श्रोता १: वास्तविक में कुछ नया नहीं है। लेकिन हम उसे नया बनाना चाह रहें हैं। जैसे कि मैं आज आया हूँ यहाँ पर, वैसे काफ़ी समय बाद आया हूँ। और कहीं-न-कहीं मैं ये चाह रहा था कि आज मैं जाऊँ। क्योंकि आज न्यू ईयर वाला है दिन और मैं चाहता हूँ मेरा ये साल काफ़ी अच्छे से जाए और जो भी मेरी समस्याएँ हैं वो सब कम हों। तो इसीलिए मैं इस आशा के साथ में यहाँ पर आया हुआ हूँ।
लेकिन जब यहाँ पर मैंने, सर ने जैसे कि अभी यहाँ पर एक्ट किया है, तो उसमें ये बताया गया है कि हम अपनी आदतों से बड़ी हैबिचुअल हैं। जैसे हम मतलब चाहते हैं कि ऐसा हो और फिर हम उस चीज़ के लिए काम करना भी शुरू करते हैं। जैसे कि आपकी जो बुक है ‘आचार्य प्रशांत विथ स्टूडेंट्स’ उसमें ये है कि मैं कुछ पाना चाहता हूँ लेकिन मैं कैसे जानूँ अगर मैं कुछ भी चीज़ पाना चाहता हूँ। तो वो धीरे-धीरे ग़ायब होने लगती है जब मैं उसके पास जाता हूँ।
श्रोता २: जब ये प्रसन्न भी हैं कुछ ऐसा सा लगता है जैसे एक और मौक़ा आ गया है अपने बिजनेस को फैलाने का और और संपर्कों को बनाए रखने का। जिनको हम जानते हैं और काफ़ी दिनों से नहीं भी मिल पाये, कभी ख़ोज-ख़ोजकर के उनको वाट्सएप करना और जिनका आया है सबको रिप्लाई करना। रिप्लाई नहीं किया तो कहीं ऐसा न हो कि जो हमारी बात चल रही है वो इस वजह से ख़राब हो जाए कि हमने हैप्पी न्यू इयर नहीं मनाया। वो एक तरीक़े से वही मेंटेन करना है, जो अपना ऱोज का चल रहा है बिजनेस।
आचार्य प्रशांत: कहिए, बोलिए। बोलते रहिए।
श्रोता ३: ये एक ऐसे दिन की तरह आ जाता है! कभी-कभी जब लगता है कि आप बहुत कुछ चीज़ों को जिनको बिखेर चुके थे। और एक अजीब सी धारा में बह जा रहे थे। और उन चीज़ों को समेटने के लिए रुक नहीं रहे थे। तो ऐसा लगने लगता है कि चलिए अच्छा! आज से हम इन सब बिखरी हुई चीज़ों को किनारे करके, समेट करके चलो! आज से फिर से सम्भलकर के शुरू करते हैं। तो ये उस तरह के बैरियर या माइलस्टोन की तरह बन जाता है।
श्रोता ४: नये साल पर कुछ नयी अच्छी आदत अपनाना और जो पुरानी हमारी बुरी आदतें हैं उनको सुधारना। उसके लिए एक मौक़ा मिल जाता है नयी ऊर्जा से काम करने के लिए। ऐसा तो कुछ नया नहीं मिल पाता लेकिन हम नयी ऊर्जा के साथ फिर से शुरू कर सकते हैं।
श्रोता ५: सर, जिस चीज़ को हम नहीं करना चाहते हैं, उसको हम बोलते हैं, ‘या तो एक तारीख़ से करेंगे या सोमवार से करेंगे। तो ये एक और रहा भी एक तारीख़ से होगा। बाक़ी, ये होता नहीं है।
श्रोता ६: मेरे हिसाब से खुश रहने का तरीक़ा है मैं अगर सेलिब्रेट करना चाहूँ किसी चीज़ के लिए।
आचार्य प्रशांत: हम इन्हीं सब दिनों के लिए तो जीते हैं। तो ये हल्की बातें नहीं हैं। साल के इन्हीं पाँच, दस, पन्द्रह दिनों के लिए इंसान जीता है, इन्हीं की तरफ़ देख रहा होता है। इन्हीं का आसरा होता है। इन्हीं के चलते बाक़ी सबकुछ झेल जाता है। तो हमारे लिए तो ये ज़िन्दगी ही हैं, कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। फिर ज़रूरी हो जाता है कि हम इन दिनों में, इनके पीछे के मन में, उनकी पूरी व्यवस्था में, कारणों में, गहराई से, ईमानदारी से प्रवेश करें। कोई यूँही हल्की-फुल्की औपचारिक बात होती तो उसको झाड़ देते कि हटाओ, कुछ नहीं है। पर जब दिसम्बर पूरा व्यतीत ही इकत्तीस तारीख़ के लिए होता है। अक्टूबर, नवम्बर दशहरा, दिवाली के लिए होते हैं। मार्च होली के लिए होता हो। अप्रैल किसी जन्मदिन के लिए, जून किसी और वर्षगाँठ के लिए। ऐसे ही जीते हैं न?
तो फिर ज़रूरी है कि ये सब दिन, ये सब मौक़े जिनकी ख़ातिर जिए जा रहे हैं उनको जानें और समझें। आज आपसे पूछा जाए कि क्यों जी रहे हो, तो आप आने वाले किसी दिन या घटना की ओर इशारा कर देंगे। हो सकता है कोई अन्य व्यक्ति पूछे या परिचित पूछे तो उसको कोई आदर्श उत्तर दे दें। पर दिल-ही-दिल में हम सब जी तो किन्हीं ख़ास मौकों के लिए ही रहे हैं। वो स्वर्णिम पल, वो विशेष दिवस कभी-कभी व्यक्तिगत होता है, कभी सामूहिक होता है, कभी उसका सम्बन्ध परिवार से होता है, कभी जाति-धर्म से होता है, कभी राष्ट्र से होता है। पर कुछ ख़ास होता ज़रूर है जो सामने खड़ा होता है, आमन्त्रित कर रहा होता है, कुछ आश्वासन दे रहा होता है। कुछ आकर्षण, कुछ आमन्त्रण। आप समझ रहे हैं कितना ज़रूरी है इन दिनों को समझना?
हम पूरे महीने कहाँ जीते हैं! हम तो एक दिन के लिए जीते हैं न! तो जो एक दिन के लिए जी रहा हो, उसके लिए तो फिर तार्किक ही है कि वो पूरे महीने की ऊर्जा जैसे उस एक दिन में डाल देता है। वैसे ही वो तीस गुना ध्यान से भी उस एक दिन का अन्वेषण करे। बोलिए हाँ या ना?
श्रोता: जी।
आचार्य प्रशांत: जब तीस दिन की अपेक्षा एक दिन महत्वपूर्ण हो जाए। तो फिर तो तीस गुना निवेश भी करना चाहिए न उस एक दिन को समझने के लिए। क्योंकि बाक़ी सारे दिन तो वैसे ही साधारण हैं, ग़ैर-ज़रूरी हैं। एक तरह की तैयारी मात्र हैं। रास्ता है किसी दूसरी मंज़िल तक पहुँचने का। तो हम उन दिनों की बात ही नहीं करते। उन दिनों को तो हमने पहले ही तय कर दिया कि ग़ैर-ज़रूरी हैं।
अगर किसी तरीक़े से हमारे कैलेंडर से वो दिन मिटाए जा सकते तो हमें बहुत कोफ्त न होती। सोचकर देखिएगा तीन-सौ-पैंसठ दिनों का कैलेंडर आपके सामने रखा हो और उसमें से इन ज़रूरी दिनों के अलावा बाक़ी सारे दिनों को मिटा दिया जाए डिलीट कर दिया जाए। तो कुछ ख़ास बुरा तो नहीं लगेगा। उसके बाद कैलेंडर बिलकुल सपाट हो जाएगा, सफ़ेद, खाली। और उसमें से उभरकर चमकेंगे बस यही कुछ गिने-चुने दिन।
आप दिसम्बर के महीने में देखेंगे, आपको सिर्फ़ एक तारीख़ दिखाई देगी। कौनसी?
श्रोता: क्रिसमस।
आचार्य प्रशांत: दो दिखाई दे जाएँगे। हो सकता है तीन या चार दिखाई दे जाएँ। हो सकता है इस दिन आपने कोई अपना नया घर ख़रीदा हो, हो सकता है बच्चे की सालगिरह हो। इकत्तीस में से दो दिन, चार दिन, पाँच दिन, एक दिन।
आप नवम्बर को देखेंगे उसमें भी जितनी तिथियाँ थीं वो सब लुप्त हुईं। अब मात्र एक उभर कर चमक रही है। कौनसी?
श्रोतागण: दिवाली।
आचार्य प्रशांत: दिवाली। दिन ही खाली हो गये। कुछ बचा नहीं। सिर्फ़ यही कुछ दिन हैं। और ये जगमग-जगमग चमक रहे हैं। कितना अच्छा होगा न! हमारे लिए बाक़ी सारे दिन तो वैसे भी क्या महत्व रखते हैं! उससे तो हम गुज़रते हैं। इन कुछ दिनों पर, लम्हों पर आने के लिए। तो फिर सोचिए इन दिनों पर ध्यान कितना दिया जाना चाहिए। ये दिन दिन नहीं हैं, ये ज़िन्दगी हैं। ये पाँच दिन, दस दिन, पन्द्रह दिन तीन-सौ-पैंसठ दिनों के समतुल्य हैं। हुए कि नहीं?
इन पन्द्रह दिनों का वजन तीन-सौ-पैंसठ दिनों जितना हुआ कि नहीं हुआ। बाक़ी दिन तो वैसे भी अविशेष हैं। तो बताइए क्या हैं ये दिन? और जब आप ये देखने निकलेंगे कि क्या हैं ये दिन तो आपको ये भी देखना पड़ेगा कि इन दिनों का उन मिटाए हुए दिनों से, उन खोए हुए दिनों से, उन विलुप्त दिनों से क्या सम्बन्ध है। इन पन्द्रह दिनों का उन साढ़े-तीन-सौ दिनों से क्या सम्बन्ध है? हम ज़रा इस पर भी ध्यान करेंगे। ठीक है न?
बात प्रासंगिक है। ज़िन्दगी की है। कहीं इधर-उधर की तो नहीं है। बात कुछ ऐसी है न जिसका हमसे सम्बन्ध है। चर्चा करें इस पर? जो होगा आपकी अनुमति से, सहमति से होगा। जिन पन्द्रह दिनों की मैं बात कर रहा हूँ, उसमें से पाँच-सात-दस दिन साझे हैं हम सबके। बाक़ी चार-पाँच दिन व्यक्तिगत हैं। पर वो दस दिन, पन्द्रह दिन, बीस दिन हैं सबकी ज़िन्दगी में। है कि नहीं है? तो कहिए क्या हैं वो दिन? कहिए। वो दिन ज़िन्दगी हैं। हम उन्हीं में जी रहे हैं। वही जीवन हैं हमारे लिए तो।
अपने मन के भीतर जाइए, देखिए क्या होता है जब आप अगले बड़े दिन का विचार करते हैं। कोई अगला बड़ा दिन अभी ही आपके मन में आ चुका होगा। कैसे आता है वो अगला बड़ा दिन? क्या उम्मीद लेकर के आता है?
श्रोता: सर, जो अभी का दुख है, वो कट जाता है।
आचार्य प्रशांत: बोलते रहिए आपको ही बोलना है। अच्छा! अगला बड़ा दिन कौन सा है अभी मन में?
श्रोतागण: छब्बीस जनवरी।
आचार्य प्रशांत: संविधान से प्रेम है न हममें? (श्रोतागण हँसते हैं)
श्रोता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: गणतन्त्र के दीवाने हैं हम! अभी पूछा जाए कि ‘गणतन्त्र’ का अर्थ क्या होता है तो आपको क्या लगता है दस में से कितने लोग बता पाएँगे गणतन्त्र का अर्थ? रिपब्लिक माने क्या? कितने लोग बता पाएँगे? कोई बड़ी बात नहीं हो गयी बस मैं एक इशारा कर रहा था।
श्रोता ३: वो साढ़े-तीन-सौ दिन बहुत ज़रूरी हो जाते हैं। तभी उन पन्द्रह दिनों की अहमियत बन पाती है। क्योंकि वो साढ़े-तीन-सौ दिन ही उन पन्द्रह दिनों में वजन जोड़ते हैं। उन्हीं में तैयारी होती है। उन्हीं में ख़्वाब बनता है। उन्हीं में एक आस बनती है। तो वो साढ़े-तीन-सौ दिन हम जीते हैं। भले ही देखते उन पन्द्रह दिनों की तरफ़ ही।
आचार्य प्रशांत: तो ये तो आपने फँसा दिया। मैं कोशिश कर रहा था उन साढ़े-तीन-सौ दिनों को मिटा देने की। मैं चाहता था कि आज की पढ़ाई का सिलेबस ज़रा कम हो जाए। तीन-सौ-पैंसठ में से साढ़े-तीन-सौ तो यूँ ही हटा लें। करते हैं न बच्चे ऐसे। कहते हैं, ‘अरे! क्या क्या है जो कम आएगा या नहीं आएगा। उसको तो हटा दो। और जो ज़्यादा ज़रूरी हो सिर्फ़ उसकी चर्चा करो उसकी पढ़ाई।’ तो साढ़े-तीन-सौ हटा दिए थे मैंने। ये वापस ले आयीं। ये कहती हैं नहीं उन पन्द्रह का उन साढ़े-तीन-सौ से सम्बन्ध है। तो पन्द्रह की बात नहीं हो सकती साढ़े-तीन-सौ की बात किए बिना। आपको भी ऐसा लगता है? सम्बन्ध है?
श्रोता ४: मुख्य टेंशन साढ़े-तीन-सौ की है।
आचार्य प्रशांत: अगर मुख्य तनाव उन साढ़े-तीन-सौ से है तो हम उन साढ़े-तीन-सौ की अपेक्षा उन पन्द्रह को क्यों देखते रहते हैं?
श्रोता ४: साढ़े-तीन-सौ पन्द्रह को देखते हैं। पन्द्रह साढ़े-तीन-सौ को देखते हैं।
आचार्य प्रशांत: ऐसा क्यों करते हैं?
श्रोता ३: प्रतीक्षा करते हैं, उन साढ़े-तीन-सौ में वैसा कुछ होता नहीं है।
आचार्य प्रशांत: नहीं! मैं फिर पुनः इसी प्रश्न पर वापस जाना चाहूँगा। अगर इन पन्द्रह की ओर देखते ही इसीलिए हैं क्योंकि साढ़े-तीन-सौ में कुछ ऐसा है जो चैन नहीं दे रहा। तो सीधे-सीधे हम साढ़े-तीन-सौ की ओर क्यों नहीं देख लेते? इन पन्द्रह की ओर क्यों देखते हैं? तकलीफ़ कहाँ पर है?
श्रोता २: साढ़े-तीन-सौ में।
आचार्य प्रशांत: साढ़े-तीन-सौ में। बड़ी व्यापक तकलीफ़ होगी। साढ़े-तीन-सौ बटे तीन-सौ-पैंसठ। और जो बाक़ी पन्द्रह हैं अभी उसका भी कुछ ठिकाना नहीं। क्या पता उनमे भी तकलीफ़ बाक़ी है! मैं तो अभी मान कर चल रहा हूँ कि बाक़ी के पन्द्रह दिनों में किसी जादू से तकलीफ़ यकायक मिट जाती है। बाक़ी आप बताइएगा मुझे कि उन पन्द्रह दिनों में भी तकलीफ़ मिटती है कि नहीं मिटती है। पर मैंने माना कि कुछ ख़ास होता है। और उन पन्द्रह दिनों में हम कष्ट-मुक्त हो जाते हैं। तो भी पन्द्रह दिन तो पन्द्रह ही दिन हैं न!
पन्द्रह दिन कितने दिन हुए?
श्रोता २: पन्द्रह दिन।
आचार्य प्रशांत: ये काफ़ी जटिल गणित है। पन्द्रह दिन माने कितने दिन? जब आश्वस्त हो जाएँ तभी जवाब दीजिएगा। यहाँ सब बड़े पढ़े-लिखे योग्यता वाले लोग बैठे हैं। इसीलिए इतना जटिल सवाल पूछ रहा हूँ। (श्रोता हँसते हैं) कोई सीधे-साधे बच्चे बैठे होते तो उनसे तो पूछता भी नहीं। मुझे पता था कि वो जवाब ही नहीं देते। पर आप लोग आँकड़ों की दुनिया से खेलना जानते हैं। संख्याओं के बादशाह हैं। तो इसलिए आप बताइएगा। पन्द्रह दिन माने कितने दिन? पन्द्रह दिन माने कितने दिन?
श्रोता ३: तीन-सौ-पैंसठ दिन।
आचार्य प्रशांत: देखा! आ गयी न! बात निकल गयी। पन्द्रह दिन माने तीन-सौ-पैंसठ दिन। मेरी साधारण बुद्धि तो बताती है कि पन्द्रह दिन माने पन्द्रह दिन। पर निश्चित ही आपको कहीं-न-कहीं लगता है कि पन्द्रह दिन माने तीन-सौ-पैंसठ। तभी तो आप बाक़ी साढ़े-तीन-सौ की अपेक्षा इन पन्द्रह पर बार-बार आकर बैठते हैं। पंकज जी, पन्द्रह दिन माने कितने दिन? सोच लीजिये। पन्द्रह अंकों का सवाल है। ये तो पूरे मिलेंगे नहीं तो कुछ नहीं। पन्द्रह दिन माने कितने दिन? पन्द्रह दिन माने कितने दिन?
श्रोता ५: ज़ीरो ही होगी तो साढ़े-तीन से भी ज़ीरो कर दी है।
आचार्य प्रशांत: पन्द्रह दिन माने पन्द्रह दिन। अगर पन्द्रह दिन हैं और पन्द्रह दिन माने एक भी दिन नहीं अगर पन्द्रह दिन माने तीन-सौ-पैंसठ दिन। क्योंकि अगर साढ़े-तीन-सौ शून्य हो सकता है तो फिर पन्द्रह की क्या बिसात है!
हम तो ऐसे गणितज्ञ हैं जिन्होंने साढ़े-तीन-सौ को भी क्या बना दिया? हमने कहा इन साढ़े-तीन-सौ की तो कोई अहमियत ही नहीं। तो साढ़े-तीन-सौ क्या हो गये?
श्रोतागण: ज़ीरो।
आचार्य प्रशांत: जब साढ़े-तीन-सौ ज़ीरो हो सकता है तो पन्द्रह की क्या औकात! पन्द्रह तो और बड़ा वाला ज़ीरो हो गया न! पन्द्रह भी पन्द्रह कब होगा?
श्रोतागण: जब साढ़े-तीन-सौ...
आचार्य प्रशांत: देखिए, गणित जटिल होता जा रहा है। अगर साढ़े-तीन-सौ साढ़े-तीन-सौ है। तो माने एक दिन कितने दिन हैं? अगर साढ़े-तीन-सौ, साढ़े-तीन-सौ है। तभी एक दिन?
श्रोतागण: एक दिन के बराबर है।
आचार्य प्रशांत: और जब एक दिन एक दिन है। तभी पन्द्रह दिन?
श्रोतागण: पन्द्रह दिन हैं।
आचार्य प्रशांत: ठीक। अगर साढ़े-तीन-सौ की कोई अहमियत ही नहीं, शून्य है। तो एक दिन कितना हुआ? जब साढ़े-तीन-सौ शून्य है तो एक दिन भी कितना हुआ?
श्रोतागण: शून्य।
आचार्य प्रशांत: अगर एक दिन शून्य है तो पन्द्रह दिन कितने हुए?
श्रोतागण: शून्य।
आचार्य प्रशांत: तो गड़बड़ हो गयी। हमने तो साढ़े-तीन-सौ को शून्य इस उम्मीद पर किया था कि पन्द्रह कितना बन जाएगा? हमने साढ़े-तीन-सौ को शून्य किस उम्मीद पर किया था?
श्रोता ५: साढ़े-तीन-सौ।
आचार्य प्रशांत: ये साढ़े-तीन-सौ को हटाओ। जीवन सारा पन्द्रह दिनों में केन्द्रित कर दो। सबकुछ इसी में लाकर के सघन कर दो, पन्द्रह दिनों में। उम्मीद तो ये थी। पर जीवन का गणित कुछ उल्टा बैठ गया। जीवन गणित कह रहा है कि अगर साढ़े-तीन-सौ को तुमने शून्य कर दिया तो पन्द्रह भी? पन्द्रह भी?
श्रोतागण: शून्य।
आचार्य प्रशांत: पासा उल्टा पड़ा। अब थोडा सा और आगे का गणित लगाते हैं। अगर साढ़े-तीन-सौ, सात-सौ हो सके। तो एक दिन कितना हुआ?
श्रोतागण: दो दिन।
आचार्य प्रशांत: फिर पन्द्रह दिन कितने हो जाएँगे?
श्रोतागण: तीस दिन।
आचार्य प्रशांत: ये तो कुछ मज़ेदार बात हुई। अब साल में हैप्पी न्यू ईयर कितने हो जाएँगे?
श्रोतागण: दो दिन।
आचार्य प्रशांत: अब कई चेहरे मुस्कुराए। उत्सवों को अगर और बढ़ाना हो। और हम पन्द्रह दिनों को ही उत्सव कहते हैं। इन पन्द्रह दिनों को और बढ़ाना हो तो तरकीब क्या निकाली?
श्रोता २: हर दिन को दुगना किया जाये।
आचार्य प्रशांत: दुगना, तिगुना, चौगुना। लेकिन मैंने जो पूरी गणना की उसके पीछे एक मान्यता थी। वो क्या थी? और जो मेरी मान्यता है वो आमतौर पर आप नहीं लेते। मैंने जो नियम साढ़े-तीन-सौ के लिए लगाए वहीं नियम पन्द्रह के लिए लगाए। तो मेरी मान्यता ये है कि साढ़े-तीन-सौ और पन्द्रह गुणवत्ता में है एक ही जैसे। उनमें कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। जो नियम तीस तारीख़ पर लागू हो रहा है, इकत्तीस पर भी वही लागू होगा। मै ये मान करके गणना कर रहा हूँ। आप ये नहीं मानते न। आप कहते हैं साढ़े-तीन-सौ को शून्य कर दो, तो पन्द्रह तीन-सौ-पैंसठ बन जाएगा। आप इन दोनों को दो अलग-अलग आयामगत श्रेणियाँ बना देते हैं। कहते हैं कि नहीं कहते हैं हम? हम एक ही नियम थोड़े ही लगाते हैं दोनों पर।
अब ये आपको फ़ैसला करना है कि आप जो मानकर ज़िन्दगी जी रहे हैं, उस मान्यता में दम कितना है। क्या वास्तव में तीस तारीख़ और इकत्तीस तारीख़ में कोई मूलभूत अन्तर है? और अगर मूलभूत अन्तर नहीं है तो उन दोनों पर अलग-अलग नियम हम क्यों आरोपित करते हैं? हम कहते हैं न कि साढ़े-तीन-सौ को तो शून्य कर दो और पन्द्रह फिर गुब्बारे जैसा फूलकर के तीन-सौ-पैंसठ हो जाएगा। सारी ऊर्जा, सारी खुशी, सारी उम्मीदें, सारी मुस्कुराहटें, सारे उत्सव केन्द्रित कर दो पन्द्रह में। हमें लगता है इन पन्द्रह दिनों में कुछ अलग ही बात है। हम कहते हैं कि इन्हें तो ईश्वर ने किन्हीं अलग हाथों से रचा है। आज सूरज किस दिशा से उगा है?
श्रोता ३: पूरब से।
आचार्य प्रशांत: आज मौसम कैसा है? तुलना करके बताएँगे। हम तो ये कहते हैं न कि ख़ास दिनों पर कुछ आयामगत फर्क़ होता है। एक जनवरी है आज और एक दिसम्बर बीता है। सूरज किस दिशा से उगा?
श्रोता २: जहाँ से रोज़ उगता है।
आचार्य प्रशांत: जहाँ से रोज़ उगता है। मौसम कैसा है आज?
श्रोतागण: जैसा रोज़ होता है।
आचार्य प्रशांत: आपकी गाड़ी माइलेज कितना देगी आज? कहिए! पेट्रोल के दाम कितने हैं आज? पक्षियों की भाषा क्या है आज? बोलिए! आपकी भाषा क्या है आज? आपके चश्मे का नंबर क्या है आज? आपकी गाड़ी का नंबर क्या है आज? कमर कितने इंच की है आज? मन में ख़्याल क्या हैं आज? वो अलग हैं? तो तथ्य तो हम जितने देख रहे हैं वो सारे वही हैं।
अस्तित्व बिलकुल नहीं जानता कि किसी एक बिंदु पर समय के तुम एक विभाजक रेखा खींच दो। अस्तित्व के लिए तो समय का प्रवाह, एक अविछिन्न धारा है। उसके लिए पच्चीस से छब्बीस और तीस से इकत्तीस और इकत्तीस से एक, एक ही बात है। अब अस्तित्व से पूछें तो कुछ अलग हुआ ही नहीं। और अगर अलग कुछ हो रहा है तो वो रोज़ होता है, प्रतिपल होता है। कहेगा, ‘आज कुछ ख़ास है क्या?’ और अस्तित्व से ही पूछने की बात नहीं है। किसी और सभ्यता में चले जाएँ जो अपना नया साल किसी और दिन मनाते हों। तो वो भी यही कहेंगे कि आज क्या ख़ास हो गया!
मन है जिसको लग रहा है कुछ नया हुआ है। तथ्यों में, हक़ीक़त में तो ऐसे कुछ नया होता नहीं। जितना आप इसमें गहरे जाएँगे। उतना आपको ये बात और विचित्र और अजीब लगेगी कि यूँ ही समय के किसी बिंदु को पकड़कर के उसे नया घोषित कर दिया गया है। उसे अनूठा घोषित कर दिया गया है। जैसे कि बहती नदी से आप एक अंजुली भर पानी निकालें और कहें, ‘ये पानी ख़ास हुआ’। और बाक़ी सब जो पानी बहता जा रहा है वो तो साधारण है।
‘साधारण’ महत्वपूर्ण शब्द है। हमको पसंद नहीं आता ये शब्द, ‘साधारण’। हम किसी ख़ास की तलाश में हैं। ‘साधारण’ सुनने में ही ऐसा लगता है जैसे मन छोटा कर दिया गया हो। और जो ज़रा महत्वकांक्षी हों उनको तो ये गाली जैसा लगेगा, साधारण! कुछ विशेष चाहिए, कुछ महत्वपूर्ण, कुछ ख़ास। उस ख़ास की तलाश लगातार चल रही है। एक दिन से दूसरे दिन, एक महीने के दूसरे महीने, एक साल से दूसरे साल, एक व्यक्ति से दूसरा व्यक्ति, एक विचार से दूसरा विचार, एक प्रयत्न से दूसरा प्रयत्न।
यहाँ कोई नहीं बैठा है जिसे किसी ख़ास का इंतज़ार न हो। कि जैसे कोई आने वाला हो, द्वार खुले हैं उसके लिए और आप बाट जोहे जा रहे हो, जोहे जा रहे हो। आँखें द्वार पर ही जाकर लग गयी हों। मन कहीं भी होता हो बार-बार उड़कर के उसी दरवाज़े की ओर आ जाता हो। ‘कब आएगा वो ख़ास जिसका इंतज़ार है!’ कौन आएगा, पता नहीं, पर ये तो पक्का है कि आएगा तो, कभी तो आएगा। तो कोई ख़ास पल होगा जब वो आएगा। उसने तो बताया नहीं कि वो किस पल आएगा। तो हम स्वयं ही निर्धारित कर लेते हैं कि इन-इन पलों में उसके आने की सम्भावना है। ये उसने नहीं कहा है कि वो इन पलों में आएगा। उसकी ओर से ऐसा कोई संदेशा नहीं आया है। उसने कभी तय करके नहीं भेजा कि मैं इस दिन आऊँगा।
वो यही नहीं बता रहा कि वो कौन है। तो ये क्या बताएगा कि वो किस दिन आएगा। पर हम उतावले हैं। एक बड़ी गहरी कसक है दिल में। एक ऐसी बेचैनी है जो बर्दाश्त नहीं होती। तो भले ही आगंतुक अपने आने की तिथि घोषित न करे, हमने अपनी ओर से ही कुछ तिथियाँ उभार कर रख ली हैं। हम अपनी ओर से ही कुछ दिनों का आसरा बाँधे बैठे हैं। उसने नहीं बताया तो हम कल्पना कर लेते हैं। हम कहते हैं, ‘आएगा, तू पच्चीस तारीख़ को आएगा। तू पच्चीस को आएगा।’ इंतज़ार कदाचित सच्चा है। ये मान्यता है की आने वाला इस दिन आएगा। कितनी सच्ची है वो आप जानिए।
चलिए! देखते हैं किसका इंतज़ार कर रहे हैं। क्या होता है उन तीन-सौ-पचास दिनों में जो हमें पन्द्रह दिनों की ज़रूरत पड़ जाती है? होता क्या है उन तीन-सौ-पचास दिनों में?
श्रोता: संतुष्टि नहीं मिलती।
आचार्य प्रशांत: वो क्या है जो चाहिए? उन तीन-सौ-पचास दिनों का मैं तुमसे कहूँ कि ज़रा हाल बताओ, विवरण दो। तो क्या कहोगे?
श्रोता ३: सर, हम उसे याद नहीं रख पाते।
आचार्य प्रशांत: अरे! शाबाश। तो आज एक तारीख़ पर बैठे हैं। और पिछले तीन-सौ-पैंसठ दिनों के बारे में मैं कहूँ कि कुछ बताओ। तो तुम मुझे बता सिर्फ़ पन्द्रह दिनों के बारे में ही पाओगे? साढ़े-तीन-सौ तो इतने मामूली थे कि याद ही नहीं। उन्होंने कहा वी डू नोट। ये तो बात ज़रा मज़ेदार हो रही है। तो वो साढ़े-तीन-सौ दिन ऐसे होते हैं कि याद ही नहीं रहते। मतलब कैसे होते हैं? कैसे होते हैं?
श्रोता: साधारण।
आचार्य प्रशांत: साधारण हैं तभी किसी असाधारण की तलाश है। उन साढ़े-तीन-सौ दिनों के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि उनमें कुछ ऐसा हुआ ही नहीं जो ख़ास लगे, जो उम्मीदें पूरी करे, जिससे तृप्ति मिले, जिससे मन भरे। वो तो आये और गुज़र गये। अब देखते हैं इनको, साढ़े-तीन-सौ दिन रखे हैं हमारे सामने। एक आया गुज़र गया, दूसरा आया गुज़र गया, तीसरा आया गुज़र गया। सुबह होती है शाम होती है, ज़िन्दगी यूँ ही तमाम होती है। कुछ पता ही नहीं चलता कि आज दिन हुआ भी कि नहीं। कुछ पता ही नहीं चलता कब जगे कब सो गये।
आपको एक दिन दिखाया जाए, पूरी रिकॉर्डिंग उसकी, आपके ही जीवन से। आप बता पाएँगे वो तारीख़ क्या थी? मैं साढ़े-तीन-सौ दिनों में से किसी एक दिन को उठाने की बात कर रहा हूँ। आप बता पाएँगे कि वो सात अप्रैल है या सात जून है। कहिए! जवाब दीजिए।
श्रोता: नो, सर।
आचार्य प्रशांत: तो ये सारे दिन फिर कैसे हैं? अरे! बिलकुल एक जैसे हैं। बिलकुल वैसे ही एक जैसे हैं जैसे कि एक बेहोश आदमी के लिए एक बजा हो या तीन बजा हो, एक तारीख़ हो या तीन तारीख़ हो, सब एक जैसा है। आप जब सो रहे होते हैं तो रात के दो बजे या सुबह के चार बजे, कोई फर्क़ होता है? सब एक जैसा होता है। होता है कि नहीं होता? समय, ढर्रा, चक्र, पुराना, दोहराव, जड़ता — ये है हमारे साढ़े-तीन-सौ दिनों की कहानी। दिनों ने मार रखा है हमें। दिन पर दिन आते हैं। दिन पर दिन आते हैं, आते ही जाते हैं, आते ही जाते हैं। बीतते जाते हैं बीतते जाते हैं। कुछ देकर नहीं जाते। हर दिन का अन्त एक ना-उम्मीदी पर हो रहा है। और हर न-उम्मीदी किसी नयी उम्मीद पर टिकी हुई है। हम समय से परेशान हैं। हम इन साढ़े-तीन-सौ से बिलकुल ऊबे हुए हैं। हाँ या ना?
श्रोता ३: हाँ, सर।
आचार्य प्रशांत: आप किसी दिन सुबह उठे और कोई आकर के बताए कि आज ऐसा-ऐसा होगा। जो अलग है, ख़ास है, ज़रा अनूठा है तो उत्साह आ जाता है कि नहीं? भले ही उसमें थोड़ा कष्ट भी शामिल हो। फिर भी आप झेलने को तैयार हो जाते हैं। कुछ अलग हुआ तो। और जब आप उठते हैं और आपको पता होता है आज फिर वही चक्की चलेगी, तो कैसा लगता है? जैसे फिर चक्की चलती है, वैसे ही आप चलते हैं।
चक्की का चलना कभी देखा है? मृतप्राय! मजदूरी करती हुई। लहराती हुई नहीं, झूमती और नाचती हुई नहीं, अपनेआप को ढोती हुई। आवाज देखा है कैसी उठती उससे? कैसी उठती है? घर्षण की, घिसटने की। ये सारे शब्द जाने-पहचाने लग रहे हैं। घिसटना! क्यों चल रहे हैं? ज़रूरी है चलना। एक घंटा और नहीं मिल सकता सोने को। आज क्या हो जाएगा? वही जो कल हुआ था, वहीं जो परसों हुआ था। “चलती चक्की देखकर”?
श्रोता २: “दिया कबीरा रोए।“
आचार्य प्रशांत: वो क्यों रोते हैं? उनकी तो चल भी नहीं रही। जिनकी चल रही है, वो नहीं रोते। इस चक्की का नाम जीवन है। इस चक्की का नाम समय है।
हम जैसा जीवन जी रहे हैं हम उससे मुक्ति चाहते हैं। हमारे दिन जैसे बीत रहे हैं। हम उस ढर्रे से मुक्ति चाहते है। बड़ी सुन्दर बात है। मुक्ति की कामना जैसी भी हो, भले ही विचार रूप में हो। भले ही उसमें अशुद्धि हो पर शुभ है। पर देखिए, जो मुक्ति हम चाहते हैं समय से, जो मुक्ति हम चाहते हैं अपने दिनों से, जो मुक्ति हम चाहते हैं अपने पुराने ढर्रों से, उस मुक्ति को तलाशने हम कहाँ पहुँच जाते हैं! आप दिनों से मुक्ति चाहते हैं तो आप कहाँ पहुँच जाते हैं दिनों से मुक्त होने के लिए? कुछ और दिनों पर। आप अपने ढर्रों से मुक्ति चाहते हैं तो आप कहाँ पहुँच जाते हैं ढर्रों से मुक्त होने?
श्रोता ५: नये ढर्रों पर।
आचार्य प्रशांत: दूसरे ढर्रों पर। ढर्रों के साथ ‘नये’ शब्द का उपयोग कुछ जँचता नहीं। एक ढर्रा ये था कि दफ़्तर जाना है, जाना है, जाना है। उससे मुक्त होना है तो एक दूसरे ढर्रे पर पहुँच गये कि आज तो दफ्तर नहीं जाना है। एक ढर्रा ये था कि रोज़ रात घर का पत्नी के हाथ का वही खाना, रोटी, सब्जी, दाल। तो आज आयी इकत्तीस, ‘आज चलो! वाइन।’ और वो ढर्रा है या नहीं आपको जाँचना हो तो बस ये देख लीजिये कि उस दिन क्या सभी लोग वहीं नहीं कर रहे।
ढर्रे का अर्थ ही क्या होता है? कैसे परिभाषित करते हैं ढर्रे को? जो सब कर रहे हो या कि जो आप ही बार-बार दौहराकर के कर रहे हों। उसी को तो ढर्रा कहते हैं। कल रात आपने क्या देखा? कल रात आपने सबको मौलिक, निजी, अलग-अलग कामों में संलग्न देखा, या सबको आपने एक ही दिशा में बहते देखा? अगर एक ही दिशा में बहते देखा तो वो क्या था फिर?
श्रोतागण: ढर्रा।
आचार्य प्रशांत: और उस ढर्रे में प्रवेश हुए थे किस उम्मीद के साथ?
श्रोतागण: ढर्रे टूटेंगे।
आचार्य प्रशांत: कि ढर्रे टूटेंगे। ढर्रे तोड़ने के लिए हम सहारा किसका ले रहे हैं?
श्रोतागण: ढर्रों का।
आचार्य प्रशांत: तो गड़बड़ हो गयी। हुई कि नहीं? हुई कि नहीं? कि जैसे कोई पुराने घावों को मिटाने के लिए अपने आप को नया घाव दे दे। अगर आप नया ढर्रा कह सकते हैं तो मैं नया घाव भी कह सकता हूँ। कि जैसे कोई पुराने पागलपनों से मुक्त होने के लिए अपने आप को एक नयी विक्षिप्तता दे दे। कि जैसे कोई पुराने नशों से उभरने के लिए अपने आप को नया नशा दे दे। नहीं! होते हैं ऐसे। जिन्हें लगता है कि आज गांजा ज़्यादा हो गया है तो अब। ये ज़रा अद्भुत बात है कि गांजे का असर चरस से उतरेगा। और भूलिएगा नहीं कि ये बात कोई गंजेड़ी ही कह सकता है। गांजा लेने का ये एक जादुई परिणाम होता है कि आप फिर गांजा उतारने के लिए चरस का सहारा लेते हैं।
तीन-सौ-पचास दिन हम जैसे जीते हैं वैसा जीने का एक जादुई परिणाम ये होता है कि हमें लगता है कि इन पन्द्रह दिनों में कोई ख़ास चरस हमारे लिए दवा बन जाएगी। साढ़े-तीन-सौ दिन जब गांजे पर जिएँगे तो और क्या लगेगा? यही लगेगा न कि पन्द्रह दिनों में गांजे का असर किसी चरस से उतर जाएगा! न लिया होता गांजा तो? चरस की ओर मन भी न जाता। बात को समझिएगा। चरस गांजे के प्रभाव को उतार नहीं देती। गांजे के बाद चरस तो फिर चरस के बाद? जानकार लोग बात को बढ़ाएँ आगे। (श्रोतागण हँसते हैं) गांजे के बाद यदि चरस तो चरस के बाद हिरोइन! श्रृंखला वहाँ रुकेगी क्या?
अगर गांजे का असर चरस कम कर सकता है तो फिर चरस की खुमारी मिटाने के लिए हिरोइन चाहिए। और हिरोइन का नशा मिटाने के लिए?
श्रोता ४: हीरो। (श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य प्रशांत: और हीरो का फिर प्रभाव मिटाने के लिए? कुछ-न-कुछ लगातार चाहिए। एक नशे के बाद जो अगला लेंगे वो फिर उससे?
श्रोतागण: तगड़ा होगा।
आचार्य प्रशांत: तगड़ा होगा नहीं, तगड़ा चाहिए; तगड़ा चाहिए। किधर को जाएँगे? ये चक्र तो मौत के साथ भी नहीं रुकने का। ये तो मौत के साथ भी नहीं रुकेगा। जब एक नशे की काट दूसरा नशा बन जाए। तो फिर होश को तो स्थायी इंतज़ार ही करना पड़ेगा।
साढ़े-तीन-सौ दिन अगर ग़ुलामी में न जिए होते, अगर कसक में न जिए होते, अगर मन मारकर न जिए होते तो इस एक दिन की झूठी आज़ादी को इतना मोल क्यों देते? मेरी ओर ऐसे मत देखिए। मैं तो सिर्फ़ पन्द्रह दिनों की बात करना चाहता था। इन्होंने कह दिया कि पन्द्रह दिनों की बात हो ही नहीं सकती साढ़े-तीन-सौ दिनों की बात किए बिना। तो अब मैं जोड़ रहा हूँ इन दोनों को। इसी जोड़ने को कहते हैं द्वैत। एक को जानना है तो दूसरे को जानना पड़ेगा। क्योंकि हमारी दुनिया तो ऐसी है जिसमें एक दूसरे के संदर्भ में ही होता है।
हमारी दुनिया तो ऐसी है जिसमें कुछ भी अपनेआप में मुक्त नहीं है। काले को जानना है तो सफ़ेद को जानना पड़ेगा। तो ऐसे इन्होंने कह दिया कि भाई पन्द्रह को जानना है तो साढ़े-तीन-सौ को जानना पड़ेगा, तो आप जान रहे हैं। कैसे हैं हमारे ये साढ़े-तीन-सौ? क्यों चल रही है ये चक्की? हम क्यों नहीं इकत्तीस तारीख़ और एक तारीख़ की अपेक्षा पाँच जनवरी और छः जनवरी की बात करते? कहिए! जवाब दीजिए। सुनने में ही कैसा लग रहा है? पाँच जनवरी-छः जनवरी कैसा लग रहा है?
श्रोता: साधारण।
आचार्य प्रशांत: और। अरे! ज़रा खुलकर के बताइए। सुनते ही कैसी प्रतिकिया हुई मन में पाँच जनवरी छः जनवरी?
श्रोता: कोई नयी डेट चाहिए।
आचार्य प्रशांत: ‘ये कोई दिन है। ये कोई तारीखें हैं। कैलेंडर पर बदनुमा दाग हैं ये, धब्बे! इन्हें पोंछ दो! कैलेंडर पर कुछ गिर गया है! उसे साफ़ कर दो! पाँच, छः, दस, ग्यारह, सत्ताइस, अट्ठाइस — मिटाओ, मिटाओ; गन्दे! छी!’ और आपमें से अगर कुछ लोग अभी अवकाश पर हों तीन तारीख़ तक के। तो उनको पाँच और छः शब्द कैसे पड़े कानों पर? कहिए बोलिए!
श्रोता: बहुत भारी पड़े।
आचार्य प्रशांत: अरे! ये संख्याएँ अस्तित्व में ही क्यों हैं? ये होती ही क्यों है? संख्याएँ नहीं हैं, ये अपशगुन हैं। गिनती रोक दो एक तारीख़ में। उत्सव बढ़िया बात। उत्सव जितनी बढ़िया बात उसका रुकना उतनी ही? जटिल सवाल है। मैं कह रहा हूँ उत्सव बढ़िया बात। साधारण भाषा में पूछता हूँ आपसे। जो बात जितनी बढ़िया उसका रुकना उतना?
श्रोतागण: घटिया।
आचार्य प्रशांत: तो उत्सव फिर वही अच्छा जो कभी रुके न। जो उत्सव तारीख़ के जाने के साथ चला जाए वो तो बड़ा दुख देकर जाएगा, या फिर उसमें कोई आनन्द होगा ही नहीं। दो में से एक बातें होंगी। अगर आनन्द था तो आनन्द के जाने से बड़ा अशुभ क्या हो सकता है? कहिए जवाब दीजिए। आनन्द यदि शुभ है तो आनन्द के बीतने से ज़्यादा अशुभ कुछ हो सकता है। और अगर हमारा आनन्द इकत्तीस और एक तक सीमित है। तो दो तारीख़ फिर क्या हुई? बड़ी अशुभ हो गयी न? जिन्होंने जाना उन्होंने कहा है, ‘वो आनन्द, आनन्द नहीं जिसे समय बिता दे। वो सत्य, सत्य नहीं जो बीत जाए। जो बीत जाए उसको जान लेना कि मन की कोई लहर है। कोई क्षणभंगुर आकृति। यूँ ही बनी और मिट गयी।’
जितनी प्यारी लगेगी एक तारीख़, दो उतना ही बोझल हो जाना है। और दो फिर जितना बोझल होगा छब्बीस की उतनी याद आएगी। हो सकता है कोई ऐसा उत्सव जो बीतता न हो? बोलिए!
प्र: लाइफ़ (जीवन)।
आचार्य प्रशांत: लाइफ़ माने क्या?
श्रोता: फ़ेस्टिवल।
आचार्य प्रशांत: तो कैसे?
श्रोता: अन्दर से आनन्द हो सकता है, सर, अपने अन्दर ही होना चाहिए।
आचार्य प्रशांत: कभी न बीते आनन्द, उसके लिए फिर क्या अनिवार्यता है?
श्रोता ३: वो शुरू ही न हो।
आचार्य प्रशांत: उसे अगर ख़त्म नहीं होना है तो फिर वो शुरू नहीं हो सकता। अगर शुरू नहीं हो सकता तो किसी ख़ास दिन का इंतज़ार नहीं कर सकता। क्योंकि हम तो कहते हैं वो दिन आएगा तब मौत शुरू होगी। जो मौत शुरू होती हो वो तो अपने पीछे दुख,उदासी, आँसू ही छोड़कर के जाएगी। क्योंकि जो शुरू होता है वो ख़त्म भी होगा।
ख़त्म होने से बचाना है तो शुरू ही मत करिए। ये कोई निराशावाद नहीं है कि ख़त्म होने से बचाना तो शुरू मत करिए। इसमें परम सौंदर्य है। ये बात ये है कि शुरू करने की ज़रूरत ही नहीं है। हमारा शुरू करना व्यर्थ है। जीवन को जीने का सहज और सुन्दर तरीक़ा वो हो सकता है जिसमें आनन्द कोई घटना न हो। घटनाएँ शुरू होती हैं और ख़त्म होती हैं। जिसमें आनन्द फिर क्या? अगर पन्द्रह दिन नहीं है तो फिर कहाँ है? बोलिए!
श्रोता ३: हमेशा है।
आचार्य प्रशांत: और अब जो हमेशा है वो समय का ग़ुलाम नहीं रहा, क्योंकि समय का तो अर्थ है बदलाव। कुछ ऐसा हो जाए जो सतत् हो। तो अब वो बदलता नहीं न! जो बदलता नहीं वो समय के पार चला गया। जो तीन-सौ-पैंसठ दिन हो गया। अब उस पर समय की कोई बाध्यता नहीं बची। समय के पार दो ही जाते हैं। एक वो जो सदा हो, और एक वो जो कभी न हो। जो सदा हो गया उसका समय से क्या लेना-देना? अब तो आप कह रहे हैं कि समय बीतता रहे, ये क़ायम रहता है क्योंकि ये सदा है। तो अब ये समय से मुक्त हो गया। ये कालातीत हो गया।
आनन्द कभी ख़त्म न हो इसके लिए उसे समय की बंदिश से आज़ाद होना पड़ेगा। इसके लिए फिर उसे आवश्यक है कि किसी ख़ास दिन के साथ जोड़कर न देखा जाए। जहाँ ख़ास दिन है वहाँ साधारण और मामूली दिन भी होंगे। जहाँ सुख की तलाश है वहाँ दुख की अनिवार्यता भी। अगर आप जीवन ऐसा जी रहे हैं जो आपके लिए आवश्यक कर देता है छुट्टियाँ लेना, अगर आप जीवन ऐसा जी रहे हैं जो आपके लिए आवश्यक कर देता है कभी-कभार त्योहार, उत्सव, बैठक, महफ़िल सजा लेना, तो जान जाइए कि चक्की चल रही है और उसमें जीवन पिस रहा है, व्यर्थ जा रहा है।
सही जीवन की एक सीधी निशानी ये होगी कि उसे अपने से बाहर कुछ नहीं चाहिए होगा। वो अपने में पूर्ण होगा।
वो जैसा चल रहा होगा उसमें सन्तुष्टि होगी। वो आगे की किसी अपेक्षा के लिए नहीं जी रहा होगा। वो किसी असाधारण घटना का इंतज़ार नहीं कर रहा होगा। उसकी मौज उसकी दिनचर्या में होगी। उसकी मौज उसके हरेक मामूली दिन में होगी। उसकी तृप्ति उसके हर साधारण सम्बन्ध में होगी। उसे दिवाली, होली, ईद, दशहरा, क्रिसमस नए साल से कोई परहेज नहीं होगा, पर ये उसके लिए कुछ ख़ास भी नहीं होंगे, क्योंकि उसके लिये दीवाली हर रात आएगी। तो जिस दिन हमारी विशिष्ट दिवाली आएगी वो उस दिन तो आनन्दमय रहेगा ही, लेकिन जिस दिन हमारी दिवाली बीत जाएगी उसकी दिवाली नहीं बीतेगी।
हमारी दिवाली के दिन तो उसकी दिवाली होगी। ऐसा नहीं कि वो उस दिन कह देगा कि मैं नहीं मनाता। वो कहेगा ‘ठीक, मनाओ, प्यारी बात है मनाना।‘ लेकिन अगले दिन आप बस गुज़रे हुए दिए और पटाखों के कंकाल गिन रहे होंगे। उसका अगले दिन फिर दीपोत्सव होगा। होली के अगले दिन आप बस अपना घिसा हुआ गाल देख रहे होंगे और दीवारों पर रंगों के धब्बे साफ़ कर रहे होंगे। वो अगले दिन पुनः रंग खेल रहा होगा। थोड़ी सी ईर्ष्या उठी न? त्योहारों के बाद देखा है न क्या माहौल रहता है! कैसा रहता है?
श्रोता ३: सन्नाटा सा।
आचार्य प्रशांत: कभी कहीं पर देखा है जहाँ अभी-अभी शादी का उत्सव हुआ हो रात भर? वहाँ अगले दिन देख है कैसा माहौल रहता है सुबह-सुबह? कैसा रहता है?
श्रोता ४: उजड़ा हुआ।
आचार्य प्रशांत: उजड़ा हुआ। उसके यहाँ अगले दिन फिर उत्सव है। फिर और उसके अगले दिन?
श्रोता ४: फिर उत्सव।
आचार्य प्रशांत: पर वो नहीं हो पाएगा अगर उत्सव के अगले दिन आपने तय ही कर रखा हो कि अब उत्सव का विपरीत कुछ करना है। वो नहीं हो पाएगा। अगर आप छुट्टी के आख़िरी दिन जानते हों कि अब कल जो होगा वो छुट्टी का नितांत विपरीत है। वो नहीं हो पाएगा। हम ये पहले से जानते हैं कि नहीं जानते हैं? बोलिए!
किसी से मिलने जाते हैं तो लौटती का टिकट पहले कटवा के जाते हैं कि नहीं? आपमें से कुछ लोग दिवाली वगैरह पर घर जाते हैं। लौटती टिकट लेकर के जाते हैं कि नहीं?
श्रोता ३ : जी।
आचार्य प्रशांत: ये कौन सा उत्सव है जिसके ख़त्म होने की तिथि पहले ही निर्धारित कर दी गयी है! ये कौन सा मिलन है जिसमें जुदाई पहले ही छुपी हुई है! छुपी भी कहाँ है। मिलन तो बाद में होता है लौटती का टिकट पहले कटा होता है। मिलन छुपा हुआ है, जुदाई तो स्पष्ट है। ये कौन सा रविवार है कि जिसका विपरीत होना ही है सोमवार को। या तो सोमवार सारे ऐसे हों कि सातों दिन या रविवार ऐसा हो कि बढ़कर छा जाए सारे सोमवारों पर। नहीं तो फिर तो कष्ट है।
रविवार ख़त्म होगा, कष्ट होगा। उत्सव बीतेगा, कष्ट होगा। और हमारे जीवन का दर्द ही यही है न? कोई उत्सव ठहरता ही नहीं। जो भी प्यारा लगता है वो बह जाता है। जिसको भी पकड़ा उसी को गँवाया। जिसको भी चाहा उसी को खोया। जो कुछ अच्छा लगता है वो मिलता भी ऐसे है जैसे कि जन्मों के प्यासे को दो बूँद पानी, बस किसी तरह से वो जीता रहे। उतना भी पानी न दो, मर ही जाएँ तो बेहतर। ऐसा हमारा जीवन है।
दो महीने में एक दिन के लिए उत्सव। दो बूँद पानी मिल गया बस। इससे ज़्यादा नहीं मिलेगा। ऐसा अभाग लेकर पैदा हुए हैं हम? मनुष्य की नियति यही है दो महीने के प्यासे को एक दिन दो बूँद पानी, बस इतना ही? तीसरी बूँद माँगो तो सोमवार आ जाता है। तीसरी बूँद माँगो तो दो तारीख़ आ जाती है। एक जनवरी बीती, तीसरी बूँद की अनुमति नहीं तुम्हें। थोड़े और जीवन के, थोड़ी और मिठास के, थोड़े और रस के पात्र नहीं तुम। चलो! तुम्हें इतना ही लिखा था, और मत माँगना। छुट्टियाँ ख़त्म हुईं, चलो!
कोई बैठा है यहाँ पर जिसने छुट्टियों की आख़िरी दिन ये कामना ना की हो कि काश थोड़ी और खींच जाए? कहिए! कोई है यहाँ पर? कोई है ऐसा यहाँ पर जिसने बीतते उत्सव को देखकर के दिल पर हाथ न रख लिया हो? कोई है ऐसा यहाँ पर जिसने विदाई की बेला में समय के रुक जाने की प्रार्थना न की हो? बोलिए!
श्रोता: सर, जैसे चाहते तो सब हैं ऐसा हो, लेकिन ऐसा होता नहीं है। लेकिन सर, परिवर्तन जो है, एक नियम है प्रकृति का कि जो एक समय है वो तो गुज़रते रहेगा।
आचार्य प्रशांत: तुम इतने नियमों को जानते हो? तुम इतने जानकार और ज्ञानी हो तो ज्ञान के साथ तो आनन्द आता है। वो तुम्हारे जीवन में क्यों नहीं है? तुम्हारे जीवन में क्यों उदासी और आँसू हैं? इतनी होशियारी है तो होशियारी के साथ तो सरलता और सौंदर्य आना चाहिए। वो कहाँ है? तो अस्तित्व और प्रकृति के नियमों को इतना ही जानते हो। तो नियम तुम पर भारी क्यों पड़ रहे हैं? अपने जीवन को देखकर के समझ में नहीं आता कि तुम कुछ नहीं जानते; न यम के बारे में, न नियम के बारे में।
परिवर्तन बाहर-बाहर चलता रहता है। सूरज उगता है गिरता है, भीतर होता है आनन्द। वहाँ नहीं कोई परिवर्तन होता। तुमने परिवर्तन का क्या अर्थ लगा लिया है? तुमने सोच लिया है कि भीतर जो उठेगा वो भी गिरेगा। तुमने ये सोच लिया है कि परिस्थितियों के साथ-साथ भीतर भी सब परिवर्तित होना चाहिए। ये है तुम्हारा ज्ञान! और उसी ज्ञान का नतीजा है कि जीवन ऐसा है।
परिवर्तन सारे बाहर चलते हैं, भीतर नहीं होने चाहिए। दिन बाहर-बाहर बदलते रहते हैं, आन्तरिक अवस्थाएँ नहीं बदलनी चाहिए। अब तुम मुझे बताओ जब दिन बदलते हैं तो तुम्हारी आन्तरिक अवस्था बदल जाती है कि नहीं? ये ऐसा है कि एक तारीख़ को अभी जैसा मन है, दो को वैसा ही रहेगा? एक को जब तुम हल्ला-गुल्ला करते हो और मौज करते हो, उत्सव करते हो तो मन कैसा रहता है? और दो को जब दोबारा चक्की चलने लगती है तब मन कैसा रहता है? बोलो! एक सा ही रहता है?
श्रोता: बदल जाता है।
आचार्य प्रशांत: बदल जाता है न? परिवर्तन अगर सिर्फ़ बाहरी होता तो अच्छी बात थी; हम कहते, ‘हाँ! नियम हैं।‘ हमारे लिए तो हम ही परिवर्तित हो जाते हैं। भीतर जैसे केन्द्र ही बदल जाता हो। मैं ही कुछ और हो गया। दिन बदला, मैं बदला। तो दिन यदि आनन्द लेकर आया था तो दिन के जाने के साथ आनन्द गया। क्योंकि दिन बदला, मैं बदला। ऐसा हो सकता है कि कोई बदलाव ऐसा हो जो फिर न बदले? क्या ऐसा हो सकता है कि ऐसा कोई टिकट कटाएँ आप जहाँ से पुनः वापसी न करनी पड़े?
मैं एक सम्भावना खोल रहा हूँ, मैं एक आमन्त्रण दे रहा हूँ; जल्दी से इसे ठुकरा मत दीजिएगा। हो सकती है कोई ऐसी यात्रा कि जिससे फिर पुन: वापसी न करनी पड़े? हो सकती है, बिलकुल हो सकती है, पर आपको ही जाननी पड़ेगी। आपको उस यात्रा पर निकलना पड़ेगा। एक ऐसी यात्रा जो एक बार शुरू हो जाए तो फिर ख़त्म नहीं होती। एक ऐसी यात्रा जिसमें फिर मुड़ा नहीं जाता वापस, कोई यू-टर्न नहीं होता। जिसमें फिर आप सुन्दर से सुन्दरतर और सुन्दरतम की ओर बढ़ते ही जाते हैं। फिर ये नहीं कहते कि अब लौटना है कुरूप की ओर असुन्दर की ओर। जिसकी मौज फिर ऐसी होती है कि उसमें आप फिर डूबते ही जाते हैं, डूबते ही जाते हैं, डूबते ही रहते हैं। ये नहीं कहते कि अब दोबारा उसी वृत्त में जाकर के फँसना है। ‘मत डुबोओ, मुझे तो कहीं और पहुँचना है।’
श्रोता २: सर, जैसे पन्द्रह दिन की बात है। पन्द्रह दिन बेशक ये उन लोगों के हैं जिनकी कमाई है। उनको ऐसे नहीं मिल गया था ये पन्द्रह दिन, जो भी उनके हैं। इतना सस्ता तो उनको नहीं मिला। जितना हो सकता था उसके बाद मिला उनको। अगर अस्तित्व, परमात्मा ये चाहेगा कि उनके उन दिनों पर बढ़ा ही मिले, तो हम कौन होते हैं जो छीनें? ये उनकी कमाई है। वो टाइमलेसनेस के साथ जुड़े हैं और अगर उनको मिल रहा है, हर कोई उनका आकर सत्कार कर रहा है, तो हमें किसी को रोकना भी नहीं चाहिए, उनको देखकर के उसको अपने सुख अपना करना चाहिए। लेकिन उनकी जो कमाई है उसके आगे तो हम नतमस्तक हुए न?
आचार्य प्रशांत: क्या कमाई?
श्रोता २: जो उन्होंने पाया है।
आचार्य प्रशांत: क्या?
श्रोता २: वो इस परमात्मा के साथ एकाकार हुए हैं।
आचार्य प्रशांत: आप इकत्तीस को परमात्मा के साथ एकाकार हुए थे?
श्रोता २: जो पन्द्रह लोगों की जो आप बात कर रहें हैं।
आचार्य प्रशांत: वो आप हैं, आपकी बात कर रहा हूँ। मैं किसी दूसरे ग्रह के निवासियों की बात थोड़े ही कर रहा हूँ। आप में से कौन-कौन हैं जो होली, दिवाली, दशहरा, ईद, क्रिसमस परमात्मा के साथ एकाकार हो जाते हैं। और कल हम आ रहे थे तो सामने कितना अद्भुत और डरावना नज़ारा — गाड़ी आयी फुल स्पीड और रॉन्ग साइड (पूरी गति में और ग़लत दिशा में)! पर हमें पता भी नहीं चला। कैसे वो जाकर के जो सड़क के किनारे का ऊँचा पेवमेंट (फूटपाथ) होता है, उस पर जाकर के पूरी चढ़ गयी और रेलिंग को तोड़ते हुए आगे बढ़ गयी। उससे पहले उसने एक गोल चक्कर खाया। हम लोगों ने गाड़ियाँ रोकी, उतरकर के गये, खून-ही-खून! परमात्मा के साथ एकाकार होने ही वाले थे। और शराब की भभक, जल्दी से एम्बुलेंस को फ़ोन मिलाया गया। अभी कुछ घंटों पहले की बात है।
श्रोता २: और अगर उन पन्द्रह दिनों में अगर किसी व्यक्ति को थोड़ी प्रेरणा भी मिलती है कि इन्होंने पाया है।
आचार्य प्रशांत: किसी व्यक्ति की बात मत करिए, अपनी बात करिए। क्या होता है वास्तव में उन पन्द्रह दिनों में, क्या होता है इकत्तीस तारीख़ को, क्या होता है दिवाली के दिन? कल्पना मत करिए, यथार्थ पर आइए।
श्रोता २: अगर खुशी एक दिन की भी मिले तो क्या हर्ज़ा है! जिसका पूरा दिन ही सूना है।
आचार्य प्रशांत: हम इतने दिनों से क्या बात कर रहे हैं? खुशी एक दिन की भी मिले तो कोई बुराई न होती अगर आपको बुराई न लगती। आप सन्तुष्ट हैं एक दिन की खुशी से? मुझे कोई आपत्ति नहीं। अगर आपको उसमें कुछ हर्ज़ा न दिखता या आपने अपने मन को इतना मार दिया है, इतना दबा दिया है कि वो कहता है कि तीन-सौ-पैंसठ में से पन्द्रह में ही ठीक हैं, बाक़ी साढ़े-तीन-सौ दिन मारे रहो।
यहाँ कौन-कौन है जो महीने में एक दिन के आनन्द से सन्तुष्ट है? बोलिए! कौन-कौन है यहाँ पर? और अभी हम ये मानकर के चल रहे हैं कि वो आनन्द जो एक ही दिन का हो उसे आनन्द कहा भी जा सकता है। क्योंकि जो एक ही दिन का हो और फिर हट जाए उसे आनन्द नहीं कहते, उसे उत्तेजना कहते हैं। उत्तेजनाएँ आती हैं और जाती हैं। ख़ैर मान भी लिया कि एक दिन का जो था वो आनन्द ही था। तो कौन-कौन है जो एक दिन के आनन्द से राज़ी है? भूलिएगा नहीं कि एक दिन का आनन्द माने उन्तीस दिन का?
श्रोता २: दुख।
आचार्य प्रशांत: कौन-कौन है जो उनतीस दिन का दुख चाह रहा है? आप अगर राज़ी होते तो बढ़िया बात थी न। आप ही राज़ी नहीं हैं। ये पूरा सत्र आपका है, आपकी ही तो बात हो रही है। हम किसी काल्पनिक पात्र की चर्चा तो नहीं कर रहे न?
श्रोतागण: अपने जीवन की।
आचार्य प्रशांत: आप खुश हैं? सवाल बस ये है। आप रज़ामन्द हैं? पर हैं कि नहीं, इसके लिए तो जीवन की ओर ही देखना पड़ेगा। और तो कोई कसौटी होती नहीं।
श्रोता २: हर हाल में रज़ामन्द रहना।
आचार्य प्रशांत: हर हाल में रज़ामन्द रहना कोई मजबूरी, बाध्यता तो नहीं हो सकती न? रज़ामन्दी तो वो होती है कि जिसमें हाँ भी कहनी न पड़े। मजबूरी को रज़ामन्दी बोल देंगे क्या? जवाब दीजिए।
श्रोता २: नहीं, सर।
आचार्य प्रशांत: आपकी कनपटी पर पिस्तौल रखवाकर के कहवाया जाए — ‘हाँ!’ तो वो हाँ है?
श्रोता २: नहीं, मजबूरी। हमें आनन्द से, उल्लास से रज़ामन्द रहना है।
आचार्य प्रशांत: रहना है नहीं। ये कोई आदर्श नहीं होता। ये कोई संकल्प नहीं होता। ये तो उचित जीवन का सहज फल होता है। इसकी अपने आप को प्रेरणा नहीं दी जाती। ये बातें नैतिकता की किताबों में नहीं पढ़ी जातीं कि सदा खुश रहना। ‘कुछ भी हो जाए बुरा मत मानना। हमेशा हँसते रहना।’ ये बातें धारण करने की नहीं होती। ये तो जब सही जीवन जिया जाता है तो अपने आप उतरती हैं।
श्रोता २: स्वाभाविक हो जाती हैं।
आचार्य प्रशांत: स्वाभाविक हो जाती हैं। अब मेरा प्रश्न ये है कि क्या हम सही जीवन जी रहे हैं? सही जीवन जिया जाए साढ़े-तीन-सौ दिन तो इन पन्द्रह की विशेष ज़रूरत नहीं रहेगी। क्योंकि ये पन्द्रह उन साढ़े-तीन-सौ में ऐसे घुल-मिल जाएँगे कि अलग पता ही नहीं चलेंगे। साढ़े-तीन-सौ सही दिए जाएँ तो ये पन्द्रह विलुप्त हो जाएँगे। क्यों? क्योंकि ये साढ़े-तीन-सौ और वो पन्द्रह ऐसे एक हो जाएँगे कि आप कह ही न पाएँगे कि काम कर रहे हैं या छुट्टी मना रहे हैं। आपको पता ही नहीं चलेगा कि काम है कि छुट्टी। ये विभाजन रेखा ही मिट जानी है।
अब रविवार ख़ास नहीं रहेगा। अब आप ये नहीं कहेंगे कि साढ़े-तीन-सौ हैं और पन्द्रह हैं। अब आप कहेंगे तीन-सौ-पैंसठ हैं। और इन दोनों में बड़ा अन्तर है। जान लीजिएगा। गणित वो अन्तर समझा नहीं पाएगी। गणित की दृष्टि में साढ़े-तीन-सौ और पन्द्रह को जोड़ा तो कितना आया?
श्रोता: तीन-सौ-पैंसठ।
आचार्य प्रशांत: ना! जीवन कहता है कि तीन-सौ-पैंसठ माने तीन-सौ-पैंसठ। जीवन कहता है साढ़े-तीन-सौ और पन्द्रह का योग नहीं होता तीन-सौ-पैंसठ। क्योंकि योग का तो मतलब है कि दो अलग-अलग इकाईयाँ हैं। तो साढ़े-तीन-सौ और पन्द्रह को जोड़कर के तीन-सौ-पैंसठ पर मत पहुँचना। तीन-सौ-पैंसठ माने तीन-सौ-पैंसठ। तीन-सौ-पैंसठ ऐसे जो एक दूसरे से अलग-अलग नहीं हैं। तीन-सौ-पैंसठ ऐसे जिसमें एक तारीख़ और दो तारीख़ अलग-अलग नहीं हैं। तीन-सौ-पैंसठ ऐसे नहीं जिसमें साढ़े-तीन-सौ एक कोटि के और पन्द्रह दूसरी। जो हो, तीन-सौ-पैंसठ दिन हों।
अब हमें एक दिक्क़त आ जानी है। दिक्क़त ये है कि उत्तेजनाएँ तो ऊर्जा का विस्फोट होती हैं; वो सतत् नहीं हो सकती। हमारे ये पन्द्रह दिन उत्तेजना से परिपूर्ण होते हैं। अब उत्तेजना पन्द्रह दिनों से आगे खिंचेगी भी नहीं। आप होली के दिन जो करते हैं, आपसे कहा जाए एक हफ़्ते कर दो। गिर जाएँगे, होगा ही नहीं। और मन तर्क क्या देगा कि देखो! भाषण देते थे कहते थे कि तीन-सौ-पैंसठ दिन होली होनी चाहिए। ‘अरे! चार ही दिन नहीं चल रही। आधे अस्पताल पहुँच चुके हैं। चार दिन में अस्पताल भर गये। तीन-सौ-पैंसठ दिन होली मना दी तो जाने क्या हो जाएगा। तो ये बातें ही व्यर्थ की कर रहे हैं।’ नहीं! मैं बात व्यर्थ की नहीं कर रहा।
मैं कह रहा हूँ हमारी होली तमाशा है और हिंसा है क्योंकि वो होली आती ही तीन-सौ-पैंसठ दिन में एक बार है। जब रोज़ होली मनेगी तो फिर उस होली में हिंसा नहीं होगी। फिर उस होली में उत्तेजना नहीं होगी। फिर उस होली के रंग अनूठे होंगे। फिर आप एक-दूसरे पर पेंट नहीं फेंकेंगे, फिर गुब्बारे नहीं चलेंगे। फिर कुछ और बात होगी।
जब उत्सव रोज़ मनेगा तो उत्सव का रूप भी बदल जाना है। फिर उत्सव वैसा नहीं रह जाएगा, फूहड़, अश्लील, उन्मादी; जैसा हमारा होता है। उत्सव का मतलब हो जाता है बेहोशी। फिर उत्सव कुछ दूसरा होता है। अब रोज़ होता है उत्सव। अब उत्सव ऐसा है कि जैसे साँस ले रहे हों। उत्तेजित हो जाएँ तो साँस की लय ख़राब हो जाती है। अब उत्सव में उत्तेजना नहीं रही। अब एक संगीत रहेगा, एक प्रवाह रहेगा।
श्रोता: सर, अब तो स्थिति हो जाती है कि वो पन्द्रह भी अच्छी नहीं लगती, मतलब पन्द्रह भी साढ़े-तीन-सौ की दर्द में, पन्द्रह में भी एंजॉयमेंट नहीं रह पाता।
आचार्य प्रशांत: होना ही है। जब गले मिलते ही पता हो कि शाम की ट्रेन से लौटना है, तो कितनी गहराई से और कितने प्रेम से गले मिल पाओगे? जवाब दो। जिस जीवन को पता हो कि मृत्यु सामने खड़ी है, वो जीवन कितनी साँसे ले पाएगा! ”स्वागत के ही साथ विदा की, होती देखी तैयारी रे!” जीवन कुछ ऐसा हो सकता है जिसमें विदाई अनिवार्यता न हो?
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