दीजिए कि समझ में आने लग गया है।

उसकी आँखों को तो अभी भी वो अलग-अलग पत्थर दिख रहे हैं। पर ऐसा उसको समझाया है कृष्ण ने, ऐसा उसको ज्ञान दिया है कि वो कह रहा है कि अब मुझे अलग-अलग पत्थर ही नहीं दिख रहे, मोती भर नहीं दिख रहे, मोतियों के नीचे जो धागा छुपा हुआ है, दिखता ही नहीं था कभी, वो भी मुझे दिखने लग गया है। उसी धागे का नाम है ‘कृष्ण-तत्व’ या ‘कृष्णत्व’। ये ग्यारहवें अध्याय का सार है।

वैसा नहीं हुआ था जैसा आपने बी.आर. चोपड़ा की महाभारत में देख लिया था, कि अचानक उन्होंने विकराल रुप धारण किया और अर्जुन ऐसे (हाथ जोड़कर) बैठ गया। ऐसे पोस्टर्स वगैरह में भी खूब रहता है। वैसा आप मानना चाहते हैं तो मान सकते हैं। वैसा अगर आप मान रहे हैं तो उसमें भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। कुछ गलत नहीं हो जाएगा।

पर मैं समझता हूँ कि उसको दूसरे तरीके से देखना थोड़ा ज़्यादा लाभप्रद है, कि अर्जुन ने देखा कौरवों की ओर और उसको जीते-जागते लोग नहीं दिखाई दिए। उसने कहा कि ये लाशें हैं। ऐसा नहीं कि उसे लाशें वास्तव में दिख रही हैं, कि दुर्योधन की जाँघ टूटी हुई है और वो पड़ा हुआ है, और अर्जुन ने कहा, “देखा, मैंने पहले ही देख लिया कि ये मरने वाला है।” ऐसा कुछ नहीं हो गया है। उसको ये बात समझ में आ गई कि ये लाशें ही हैं। ये भी लाशें हैं, ये भी लाशें हैं; सब लाशें हैं। सब सीधे-सीधे जा रहे हैं कृष्ण के मुँह में। विकराल उनका मुँह खड़ा हुआ है। एक नहीं, उनके अनंत मुँह हैं।

इसी तरीके से अर्जुन ने देखा तो खूब था कि ऋषि-मुनि वंदना करते हैं, पूजा करते हैं, स्तुति करते हैं, यज्ञ करते हैं। किसकी करते हैं, अनायास उसको समझ में आ गया। बोले कि अब मुझे समझ में आया कि वो किसकी स्तुति कर रहे हैं।

तो बोल रहा है कि अब मुझे दिखाई दे रहा है। जैसे अंग्रेजी में कहते हैं न, *’नाउ आई कैन सी’*। कोई आपको कुछ समझाता है तो आप तुरंत क्या बोलते हो? *आई सी*। अर्जुन ने वैसे देखा। वो समझ गया, “*आई सी*।” यही है दिव्य चक्षु। जब आप बोलो, “*नाउ आई सी*।" आप तो कई बार यूँ भी बोल देते हो, कुछ नहीं भी समझ में आता तो भी, "*आई सी, आई सी*।” अर्जुन को वाकई समझ में आया। उसे श्रीकृष्ण की संगति मिली हुई है।

और कृष्ण कहते हैं कि देखो, बेटा, सबको समझ में आना इतना आसान नहीं है। कोई विरला ही होता है जिसे समझ में आता है। तुझे भी तभी समझ में आया जब आधी से ज़्यादा गीता बीत चुकी है। और तब भी समझ में पूरी तरह आ नहीं रहा था तुमको। बहुत मेहनत कर रहा हूँ, तरह-तरह के प्रमाण और तर्क दे रहा हूँ, तब तुम्हें समझ में आया है। तो ये जान लो कि कोई विरला होता है जिसे समझ में आता है।

यहाँ तक कह देते हैं अर्जुन से कि अर्जुन तुम पहले हो जिसको यह सब दिखाई दे रहा है, अन्यथा कोई देख नहीं पाता। और तुम्हें भी दिखाई क्यों दे रहा है? क्योंकि, बेटा, देह धरकर साक्षात होकर तुम्हारे सामने आया हूँ। पिछले बीस-चालीस साल से तुम्हारे साथ-साथ घूम रहा हूँ और अभी यहाँ कुरूक्षेत्र में भी तुम पर ज्ञान वर्षा कर रहा हूँ, तब जा करके समझ में आया है।

जब बताओ इतनी मेहनत करने से तुम्हें समझ में आया है तो बाकी लोगों को कैसे समझ में आ जाएगा? तो कह रहे हैं कि और किसी को समझ में भी नहीं आता। जिसके साथ रहता हूँ, जिसको दिन-रात समझाता हूँ, उसी को समझ में आता है।

अर्जुन ने भी बात मानी। बोले, “मुझे बिल्कुल समझ में आ रहा है। आपकी कृपा से ही मुझे ये दिव्य चक्षु मिले हैं जिनके कारण मैं आपका तात्विक रूप देख पा रहा हूँ।” उस तात्विक रूप का अर्थ समझ रहे हो? कि ये जो पूरा ब्रम्हांड है, ये वास्तव में एक तत्व का ही विस्तार है। उसी तत्व को गीता में ‘कृष्ण’ नाम से कहा गया है।

ये जो पूरा ब्रम्हांड है अपनी सारी विविधताओं के साथ, जिनमें हमें कोई एकत्व दिखाई नहीं देता, ये वास्तव में हैं एक ही तत्व का नाना प्रकार का विस्तार। विस्तार हुआ है विविधताओं के द्वारा। यहाँ सब सीमित हैं, सब सीमित हैं। अर्जुन ने गज़ब कर दिया। उसने सीमित में असीम को देख लिया।

हमें नहीं दिखाई पड़ता न? हमें नहीं दिखाई पड़ता। हमें तो जो भी चीज़ दिखाई पड़ती है छोटी-छोटी, छोटी-छोटी, और सत्य है अनंत। तो हमें इसीलिए छोटी चीज़ों में सत्य दिखाई नहीं देता। हम अकुलाए रहते हैं। अर्जुन को श्रीकृष्ण ने वहाँ पहुँचा दिया जहाँ उसे सीमित में असीम दिखाई दे रहा है। अंत में अंतहीन दिखाई दे रहा है। नानात्व में एकत्व दिखाई दे रहा है। ये कृष्ण की संगति का प्रभाव है।

इसके बाद अर्जुन कहता है कि मेरे सारे संशय दूर हो गए। सब बात समझ में आ गई है। तथ्य ये है कि अभी भी पूरे से समझ में आई नहीं है। और इसका प्रमाण ये है कि अभी भी वो कह रहा है, “देखिए, ये सब मुझे मत दिखाइए, मुझे डर लग रहा है। तो आप वापस अपने पुराने रूप में आ जाइए। ये विकराल रूप मुझे दिखाइए ही मत। मुझे डर लग रहा है। अब वापस उस पुराने रूप में आ जाइए। बहुत हुआ, मैं समझ गया।” समझा नहीं है अभी पूरी तरह से।

जब कृष्ण ख़ुद कह रहे हैं कि देहधारी के लिए, जीव के लिए आसान नहीं है समझना, तो अर्जुन कैसे पूरी तरह समझ जाएगा? हाँ, आम आदमी से कहीं ज़्यादा समझ गया। दुर्योधन क्या, भीम, युधिष्ठिर से भी ज़्यादा समझ गया, लेकिन पूरी तरह अभी भी नहीं समझा। पूरी तरह से कृष्ण को समझ जाने का तो अर्थ ये हुआ कि आप कृष्ण ही हो गए। अपना आपा जो पूरी तरह मिटा दे, वही कृष्ण को पूरी तरह समझ सकता है। अर्जुन भी अभी पूरी तरह नहीं समझा।

तो इसमें जितने भी श्लोक हैं पूरे अध्याय में, उनको जब आप सही दृष्टि से पढ़ेंगे तो अचंभित रह जाएँगे कि कितनी गूढ़ और कितनी दूर की बात कही गई है। और उसको अगर आप किस्सा-कहानी की तरह पढ़ेंगे, तो फिर उसमें आपको बहुत लाभ नहीं मिलेगा।

किस्से-कहानी की तरह पढ़ना यही है कि श्रीकृष्ण ने अपना हाथ उठाया और अर्जुन को एक विशेष आँख दे दी। और उस विशेष आँख से अर्जुन को कुछ विशेष दिखाई देने लग गया। ये कोई बहुत अच्छी बात नहीं है। ये तो मैं समझता हूँ कि ये तो श्रीकृष्ण के प्रति बहुत सम्मान की भी बात नहीं है।

जानते हैं इस तरह की बात पढ़कर आज के लड़के क्या कहेंगे? वो कहेंगे कि ये तो करीब-करीब ऐसा ही हो गया कि थ्रीडी (त्रिआयामी) चश्मा लगा लिया आँख में। हम जब अवतार पिक्चर देखने गए थे तो हमने वो चश्मा लगाया था, फिर हमें स्क्रीन पर कुछ ऐसा दिखाई देने लग गया था जो नंगी आँखों से नहीं दिखाई देता। तो श्रीकृष्ण ने भी ऐसा ही कुछ करा होगा। अर्जुन को थ्रीडी चश्मा लगा दिया होगा तो उसे कुछ खास दिखाई देने लग गया होगा।

ये कोई बाहरी चश्मा लगाने या कोई हाड़-माँस की आँखों में कुछ परिवर्तन कर देने कि बात नहीं है। ये जो दिव्य चक्षु है, ये बोध का चक्षु है। ये बहुत आंतरिक है। इसका बहुत संबंध शरीर से नहीं है। यह समझ का केंद्र है। अर्जुन की जो आँख खुली है, ये समझ की आँख खुली है।

ये देखिए न कि ये सब क्या है।

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।

पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त अर्थात् पृथक-पृथक सम्पूर्ण जगत को देवों के देव श्रीकृष्ण के उस शरीर में एक जगह स्थित देखा।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ११, श्लोक ४७

अर्जुन ने देखा कि श्रीकृष्ण पूर्णता हैं, एक विराट समग्रता हैं और ये सब देव, और स्वर्ग, और इंसान और पशु-पक्षी, ये सब उस विराट समग्रता के छोटे-छोटे अंश हैं।

वो तो वह देख ही रहा था कि ये सब हैं, लेकिन ये सब एक विराट समग्रता के अंश हैं, यह उसको नहीं समझ में आ रहा था। अब जब वो देख रहा है बाज़ को और गौरैया को तो वो उनको अलग-अलग देखकर भी एक देख रहा है। कह रहा है कि ये दोनों अलग-अलग हैं पर एक समग्रता के भीतर ही हैं दोनों।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम, मैं अपनी स्थिति को बरक़रार रखने का प्रयास करता हूँ। जैसा मैं अपने जीवन में देख रहा हूँ, तो मैं बहुत ज़्यादा अपने-आपको अभिव्यक्त नहीं कर पाता हूँ, किसी से अपनी स्थिति बोल नहीं पाता हूँ। देखता हूँ कि ये नहीं समझेंगे, इनसे बोलेंगे तो कोई फ़ायदा नहीं है। और जब कोई सहानुभूति दिखाता है या ऐसा लगता है कि ये समझेंगे, तो फिर एकदम से आँसू आने लग जाते हैं, बोलना रुक जाता है। यहाँ सब लोग अपने-आपको व्यक्त कर रहे हैं और मैं अपने-आपको बचाए-बचाए रख रहा हूँ, प्रश्न पूछने से या बोलने से भी झिझक रहा हूँ।

जिनको देख रहा था कि वो भागने की बात कर रहे हैं, उनको भी यहाँ मज़ा आ रहा है कि यहीं रुकना है। और मैं तो यहाँ रुकने का निर्णय ही करके आया था। मैंने नौकरी भी छोड़ी तो अपने ही मुताबिक। सोचा था कि योजना बनाकर छोड़ा जाए, पर वो छूट गई। और फिर वो भी अच्छा ही हुआ, अब मुझे थोड़ा इधर भी आना है जिधर खिंच रहा हूँ।

अक्सर ऐसा हो जाता है, और ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि अंदर बहुत कुछ दबाकर या छुपाकर रखा है जो अभिव्यक्त ही नहीं किया। बोलना चाहता हूँ बहुत कुछ, पर बोल नहीं पा रहा हूँ।

आचार्य: देखो, दो-तीन बातें हैं। ख़ुद को अभिव्यक्त करने के पीछे कारण क्या है और ख़ुद को अभिव्यक्त करने के आगे उद्देश्य क्या है, इन दोनों में थोड़ी स्पष्टता रखनी चाहिए। ख़ुद को अभिव्यक्त करने के पीछे अगर ये कारण है कि सब लोग बोल रहे हैं तो मैं भी बोलूँ, तो फिर अगर कभी पाओगे कि सब लोग नहीं बोल रहे हैं तो मैं भी न बोलूँ।

अगर सब लोगों के बोलने के कारण बोल रहे हो तो फिर तो तुम बस एक समुदाय का हिस्सा होना चाहते हो। मीठा समुदाय है, भले लोगों का समुदाय है, लेकिन फिर भी इच्छा तो यही रह गई न कि मैं एक समुदाय का हिस्सा हो जाऊँ? सब लोग होली खेल रहे हैं, मैं भी खेलूँ। दिवाली है, सबने दीप जलाए हैं, मैं भी जलाऊँ। अगर सबकी देखा-देखी दीप जला रहे हो तो तुम्हारी निष्ठा समुदाय के प्रति है या राम के प्रति? बोलो।

तो अपने-आपको अभिव्यक्त करने के पीछे ये कारण नहीं होना चाहिए कि इन्होंने भी बोल दिया, उन्होंने भी बोल दिया। वो तो भागना चाहता था लेकिन फिर भी अब भाग नहीं रहा, उसको यहाँ अच्छा लग रहा है। तो बिल्कुल अब दीप जल गए हैं चारों तरफ, मैं क्यों पीछे रह जाऊँ। गंगा बह रही है, मैं भी हाथ धो ही लेता हूँ।

ये गंगा रोज़ नहीं बहती है। आज ऐसा है कि यहाँ पर चलो थोड़ा ख़ुशगवार है मौसम। जो लोग मुझे ज़्यादा सुनते हैं और कई बार आ चुके हैं, वो भलीभाँति जानते हैं कि यहाँ पर बहुत दफ़े माहौल बहुत वज़नी भी हो जाता है। ऐसा लगेगा तुम्हें जैसे तुम्हारे कंधों पर हवा का पाँच टन का बोझ है। तुम देखोगे तो दिखाई कुछ नहीं देगा पर हवा ही भारी हो जाती है। वो तो वक़्त-वक़्त की बात है। मौसम बदलते रहते हैं।

अगर ये कहोगे कि आज सब कुछ बहुत हल्का-हल्का है। मैं बोल दे रहा हूँ तो बस आज-ही-आज बोल पाओगे, कल का कुछ भरोसा नहीं मेरा। ऐसे नहीं। बोलने के पीछे ये कारण उचित नहीं है कि दूसरों ने बोला तो हम भी बोल देंगे। तुम यहाँ किसके लिए आए हो? दूसरों के लिए आए हो या मेरे लिए आए हो?

दीवाली तुम गली-मोहल्ले के लिए मनाते हो या राम के लिए मनाते हो? ये बहुत-बहुत प्रचलित भूल है कि जो सब लोग करते हैं — आप लोग भी सावधान रहिएगा — हम बिल्कुल भूल जाते हैं कि हम यहाँ किसी समुदाय, किसी पंथ का हिस्सा बनने नहीं आए हैं। हम यहाँ किसलिए आए हैं? हम यहाँ आपस में रिश्तेदारी करने नहीं आए हैं।

आप सब यहाँ ‘एक’ की खातिर आए हैं, सच्चाई की खातिर आए हैं, फिलहाल जिसका ये व्यक्ति (मैं स्वयं) प्रतिनिधि जैसा प्रतीत होता है। जब ये व्यक्ति उसका प्रतिनिधि न प्रतीत हो तो इसकी भी मत सुनिएगा। आपको इससे भी रिश्ता नहीं रखना है। आपस में तो नहीं ही रखना है, इससे भी रिश्ता नहीं रखना है। रिश्ता आप किससे रखने आए हैं? सच्चाई से।

मेरी भी बात आप इसलिए सुन लीजिए और तभी तक सुन लीजिए जब तक मैं जो बोल रहा हूँ उसमें सच्चाई की अनुगूँज हो। न हो तो फिर मत सुनिएगा। तो जब मैं कहता हूँ कि मुझसे भी व्यक्तिगत रिश्ता रखना भूल है, तो ये बताओ कितनी बड़ी भूल है अगर आपस में रिश्ते रख लिये? और ये खूब होता है क्योंकि हम रिश्तेदारी के बड़े भूखे होते हैं। हम रिश्तेदारी के बड़े भूखे-प्यासे होते हैं।

एक समय था जब फाउंडेशन के पचास-साठ-सत्तर तक वॉट्सएप्प ग्रुप थे। फिर धीरे-धीरे करके कम किए गए। अभी एक दो महीने से तो और कम किए जा रहे हैं। आज आपका जो ‘अद्वैत बोध शिविर’ का ग्रुप है, वो भी तिरोहित कर दिया जाएगा। क्यों? क्योंकि उनका उपयोग सत्य से रिश्ता बनाने की जगह आपस में रिश्ता बनाने के लिए हो रहा था।

क्या लाभ है? क्या करोगे? ये क्या कर रहे हो? भूल ही गए, किसके लिए आए थे? एकदम भूल गए? परिवार खड़ा कर दिया। नाम ही यही देना शुरु कर दिया कि हम तो एक संयुक्त परिवार हैं। क्या कर रहे हो बाबा? परिवार बनाना भी है तो कबीर साहब बता गए हैं न कैसा परिवार बनाना है। कौन सा परिवार? सत्य है पिता, क्षमा है माता।

ये वो वाला परिवार बनाना था न जिसमें सत्य, धर्म, क्षमा, आर्जव, ये लोग हों। हम ये परिवार बना लेते हैं फलाने भईया, फलानी दीदी, कोई ताऊ बन गया किसी का, कोई अंकल हो गया किसी का। अरे! (माया) आंटी से ख़बरदार रहो, यार। ये सब आंटी की करतूतें हैं। वो जो इतने रिश्तेदारी तुम लोगों की बिल्कुल जमा देती है।

नतीजा ये होता है कि कुछ दिनों में सच्चाई बिल्कुल एक तरफ और आपस की गुटुर-गू का कोई अंत नहीं। ठीक कह रहा हूँ न? समझ रहे हो।

तुम्हें किस उद्देश्य से एक-दूसरे की संगत दी थी, और उद्देश्य बिल्कुल दूसरा बन जाता है। और शुरुआत ऐसा ही हो जाता है जैसे तुमने करी, कि देखो सब कितने भले लोग हैं। यही तो मेरा असली परिवार है। ये ख़तरनाक वक्तव्य था, बचना। तुम यहाँ भूलो नहीं कि एक दूसरे के लिए नहीं आए हो।

वास्तव में कोई आवश्यकता भी नहीं है कि इतने लोगों को एक साथ रखा जाए। एक साथ रखना मजबूरी है वरना मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो जाएगा न कि एक घंटा इनसे बोलूँ, फिर दूसरा बैठा है, उनको बोलूँ। या फिर ये चला जाए, फिर अगला आए। तो सिर्फ़ अपना श्रम बचाने के लिए इतने लोगों को सामूहिक तौर पर सम्बोधित करता हूँ मैं। नहीं तो कोई ज़रूरत नहीं है बिल्कुल कि आप लोग एक दूसरे का नाम भी जानें, चेहरा भी जानें। और ये कर मत लीजिएगा। और ये खूब हुआ है।

यही अद्वैत बोध शिविर ही था। ऋषिकेश में था। कई बार बता चुका हूँ। एक सज्जन और एक देवी जी थीं। तब चार दिनों का होता था। वो तीसरे दिन गायब हो गए। और वो दोनों एक दूसरे से बिल्कुल अनजान थे पहले दिन। तीन दिनों में इतना उनका परिवार बना कि परिवार ही बन गया। और तीसरे दिन वो गायब। भूल ही गए कि यहाँ किसके लिए आए थे। जिसके लिए आए थे, उससे कोई मतलब ही नहीं। वो अपना ही निकल लिये। ये बात हुई कारण की। अभिव्यक्ति का कारण उचित होना चाहिए।

दूसरी बात है अभिव्यक्ति के उद्देश्य की, कि उद्देश्य क्या है उसका। अभिव्यक्ति का एक बहुत घातक उद्देश्य भी होता है। जानते हो क्या? सहानुभूति पाना, कि मैं अपना दु:ख-दर्द बयान करूँगा तो दूसरा मुझे सहानुभूति देगा और दूसरा मुझे जायज़ ठहरा देगा। हम ये खूब करते हैं न? और जो ही हमें सहानुभूति दे दे, वो हमें कितना प्यारा लगता है। और किसी के सामने आप अपने आँसू झराएँ और वो आपको ऐसे देखे (ऊब से), तो दिल से आग उठेगी बिल्कुल।

यहाँ हमने तुम्हें अपनी दिल की गहराइयों का और ग़म का अफ़साना सुनाया और तुम जम्हाई मार रहे हो हमारे ही सामने। और कितना न प्यारा लगता है कि आप रो रहे हों और सामने वाला भी दो बूँद रो दे आपके लिए, या ये कह दे कि बड़ा गलत किया है ज़माने ने तुम्हारे साथ। कसम से जानूँ, तुमने इतनी नाइंसाफी झेली कैसे? फिर तो पूछो ही मत, बरसात हो जाती है बिल्कुल। बह निकलते हो। अरे, ये होता है कि नहीं होता? बोलो।

ऐसी तो होती हैं हमारी अभिव्यक्तियाँ, ख़ासतौर पर हम जिनको कहते हैं दिली या हार्दिक अभिव्यक्तियाँ। मैं तो बिल्कुल खबरदार हो जाता हूँ जब कोई कहता है कि आज कुछ दिल की बात बतानी है। मैं कहता हूँ, “आंटी का हमला हुआ।” ये जो दिल की बात है, वो बताने नहीं आया है, ये मुझे लपेटने आया है। एम.टी.एम. वग़ैरह जब होते हैं तब तो अतिसतर्क रहना होता है। वहाँ तो शुरुआत ही कई बार बाढ़ से होती है। मैं ऐसे देख रहा हूँ।

मैंने ये जो बोल दिया न, इसने मामला चौपट कर दिया। नहीं तो तुम देखते, ख़ुद ही प्रयोग के तौर पर देखते कि सत्र के बाद तुम्हें कितने नए दोस्त बन जाने थे। बहुत सारे लोग तुम्हारे पास आते, कहते कि कुछ दु:ख है तुम्हारे जीवन में। कुछ गलत हुआ है तुम्हारे जीवन में? बहुत सच्चे आदमी लगते हो तुम। क्योंकि दुष्ट लोग तो मज़े मारते हैं। कोई रो रहा है तो सच्चा ही आदमी होगा। होता कि नहीं होता? बोलो।

अच्छा, ख़ुद ही बता दीजिएगा ईमानदारी से। जब ये अपनी अभिव्यक्ति कर रहे थे तो आपके मन में इनके लिए संवेदना आ गई थी कि नहीं आ गई थी? आ गई थी न? और उस संवेदना का इनको लाभ भी पूरा-पूरा मिलता, पूरा लाभ मिलता। दो-चार लोग जाते, कोई रुमाल देता, कोई कुछ देता। और कोई हमउम्र लड़की आकर रुमाल दे-दे फिर तो कहना ही क्या! ये सब होता है, भाई। किस्सा नहीं सुना रहा हूँ।

अभिव्यक्ति का उद्देश्य सहानुभूति बटोरना नहीं हो सकता, अभिव्यक्ति का एक ही उद्देश्य होना चाहिए – खाली हो जाना। जिसको अभिव्यक्त कर दिया, उससे आज़ाद हो गए।

अगर अभिव्यक्ति तुम्हारी आज़ादी के लिए है, तब तो ठीक है। बोला इसलिए है ताकि कचरा बाहर निकाल दें और फिर उसको बिल्कुल भुला दें। पर तुम उस कचरे का उपयोग कर रहे हो मक्खियों को आकर्षित करने के लिए तो ये बड़ी गड़बड़ बात हो गई। कचरा बड़ा उपयोगी होता है न। निकालो बाहर ऐसे, जहाँ उसकी बदबू फैले तहाँ दुनियाभर की मक्खियॉं आकर्षित हो जाएँगी। आमतौर पर हम अपने दिमागी कचरे का उपयोग इसीलिए करते हैं — निकाला बाहर, सब मक्खियॉं आकर उसमें लगेंगी बैठने।

तुम्हें दोस्त मिल गए मक्खी बाई, मक्खा राज। फ्रेंड रिक्वेस्ट आ जाएगा फिर पीछे से। फोन नंबर ले लेना। समझ में आ रही है बात?

दूसरे से जब कुछ बोल रहे हो, ख़ासतौर पर जब उसे अपना दर्द सुना रहे हो, बहुत सावधान रहो। दर्द से मुक्ति अगर उद्देश्य है तुम्हारा तो ठीक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम दर्द को औज़ार की तरह, शस्त्र की तरह इस्तेमाल कर रहे हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम दर्द के लाभ इक्कट्ठा करना चाहते हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम दर्द को पूँजी की तरह इस्तेमाल करके ब्याज़ बटोर रहे हो? और ये खूब होता है। आदमी कहता है कि जब दर्द है ही तो इससे कुछ मुनाफ़ा बनाया जाए। दर्दीले लोगों से बचना, एकदम।

दूसरे को सुनाना ही है तो अपने तेज़ की बात सुनाओ न, अपने प्रताप की बात सुनाओ न। बताओ कि किन संघर्षों में तुम हौंसले के साथ खड़े हुए हो। यह मत बताओ कि उन संघर्षों में तुम्हें घाव कितने लगे हैं और खून कितना बहा है। उसे अपना हौसला दिखाओ, अपने घाव नहीं।

और देखो, बेटा, घाव हम सबके पास हैं। है कोई ऐसा जिसे ज़िन्दगी ने घाव न दिए हों? कोई है? पर दूसरे को क्या दिखाना चाहते हो? घाव? मैं यहाँ बैठ करके तुम्हें अपनी दर्द भरी दास्तानें सुनाऊँ तो तुम्हें क्या मिलेगा मुझसे? बताओ। बोलो। फिर मैं ही न सुनूँ ख़ुद को। बोलते-बोलते बाहर निकल जाऊँ। कहूँ कि ये जो कुछ भी है, मेरे भी कान में आ रहा है। सुनने लायक नहीं है। बाहर निकलो।

संघर्ष में हम सभी हैं। ज़िन्दगी युद्ध तो है ही। दूसरे को क्या दिखाना चाहते हो? अपनी चोट, अपनी हार या अपना हौसला? अपना हौसला दिखाओ न दूसरे को। बचना ऐसे लोगों से जो बार-बार तुम्हें अपनी चोट और अपने घाव दिखाते हों। उसके पास जाना, जिसके पास चोट भी है, घाव भी है, फिर भी उसका हौसला नहीं टूट रहा।

और आपसी ताल्लुकात से थोड़ा बचो। ये कोई सामूहिक केंद्र नहीं है। क्लब नहीं है कि यहाँ नेटवर्किंग के लिए आ गए हो। और कई लोगों ने अब तक कर भी ली होगी। कर ली है न? (सब हँसते हैं)

प्र३: आचार्य जी, जो सत्य की बात आपने बताई कि हम यहाँ सब सत्य की साधना के लिए आए हुए हैं। तो ये सत्य क्या है? इसको कैसे पहचानें?

आचार्य: झूठ क्या होता है, वो पहचानना होता है। आज खूब बात करी है न हमने कि शांति नहीं पहचानी जा सकती, सिर्फ़ शोर पहचाना जा सकता है। तो सच तो निराकार है, उसको क्या पहचानोगे? झूठ पहचाना जा सकता है। उसके कई चेहरे हैं, कई आकार हैं। झूठ को पहचानों।

आध्यात्मिक साधना सत्य को साधने को नहीं, झूठ को पहचानने की होती है।

सत्य को पाना बड़ी विचित्र बात है। तुम जीव, तुम स्वरूप, तुम अरूप को पाने निकले हो? कैसे? कि जैसे कोई कार निकली हो मंगल ग्रह पर जाने के लिए। तुम्हारा आयाम दूसरा है। तुम ज़मीनी आयाम पर ही चलोगे। जहाँ पर भी जाना चाहो, चले जाओ, पर जाओगे ज़मीन पर ही, मंगल थोड़े ही पहुँच जाओगे।

वैसे ही तुम साकार हो और सत्य निराकार। उस तक कैसे पहुँच जाओगे तुम? कार मंगल तक नहीं जा सकती और साकार निराकार तक नहीं जा सकता। झूठ को पहचानों, झूठ को। मज़ा आएगा। पकड़ो उसे। और सबसे ज़्यादा मज़ा पता है किसको पकड़ने में है? अपने झूठ को। एकदम अंदर मामला खिल जाएगा जैसे ही अपना झूठ पकड़ोगे।

हम सबसे ज़्यादा अपने साथ ही धोखा करते हैं। न जाने क्या-क्या हमने ख़ुद को किस्से सुना रखे हैं। दूसरों को तो हम बाद में उल्लू बनाते हैं। सबसे ज़्यादा बेवकूफ़ हमने ख़ुद को बना रखा है। अपने झूठों को पकड़ो, देखो कितना आनंद आता है।

झूठ से दो-चार सवाल करो, वो चिढ़ जाता है। पलटकर भागने की कोशिश करता है और गिरकर बिखर जाता है। क्यों? पाँव तो होते नहीं उसके। सच को कोई आपत्ति नहीं होगी, उससे तुम कितने भी सवाल कर लो। झूठ तभी तक तुम्हारे सामने खड़ा रहेगा, जब तक तुम उसकी ओर मुस्कुराते रहो। जैसे ही तुमने उससे दो-चार कड़े सवाल किए, उसके चेहरे पर कठोरता आ जाएगी और वो तुमसे रिश्ता तोड़ना चाहेगा और भागना चाहेगा।

प्रयोग करो, प्रश्न करो, परीक्षण करो, यही है झूठ पकड़ने का तरीका। झूठ किस्से सुनाता है न? उन किस्सों को तथ्यों की कसौटी पर कसो, कि जो किस्सा बताया गया उसमें कुछ दम है या नहीं है। कोई आए, बोले, “मैं तेरा सच्चा दोस्त हूँ।” बोलो, “भाई, दस लाख उधार में चाहिए।” इस प्रयोग से भी निकल जाए तो कुछ आगे का प्रयोग करके देख लो।

जिन्होंने भी झूठ से मुक्ति पाई है, कड़े सवाल-जवाब, इंटेरोगेशन से ही पाई है। बैठ ज़रा, बात कर, “क्या है?” और वो बातचीत करने से हम बहुत घबराते हैं क्योंकि कहीं-न-कहीं हमें भी पता है कि सामने जो है, वो झूठ है। उससे बातचीत करी नहीं कि वो हमसे रिश्ता तोड़ देगा। उससे अगर हमने ज़रा सी भी सच्ची बातचीत करी तो वो रिश्ता तोड़ देगा। तो उससे वही सब बातचीत करो जो ज़रा सतही हो, आरामदेह हो, जिसमें सुविधा न टूटती हो। गहरी बात करी नहीं कि झूठ भगता है।

बुद्ध ने पूछे थे सवाल। तमाम तरह के झंझटों से मुक्ति पा गए। किससे पूछे थे? अपने कोचवान से। वाल्मीकि ने पूछे थे सवाल, वो भी झंझट से मुक्ति पा गए। किससे पूछे थे? अपनी पत्नी से। अष्टावक्र से पूछे गए थे सवाल। किसने पूछे थे सवाल? जनक ने। वो भी मुक्ति पा गए। असली सवाल थे, खरे सवाल थे।

या तो तुम पूछो सवाल या तुम्हें कोई ऐसा चाहिए जो तुमसे पूछे सवाल। जैसे अंगुलिमाल को बुद्ध मिल गए थे। उन्होंने अंगुलिमाल को पकड़ लिया, बोले कि तुझसे सवाल पूछूँगा। फँस गया अंगुलिमाल। साधारण सवाल तो उससे हो सकता है कुछ लोग पूछते भी रहे हों, वैसे उसमें भी मुझे शंका है।

अंगुलिमाल से सवाल पूछ करके गर्दन कटानी है? पर बुद्ध ने पकड़ लिया। बुद्ध बोले कि मैं पूछूँगा। अंगुलिमाल बोला, “ठहर जाओ।” “मैं ठहरा ही हुआ हूँ। तू कब ठहरेगा?” अब ल्यों, अंगुलिमाल के पास कोई जवाब ही नहीं। अंगुलिमाल बुद्ध को बोल रहा है, “ठहर जा।” जैसे वो सबको बोला करता था लूटने के लिए। बुद्ध बोले, “मैं तो कब का ठहर गया। तू कब ठहरेगा?” ल्यों, गड़बड़ हो गई।

तुम्हें भी ज़िन्दगी में कोई चाहिए जो ऐसे सवाल पूछा करे। और तुम्हें बहुत चिढ़ आएगा। उससे बड़ी कोफ़्त उठेगी। कि तुम कहो, “यहाँ आना।” और वो बोले, “क्या आना और क्या जाना, चार दिन का अफ़साना।” तुम्हारे पूरे मूड पर पानी फिर जाएगा। तुम कहोगे, “जब देखो तब ये सत्य ही झाड़ता रहता है।”

पर कोई चाहिए जो तुम्हें थोड़ा रगड़कर रखे। और तुम्हारे साथ जो लोग हैं, तुम उन्हें रगड़कर रखो। जो असली होगा, उसको रगड़ोगे तो चमक जाएगा। जो नकली होगा, उसे रगड़ोगे तो झड़ जाएगा। सोना हो, चाँदी हो और कोई पक्की धातू हो, उसको रगड़ते हो तो क्या होता है? वो चमक जाती है। और रेत का घरौंदा हो जिस पर ऊपर-ऊपर तुमने कुछ किसी तरह रंग कर दिया हो, उसको तुम रगड़ दो तो? झड़ जाएगा। ये तुम्हें नया आध्यात्मिक सूत्र दिया है – रगड़म-रगड़ाई।

प्र४: प्रणाम, गुरुदेव। अगर कोई ऐसा प्रसंग है जिसमें आपको बहुत डर लग रहा है या घबराहट है, और ये भी पता चल रहा है कि ये अपने प्रति जो अपनी छवि हमने बनाकर रखी है कि लोग हँसेंगे या फिर कुछ ताने कसेंगे। तो ये दिख जाने के बाद अगली बार जो डर होता है, घबराहट होती है, वो धीरे-धीरे कम होती जाती है या उसे बहुत समय लगता है?

आचार्य: : कुछ भी हो सकता है। नीयत साफ़ होनी चाहिए। नीयत साफ़ हो, उसके बाद अगर प्रगति धीरे-धीरे भी हो तो कोई बात नहीं। बात इसकी नहीं है कि कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हो, बात इसकी है कि तुम्हारी जितनी भी क्षमता है, तुम उसके साथ न्याय कर रहे हो या नहीं। और प्रकृति ने सबको क्षमताएँ अलग-अलग दी हैं।

कोई ऐसा भी होता है कि क्रौंचरूदन मात्र सुनकर ऋषि हो जाता है, काव्य झरने लगता है उससे, महाग्रंथ लिख देता है। कोई ऐसा भी होता है कि उम्र भर बुद्ध के साथ रहा, फिर भी उसको ज्ञान तभी मिला जब बुद्ध की मृत्यु हो गई। किसी को चालीस साल लग जाते हैं, किसी का काम चार पल में हो जाता है। नीयत साफ़ रखो बस। दिशा ठीक होनी चाहिए। गति तो प्रकृति की बात है। यहाँ धीरे चलने वाले भी हैं, तेज़ चलने वाले भी हैं।

अर्जुन भी है, जहाँ अट्ठारह अध्याय लग रहे हैं और ऐसे-ऐसे भी उल्लेख हैं उपनिषदों में जहाँ पर चार सूत्रों में काम हो गया है। ज़ेन में जाओगे तो वहाँ तो सूत्र भी नहीं दिए जाते, वहाँ इशारे में काम हो जाता है। वो और आगे का खेल है कि ज़ेन साधक घूम रहा था बाज़ार में और उसने देखा कि एक पेड़ से एक पत्ता गिर रहा है और उसे तत्काल बोध प्राप्त हो गया। ऐसे भी होते हैं कि पत्ता भर गिरता देख उनका काम हो जाता है। और ऐसे भी होते हैं जिनको बड़ी लंबी साधना करनी पड़ती है। फ़िक्र मत करो, नीयत साफ़ रखो।

प्र४: जैसे कि आपने कहा कि प्रेम एक उपकरण ही होता है।

आचार्य: प्रेम क्या होता है?

प्र४: मतलब एक साधन होता है।

आचार्य: हाँ।

प्र४: लेकिन अगर प्रेम हो ही न तो वो यात्रा भी पूरी न होगी?

आचार्य: प्रेम सबको होता है। हर कामना प्रेम का ही रूप है। इच्छा होती है? ऐसा कोई है जो यहाँ पर इच्छा रहित है? प्रेम भी एक इच्छा है। इच्छा ऊँची है तो प्रेम कहलाती है वो, नीची हो तो फिर हम उसे कामना कह देते हैं, और भी नीची हो तो वासना कह देते हैं। खिंचाव ही एकदम निम्नतम तल का हो तो कहलाता है? वासना। थोड़ा उठे तो कहला देता है? कामना। और उठे तो कहला जाता है? प्रेम। उसी प्रेम से ही मिलता-जुलता शब्द है मुमुक्षा। वो भी इच्छा ही है।

तो कोई यह कहे ही नहीं कि उसे प्रेम नहीं है। इच्छा तो है न? जिस चीज़ की इच्छा है, उसकी ओर खिंच रहे हो। समझ लो यही प्रेम का आरंभिक रूप है। इसी को उठाना है, और उठाना है, ऊपर ले जाना है।

प्र४: ऐसा लगता नहीं है कि अपूर्ण सा है।

आचार्य: नहीं, ग़लत कह रहे हो। अभी तुम्हारा गला दबाने लगे या तुम्हें पानी में डाल दे तो तुम्हारी जीने की इच्छा थोड़ी-थोड़ी रहेगी या बिल्कुल छटपटाकर ताकत से हाथ-पाँव चलाओगे? बोलो। माने तुममे भी प्रबल इच्छा है न? बस ये जो प्रबल इच्छा है, अभी जीवेषणा है। वो ये कह रही है कि मुझे किसी तरह बस जिए जाना है। वही प्रबल इच्छा मुमुक्षा बन जाती है। हर व्यक्ति में प्रबल इच्छा है। बस वो इच्छा अभी शरीर के तल पर कैद है। इतनी हममें इच्छा रहती है कि शरीर बना रहे, शरीर के सुख रहें। उसी इच्छा का आरोहण करना है।

प्र५: आचार्य जी, आपने बताया कि अगर झूठ पकड़ना है तो सवाल करने होंगे। तो कई बार ये होता है कि हम सवाल करते हैं और हमें उत्तर मिलता भी है कि क्या सही है, क्या गलत है। लेकिन उसके बाद आलस होता है, और हम सही दिशा में काम नहीं करते।

एक उदाहरण मैं देना चाहूँगा, जैसे आपको सुनने के बाद मेरा एक-दो घंटे प्रतिदिन का समय व्यर्थ जाता था फालतू चीज़ों में, वो बंद हो गया। लेकिन उसके बाद भी वो एक-दो घंटे बाद भी मैं कुछ नहीं करता हूँ, बस आलस में पड़ा रहता हूँ। तो क्या करें?

आचार्य: आलस न करें। (सभी लोग ज़ोर से हँसते हैं)

कुछ नहीं बता पाऊँगा, बेटा, मैं इसके आगे। मैं तुम्हारी ज़िन्दगी नहीं जी सकता न। मैं तुम्हारी देह में घुसकर, मैं तुम्हारी ज़िन्दगी नहीं जी सकता न।

एक बिंदु पर आ करके कोई मित्र हो, पथप्रदर्शक हो, चाहे गुरु बोल लो, वो बेबस हो जाता है। वो कुछ नहीं कर सकता। क्या करेगा? फिर वो प्रतीक्षा करता है कि कोई दिन ऐसा आएगा जिस दिन तुम ज्ञान को जीवन में उतारोगे।

अब मैं तुम्हें कोई बहुत शास्त्रीय उत्तर दे दूँ, घुमा-फिराकर बात बोल दूँ, उससे कुछ होगा नहीं। क्योंकि अंततः काम किसको करना है? तुम्हें ही करना है न? कोई भी शब्द, कोई भी सिद्धांत तुम्हारे लिए काम थोड़े ही करेगा। हाथ-पाँव तो तुम्हें ही हिलाने हैं। ‘हाँ’ बोलो, रजामंदी दो, फिर होता है काम।

प्रतिदिन भीतर-ही-भीतर यह प्रण दोहराया करो कि जहाँ कहीं भी सच और झूठ सामने होंगे, मैं सच को ‘हाँ’ बोलूँगा-ही-बोलूँगा, चाहे बुरा लग रहा हो, चाहे आलस आ रहा हो।

इतनी बार कहता हूँ न कि साधना अपने खिलाफ़ जाने का नाम है। अपने भीतर तो यही सब भरा हुआ है। सो जाओ, आलस कर लो, बहाना मार दो। इन सबके खिलाफ़ जाना पड़ता है।

प्र६: इंसान का जो शरीर है पूरा, वो आया तो प्रकृति से ही है। तो प्रकृति ने ऐसा शरीर बनाया ही क्यों कि उसे मुक्ति की चाहत है?

आचार्य: खुफ़िया राज़ है ये। (सभी लोग हँसते हैं)

इसका उत्तर यह है कि तुम्हें यह प्रश्न क्यों आया। तुम्हें क्यों आया यह प्रश्न? किसी जानवर को क्यों नहीं आता? तुम्हें क्यों आ रहा है? पता करो।

आदमी है ही ऐसा। “क्यों है ऐसा?” यह मत पूछो। आदमी है ही ऐसा कि वो बेचैन है और वो सोचता है, जानवर नहीं सोचते। आदमी प्रश्न करता है, जानवर नहीं प्रश्न करते। आदमी को जवाब नहीं मिला तो वो विकल हो जाता है, जानवर को जवाब नहीं मिला क्या फ़र्क़ पड़ता है।

प्र६: जवाब पाने की जो इच्छा है, क्या ये इसलिए है कि इंसान दो पैरों में आ चुका है?

आचार्य: ऐसा भी कह सकते हो कि शरीर ऐसा है। ऐसे भी कह सकते हो कि लीला है। हम नहीं जानते कि शरीर की वज़ह से है या किसी और वज़ह से है। कारण खोजोगे तो कारण तुम कह सकते हो कि शरीर में निहित है।

बहुत लोगों ने कहा है कि कारण शरीर में निहित है। कारण ये बताए गए कि आदमी दो पाँव पर चलता है। तो मस्तिष्क की ओर गुरुत्वाकर्षण के कारण कम खून जाता है। कम खून जाता है तो खून का दबाव कम रहता है। खून का दबाव कम रहता है तो महीन-महीन कोशिकाएँ विकसित हो पाई हैं। भाई, पानी का बहाव बहुत तेज़ हो तो सब कुछ बहा ले जाएगा न। आदमी के यहाँ (मस्तिष्क) पर खून का दबाव कम हो गया है तो महीन-महीन कोशिकाएँ विकसित हो पाईं, जैसे नदी का बहाव हल्का हो तो उसमें घास वगैरह विकसित हो सकती हैं। तो आदमी के कुछ ख़ास चीज़ें विकसित हो गई हैं। कहने वाले ऐसे भी बताते हैं।

कहने वाले ये भी बताते हैं कि बात इसमें मस्तिष्क की है ही नहीं, ये कोई और बात है। कारण खोजने की बात नहीं है, तथ्य स्वीकार करना ज़रूरी है। तथ्य ये है कि आदमी बेचैन है, चाहे वो मस्तिष्क की वज़ह से हो, चाहे वो मस्तिष्क के किसी कारण के वज़ह से हो, और उसके बेचैनी का इलाज मस्तिष्क में नहीं है। तुम मस्तिष्क के साथ कुछ भी कर लो, मस्तिष्क शांत नहीं हो जाने वाला।

और अगर तुमने भौतिक उपायों से मस्तिष्क को शांत कर दिया, तो वो शांति झूठी होगी। भौतिक उपायों से भी मस्तिष्क को शांत किया जा सकता है। कई तरह के भौतिक उपाय हैं जो मस्तिष्क को शांत कर सकते हैं। कोई गोली खा लो, कोई इंजेक्शन लगा लो या हथौड़ा, वो भी तो एक भौतिक उपाय ही है। एक हथौड़ा मस्तिष्क को बहुत शांति दे देगा हमेशा के लिए। लेकिन ये असली शांति नहीं होगी, कि होगी?

तो जिन्होंने मस्तिष्क की बेचैनी की वज़ह ढूँढी, उन्होंने कहा कि बेचैनी की वज़ह और चैन का श्रोत एक ही होंगे न। जिसके लिए बेचैन हो, पता चल जाएगा उसका अगर ये देख लो कि चैन कहाँ से आ रहा है। तो उन्होंने पाया कि अगर भौतिक वज़ह होती, तो भौतिक वज़ह से फिर चैन भी आ जाता। लेकिन भौतिक वज़हों से चैन तो मिलता नहीं, मिलता भी है तो वो क्षणभंगुर, थोड़ी देर को हल्का-फुल्का।

तो माने आदमी की बेचैनी की वज़ह मस्तिष्क का जो ढाँचा है, उसकी जो संरचना है, वो नहीं है। फिर कोई और ही बात है। क्या बात है? वो हम कभी जान नहीं सकते। ये प्रकृति की पूरी व्यवस्था में आदमी का ही खोपड़ा ऐसा क्यों है जिसे मुक्ति चाहिए?

तो फिर कुछ लोगों ने एक और बात बोली। बोले कि तुम्हें क्या पता कि आदमी का ही खोपड़ा ऐसा है जिसे मुक्ति चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने इस सीमित खोपड़े से पूरी प्रकृति को देखते हो और तुम्हें लगता है कि हमें ही चाहिए मुक्ति, औरों को नहीं चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि पूरी प्रकृति तुम्हारे माध्यम से मुक्ति तलाश रही हो। हो सकता है कि जो मुक्ति तुम माँग रहे हो, वो तुम्हारी व्यक्तिगत मुक्ति न हो, पूरी प्रकृति की मुक्ति हो। हो सकता है कि जब एक को निर्वाण मिलता हो तो उसके माध्यम से निर्वाण बहुत व्यापक हो जाता हो।

तो ये भी नहीं कह सकते कि प्रकृति को वास्तव में मुक्ति नहीं चाहिए। हो सकता है प्रकृति ने इंसान को अपना प्रतिनिधि बनाया हो कि तुम आगे-आगे चलो मुक्ति लेकर आओ और पीछे-पीछे ये सब चील, कौवे, ये सब भी आएँगे। इन्हें भी मुक्ति चाहिए, भाई।

कुछ पता नहीं। लेकिन एक बात पक्की है कि बेचैन तो हो, और यही याद रखो।

प्र३: आचार्य जी, यह बोला जाता है कि जो भी है, वो तो शाश्वत मुक्त है, वो तो सनातन मुक्त है। तो फिर जब इंसान का शरीर नहीं आया था तो मुक्ति थी किसकी? क्योंकि मुक्ति तो इंसान ही चाहता है। और जो सनातन मुक्त है, फिर वो उस वक़्त क्या सनातन मुक्त था जब इंसान का शरीर विकसित ही नहीं हुआ था?

आचार्य: उस वक़्त। ठीक। तो जब चेतना नहीं थी तो वक़्त था?

प्र३: इंसान की चेतना नहीं थी।

आचार्य: फिर किसकी थी?

प्र३: जिसकी थी उसकी। मतलब अभी जो दिखती है। अभी जैसे खरगोश तो है ही, तो उस वक़्त भी थी, होगी ही।

आचार्य: खरगोश भी किसको दिख रहा है? तुम्हारी चेतना में ही है। मैंने कहा कि तुम नहीं रहे तो सूरज भी नहीं रहेगा। तो तुमने कहा, “ठीक है। मैं नहीं हूँ तो सूरज भले नहीं है पर खरगोश तो होगा।” जब तुम नहीं हो तो खरगोश कहाँ है?

ये विज्ञान जितने किस्से बताता है न, कि आदमी नहीं था पर आदमी से पहले ये सब कुछ था, वो झूठे हैं, क्योंकि कुछ भी होता है उसको देखने वाली चेतना के संदर्भ में। अरे, भाई, आगे उसको देखने वाली चेतना ही नहीं थी तो कुछ भी कहाँ था?

तुम आज बैठकर कह रहे हो कि इंसान नहीं था फिर भी पाँच खरब वर्ष पहले ये सब कुछ था। आइयोनिक रिऐक्शन चल रहे थे, ये हो रहा था, वो हो रहा था। किसके लिए चल रहे थे? फ़ॉर हूम ? इसका तो जवाब ही नहीं देगा विज्ञान। अध्यात्म में ये पहला सवाल है कि जो कुछ विघटन हो रहा है, और ये हो रहा है। इंसान नहीं है तो भी तो वो सब हो सकता है न? ये सब भी अभी कौन देख रहा है? तुम देख रहे हो न? ये बात हमारे गले से उतरती नहीं है, आसानी से पचती नहीं, पर इस बात को समझो।

जो कुछ भी हो रहा है, वह उसको देखने वाली चेतना के संदर्भ में हो रहा है। देखने वाली चेतना अगर अनुपस्थित है, तो कहीं कुछ नहीं हो रहा।

प्र३: जब तक इंसान देख रहे हैं तब तक हो रही है।

आचार्य: बिल्कुल हो रही है।

प्र३: तो लोग तर्क भी देते हैं कि हम फिर अच्छे काम क्यों करे? मैं तो नहीं रहूँगा।

आचार्य: ये तर्क सिर्फ़ आत्मा दे सकती है। अगर तुम आत्मा होकर ये तर्क दो कि ये सब तो लीला मात्र है और प्रलय में तो सबको नष्ट ही हो जाना है, तो नष्ट हो जाएँ। तो ठीक है। जो ये तर्क देते हैं कि जो नष्ट हो रहा है, हो। क्या फ़र्क़ पड़ता है? अगर मैं उनसे कहूँ कि तुम्हारा बेटा अभी नष्ट हो जाए, फिर यही तर्क दोगे?

ये तर्क सिर्फ वो दे सकता है जो अब आत्मा मात्र हो गया है, जिसे अब कोई आसक्ति नहीं है। पर लोग आते हैं, कहते हैं, “देखिए, साहब, तमाम तरह की प्रजातियाँ तो ख़ुद भी विलुप्त होती रहती हैं। और एक दिन तो ऐसा आएगा ही न जब पूरी पृथ्वी विलुप्त हो जाएगी। तो आज अगर कुछ जानवर मर रहे हैं, विलुप्त हो रहे हैं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है?” मैं कहता हूँ, “तुम्हारा बेटा भी आज ही मर जाए, क्या फ़र्क़ पड़ता है?” तो कहें, “हुं?”

अब क्यों अचकचा गए? जिस दिन तुम ऐसे हो जाओ कि तुम्हें अपने बेटे के मरने से भी कोई फ़र्क़ न पड़ता हो, उस दिन कहना कि अगर जंगल पूरे खत्म हो रहे हैं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है। मुझे इस तर्क से बिल्कुल कोई आपत्ति नहीं है कि ये सब तो मिथ्या ही है। मिथ्या अगर मिट गया तो क्या गज़ब हो गया। बिल्कुल मान रहा हूँ। पर तुम ये नहीं कर सकते कि पड़ोसी का घर मिथ्या है लेकिन मेरा बेटा असली है। ये बेईमानी हो गई।

जिस दिन तुम ऐसे हो जाओ कि तुम्हें सब कुछ मिथ्या लगे, अपना बेटा भी मिथ्या लगे, अपना शरीर भी मिथ्या लगे। तुम जंगल के मिटने के लिए ही नहीं, अपने ही मिटने के लिए तैयार हो जाओ। उस दिन ये तर्क दे देना कि प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं तो क्या हो गया?

जैसे ही कोई तुमसे बोला करे न कि प्रजातियाँ मिट रही हैं तो क्या हो गया। उसको बंदूक दिखाया करो। बोलो, “फिर तुम भी मिट जाओ, फिर क्या हो गया?” जब सब मिथ्या ही है, तो तुम्हारे मिटने से भी क्या हो गया? नहीं, अपने मिटने से तो बड़ी घबराहट है। वो बेचारा जानवर है, वो मिट रहा है तो फिर घबराहट नहीं है। ये बेईमानी हो गई।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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