प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मेरा प्रश्न मेरे वैवाहिक जीवन से है। किसी भी अन्य रिश्ते में मुझे अभिव्यक्ति करना सरल लगता है पर अपनी बातें अपनी पत्नी तक पहुँचाना बहुत ही कठिन लगता है। यह रिश्ता इतना गहरा है फिर इतनी मुश्किल क्यों?
आचार्य प्रशांत: अब तुम्हें यहाँ पर एक विरोधाभास दिख रहा है, दो बातें मेल नहीं खा रहीं। पहली बात कहते हो कि पत्नी के साथ रिश्ता गहरा है, दूसरी बात कहते हो कि पत्नी से संवाद करना, पत्नी तक अपनी बात पहुँचाना बड़ा मुश्किल अनुभव होता है। ये जो तुमने दो बातें बतायी हैं जिनके बीच में सामंजस्य नहीं बैठ रहा, मेल नहीं बैठ रहा, इन दोनों बातों में प्रत्यक्ष अनुभव क्या है तुम्हारा? पहली बात तुमने कही है, ‘पत्नी के सामने खुल नहीं पाते’ और दूसरी बात तुमने कही है, ‘नाता बहुत गहरा है।’ इन दोनों बातों में कौनसी बात तथ्य है?
और एक बात समझना, गाँठ बाँध लेना बिलकुल, कभी भी कोई भी दो तथ्य एक-दूसरे से नहीं टकराते। तथ्य और तथ्य का कोई विरोध नहीं होता। संघर्ष, घर्षण, विवाद ये तुम मात्र धारणाओं के बीच में पाओगे या फिर जब धारणा तथ्य से टकराती हो तब। तथ्य और तथ्य सदा एक-दूसरे से सहमती में रहेंगे। तथ्य और तथ्य सदा एक-दूसरे से सहमती में रहेंगे। जब भी कभी तुम पाओ कि दो बातें एक-दूसरे से सहमत नहीं हो पा रही हैं, एक-दूसरे का खंडन करने को खड़ी हैं, तो जान लेना कि उन दोनों बातों में कम-से-कम एक बात तो तथ्य नहीं है। हो सकता है दोनों ही बातें तथ्य न हों।
मैं चुनौती देता हूँ, कोई ऐसे दो तथ्य मुझे दिखा दो जो एक-दूसरे की ख़िलाफ़त करते हों। घूम लो पूरी दुनिया और कोई ऐसे दो तथ्य उठा लाओ जो एक-दूसरे से राज़ी न होते हों, तुम्हें नहीं मिलेंगे।
अब अपनी स्थिति देखो, एक तरफ़ तुम कह रहे हो पत्नी से बातचीत नहीं कर पाते, दूसरी तरफ़ तुम कह रहे हो रिश्ता गहरा है। इन दोनों में से तथ्य कौनसा वक्तव्य है तुम्हारा? बात नहीं कर पाते हो पत्नी से, यह तो तथ्यगत लगता है। तथ्य क्या? तथ्य वो जो कि यदि कई लोगों द्वारा भी देखा जाए तो बदल न जाए। तथ्य को कह सकते हो, ‘वो अनुभव जो अनुभोक्ता पर आश्रित नहीं है।’ तथ्य के साथ एक वस्तुता होती है और धारणाएँ वैयक्तिक होती हैं। तथ्य वस्तु पर आश्रित होता है, धारणा व्यक्ति पर आश्रित होती है। 'यह (अपने हाथ में एक वस्तु उठाकर) नीला है', यह वक्तव्य आश्रित है वस्तु पर, तो इसे हम कह सकते हैं तथ्य। 'यह सुन्दर है', यह वक्तव्य आश्रित है?
प्र: व्यक्ति पर।
आचार्य: तो इसे हम तथ्य नहीं कह सकते। तथ्य तब जब तुम अपने व्यक्तित्व से ज़रा हटकर कोई बात कर सको। जो बात तुम्हारी निजी पसन्द-नापसन्द, धारणा, पूर्वाग्रह, अनुभव इत्यादि से आती हो, उसे हम तथ्य नहीं कह सकते। 'यह नीला है', यह तथ्य है, कम-से-कम इंसानों की दुनिया में तो तथ्य है ही। अगर कोई पशु आकर के इसको देखे तो हो सकता है उसको यह नीला न दिखायी दे। कई पशु कुछ कम रंग देख पाते हैं, कई पशुओं में रंग-अन्धता भी होती है। पर अगर आप सामान्य इंसानों की बात करें तो जितने लोग इसको देखेंगे, सब एक ही बात कहेंगे कि यह नीला है। परन्तु सभी ये नहीं कहेंगे कि यह सुन्दर है। तथ्य का अर्थ समझ गये? जो बात तुम्हारी व्यक्तिगत रुचि-अरुचि पर निर्भर हो उसको हम तथ्य नहीं कह सकते। ठीक है।
पत्नी से संवाद नहीं होता, इसे हम तथ्य कह सकते हैं? हाँ, क्योंकि दो लोग बात नहीं कर रहे हैं, यह बात तो जग-ज़ाहिर होगी। ये किसी की राय नहीं है, ये तो बात साफ़ है। दो लोग दिखें जिनके बीच में शब्दों का, संकेतों का, भावनाओं का आदान-प्रदान नहीं हुआ, तो यह बात तथ्य है कि उनमें बातचीत तो नहीं हो रही। और दूसरी बात तुमने लिखी है कि रिश्ता बहुत गहरा है। इसको हम तथ्य मानें क्या? मानें?
पहला सूत्र मैंने कहा, ‘तथ्यों में आपस में कभी कोई विरोध या घर्षण नहीं होता।’ अब दूसरी बात तुमसे कहता हूँ, ‘जब भी कभी तथ्य का मुक़ाबला होते देखो मान्यता के साथ, सदा तथ्य को ऊपर रखना मान्यता को झूठा जानना।’ यहाँ पर भी स्थिति वही है, ‘पत्नी से बातचीत नहीं कर पाता, दिल नहीं खोल पाता उसके सामने’, तो यह बात तो स्पष्ट है, तथ्य है। और दूसरी बात तुमने कही, ‘रिश्ता बहुत गहरा है।’ ज़ाहिर है कि रिश्ता गहरा नहीं है। तथ्य और मान्यता जब टकरायें तो मान्यता को कभी क़ीमत मत दे देना, जीत मत दे देना।
नहीं है गहराई। क्यों कहते हो कि गहराई है? क्योंकि तुम्हें बता दिया गया है, क्योंकि सात फेरे ले लिये थे, क्योंकि फ़िल्मों, उपन्यासों में पढ़ते हो कि यह रिश्ता तो गहरा होता ही है। क्या तुम्हारे अनुभव में यह रिश्ता गहरा हुआ है? तुम्हारे पास कोई प्रमाण है सिद्ध करने को कि यह रिश्ता गहरा होता ही है? और अगर कभी तुम किसी पुरुष और स्त्री के रिश्ते में गहराई देखो, तो वो गहराई उनके पति और पत्नी होने के कारण है या अच्छे मित्र होने के कारण है? स्त्री और पुरुष में निसन्देह सम्भव है कि एक गहरा रिश्ता हो, हो सकता है।
कुछ पति-पत्नियों में भी तुम पाओगे कि स्वस्थ और गहरा रिश्ता है। पर वो रिश्ता क्या इसलिए है कि वो पति-पत्नी हैं या इसलिए है कि सर्वप्रथम वो स्वस्थ व्यक्ति हैं, दोनों ही, पुरुष भी स्त्री भी? और दो स्वस्थ व्यक्तियों के बीच में एक स्वस्थ सम्बन्ध होगा ही, वो पति-पत्नी भी हैं, यह बात अतिरिक्त है। वो पति-पत्नी नहीं भी होते तो भी रिश्ता स्वस्थ ही होता। आज तुम उनको जाकर के बोल दो कि साहब कल से एक-दूसरे को मियाँ-बीवी मत बोलिएगा, तो कोई विशेष अन्तर नहीं आ जाएगा। रिश्ता जैसे पहले था, अभी भी रहेगा क्योंकि रिश्ते की बुनियाद में न पतित्व है न पत्नीत्व है। रिश्ते की बुनियाद में एक हार्दिक मित्रता है और वो मित्रता किसी नाम की मोहताज तो होती नहीं।
मित्रता हो तो पति-पत्नी हो, अच्छी बात है, पति-पत्नी नहीं हो तो भी अच्छी बात है। और मित्रता न हो तो पति-पत्नी का नाम भर धर लेने से रिश्ते में गहराई नहीं आ जाती। बड़ी अजीब बात है कि हमारे यहाँ रूढ़ि ने विवाह को ज़्यादा महत्व दिया है, प्रेम को कम महत्व दिया है। विवाह की शान में न जाने कितने गीत गाये गए हैं, उसे अपरिहार्य बताया गया है। और प्रेम को, मित्रता को ज़रा पीछे का स्थान दे दिया गया है।
और उसके पीछे भी कारण है। कारण समझना अच्छे से, पुरुष-स्त्री में जो प्रेम होता है वो परम प्रेम तो होता नहीं, ये बात तो जानते ही हैं। शुरुआत ही यहाँ से होती है कि तुम जिसकी ओर जा रहे हो वो स्त्री है और वो जिसकी ओर आ रही है वो पुरुष है। लिंग देखकर के प्रेम हो रहा है। तो ये तुम्हें कोई निर्गुण-निराकार के प्रति तो प्रेम उठ नहीं रहा, ये अहंकार के विसर्जन की चाह तो है नहीं। यह जो चाहत होती है इसमें तो देहगत, इन्द्रियगत तृप्ति का लालच छुपा ही होता है। तो इसीलिए इस प्रेम में बहुत जान नहीं होती।
और भारत ने इस बात को समझा कि आदमी-औरत जब भी एक-दूसरे की ओर खिचेंगे तो वो मन की एक लहर होगी और मन की लहर अगर उठी है तो गिरेगी भी। फिर अगर ये एक-दूसरे के क़रीब आये हैं आज, तो दो साल बाद एक-दूसरे से दूर भी चले जाएँगे। जैसे मन की एक लहर इन्हें एक-दूसरे के पास ले आयी थी वैसे ही मन की दूसरी लहर इन्हें एक-दूसरे से दूर भी ले जाएगी। यही वजह है कि प्रेम विवाह बहुत दीर्घायु नहीं होते और जितने भी आयोजित विवाह होते हैं उनकी उम्र ज़्यादा लम्बी होती है क्योंकि जो आदमी प्रेम करना जानता है, वो हाथ पकड़ना भी जानता है तो हाथ छोड़ना भी जानता है।
यह कौन सा प्रेम है — मैं दोहरा रहा हूँ — यह अनन्त के प्रति तो तुम्हारा प्रेम है नहीं न? जब तुम किसी स्त्री या पुरुष से प्रेम करते हो, तो अनन्त से तो प्रेम कर नहीं रहे। और अनन्त के प्रति जो प्रेम नहीं है वो प्रेम भी अनन्त नहीं हो सकता, उस प्रेम का अन्त आ जाएगा। तो इसीलिए पश्चिम में प्रेम विवाह होते हैं लेकिन फिर एक-एक आदमी के पाँच-पाँच विवाह भी होते हैं। भारत में प्रेम विवाह नहीं होते, पर जो विवाह होता है वो लम्बा चलता है। यह एक चुनाव है जो तुम्हें करना पड़ता है। प्रेम पर चलोगे तो मन तो चंचल होता है, मन आज इधर लगा, कल उधर भी लगेगा, मन नहीं टिकने वाला।
तो भारत ने कुछ ऐसा करा जो स्त्री के ज़्यादा हित में है। मन चंचल पुरुष का भी होता है और स्त्री का भी होता है लेकिन स्त्री के मन में चंचलता के अलावा एक दूसरी इच्छा भी होती है, वो इच्छा होती है घोंसला बनाने की। पुरुष को घोंसले से कोई मतलब नहीं, पुरुष आज इस डाल पर बैठा है, कल उसे दूसरी डाल पर बैठना-ही-बैठना है। स्त्री भी डालें बदलने को इच्छुक रहती है पर डाल बदलते-बदलते वो किसी डाल पर घोंसला भी बना लेती है।
विवाह की संस्था बहुत आवश्यक है स्त्री के लिए। वास्तव में विवाह की संस्था स्त्री के ही पक्ष में है अन्यथा पुरुष नहीं रुकने वाला। इसीलिए विवाह को ज़्यादा आतुर भी स्त्रियाँ ही होती हैं। कोई रिश्ता होगा जिसमें मित्रता होगी, ज़रा प्रेम होगा, लड़का-लड़की होंगे। थोड़े ही दिनों में सम्भावना यही है कि लड़की ही पहले पूछेगी, ‘अब हम शादी कब करेंगे?’ क्योंकि विवाह की संस्था घोंसले के पक्ष में है और घोंसला मादा को ही चाहिए, उसी के भीतर जैविक वृत्ति ज़्यादा उठती है।
भारत ने देखा, करुणा का देश है भारत, ज़रा स्त्रैण देश है भारत, स्त्री का ही पक्ष ले लिया, विवाह को ऊपर रख दिया, प्रेम को नीचे रख दिया। तो विवाह हो जाते हैं और विवाह दीर्घायु होते हैं। प्रेम अल्पायु होता है। मैं कृष्ण के प्रति मीरा के प्रेम की बात नहीं कर रहा हूँ, वो प्रेम नहीं अल्पायु है। मैं आम आदमी और आम औरत के बीच के प्रेम की बात कर रहा हूँ, वो चिरंजीवी नहीं होता, उसकी उम्र बहुत लम्बी नहीं होती।
भारत ने यह देखा, बहुत बूढ़ा देश है न, बहुत दिनों से देख रहा है कि आदमी-औरत को अगर यह हक़ दे दिया कि जिससे प्रेम करो उसी से विवाह करो, तो स्त्री के लिए बुरा हो जाएगा, वो बेचारी घोंसला नहीं बना पाएगी। पश्चिम में ऐसा ही होता है, दो साल, चार साल, छः साल, कई बार दो महीने, बस इतने ही चलते हैं विवाह। भारत ने कहा, ‘छोड़ो! प्रेम इत्यादि। तुम विवाह करो।’ भारत घर के बड़े-बूढों जैसा है, उनमें घर की लड़कियों के प्रति ज़्यादा ममता रहती है, देखा है? तो भारत ने स्त्री का पक्ष लिया, विवाह का पक्ष लिया। बोले, ‘तुम प्रेम वगैरह हटाओ, शादी कर लो।’ तो ऐसे हमारे यहाँ शादियाँ हो जाती हैं। अब इन शादियों से सुरक्षा तो मिल गयी, ये शादियाँ चलती तो बहुत लम्बी हैं पर तुम अगर यह माँग करो कि इन शादियों में गहराई भी रहे, प्रेम भी रहे, तो वो नहीं है।
चुनाव पश्चिम ने भी करा, चुनाव भारत ने भी करा और दोनों ने अपने-अपने नफ़े-नुक़सान उठाये हैं। पश्चिम ने कहा, ‘हम वो करेंगे जो हमारा मन करता है।’ पश्चिम ने कहा कि जो स्त्री तुमको पसन्द नहीं अगर तुम उसके साथ घर बसा रहे हो तो यह बहुत ग़लत किया है तुमने। पश्चिम ने कहा, ‘जो तुमको स्त्री पसन्द नहीं उसके साथ घर बसाना ग़लत है।’ और भारत ने जो कहा वो अनूठा है, भारत ने कहा, ‘जिसके साथ तुमने घर बसा लिया अगर वो तुम्हें पसन्द नहीं तो यह बात ग़लत है।’
तो यही बात तुम भी यहाँ कह रहे हो। कह रहे हो, ‘घर तो मैंने बसा लिया है, तो रिश्तें में गहराई तो होनी ही चाहिए।’ अरे! घर बसा भर लेने ले रिश्ते में गहराई थोड़े ही आ जाएगी। पर ये बात मान्यता सम्मत है। यही बात बूढ़े भारत ने सदियों से लोगों से कही है कि जिसके साथ घर बसा लिया अब उसे पसन्द भी करो। तो यहाँ पर लोग ज़बरदस्ती पसन्द का व्यायाम करते नज़र आते हैं। जैसे कोशिश कर-करके शरीर बनाया जाता है, वैसे ही हमारे यहाँ कोशिश कर-करके पसन्द किया जाता है। कि अब शादी तो हो गयी है, अब पूरी ज़ोर लगाओ कि किसी तरह से पसन्द भी कर ही लें इसको। और नहीं कर पा रहे पसन्द तो झूठ बोल दो, दुनिया से भी और अपनेआप से भी, ‘बहुत पसन्द है हमको। आहाहा!’
और दोनों ने क़ीमतें अदा करी हैं, जिन्होंने कहा कि मन पर चलो उन्होंने भी क़ीमत अदा करी है। मन कैसा होता है? बन्दर जैसा होता है, आज इस डाल कल उस डाल। तो उन्होंने भी क़ीमत अदा करी है। उन्होंने जो क़ीमत अदा करी है वो यह है कि वहाँ आदमी कभी स्थायी नहीं हो पाता, टिक नहीं पाता। ये शहर वो शहर, ये घर वो घर, ये रिश्ता वो रिश्ता। दो बच्चे पहली पत्नी से हैं, तीन दूसरी पत्नी से हैं और तीसरी कह रही है, ‘मेरा नम्बर कब आएगा?’ यह क़ीमत पश्चिम ने अदा करी।
और भारत ने भी क़ीमत अदा करी है, भारत ने वही क़ीमत अदा करी है जो तुम्हारे प्रश्न में दिख रही है कि शादी तो हो गयी है और चूँकि शादी हो गयी है तो हम यह मानने को मजबूर भी हैं कि रिश्ते में गहराई है। लेकिन वो गहराई अनुभव में परिलक्षित होती नहीं, अब क्या करें? अरे भाई! नहीं है गहराई, जहाँ है नहीं गहराई वहाँ ठूँस-ठूँसकर भरोगे क्या? तो ऐसी सी बात है कि मैं इस गिलास को उठाऊँ और कहूँ, ‘आहाहा! अतल सागर की गहराई है इसमें।’
लेकिन परेशान क्यों हो रहे हो, तुमने अगर नुक़सान उठाया है तो लाभ भी तो उठाया ही है। और लाभ यह है कि तुम बड़े पत्नीव्रता हो। और भारत ने यही चाहा कि रिश्ते में स्थिरता हो, पत्नी के साथ बुरा भी लगता हो तो भी यही कहो, ‘मेरी बीवी तो बिलकुल ठीक है। रिश्ते में गहराई है।’
यह बात सुनने में कड़वी लगती है पर इस बात के व्यावहारिक लाभ हुए हैं। व्यावहारिक लाभ ये हुए हैं कि घर टूटे नहीं हैं। ‘भला है, बुरा है, जैसा भी है, मेरा पति तो मेरा देवता है’ पिक्चरों में गाने चलते हैं। और तुमको पता है कि दुनिया में अगर कोई एक पिशाच हो सकता है तो वो तुम्हारा शौहर है, लेकिन इस बात को तुम कभी ज़बान पर नहीं लाओगे। ‘आओ पतिदेव, चरण कहाँ हैं तुम्हारे?’ और यही बात पतियों पर लागू होती है, तुम्हें बिलकुल पता है कि कोई एक है जिसे ख़ून पीने का चस्का है तो वो बीवी है तुम्हारी। लेकिन तुम कहोगे यही, ‘बस उम्मीद बाक़ी है। ऊपर-ऊपर से फूहड़ दिखती है, भीतर तो गार्गी है, मैत्रैयी है, उपनिषद् फूटने को तैयार खड़े हैं।’ तो घर टूटते नहीं। अब तुम चुन लो। पर दोनों बातें एक साथ नहीं चलेंगी।
अब एक तीसरा रास्ता सुझाता हूँ, जो न पूरब का है न पश्चिम का है। वो रास्ता बोध का है, अध्यात्म का है। तुम छोड़ो ये सब चक्कर कि किससे बात कर पाते हो, किसके सामने खुल पाते हो, कहाँ नहीं खुल पाते हो। क्यों तुम्हें किसी और का सहारा चाहिए? तुम उसकी ओर बढ़ो और उसको देखो जो सहारे का इतना इच्छुक है।
पश्चिम कहता है, ‘स्वयं को स्वयं का सहारा दो।’ वो स्वकेन्द्रित अहंकार है। वहाँ कहा जाता है, ‘तुम जो भी हो, किसी और का सहारा मत ले लेना, अगर गिर रहे हो तो ख़ुद को थाम लो।’ अब ज़ाहिर सी बात है गिरता हुआ आदमी ख़ुद को थामेगा तो नतीजा क्या निकलेगा। पर पश्चिम की यही हठ रही है कि अगर सातवीं मंज़िल से गिर रहे हो तो हवा में तुम ख़ुद को ही थाम लो, ऐसे (ख़ुद को पकड़ने का इशारा करते हुए) फिर चोट नहीं लगेगी। और चोट तो खूब लगेगी।
भारत का कहना रहा है, ‘न, किसी और का सहारा ले लो — भारत माने रूढ़िवादी भारत, मैं आध्यात्मिक भारत की बात नहीं कर रहा — तो संयुक्त परिवार हो, बहुत सारे लोग हों, पूरा एक तन्त्र हो, एक जाल हो, एक नेटवर्क हो जहाँ से तुम्हें सहारा मिलता हो।’ भाई-भतीजे, कुटुम्ब पूरा, गाँव, शहर जहाँ सब एक-दूसरे को जानते हैं। छोटे शहरों में देखा है, गाँव में? सब एक-दूसरे को जानते हैं, सब एक-दूसरे के चचा-काका होते हैं।
दोनों ही जगहों पर जिसका सहारा लेने की बात कही जा रही है वो ख़ुद बेसहारा है, वो किसी और को सहारा नहीं दे सकता। इससे कहीं भला यह है कि अगर सहारा चाहिए ही तो उसका लो जो सहारा देने के क़ाबिल है। कोई पत्नी पति को सहारा नहीं दे सकती, कोई बेटा बाप को सहारा नहीं दे सकता। न कोई पति पत्नी को सहारा दे सकता है। ये सब झूठी आशाएँ हैं, हटाओ। एक है जिससे किसी को भी सहारा मिल सकता है उसकी ओर बढ़ो, अपने प्रश्न का केन्द्र ही बदल दो।
अभी तुम दुखी हो पत्नी को लेकर के, पत्नी को लेकर के दुखी हो इससे तो यही पता चलता है कि तुम्हारे चिन्तन के, तुम्हारे चेतना के केन्द्र में पत्नी बैठी हुई है, तभी तो उसको लेकर के दुखी हो। कल हो सकता है पत्नी को लेकर सुखी हो जाओ, पर पत्नी को लेकर सुखी भी हो गये तो भी तुम्हारी चेतना के केन्द्र में कौन बैठा हुआ है? पत्नी ही बैठी हुई है। ये कोई बात नहीं हुई। ज़रा इस चेतना के केन्द्र को ही बदलो। किसी को लेकर के सुखी-दुखी होने की आवश्यकता क्या है, बेकार की ग़ुलामी है न!
अभी मौसम को लेकर के दुखी हो कि टिप-टिप चल रही है, थोड़ी देर में मौसम को लेकर के सुखी हो गये कि वर्षा रुक गयी, हवा बहने लगी। और जहाँ तुम सुखी हुए फिर बादलों ने मुँह खोल दिया। यह तो बड़ी ग़ुलामी हो गयी, तुम्हारा सुख-दुख सब पराश्रित। पत्नी खुश हो रही है, ‘आज पति बिलकुल समय पर घर वापस आया है।’ और वो घर वापस आया, मोबाइल बजा और वो फिर बाहर निकल गया। लो, बन गये न बुद्धू!
बाहर की वस्तुओं को, व्यक्तियों को, घटनाओं को लेकर के सुखी होने का, दुखी होने का अभ्यास ख़त्म करो। मैं कह रहा हूँ, देखो कौन है जो सुख-दुख के झूले में झूलता रहता है, देखो कि उसको चाहिए क्या। मैंने देखा था एक छोटे बच्चे को, उसकी माँ ने उसको एक झूले पर बैठा दिया था। झूला ज़मीन से ज़रा ऊँचाई पर था, शायद बड़े बच्चों के लिए बना होगा। इतनी ऊँचाई कि समझ लो जैसे क़रीब चार फीट या पाँच फीट, उस पर छोटे बच्चे को बैठा दिया। उसकी टाँगें झूल रही हैं और उसके जूतों से ज़मीन के बीच में भी क़रीब तीन-चार फीट का फ़ासला है। यह बच्चा नीचे उतरना चाहता है पर इसकी हिम्मत नहीं हो रही है झूले से कूद जाने की क्योंकि ऊँचाई से थोड़ा डर लग रहा है।
बहुत मुश्किल नहीं है कूद जाना, एक बार की बात है। पर झूले पर बैठा है, नीचे देख रहा है, ज़मीन ज़रा दूर दिखती है। ज़मीन उतनी दूर है भी नहीं, पर यह देख कहाँ से रहा है? अपनी आँखों से देख रहा है। आँखों से तो ज़मीन और दूर दिखेगी, वास्तव में पाँव और ज़मीन के मध्य उतना फ़ासला भी नहीं है। पर जितना फ़ासला है उसने उस फ़ासले में तीन फीट और जोड़ दिये हैं। तीन फीट क्या हैं? पाँव और आँख के बीच की दूरी। देख यहाँ (आँखों की ऊँचाई) से रहा है जबकि वास्तव में दूरी कितनी तय करनी है? दूरी उतनी तय करनी है जो पाँव से ज़मीन के बीच की है। तो देख कर डरा जा रहा है, बहुत देर तक सोचता-सकुचाता रहा, असमंजस में रहा, कूदूँ कैसे, क्या करूँ, क्या न करूँ। फिर उसने झूला झूलना शुरू कर दिया, और तेज़, और तेज़ झूला झूल रहा है। और कहीं-न-कहीं इसकी उम्मीद ये है कि जितना झूला झूलूँगा उतना मेरे उतरने की सम्भावना बढ़ेगी। मन में यह आस आ गयी है कि झूला झूलने से झूले से मुक्ति मिल जाएगी।
आदमी ऐसा ही है, चाहिए है तुम्हें सुख-दुख से मुक्ति, पर एकमुश्त कूद जाने से बहुत घबराते हो। लगता है कूद गये तो चोट न लग जाए। तो तुम झूला झूले जा रहे हो, सुख-दुख, सुख-दुख और चाह यही रहे हो कि मिले आज़ादी। आज़ादी झूला झूलने से मिलेगी? एक बार को हिम्मत करो, आँख बन्द करो, कूद जाओ।
जब तुम दुनिया के तमाम अनुभव पी रहे हो, भोग रहे हो, तलाश रहे हो, तब भी वास्तव में तुम चाहते इन अनुभवों से आज़ादी ही हो। प्रमाण सामने है, कोई अनुभव तुम्हें तृप्त नहीं करता। अगर तुम्हें ये अनुभव ही चाहिए होते तो कभी तो, सौ में एक दफ़े तो कोई अनुभव ऐसा मिलता न जो शीतल कर जाता, मंज़िल तक पहुँचा जाता? कोई अनुभव मिला है ऐसा? झूला ही झूलते रह गये। और जितना एक तरफ़ को बढ़ते हो, दूसरी तरफ़ को जाने की तैयारी उतनी बढ़ती जाती है। झूला पीछे को जाता ही इसलिए है क्योंकि आगे को बढ़ आया है। जो तुम्हें चाहिए वो तुम्हें इस गति से नहीं मिलेगा, वो इस गति से बाहर है।
तुम्हारे प्रश्न का मैं बिलकुल दूसरे तरह से भी उत्तर दे सकता था। मैं तुम्हें समझाता कि पति-पत्नी के मध्य आदर्श रिश्ता कैसा होता है, मैं मित्रता को लेकर कुछ बातें करता। लेकिन फिर भी पति के ज़ेहन में पत्नी और पत्नी के ज़ेहन में पति ही बैठा होता, वही सुख-दुख का खेल चल रहा होता। ऐसे बात नहीं बनती।
जिसकी जो जगह है उसे वो दो। तुम्हारे मन का केन्द्र संसार की किसी चीज़ के लिए, किसी इंसान के लिए नहीं हो सकता, उसको तो तुम्हें ख़ाली ही छोड़ना पड़ेगा। वहाँ पर किसी को भी बैठाओगे तो सब गड़बड़ हो जानी है। तुम अगर कहीं जा रहे हो और अपने परिवार को हवाई जहाज़ से ले जाना है, तो हवाई जहाज़ में अपने परिवार को तयशुदा आरक्षित सीटों पर बैठाओ। ये नहीं कि पत्नी से इतना प्यार है कि उसे जाकर पायलट की सीट पर बैठा दिया, पूरा जहाज़ डूबेगा। जिसकी जो जगह हो उसको वहाँ बैठाओ।
पर यहाँ एक-से-एक प्रेमी जीव हैं, वो कह रहे हैं, ‘आहा! हमारी पत्नी है, ये तो सबसे आगे वाली कुर्सी पर बैठेगी।’ और जाकर उसको बैठा दिया पायलट की कुर्सी पर। तुम्हारे जीवन की गाड़ी का चालक तुम्हारी पत्नी या पति नहीं हो सकता, वो सहयात्री हो सकते हैं। पायलट तो परमात्मा ही होता है, उसकी कुर्सी ख़ाली छोड़ना। और यहाँ तो रिवाज़ है कि सब देवता हैं, सब देवियाँ हैं।
और तुमने इतनी बार कुपात्र लोगों को ऊँचे सिंहासन पर बैठाया है कि अब जब तुम उनको नहीं बैठाते तो वो बुरा मानते हैं। जीवन के केन्द्रीय निर्णय तुमने ऐसे-ऐसे लोगों से पूछ-पूछकर किये हैं कि जिनकी कोई हैसियत नहीं थी। और वो सारे निर्णय तुम पर भारी पड़े हैं। और अब तुम उनसे न पूछो, तो उन्हें लगता है कि तुमने उनका ओहदा गिरा दिया। बुरा लगता हो तो लगे, पत्नी है तो कॉकपिट में थोड़े ही बैठ जाएगी! आ रही है बात समझ में? बगल में बैठाओ, जहाज़ किसी और को उड़ाने दो। और जब वो बोले जो चालक है, जो वैमानिक है तो उसकी बात को ध्यान से सुनना, ये नहीं कि यहाँ पर गुफ़्तगू-गुटरगूँ चल रही है और इसी में संलग्न हैं।
इससे ज़्यादा कोई स्वस्थ रिश्ता नहीं हो सकता है दो लोगों के बीच में। यह बात तुमको अगर निराश करती हो तो करे। तुमने बहुत फ़िल्मी गीत सुन लिये और उन फ़िल्मी गीतों में किसी इंसान को बहुत ऊँचा रुतबा दे दिया जाता है, किसी का इतना ऊँचा रुतबा नहीं होता। और न कोई इतना काम आता है कि उसको तुम बिलकुल सिर पर चढ़ा कर बैठा लो। फिर इसीलिए तुम्हें निराशा भी बहुत होती है क्योंकि तुमने आशा बहुत बाँध ली होती है। ग़लत आशा बाँधी थी, निराशा हो रही है तो दूसरे का क्या दोष?
दो व्यक्ति अधिक-से-अधिक हमसफ़र हो सकते हैं, हमराह हो सकते हैं, एक-दूसरे की मंज़िल नहीं हो सकते।
और यहाँ तो जीवन ही ऐसे जिया जाता है, ‘जानेमन! ज़िन्दगी तुझ पर क़ुर्बान है।’ और ज़िन्दगी जानेमन पर न क़ुर्बान हो तो जानेमन का मुँह फूलकर पकोड़ा हो जाएगा, ये गुस्सा! अरे भाई! ज़िन्दगी को देखो, ज़िन्दगी के तथ्यों को देखो। बीमार एक होता है तो दूसरे को तो दर्द नहीं हो सकता न? हाँ, तुम अधिक-से-अधिक सेवा-टहल कर दोगे, पर एक को कैंसर हुआ है तो दूसरा तो नहीं मरेगा। और जब एक की लाश को आग लगायी जाएगी तो दूसरा तो नहीं जलेगा। प्रकृति ही इतने इशारे देती है पर हमें नहीं बात समझ में आती।
मुझे बात बड़ी अजीब लगती थी, मैं देखता था लोग राष्ट्रपति बनते हैं तो उनकी बीवियाँ फर्स्ट लेडी कहलाने लगती हैं। तो वाइटहाउस में अगर अमेरिका का राष्ट्रपति गया है तो उसकी बीवी भी साथ-साथ जाएगी, और उसको रुतबा क्या मिल रहा है? फर्स्ट लेडी। मैंने कहा, ‘अच्छी बात है।’ अब यही राष्ट्रपति जी जब जेल जाएँगे, ब्लैक हाउस में, तो पत्नी काहे नहीं साथ जाती? तब काहे नहीं लास्ट लेडी कहलाती? और अगर वो जेल साथ नहीं जा सकती तो उसे वाइटहाउस साथ जाने का क्या हक़ है? ये तो बात बड़े स्वार्थ की है, बड़े मतलब की है।
और कई राष्ट्रपति हुए जिन्हें जेल भी जाना पड़ा है, कोई पत्नी साथ नहीं गयी जेल और कोई पति साथ नहीं गया जेल। हाँ, लेकिन जब राष्ट्रपति बनते हो या राष्ट्रपति बनती हो, तो पीछे-पीछे पूँछ। और यही नहीं कि पीछे-पीछे, वो फिर विदेश यात्रा करे तो भी साथ-साथ लगे हुए हैं, उनका भी सत्कार और आवभगत होता है। यह काम जेल जाते वक़्त भी होना चाहिए, यह काम बीमार होते वक़्त भी होना चाहिए कि अब राष्ट्रपति महोदय को एचआईवी हुआ है तो एक इंजेक्शन पत्नी जी को भी लगे। वैसे पति जी को है तो पत्नी जी को इंजेक्शन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
हमसफ़र हो लो, दोस्त हो लो, इससे ज़्यादा क़ीमत क्यों देते हो एक-दूसरे को? दिल टूटेगा, और कुछ नहीं। और बहुत दिल टूटेगा। बिलकुल एक-दूसरे से चिपक जाते हैं। और कौन किसी की उम्मीदें पूरी कर सकता है भाई? तुम्हारी उम्मीदें तो ऐसी होती हैं कि भगवान न पूरी कर पाये, बीवी क्या पूरी करेगी, शौहर क्या पूरी करेगा? जब उम्मीदें नहीं पूरी होतीं तो मुँह लटकाकर घूमते हो। फिर तुम्हें अध्यात्म याद आता है। तुम कहते हो, ‘कहाँ है, ऋभुगीता कहाँ है?’
थोड़ी ढ़ील दो। खलील ज़िब्रान ने बहुत मीठी बात कही है, ‘रिश्तों में ज़रा ढ़ील दो, ज़रा दूरी रखो, चिपक मत जाओ एक-दूसरे से’, क्योंकि तुम्हारा चिपकना अप्राकृतिक भी है और अस्वाभाविक भी। प्रकृति में वो चिपका-चिपकी कहीं नज़र नहीं आती जो आदमियों और औरतों में है, जो इंसान ने बना ली है। और स्वभावगत रूप से तो जीव और अहम् वृत्ति परमात्मा के अलावा और किसी से चिपक सकते ही नहीं हैं। तो ये जो तुम चिपका-चिपकी का खेल चलाते हो ये प्रकृति विरुद्ध भी है और स्वभाव विरुद्ध भी। जाओ, देखो प्रकृति में, मादाएँ होती हैं, नर होते हैं, तुम्हें वो हमेशा क्या जोड़े में ही नज़र आते हैं? तुम्हें क्या लगता है कि शेरनी के लिए शेर शिकार करके लाता है? हाउस शेरनी है वो? यह खेल भी इंसानों में ही चलता है। हाउसवाइफ ! यह क्या है?
कभी देखा है पशुओं में कि मादा के लिए नर शिकार करता हो या नर भोजन जुगाड़ता हो? कुछ दिनों के लिए ऐसा हो जाता है, सिर्फ़ कुछ दिनों के लिए, मादा गर्भ से है तो नर उसके लिए थोड़ी व्यवस्था कर देगा, बस। और यही बात प्रजनन पर भी लागू होती है, बच्चा बहुत छोटा है तो मादा चिड़िया उसको चोंच से खिला देगी। और यह बात कुछ हफ़्तों, अधिक-से-अधिक कुछ महीनों तक चलती है, उसके बाद कोई किसी का नहीं, तुम अपने रास्ते हम अपने रास्ते। गाय और बछड़े के प्रेम की दुहाई दी जाती है पर ज़रा देखना कि गाय बछड़े को कितने दिन चाटती है। एक बार दूध आना बन्द हुआ, उसके बाद गाय अपने रास्ते, बछड़ा अपने रास्ते। हाँ, उससे पहले गाय अपने प्राकृतिक किरदार को खूब निभाती है।
प्रकृति भी तुम्हें नहीं सिखा रही इतनी चिपका-चिपकी। नहा रहे हैं साथ, खा रहे हैं साथ, सो रहे हैं साथ। जाओ ज़रा पहाड़ी पर्यटन स्थलों पर, वहाँ वो एक सी टीशर्ट पहनकर घूम रहे होते हैं, यह भी आजकल नया फ़ितूर है। एक के लिखा होगा फ्रेंड, दूसरे के लिखा होगा फ्रेंड; एक लिखा होगा इडियट, दूसरे के लिखा होगा इडियट। जोड़ों में कपड़े खरीदे जा रहे हैं, सब कुछ।
सन्तों ने तुमसे बार-बार पूछा है, 'मौत के समय साथ क्या जाएगा?' उनका कोई उद्देश्य नहीं था तुम्हें डराये रखने का या तुम्हारा मूड ख़राब करने का, वो सिर्फ़ तुमको जताना चाहते थे कि क्यों चिपक रहे हो इतना। ये बेवफ़ा लोग हैं और ऐसा नहीं कि वो जान-बूझकर बेवफ़ा हैं, वो बेचारे मजबूर हैं, बेवफ़ाई उनकी मजबूरी है। तुम व्यर्थ आशा रख रहे हो, तुम्हें चोट लगेगी और चोट दिन-रात लग रही है।
मैं अमरूद के पेड़ से बोलूँ, ‘मुझे आम दे।’ और वो आम दे न पाये, मैं छाती पीट-पीटकर रोऊँ, तो इसमें अमरूद के पेड़ की तो कोई ग़लती नहीं। मैं शेर से बोलूँ, ‘तू शाकाहारी हो जा।’ वो हो न पाये, और मैं कहूँ, ‘कलियुग है, अहिंसा कोई सुनता नहीं’, तो इसमें शेर की तो कोई ग़लती नहीं। वैसे ही तुम पत्नी से बोलो कि तू मेरे दिल का हाल समझ जा और वो बोले, ‘आदा-पादा किसने पादा?’ तो इसमें पत्नी की तो कोई ग़लती नहीं। वो जीव है, वो और क्या जानेगी? देह जानती है और देह में यही सब है, आदा और पादा। इससे ऊपर वो तुमसे क्या बात करेगी? और फिर तुम्हारा दिल टूट जाता है, 'अरे!' अपनी शक्ल देखो, तुम्हें लल्लेश्वरी चाहिए? पर यहाँ ऐसे बहुत पति आते हैं, ‘मेरी बीवी मेरे दिल का हाल समझती नहीं।’ तुम्हारे दिल में है क्या समझने को?
अध्यात्म न हुआ, हींग-जीरा, गुड़, लहसुन हो गया। किसी भी चीज़ से कुछ भी मिला दो और उम्मीद करो कि पकवान तैयार होगा। मूल अहम् वृत्ति हो तुम, परमात्मा के अलावा कहीं और मिल नहीं पाओगे। छोड़ दो अपने इरादे, व्यर्थ हैं तुम्हारी आशाएँ। और उपकार करो अपने साथी पर, वो बेचारा दबा जा रहा है तुम्हारी आशाओं के तले और तुम्हें भी दबा रहा है। मैं इस पहले ही सवाल को बहुत विस्तार से इसलिए ले रहा हूँ क्योंकि सबकी ज़िन्दगी में सवाल यही है। बाक़ी सब तो पीछे की बात है। अखिल विश्व का रोना एक ही है, ‘हाय! शौहर उर्फ़ बीवी।’
थोड़ी संवेदना तो रखो। जिसको अपना साथी कहते हो उसके चेहरे की ओर ग़ौर से देखो, वो ख़ुद लाचार है, मजबूर है। वो अपने लिए कुछ नहीं कर पाया, वो तुम्हें क्या दे देगा? मैंने देखा था एक बार एक बछड़ा है और एक मरियल गाय, उसके थनों में दूध नहीं और बछड़ा नोचे जा रहा है। और गाय खड़ी है, थोड़ा चिढ़ भी रही है क्योंकि उसको चोट लग रही है, बछड़े के दाँत चुभ रहे हैं। पर बछड़े को अपनी भूख से मतलब है, उसका बस चले तो निचोड़ ले, काट ही ले। थोड़ी सहानुभूति रखो, वहाँ कुछ नहीं है। तुम रेगिस्तान में गड्ढा खोद रहे हो, तुम ख़ुद भी थक रहे हो और दूसरे की भी जान ले रहे हो।
एक बड़े मनीषी ने स्त्री और पुरुष को कहा था, 'इंटिमेट एनीमीज़' अन्तरंग शत्रु। छोटे-मोटे दुश्मन नहीं हैं एक-दूसरे के, अन्तरंग शत्रु हैं।
पत्नी से नहीं बात हो पाती है तो पूछो अपनेआप से किससे बात हो पाती है तुम्हारी। पशुओं से कुछ संवाद है तुम्हारा और पक्षियों से है? कितनों से तुम्हारा एक सुन्दर, हार्दिक नाता है? और जब तुम पाओगे कि बहुतों से तुम हार्दिक नाते बना पाते हो तो यह सम्भव नहीं कि पत्नी भर से नहीं बना पाओगे, फिर वहाँ भी बनेगा। पर अभी हमारी हालत यह रहती है कि पूरी दुनिया में हम वामन हों, पत्नी के सामने हमें दैत्याकार रहना है। छिछोरे-से-छिछोरा आदमी भी यही चाहता है कि कम-से-कम बीवी के सामने तो प्रधानमन्त्री बन कर रहे।
और यही हाल पत्नियों का है। जीवन की कोई उपलब्धि न हो, कोई गुण, कोई ज्ञान न अर्जित किया हो लेकिन फिर भी उम्मीद यही रहती है कि पति हमारे प्रेम में पागल रहे। तुममें ऐसा है क्या? तुमने अपना जीवन सार्थक किया? तुममें कुछ ऐसा है जिससे दूसरों को सीख मिले? तुमने कोई चुनौतियाँ लाँघीं? कोई विजय है तुम्हारे पास? आत्मविजय है तुम्हारे पास? पर चाहत यही है कि मियाँ की, बीवी की नज़रों में राजा और रानी रहें। क्यों रहोगे भाई, तुम हो कौन? और जिस दिन तुम कुछ हो लोगे उस दिन तुम्हें यह चाहना नहीं पड़ेगा कि कोई तुम्हारे सामने दिल खोले, कि कोई तुम्हें प्रेम दे और सम्मान दे, मिल जाएगा। विचित्र बात है, जिस दिन चाहोगे नहीं उस दिन मिल जाएगा। अभी तुम चाहते ही इसलिए हो क्योंकि कहीं और तो मिलता नहीं।
घंटू जी पूरी दुनिया में जुतियाये जाते हैं, तो रात को जब घर आते हैं तो चाहते हैं कि बीवी कहे, ‘आओ, मेरे बादशाह!’ तो इससे घायल अहम् को ज़रा मरहम मिलता है। और पत्नी जी पूरी दुनिया में ठोकर खाती फिरती हैं, कभी इस द्वार, कभी उस द्वार। कोई भाव नहीं देता, कोई घास नहीं डालता तो चाहती हैं कि जब पति आये तो कम-से-कम वो तो बोले, ‘आओ, रानी! आओ, लाडो!’ ये तो तुम अपनेआप को ही धोखा देना चाहते हो।
किसी लायक़ हो जाओ फिर पहली बात तो प्रेम की, अपनेपन की, सम्मान की चाहत नहीं रहेगी और दूसरी बात कि फिर प्रेम, सम्मान, अपनापन मिलेगा खूब। पर किसी लायक़ तो तुम तब बनोगे न जब अपनी नज़र अपने ऊपर रखो। अभी तो तुम्हारी चेतना के केन्द्र में पत्नी बैठी हुई है। अपने ऊपर तुम्हारी नज़र ही नहीं जाती कि मैं हूँ कौन और मैं हूँ कैसा। और स्त्री के ज़ेहन पर पुरुष-ही-पुरुष नाच रहा है, पुरुष-ही-पुरुष नाच रहा है। उसको यह ख़याल करने की फ़ुर्सत ही नहीं है कि मैं हूँ कैसी?
आन्तरिक जगह पूरी, दुनिया द्वारा आच्छादित है, अतिक्रमित है। उस जगह पर ये बोध ही नहीं उठ रहा कि यह जो मुझे जीवन मिला है, मैं इसका करे क्या जा रही हूँ। जीवन इसलिए मिला था क्या कि कभी इस पुरुष का ख़याल किया, कभी उस पुरुष का ख़याल किया, कभी इसके पीछे भागे, कभी उसकी ओर दाँव खेला? आत्म-विचार का, आत्म-जिज्ञासा का अवसर ही नहीं मिल रहा क्योंकि मन पूरा भरा हुआ है किसी औरत, किसी आदमी की फ़िक्र से।
अपनेआप को देखो तो सही भाई! कोई इसलिए नहीं पैदा होता कि किसी आदमी, किसी औरत की सेवा-टहल करेगा या दिल-ओ-जान से फ़िदा हो जाएगा। वो सब झूठी शायरी की बातें हैं, फ़िल्मों से बाहर आओ। किसी का जन्म किसी और के लिए नहीं होता, नहीं होता, नहीं होता। जोड़ों में नहीं पैदा हुए थे, या तुम्हारी बीवी जुड़वाँ बहन है तुम्हारी? अकेले पैदा हुए थे, अकेले ही जाना है, ये बीच में तुम क्या नाटक कर रहे हो?
अपनी मुक्ति का थोड़ा ख़याल कर लो और डरो मत, अपनी मुक्ति का मतलब ये नहीं होता कि बीवी सामने आये तो बोलना है, ‘बहन जी, आप कौन?’ अपनी मुक्ति का अर्थ होता है पायलट की सीट पर पायलट को बैठने दो, बीवी को मत बैठा दो। मैं नहीं कह रहा हूँ कि उसको विमान से नीचे उतार दो, वो उस जगह बैठे जिस जगह के वो क़ाबिल है, जहाँ की अधिकारी है। उसको परमात्मा की कुर्सी पर मत बैठा दो।
मैं कुछ कह पा रहा हूँ? आप तक कुछ पहुँच रहा है? मैं लड़ने-भिड़ने को नहीं कह रहा, मैं घर तोड़ने को नहीं कह रहा।