प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैंने अपने जीवन में असफलताओं की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लिया है। मेरे सातवें सशस्त्र सीमा बल के साक्षात्कार में असफल होने के बाद अब जीवन काली स्याही हो गया है। अतः मेरे मन में कई बार आत्महत्या के भी ख्याल आए पर इतनी हिम्मत नहीं थी, मैं हीन-भावना से ग्रसित हो गया हूँ। आचार्य जी, और अब सब कुछ व्यर्थ सा लगने लगा है। अब आगे कुछ करने का दिल नहीं कर रहा है। मैं बहुत बड़ी दुविधा में फँसा हूँ। इस असफलता को मैं कैसे स्वीकार करूँ? कृपया मुझे राह दिखाएँ।
आचार्य प्रशांत: कह रहे हो मुझे असफलता की पराकाष्ठा मिल गई। पराकाष्ठाएँ सब एक होती हैं। पराकाष्ठा माने चरम। जो किसी भी चरम पर पहुँच गया, वो चरम पर ही पहुँच गया तो बेकार का दावा तो करो मत कि पराकाष्ठा मिल गई।
सात बार कोशिश करी है, जिस भी परीक्षा की बात कर रहे हो, आठवीं बार इसीलिए नहीं कर रहे होगे क्योंकि उम्र बढ़ गई होगी। अभी अगर सरकार अनुमति दे दे तो सात बार और कोशिश करोगे। कौन-सी पराकाष्ठा? अभी चरम आया कहाँ?
चरम का अर्थ होता है अति हो गई, अब जितना हो गया उससे ऊँचा, और अधिक कुछ हो नहीं सकता — उसको कहते हैं चरम, चरमोत्कर्ष, पराकाष्ठा।
तुम्हारी कौन सी पराकाष्ठा? आयु वर्ग से बाहर हो जाने को पराकाष्ठा थोड़े ही बोलते हैं!
कर क्या रहे थे सात सालों से? और सात भी कम बोल रहा हूँ, सात बार तो तुमने चढ़ाई करी है, उससे पहले तैयारी भी करी होगी दो-तीन साल, पर ठीक है कोई बात नहीं।
सीख ली कि नहीं ली? जीवन के बारे में कुछ जाना कि नहीं जाना?
अगर जीवन के बारे में कुछ सीख लिया है तो ये सात साल व्यर्थ नहीं गए। नौकरी तो कोई-न-कोई तुमको मिल ही जाएगी। बहुत अनुभवी हो गए हो। दशक का जिसका अनुभव हो नौकरी की तैयारी का, ऐसा तो नहीं हो सकता कि उसे कोई नौकरी ना मिले। तो कुछ तो कर ही लोगे पेट चलाने को।
तो बात जीविका चलाने की, धनोपार्जन की नहीं है। जीवन भर बेरोज़गार कोई नहीं रहता, काम सबका पीछा करके पकड़ ही लेता है। तुम्हें भी किसी-न-किसी काम में नथना ही पड़ेगा, कुछ तो काम करोगे ही, चाहे-अनचाहे जैसे भी करना पड़ेगा। मुद्दा दूसरा है।
मुद्दा ये है कि इन सब अनुभवों ने तुम्हें कुछ सिखाया या नहीं सिखाया?
सीख लिया है अगर तो परीक्षा में पहले ही प्रयास में सफलता से ज़्यादा बड़ी सफलता मिल गई तुमको। दुखी और निराश होने की बिलकुल भी कोई ज़रूरत नहीं है। और अगर अभी भी सीख नहीं ले रहे हो तो मैं पूछ रहा हूँ कि अब कब सीखोगे भइया? सीखो तो!
चयनित हो रहे हो या नहीं इसका निर्णय दूसरे कर सकते हैं पर जीवन में जिन अनुभवों से गुजर रहे हो उनसे कुछ सीख रहे हो या नहीं इसका निर्णय दूसरे नहीं कर सकते। इसपर दूसरों का कोई अधिकार नहीं है।
यही सीख लो कि जिस क्षेत्र में दिल नहीं है उसमें बहुत कोशिश करने पर भी नतीजा आधा-अधूरा ही आता है। यही सीख लो कि जीवन न जाने कितने अवसर देता है, किसी एक चीज़ के पीछे हाथ धोकर पड़ जाना कहाँ तक उचित है?
और वो जो एक चीज़ है जिसके पीछे पड़ रहे हो उसका नाम अगर सत्य हो, परमात्मा हो तब बात दूसरी है, पर तुम जिस नौकरी के आकांक्षी हो उसका सत्य और परमात्मा से कितना लेना-देना है? और अगर नहीं लेना-देना तो तुम ये दशक वाली साधना काहे कर रहे थे?
ये सब तो ऋषियों-मुनियों के लक्षण होते हैं कि एक चीज़ पर निगाह जमा ली तो अब वही पानी है; एक टाँग पर खड़े होकर तपस्या कर रहे हैं। इतनी ऊँची तपस्या किसी ऐसे के लिए ही की जाती है जो इस तपस्या के योग्य हो, है न? इतना भाव किसी ऐसे को ही दिया जाता है जिसका भाव इतना ऊँचा हो।
ये तुम जिस भी नौकरी के पीछे जा रहे थे, वो नौकरी है या भगवान हो गई, कि लगे ही हुए हो, लगे ही हुए हो। चयन पत्र मिलता तो उसमें क्या लिखा रहता है — "जय सच्चिदानंद, हमें आपको सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आपको निर्वाण की प्राप्ति हो गई है, चौथे प्रयास में!"
ऑफर लेटर में ऐसा लिखा रहता है क्या? "और अब आप फलाना तारीख को आगे के प्रशिक्षण के लिए स्वर्ग की ओर प्रस्थान करें।"
नौकरी ही तो है किसी की हो, कुछ काम बताया जाता वो काम करना था। उसको तुमने ख़ुदा काहे बना लिया?
इससे मुझे याद आया शायद जीवन में ख़ुदा है नहीं, तो इसीलिए हर छोटी-छोटी चीज़ इतनी महत्वपूर्ण लगने लगती है कि पहले तो उसके पीछे दस साल लगाओ, फिर न मिले तो कहो, "आचार्य जी, मैं तो आत्महत्या करने जा रहा था।"
तुम्हारी ज़िंदगी इतनी सस्ती है? इसलिए पैदा हुए थे कि दस साल नौकरी की कोशिश करो फिर कहो — अब मैं झूल जाऊँगा?
और अगर मान लो पहले-दूसरे प्रयास में सफ़लता मिल गई होती और वहाँ जी न लगा होता और पाते कि एकाध-दो साल करके त्यागपत्र दे दिया। तो अब तक तो तुम्हें नौकरी छोड़े भी पाँच साल हो चुके होते।
इतनी बड़ी चीज़ कैसे हो गई भाई? जीवन का केंद्र उसको ही बनाओ जो जीवन का केंद्र बनने काबिल हो, नौकरी थोड़े ही जीवन का केंद्र होती है, कोई व्यक्ति थोड़े ही जीवन का केंद्र होता है।
ऐसे ही लोग होते हैं — "आचार्य जी, मैं जान दे दूँगी गुल्लू ने मुझे छोड़ दिया।" अरे, तो गुल्लू तो गुल्लू है, छोड़ दिया तो छोड़ दिया उसका तो काम ही है छोड़ना, लंबी-लंबी। तुझे भी छोड़ दिया तो जान काहे दे रही है?
कहने वाले इसीलिए कह गए — अपनी जान उसी को सुपुर्द कर दो जिसने जान दी है तुमको, ताकि जान तुम्हारी रह ही न जाए अब जान लोगे कैसे?
प्राण देने वाले का ही नाम लिख दो अपने प्राणों पर। अब तुम्हारे प्राण तुम्हारे है नहीं, अब उसके हो गए जिसका नाम लिख दिया उन पर। अब नहीं बात-बात में कह पाओगे, "प्राण दे दूँगा! प्राण दे दूँगा!"
तुम्हारे नहीं हैं प्राण, किसके हैं प्राण? उसके हैं प्राण जिसने प्राण दिए थे। उसी की सेवा में इस्तेमाल करो अपने प्राणों का, जिसने जीवन दिया है उसी के उद्देश्य के लिए जीवन का इस्तेमाल करो।
तुम्हारा नहीं है जीवन, पर तुम तो यहीं मानते रहे अपना ही है। अपने ही भोग-विलास के लिए, अपनी ही आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जीवन का इस्तेमाल करना है तो फिर जब इच्छाएँ पूरी नहीं होती तो ये भी कहने लग जाते हो — "जान दे दूँगा! जान दे दूँगा! चोरी की चीज़ है दे दूँगा!"
कोई लेगा भी नहीं। उधार की चीज़ पर अपना स्वामित्व होता है क्या? किसी को दी जाती है? तुम्हारे प्राण तुमने अर्जित करे हैं? तुम्हारे है क्या? तुम्हारी दावेदारी है? तुम्हारी मालकियत है तुम्हारे प्राणों पर? बोलो।
श्रोतागण: नहीं।
आचार्य: तो तुम कैसे देने चले हो प्राण भाई!
वही है बस एक बीमारी — ज़िंदगी गलत केंद्र से जी जा रही है, दिल में जिसको बैठाना था उसकी जगह और बहुत कुछ बैठा लिया। अब सरकार की नौकरी का लालच बैठा हुआ है दिल में। क्यों?
सब जानते हैं क्यों। गाड़ी मिल जाएगी, सरकारी बंगला मिल जाएगा, कोई निकाल नहीं सकता। कोई निकाल नहीं सकता बड़ा आनन्द रहता है, अजिमो शान शहंशाह! ग्यारह बजे जाओ, बारह बजे जाओ, तीन बजे वापस आओ निकाल तो कोई सकता नहीं। इसको बोलते हैं जॉब सिक्योरिटी * । ये * जॉब सिक्योरिटी है! ये नर्क है। और दहेज भी बढ़िया मिलता है। "लड़का सरकारी नौकरी में है!" "हाए! सरकारी नौकरी करता है!"
चतुर्थ वर्ग की नौकरी निकलेगी उसके लिए पीएचडी वाले भी आवेदन करेंगे। ये मत कह देना बेरोज़गारी बहुत है; दहेज बहुत है! बेरोजगारी की बात नहीं है। बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है, कोई काम करना चाहे उसको बहुत अवसर हैं।
'बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।' अतीत से ज़ख्म नहीं लिए जाते, अतीत से सिर्फ सीख ली जाती है। ज़ख्मों को पीछे छोड़ो, सीख को ग्रहण करो और ज़्यादा रौशनी के साथ ज़्यादा समझदारी के साथ आगे बढ़ो।
मन बिलकुल छोटा करने की कोई ज़रूरत नहीं है, कोई नुकसान नहीं हो गया। छोटे नहीं हो गए, झुक नहीं गए, हार नहीं गए। यहाँ तो जो जीते हुए हैं उन्होंने भी क्या पा लिया?