उद्धरण : ये धारणा मन से निकाल दो कि तुम्हें गंभीर रहना है। तुम में से कोई ऐसा नहीं है जिसे खेलने-कूदने का मन न करता हो; तुम में से कोई ऐसा नहीं है जिसका व्यर्थ ही दौड़ लगाने का मन न करता हो; जिसका सब कुछ छोड़-छाड़ कर के यूँ ही किसी पहाड़ पे कभी बैठ जाने का मन न करता हो। पर तुम्हें लगता है कि ‘ये सब तो बचपना हो जाएगा, हम बचपना कैसे कर सकते हैं!‘ अपने आप को बचपने की अनुमति दो।
वक्ता: सवाल हैकि आज से पाँच-सात साल पहले खाते थे, पीते थे, खेलते थे और चैन की नींद सो जाते थे पर अब ऐसा नहीं होता। कुछ बदल सा गया है, तो तुम ही मुझे बताओ कि क्या बदला है?
श्रोता १: सर, सोचने का नज़रिया बदल गया है, टेंशन आ गई है मन में।
श्रोता २: सर, अब ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ आ गयीं हैं। उस वक़्त किसी और चीज़ की टेंशन होती थी और अब किसी और चीज़ की टेंशन होती है।
श्रोता ३: सर, हम जब छोटे थे तो ऐसा लगता था कि हम कब बड़े होंगे और जब बड़े हो गए तो ऐसा लगता है कि काश मुझे कोई वो बचपन लौटा दे। वो बचपन की छोटी-छोटी बातें बहुत याद आती हैं। सर ऐसा क्यों होता है?
वक्ता: बड़े होने के दो अर्थ हो सकते हैं :
दोनों अर्थ हो सकते हैं।
एक उम्र तक तो तुम्हारे पास कोई विकल्प होता नहीं है। बाहर से जो भी बातें आ रहीं हैं वो तुम्हें माननी ही पड़ेंगी, स्वीकार करनी ही पड़ेंगी। तुम न जानते न समझते, निर्भर हो तुम दूसरों पर, तो जो कुछ भी तुम्हें बाहर से मिलता है तुम्हें लेना ही पड़ेगा। पर उसके बाद दो रास्तें खुलते हैं—एक तो ये है कि जो बाहर से आ रहा है वो आता ही जाए और उसके आने की गति भी बढ़ती ही जाये। पहले तो तुमसे समाज छोटी-मोटी अपेक्षाएं ही रखता था पर एक उम्र के बाद अपेक्षाएं और बड़ी हो जाती हैं और बढ़ती ही जाती हैं। तो बड़े होने का एक अर्थ तो यह हो सकता है कि दुनिया मुझसे जो चाहती है, जो मांगती है, मेरे ऊपर जो तथा-कथित जिम्मेदारियाँ हैं और उन जिम्मेदारियों से सम्बंधित जो तनाव है, वो बढ़ते ही जाएं। बड़े होने का एक अर्थ तो यह हो सकता है।
बड़े होने का दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि यह तो रहने ही दो कि हमने अपने ऊपर तनावों को और बढ़ा लिया है, हमारे ऊपर पहले से जो बोझ था हमने उसको भी साफ़ कर दिया। *बड़े होने का अर्थ है साफ़ करना। * अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम बड़े होने की कौन सी परिभाषा चुनते हो। बड़े होने का अर्थ हो सकता है कि मेरे सिर पे पांच किलो वज़न था और मैंने उसको पचास किलो कर लिया और अब मैं दबा जा रहा हूँ उस बोझ के नीचे या बड़े होने का ये अर्थ भी हो सकता है कि मेरे सिर पे जो पाँच किलो वजन था मैंने वो पाँच किलो भी हटा दिया और अब मैं पुर्णतः मुक्त हूँ।
दुर्भाग्य की बात यह रहती है कि हम में से ज़्यादातर लोग बड़े होने की पहली परिभाषा ही चुनते हैं। हम सोचते हैं बड़े होने का अर्थ ही है अपने कंधो पे और बोझ ले लेना; हमें हमेशा यही बात पढ़ाई जाती है। और दुनिया हमारे साथ करती भी यही है। तुम देखो क्या होता है – भारत में दूसरी, तीसरी, पांचवी, छठी तक तो करीब-करीब सभी बच्चे पढ़ जाते हैं पर आठवी-नौंवीं तक आते-आते बच्चे स्कूलों से निकलना शुरू हो जाते हैं, ख़ास तौर पे लड़कियां। उम्र बड़ी नहीं ज़रा सी कि कह दिया जाता है कि ‘अब पढ़ के क्या करोगे, अब खेल-कूद के क्या करोगे?’ अब तो तुम आओ और ज़रा ज़िम्मेदारी लो। बाप अकेला कमाता है, माँ अकेली कमाती है, तुम भी ज़रा बोझ अपने ऊपर लो। और यह शिक्षा भी तुम्हें बार-बार दी जाती है।
तुम छोटे हो और तुम ज़रा मौज मस्ती कर रहे हो तो समाज उसको एक बार को झेल भी लेता है, स्वीकार कर लेता है, माफ़ कर देता है पर अगर तुम बड़े हो गए हो और तुमने नाचना-कूदना, उछलना-कूदना शुरू कर दिया तो कहा जाता है कि इस उम्र में ये सब शोभा नहीं देता या कहा जाता है कि ‘बच्चों जैसी हरकतें मत करो, अब ज़रा गंभीरता आ जानी चाहिए तुम में, तुम बड़े हो गए हो।’ तो जो समाज ने तुम्हें परिभाषा दी है उसमें बड़े होने का अर्थ ही होता है अपना बोझ बढ़ाना, अपना जो सहज हास्य है, अपना जो सहज नृत्य है, खिलवाड़ है उसको दबा देना, उसका क़त्ल कर देना।
लड़कियों को एक उम्र के बाद कहा जाता है कि, ‘ये क्या तुम बात-बात पे हँसती रहती हो, अब ज़रा तुम में गंभीरता आ जानी चाहिए।’ पढ़ाई-लिखाई में तुम जैसे भी थे सांतवी-आठवीं तक चल जाता है पर दसवी में जब तुम आते हो तो तुमसे कहा जाता है कि, ‘अब नहीं, अब दसवीं है, अब तुम बड़े हो गए हो। बहुत महत्वपूर्ण परीक्षा है – दसवीं है, बारहवीं है।’
अब तुम क्या करोगे? जब यही परिभाषा लेकर तुम चल रहे हो तो तुम्हें सारा अपना हल्कापन बोझिल करना ही पड़ेगा। लेकिन मैं तुमसे कह रहा हूँ कि यह झूठी परिभाषा है बड़े होने की।
बड़े होने का वास्तविक अर्थ है कि नया बोझ तो लेंगे ही नहीं पुराना भी हटा देंगे।
पहले तो हम फिर भी थोड़ा-बहुत दब जाते थे, पहले तो हम फिर भी थोड़ा-बहुत कचरा अपने ऊपर लिए रहते थे पर अब हम कचरा पूरा ही साफ़ कर देंगे—यही वास्तव में परिपक्वता है; इसी को कहते हैं बड़ा होना।
बड़ा वो नहीं है जिसके कंधे झुक गए हैं, जिसके चेहरे पे तनाव है, जिसकी हँसी छिन गई है, जो व्यर्थ ही गंभीर है। बड़ा वो है जो हल्का है, जो उड़ रहा है, जिसका मन साफ़ है।
समझ में आ रही है बात?
अब ऐसे व्यक्ति को दुनिया भले ही सम्मान न दे या पहचान न दे पर ऐसे व्यक्ति पे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो अब बड़ा हो चुका है और दुनिया कैसे लोगों की है? दुनिया ऐसे लोगों की है जो बड़े हो ही नहीं पाए। मानसिक रूप से दुनिया की जो औसत उम्र है वो तेरह-चौदह वर्ष से ज़्यादा की नहीं होगी। दुनिया वहीं पे जाकर रुक जाती है।
तुम्हारा दुश्मन तुम्हारा अपना मन है। तुम्हारी धारणाएँ ही दुश्मन हैं तुम्हारी।
ये धारणा मन से निकाल दो कि तुम्हें गंभीर रहना है। तुम में से कोई ऐसा नहीं है जिसे खेलने-कूदने का मन न करता हो; तुम में से कोई ऐसा नहीं है जिसका व्यर्थ ही दौड़ लगाने का मन न करता हो; जिसका सब कुछ छोड़-छाड़ कर के यूँ ही किसी पहाड़ पे कभी बैठ जाने का मन न करता हो। पर तुम्हें लगता है कि ‘ये सब तो बचपना हो जाएगा, हम बचपना कैसे कर सकते हैं!‘ *अपने आप को बचपने की अनुमति दो। *
बड़ा वो होता है जो अपने बचपने को दोबारा हासिल कर लेता है।
बड़ा वो नहीं है जो बचपने को पीछे छोड़ आया है। बड़ा वो है जिसने अपने बचपन को दोबारा हासिल कर लिया है। वक्त तुमसे तुम्हारा बचपन छीन रहा था। तुमने उसे छिनने नहीं दिया, यही तुम्हारा बड़प्पन है।
*अपना बचपन, और मेरा बचपन से अर्थ है – तुम्हारी सहजता, तुम्हारी निर्दोषता, तुम्हारी साफ़ आँखें, तुम्हारी निष्कपटता,—इनको छिनने मत देना। *
किसी को यह हक़ न दो कि वो तुम्हें बताए कि बड़ा वो जो कपटी हो गया हो, बड़ा वो जिसने तमाम तरीके के छल सीख लिए हों—वो नहीं है बड़ा।
बेख़ौफ़ हो कर के बच्चे बने रहो। जब बच्चा, बच्चा रहता है तो उसके पास बस सरलता होती है और बच्चे की सरलता छिन जाती है उसके किशोर होने तक। पर जब बड़ा, बच्चा होता है तो उसके पास सिर्फ सरलता ही नहीं रहती, उसके पास सरलता के साथ-साथ बोध भी रहता है। तो बड़ा जब बच्चा होता है तो बुद्ध जैसा हो जाता है और उसका बच्चा होना अब कभी छिनेगा नहीं। बच्चे का बचपन तो छिन जाना है पर बड़ा जब बचपन को पुनः प्राप्त करता है तो अब वो बचपन कभी छिनेगा नहीं क्योंकि वो बचपन सरलता तो लिए ही है, बोध्युक्त भी है। अब वो नहीं छिनेगा। समझदारी भी है और बचपना भी है, दोनों साथ-साथ हैं। यह हुआ बड़ा होना, अब हम बड़े हो गए हैं। समझदार भी हैं और बच्चे जैसे भी हैं। बोध भी है और निष्कपटता भी है।
अनुभव तो हैं बहुत सारे पर वो अनुभव हमारे ऊपर छा नहीं गए हैं। अनुभवों के बीच भी हम मलिन नहीं हो गए हैं। गाना सुना है न? ‘दिल तो बच्चा है जी’। मन में बेशक़ सारा अनुभव रहे, सारा ज्ञान रहे पर हृदय से बच्चे रहो। अब ये बात अगर मैंने बच्चों से बोली होती तो बच्चे कैसे करते?- (मुस्कुराते हुए) हाँ ठीक है; लेकिन तुम कुछ ज़्यादा बड़े हो। तुम इतने बड़े हो कि तुम सब के बीच में एक ही बच्चा बैठा है जिसकी दाड़ी सफ़ेद है बाकी सब बहुत बड़े-बड़े हैं। मैं छोटा सा और तुम अंकल जी। प्रणाम करूँ तुम्हें? आदर-सत्कार होना चाहिए तुम्हारा।
श्रोता: सर आप बच्चे बनने की दौड़ में भी आगे निकल गए हो।
वक्ता: बच्चे दौड़ भी लगाते हैं तो मज़े में लगाते हैं और बड़े जब दौड़ लगाते हैं तो देखा है कितने गंभीर रहते हैं। पूरा आयोजन होता है और बच्चे दौड़ते-दौड़ते कहीं भी मुड़ जाते हैं, रुकना है तो रुक भी गए। कोई दौड़ते-दौड़ते आधे रास्ते में नांचने लग गया, कोई दौड़ते-दौड़ते अपने घर ही चला गया। बड़े तो बहुत गंभीरता से दौड़ते हैं – रेस जीतनी है।
श्रोता: सर, जो दौड़ कराता है वो आराम से रहता है बाकी सब भागते हैं। वो सब समझता है इसीलिए बाकियों का इस्तेमाल करता है।
वक्ता: यदिवो समझता ही होता तो क्यों किसी का इस्तेमाल करता? बच्चे इस्तेमाल करते हैं क्या किसी का? वो बहुत चालाक है पर जो जितना चालांक होता है वो उतना मुर्ख होता है। उसकी चालांकी किसी काम की नहीं है, न उसके किसी काम की है न किसी और के किसी काम की है। मुर्खता ही है उसकी चालाकी। व्यर्थ ही सबको परेशान कर रहा है।
श्रोता: सर हमें अभी यहाँ बहुत अच्छा महसूस हो रहा है, बहुत आराम लग रहा है आपसे बात करके नहीं तो हम दुसरे लेक्चर में सबसे पीछे बैठ कर सो जाते हैं। ऐसा क्यों सर?
वक्ता: वहां ज़बरदस्ती बैठते हो और यहाँ जाने के तीन-तीन मौके थे उसके बाद भी बैठे हो। वहां कुछ हांसिल करने के लिए बैठते हो कि नंबर आ जाएँगे या इस डर से बैठते हो कि अटेंडेंस कट जाएगी। यहाँ न डर है न लालच है। यहाँ तो अपनी मर्ज़ी है, स्वेच्छा।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।