वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।
मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों की चेतना अर्थात् जीवनशक्ति हूँ।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १०, श्लोक २२
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। गीता के सातवें अध्याय में प्रकृति के बारे में समझाने के लिए धन्यवाद। अपरा प्रकृति के आठ पदार्थों के बारे में जानकर अपने भीतर कुछ बदलाव आया। कृपया अब इस विषय को और गहराई से बताइए।
आचार्य प्रशांत: दसवें अध्याय के बाइसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि "मैं भूतों में चेतना हूँ,” और फिर आगे (प्रश्नकर्ता) अपनी बात कर रही हैं कि “चेतना का अर्थ मेरे लिए है अनुभव करने की एक व्यवस्था है। मेरे अनुसार जो भी अनुभव होता है, वह कितना भी स्थूल और भौतिक हो, वो हो ही इसलिए पाता है क्योंकि उसकी एक इमेज या छवि मन के पर्दे पर बनती है। अगर यह छवि नहीं बने तो अनुभूति नहीं होती, तो यह सूक्ष्म छवि स्थूल पदार्थों से ज़्यादा महत्वपूर्ण और बुनियादी है। इस छवि के उत्तर में पुरानी एकत्रित सूचना, डेटा से कुछ ऊपर आ जाता है, अर्थात् चेतना की सतह पर आ जाता है। यह मेरे स्तर की चेतना है और यह बहुत मशीनी है कंप्यूटर एप्लीकेशन की तरह। श्री कृष्ण किस चेतना की बात कर रहे हैं? कृपया चेतना और पदार्थ के अंतर को और स्पष्ट कीजिए। सप्रेम धन्यवाद, आचार्य जी।”
दसवें ही अध्याय में चेतना के बारे में कुछ बातें स्पष्टता से समझा रहे हैं श्रीकृष्ण। सबसे पहले वे यह कह रहे हैं कि जिसको आप जड़ और चेतन कहते हो, जंगम और स्थावर कहते हो, चर-अचर कहते हो, वो एक हैं, उनको अलग मत जान लेना – ‘भूतों में चेतना हूँ’। अब भूत माने तो पदार्थ। अब आपको इस पर आश्चर्य होना चाहिए कि कह रहे हैं कि मैं पदार्थों में चेतना हूँ। हाँ, पदार्थों में ही जो सबसे सूक्ष्म पदार्थ है, उसको चेतना कह रहे हैं। वो कह रहे हैं कि चेतना भी है तो पदार्थ ही, मटेरियल ही है। और यह बात बिल्कुल ठीक है न, हमारी चेतना क्या मस्तिष्क से अलग होकर रह सकती है?
आप अपने-आपको बहुत चैतन्य जानते होंगे, अभी मस्तिष्क पर एक डण्डा पड़ जाए, कहाँ गई चेतना? खत्म हो गई न? और मस्तिष्क क्या है? भौतिक, पदार्थगत ही है न? भूतों से ही बना हुआ है। तो हमारी चेतना तो भौतिक ही है, भूतों पर ही आश्रित है। और यही इस चेतना की विवशता है, यही इसका रोना है कि यह आश्रित है पदार्थ पर। चूँकि यह पदार्थ पर आश्रित है, इसलिए पदार्थ को ही देख पाती है। यह इसकी स्थिति है और यही मैं कह रहा हूँ कि इसका रोना है। देख पाती है पदार्थ को और पदार्थ से इसकी प्यास बुझती नहीं। इसीलिए संतो ने, जानने वालों ने कुछ बहुत बेबूझ बातें कहीं, समझ में ही न आएँ ऐसी बातें।
वो कहते हैं कि उस दिन समझोगे जिस दिन बिना पाँव के चलने लगोगे, उस दिन समझोगे जिस दिन बिना आँख के देखने लगोगे, उस दिन समझोगे जिस दिन बिना कान के सुनने लगोगे, उस दिन समझोगे जिस दिन समझने के लिए मन का इस्तेमाल नहीं करोगे। मन माने यहाँ मस्तिष्क। जब मस्तिष्क का इस्तेमाल किए बिना समझ जाओ, तब समझे। जब आँखों का प्रयोग किए बिना देख लो, तब देखा तुमने। और इसी बात को उल्टे तरीके से भी कहते हैं कि जो सच है, उसे आँखें देख नहीं सकती; जो सच है, उस तक चलकर कदम जा नहीं सकते; जो सच है, उसका ज़िक्र ज़ुबान कर नहीं सकती; जो सच है, उसे कान सुन नहीं सकते।
और तो और छोड़ दो, अवतार जो सशरीर हैं, जो देहयुक्त हैं, उनके बारे में भी ऐसी ही बात कही गई। तुलसीदास रामचरितमानस में रामचंद्र का कुछ ऐसे ही वर्णन करते हैं, कहते हैं, “बिना पाँव के चलते हैं वो।” ये सब प्रतीक हैं, इनका अर्थ समझिए।
बोध तभी हो सकता है, असली घटना तभी घट सकती है जब वह शरीर पर आश्रित न हो। जब तक शरीर पर आश्रित है, तब तक बात बनेगी नहीं। इसीलिए देहाभिमान को मूल व्याधि माना गया है। हमारा अहम् देह से जुड़ गया है और इसीलिए मुक्ति भी और कुछ नहीं है, यही है – विदेह हो जाना। जो देह की घटनाओं को अपनी घटना मानना छोड़ दे, वह मुक्त हो गया, विदेहमुक्त कहते हैं उसको। और देह में मस्तिष्क भी सम्मिलित है। मस्तिष्क में क्या है? विचार हैं, भावनाएँ हैं, बुद्धि है, स्मृति है; शरीर की पूरी व्यवस्था ही मस्तिष्क से संचालित हो रही है। जो मस्तिष्क की घटनाओं को अपना मानना छोड़ दें, जो मस्तिष्क से दूरी बना ले गया, वह मुक्त हो गया। बात समझ में आ रही है? तब समझो कि तुम पूर्ण चैतन्य हुए। नहीं तो जो हमारी चेतना है, उसको जड़ ही मानना चाहिए।
जड़ और चेतन का जो अंतर हमने बना रखा है, वह झूठा है। हम कह देते हैं कि हम चेतन हैं, पत्थर जड़ है। हम ऐसा ही सोचते हैं न कि हम चेतन है और पत्थर जड़ है? अब पत्थर पदार्थ है न? पत्थर पदार्थ है। अच्छा, ठीक है। मान लो कि वह जो पत्थर है, वह शक्कर का है, और तुम अच्छी तरह जानते हो कि शक्कर जब शरीर में जाती है तो मस्तिष्क पर उसका असर पड़ता है, मस्तिष्क थोड़ा खुशनुमा महसूस करने लगता है अगर कोई मीठी चीज़ अंदर चली जाए। इसीलिए मेहमानों को मीठा परोसने की परंपरा रही है। तुम जिसका मन थोड़ा प्रसन्न करना चाहो, जिसका मूड (मन: स्थिति) तुम अच्छा करना चाहो, उसे मीठा खिला दो।
तो जब तक तुम्हारे सामने वह गुड़ जैसा कुछ रखा हुआ है या शक्कर का बहुत बड़ा ढेला रखा हुआ है, तुम बार-बार बोलोगे कि यह क्या है? जड़ है। यह तो जड़ है, यह तो जड़ है। अच्छा, ठीक है। अब उसी जड़ चीज़ को इस चेतन चीज़ (देह) में प्रविष्ट करा दो, फिर देखो क्या होता है। तुम्हारी चेतना बदल गई न? थोड़ी देर पहले मुँह लटकाए घूम रहे थे, अब आइसक्रीम खा ली मीठी-मीठी, कस्टर्ड खा लिया, अभी कैसे हो गए हो? बोलो, कैसे हो गए हो? चेतना बदल गई न?
अगर जड़ और चेतन में इतना अंतर होता तो जड़ के भीतर जाने से चेतन कैसे बदल जाता? पदार्थ की प्रतिक्रिया तो पदार्थ के साथ ही होगी न? बोलो। अणु-परमाणु, अणु-परमाणु से ही तो प्रतिक्रिया करेंगे। अगर जड़ के भीतर जाने से चेतन बदल गया तो इसका अर्थ है कि जड़ और चेतन एक ही है, भाई। अरे! यह क्या हो गया? हम तो अपने-आपको बड़े गर्व के साथ कहते थे कि हम तो कॉन्शियस हैं, चेतन हैं, पर यह तो पता चल रहा है कि हम जड़ पदार्थ भर हैं, जैसे शक्कर का ढेला, वैसे ही हम। उस पर भी चीज़ें प्रतिक्रिया कर जाती हैं, हम पर भी चीज़ें प्रतिक्रिया कर जाती हैं।
चलो और करीब का उदाहरण ले लो। इंजेक्शन में जो भरा होता है, वह जड़ पदार्थ होता है या कोई चैतन्य वस्तु होती है? जड़ पदार्थ ही होता है। पर वही इंजेक्शन तुमको लगा दिया गया और तुम मनोरोगी हो, मान लो तुम डिप्रेशन (अवसाद) के मरीज हो — आज-कल सब डिप्रेशन के ही मरीज हैं, बड़ा चलन है — तो वो तुमको लगा दिया गया जड़ पदार्थ और तुम्हारा डिप्रेशन कम-से-कम थोड़ी देर के लिए छूमंतर। तो यह क्या हुआ? जड़ पदार्थ ने तुम्हारे मन की पूरी दशा बदल दी, बदल दी कि नहीं बदल दी? तो इसका मतलब यह मन की दशा भी क्या है? जड़ ही तो है न, क्योंकि जड़ प्रतिक्रिया केवल किससे करेगा? जड़ से ही तो करेगा।
यह तुम जो खाना खाते हो, इसको क्या बोलते हो, चेतन बोलते हो या जड़ बोलते हो? जड़ ही बोलते हो न? पर जब वह अंदर आ जाता है तो तुम बोल देते हो कि मैं तो चेतन हूँ। और यह शरीर बना पूरा-का-पूरा किससे है? जड़ पदार्थ से।
तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि बाज़ आओ, बाज़ आओ। इस गलतफ़हमी से बाहर आओ कि तुम चैतन्य हो। चैतन्य बस वह है जो शरीर से दूर हो गया। जिसका देहाभिमान मिटा सिर्फ़ उसको अधिकार है यह कहने का कि मैं चैतन्य हूँ, बाकी सब जड़ हैं, बाकी सब मिट्टी, पत्थर, पानी हैं।
हम बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे मिट्टी का कोई ढेला, हम बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे पानी की कोई बूँद। उनका अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं होता न? वैसे हमारा भी अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं है। हमारा है अपने-ऊपर कोई अधिकार? अभी कोई आकर के दो-चार गाली दे दे, फिर देखो कैसे लाल हो जाएँगे। जैसे कोयले का अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं होता, उसे आग में डाल दो लाल हो जाता है न, वैसे हमें भी कोई गाली दे दे, हम लाल हो जाते हैं।
तो हमारा कहाँ अधिकार है अपने ऊपर? हम क्या हैं? जड़। अब कोई आ करके बोल दे, “जड़ बोंग,” तो कितना बुरा लगता है! पर यहाँ तो कृष्ण भी यही कह रहे हैं कि तुम जड़ हो। और जड़ माने वह जो जीवित है ही नहीं, क्योंकि जीवन का संबंध ही चेतना से है। हम चैतन्य हैं ही नहीं, हम जड़ हैं। या ऐसे कह लो कि हम जिसे चेतना समझते भी हैं, वह जड़ता ही है। और इसी तरीके से फिर जिसे हम जड़ कह रहे हैं, वह जड़ नहीं है, उसको भी या तो चेतन मानो।
अब आपको समझ में आएगा कि भारत में क्यों सब जड़ पदार्थों की पूजा हुई। ये बड़ी होशियारी का काम था। भारत ने कहाँ कि देखो भाई, हम अपने-आपको तो चेतन मानते ही हैं, और हमें यह भी दिख गया है कि हम हैं मिट्टी, पानी, पहाड़ जैसे ही और हमें यह भी दिख गया है कि जो हम हैं, वही मिट्टी, पानी है। हम अपने-आपको चेतन मानते हैं और हमें यह भी दिख गया है कि जो हम हैं, वही पहाड़ हैं, वही पेड़ हैं, वही मिट्टी है। अपने-आपको तो चेतन मानते हैं तो फिर उनको भी हमें चेतन मानना ही पड़ेगा न।
अब दो विकल्प हैं – या तो यह कह दो कि हम भी जड़ हैं या यह कह दो कि वह भी चेतन है। तो हमने कहा कि देखो, यह तो गड़बड़ हो जाएगी कि हम कह दें कि हम जड़ हैं, वह हमसे करा नहीं जाएगा। कैसे मान ले कि हम जड़ हैं! हम इसलिए भी नहीं कहेंगे कि हम जड़ हैं क्योंकि हमें विशुद्ध चैतन्य की प्यास तो है ही, है न? भले ही जड़ता हममें भरपूर हो, लेकिन उच्चतम चेतना की प्यास तो हममें है ही। तो हम अपने-आपको तो देखो चेतन्य ही मानेंगे, लेकिन अपने-आपको चैतन्य मानेंगे तो ईमानदारी की बात यह है कि फिर हम यह भी नहीं कहेंगे कि पत्थर जड़ है। फिर हम यह भी मानेंगे कि अगर मैं चैतन्य हूँ तो पत्थर भी चैतन्य है।
तो फिर भारत ने सब की पूजा करी – पत्थरों की पूजा कर डाली, पहाड़ों की पूजा कर डाली। कोई चीज़ बताओ जिसकी यहाँ पूजा नहीं होती। और उसके पीछे अंधविश्वास नहीं है, उसके पीछे गीता का दसवाँ अध्याय है, कि “पार्थ! जड़, चेतन अलग-अलग नहीं है, गलतफ़हमी में मत जीना।” पूरी तरह जड़ कुछ है नहीं और पूरी तरह चेतन वह हुआ जो शरीर भाव से मुक्त हो गया। शरीर भाव से मुक्त तो यहाँ कोई दिखता नहीं न, तो सब पत्थर, पानी जैसे ही लोग हैं। समझ में आ रही है बात?
किसी ने शायद यूट्यूब पर कुछ टिप्पणी करी है या कुछ ऐसा है कि आप तो बार-बार बात करते हैं मुक्ति की लेकिन बहुत लोग तो शरीर की ही बात करते रहते हैं। वे कहते हैं कि भोजन ठीक करो, शरीर पर ध्यान दो, ‘जैसा अन्न वैसा मन’, तो यह क्या बात है?
मैं कह रहा हूँ, ‘जैसा अन्न वैसा मन’, तो फिर यह मन बड़ा मजबूर मन होगा। अगर शरीर की स्थिति आप की स्थिति बन गई तो फिर तो आप ख़त्म हो जाएँगे। और अगर आप वही हैं जो आप सब कुछ खाते हैं तो मुझे बताइए कि सुकरात ने जब जहर पिया था तो क्या सुकरात ज़हरीले हो गए थे? आध्यात्मिक हलकों में आजकल यह सब भी बहुत प्रचलित है कि तुम अगर अपनी देह पर ध्यान दे दो और अपने भोजन पर ध्यान दे दो तो मुक्ति तो समझ लो हो ही गयी अस्सी प्रतिशत, और इससे ज़्यादा मूर्खता का कोई सिद्धांत हो नहीं सकता।
आज-कल गुरु लोग हैं जो सबसे ज़्यादा भोजन की ही बात करते हैं, भोजन और शारीरिक चीज़ें, भौतिक चीज़ें। सुकरात ने ज़हर पिया था, तो अन्न उनका उस वक्त क्या हो गया है? ज़हर, शरीर पूरा ज़हरीला हो गया। शरीर ज़हरीला हो गया पर क्या सुकरात भी ज़हरीले हो गए थे? हो गए थे क्या? मंसूर का शरीर खंडित किया जा रहा था, क्या मंसूर भी खंडित हो गए थे? चेतना खंडित हो गई थी उनकी? तो यह बेवकूफ़ी की बात है कि तुमने अगर भोजन पर ध्यान दे लिया तो सब ठीक हो जाएगा। मैं भोजन की उपयोगिता से इंकार नहीं कर रहा, मैं नहीं कह रहा कि कुछ भी खाओ, लेकिन मैं इस अंधविश्वास से, इस रूढ़ि से आपको मुक्त करना चाहता हूँ कि अध्यात्म में भोजन कोई केंद्रीय बात है।
सच तो यह है कि सुकरात ने जब ज़हर पिया है, उसके बाद उनका तेज़ और निखर गया है। अगर हम वही हैं जो हमारा अन्न है तो ज़हर पीने के बाद तो सुकरात को कैसा हो जाना चाहिए था? बिल्कुल विषैला, ज़हर बुझी बातें करते, कहते कि इन नालायकों ने, कमीनों ने मुझको ज़हर पिला दिया है। यही तो कहलाते हैं न ज़हर बुझे शब्द? पर जब सुकरात ने ज़हर पी लिया, उसके बाद उनकी वाणी और ज़्यादा ओजस्वी हो गई थी।
अगर आप अपने अन्न पर ही आश्रित हैं तो बहुत मजबूर जीवन है आपका और अगर आप अपनी देह पर ही आश्रित हैं तो आपसे बेबस कोई नहीं। इस भावना में बिल्कुल मत रहिएगा कि भोजन इत्यादि नियंत्रित करके आप मुक्ति के पथ पर बहुत आगे निकल जाएँगे। हाँ, आप भोजन पर बिल्कुल ध्यान देना चाहिए, पर इस तरह ध्यान देना चाहिए कि क्या है जो मैं सिर्फ़ इंद्रियों के भोग के लिए खा रहा हूँ और क्या है जो शरीर के लिए आवश्यक है। फिर वह मन के अनुशासन का अंग बनता है न। क्योंकि मन अगर चटपटी चाट की ओर आकर्षित हो रहा है तो फिर वह चटपटी ख़बरों की ओर भी आकर्षित होगा। तो भोजन पर इस दृष्टि से अनुशासन रखना चाहिए। अन्यथा तो शरीर स्वयं जानता है कि उसे क्या खाना है। बात समझ में आ रही है?
आध्यात्मिक साधना शरीर को और ज़्यादा परिष्कृत करने की नहीं है, आध्यात्मिक साधना शरीर को उसके हाल पर छोड़ देने की है। तुम शरीर को कितना परिष्कृत कर लोगे भाई? जिन लोगों ने शरीर की बहुत शुद्धि भी कर ली, सुबह-सुबह उनके शरीर में क्या भरा रहता है? मल, लो! ये तो जीवन भर शरीर को शुद्ध कर कर रहे थे और शरीर में भरा हुआ है तीन किलो दहकता हुआ मल। क्यों भाई, तुमने तो बहुत शुद्धि कर ली थी न, यह सड़ा हुआ मल कहाँ से आ गया तुम्हारे भीतर? शरीर को तुम कितना भी साफ़ कर लोगे, वह मल, मूत्र, दुर्गंध का अड्डा रहेगा-ही-रहेगा। उसमें मौत बैठी हुई है भाई। जहाँ मौत बैठी हुई हो, वह जगह क्या दैवीयता से परिपूर्ण हो जाएगी कभी? बोलो।
रमण महर्षि आधुनिक युग में ज्ञानयोग के सबसे ऊँचे ऋषि हुए, रामकृष्ण परमहंस भक्ति मार्ग के सबसे ऊँचे शिखर हुए, और ज्ञान और भक्ति दोनों के ही उच्चतम पदों पर आसीत इन दोनों विभूतियों के शरीरों को कैंसर हुआ। दोनों को कैंसर हुआ, शरीर की तो यह जात है। तुम रमण महर्षि हो, चाहे तुम रामकृष्ण हो, शरीर में तो कैंसर बसा हुआ है। या तो तुम यह बोल दो कि दोनों के शरीरों में कुछ खोट थी; खोट कुछ नहीं थी, शरीर ऐसा ही है – मल, मूत्र, दुर्गंध, बीमारी। क्या करोगे शरीर की सफ़ाई कर करके, कर करके, कर करके? साहब हमारे बता गए हैं, “नहाए धोए क्या भया जो मन मैल ना जाए, मीन सदा जल में रहे धोए बास न जाए।” क्या तुम लगे हुए हो कि बाहरी सफ़ाई, आंतरिक सफ़ाई!
हमारे यहाँ लोग आते हैं, वे दूसरी आध्यात्मिक संस्थाओं से भी उठ-उठकर आ जाते हैं। तो यहाँ आएँगे और यहाँ देखेंगे तो कहेंगे कि यहाँ भोजन पर कोई नियंत्रण नहीं है। हम कहेंगे कि यहाँ एक ही नियंत्रण है बस, न माँस, मछली, अंडे की बात कर लेना, न दूध से बने किसी पदार्थ की, उसके अलावा जो करना है करो, हम नहीं पूछते। बोलते हैं, “लेकिन प्याज़, इससे यह होता है, इससे वह होता है। शरीर की शुद्धि तो बहुत आवश्यक है न।” हम कहते हैं कि चलो, ठीक है, कर लो शरीर की शुद्धि। हमें प्याज़ से कोई आसक्ति नहीं है, तुम नहीं चाहते कि यहाँ रसोई में बने, संस्था में, तो नहीं बनेगी, चलो ठीक।
शरीर के शुद्धि का बड़ा आयोजन है। चार महीने बाद उनके मन की औकात दिख जाती है। बहुत शुद्ध भोजन करते हैं, बहुत शुद्ध शरीर को भी रखते हैं, रोज़ नहाते हैं, उठ-उठकर ब्रह्म मुहूर्त में नहाते हैं। और मन?
यह बड़े-से-बड़ा अंधविश्वास है कि ‘जैसा अन्न वैसा मन’। हाँ, कुछ रिश्ता है, पर बहुत दूर नहीं जाता वह रिश्ता। शराब पियोगे, मन बहकेगा। कुछ रिश्ता है, लेकिन बात तो तब है न जब सुकरात जैसे हो जाओ, कि ज़हर पी रखा है लेकिन प्राण फिर भी तुम्हारे तेज़ से भरे हुए हैं। अगर तुम्हारे चित्त की दशा तुम्हारे भोजन पर ही आश्रित है तो बताओ क्या करोगे अगर तुम्हें तुम्हारे अनुकूल भोजन नहीं मिला, फिर क्या करोगे? फिर तो चित्त बिगड़ गया न तुम्हारा? यह तो बड़ी ग़ुलामी हो गई कि जब तक हमें अनुकूल भोजन नहीं मिलता, तब तक हमारा चित्त स्थिर ही नहीं रहता है। यह तो ग़ुलामी हो गई न, कि नहीं हो गई?
शरीर की शुद्धि अच्छी बात है, पर उससे कहीं ज़्यादा अच्छी बात है शरीर से मुक्ति।
अच्छे से समझ लो। मैं शरीर को अशुद्धि में रखने का पक्षधर नहीं हूँ, मैं नहीं कह रहा हूँ कि नहाओ ही मत और सड़क पर जितना मैला-कुचैला पड़ा हो, जाकर खा लो। मैं यह नहीं कह रहा हूँ, मैं बस इस अंधविश्वास पर प्रहार करना चाहता हूँ कि शरीर की शुद्धि से ही मुक्ति मिल जाएगी। न, शरीर की शुद्धि निश्चित रूप से अच्छी बात है, पर उससे मुक्ति नहीं मिल जानी। यह बात अच्छे से समझ लो। मुक्ति नहीं मिल जानी मतलब क्या? मुक्ति की दिशा में शुद्धि तुम्हें बहुत दूर तक ले ही नहीं जा सकती।
न शुद्धि ले जा सकती है, न ही अशुद्धि। शरीर को अशुद्ध रखना भी एक फैशन है, एक प्रचलन है। आधुनिक अघोरी भी होते हैं, वो कहते हैं, “गंदा रखो शरीर को। यह जीवन के प्रति एक बहुत सशक्त वक्तव्य है हमारा कि हम तो गंदे रहते हैं।” कहते हैं, “हमें यह दुनियादारी की रस्में और नैतिकता से प्रेरित साफ़-सफ़ाई बिल्कुल पसंद ही नहीं तो हम तो गंदे ही रहेंगे।” ऐसे भी घूम रहे हैं।
प्र: नागा बाबा।
आचार्य: नागा बाबा भी हैं। और लिबरल हलकों में चले जाएँगे, वहाँ भी मिलेंगे। जो जगहें थोड़ा-सा बाई तरफ को झुकी हुई हैं, वामहस्त को, वहाँ भी यह खूब चलता है – न नहाना और शराब छलकाए रहना और सिगरेट का छल्ला उड़ाना। वे कहते हैं कि यह सब शुचिता और सफ़ाई इत्यादि तो ब्राह्मणवाद है, हम उसका विरोध करते हैं, हम उसका विरोध करेंगे गंदे रह करके। तो हम नहाएँगे नहीं, शराब में डूबे रहेंगे, सिगरेट उड़ाते रहेंगे।
जब शरीर की शुद्धि से ही कुछ नहीं मिलने वाला तो पागलों, शरीर की अशुद्धि से क्या मिल जाएगा? शरीर वह चीज़ है जिसको बहुत साफ़ रखोगे तो भी कुछ हासिल नहीं होने वाला, तो उसे गंदा रखकर क्या हासिल कर लोगे? कुल मिला-जुलाकर बात यह है कि तुम शरीर को साफ़ रख लो, चाहे गंदा रख लो, बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाओगे।
ध्यान कहीं और लगाओ न। असली जगह ध्यान लगाओ, इतना ध्यान शरीर पर लगाना किसी काम का नहीं। न तो यह ध्यान काम आएगा कि शरीर को साफ़ रखना है, न यह ध्यान काम आएगा कि शरीर को गंदा रखना है। स्पष्ट हो रही है बात?
समझाने वाले इसको समझा गए कि जड़ चीज़ में चेतना का पंछी फड़फड़ा रहा है, ‘दस द्वार का पींजरा ता में पंछी पौन, बंद रहे तो अचरज है उड़े तो अचरज कौन’। यह पिंजड़ा है, पिंजड़ा कैसा होता है? जड़ ही होता है न, लोहे का होगा, ईट-पत्थर का होगा। पुराने साहबों ने समझाया कि यह दस द्वार का पिंजड़ा है, इसमें दस द्वार हैं, ये सब द्वार। (शरीर की ओर इशारा करते हुए) और इसमें पंछी बंद है, कौन से पंछी की बात हो रही है? आत्मा की नहीं, उसी की, उस चेतना की जिसका स्वभाव तो है आत्मा पर जो फँस गई है जड़ता में। उसका स्वभाव क्या है? आत्मा का आकाश, पर वह फँस गई है जड़ पिंजड़े में। ‘ता में पंछी पौन’, फँसा हुआ है और अचरज यह है कि वह बंद रह जा रहा है, इस बात में अचरज मत मानना अगर उड़ जाए, उड़ेगा तो है ही, उड़ना तो है ही उसको, ‘उड़े तो अचरज कौन’।
पंछी को पिंजरे पर उतना ही ध्यान देना है जितना पिंजरे से भागने के लिए चाहिए। पिंजरे में पंछी बंद है, उसे पिंजरे पर ध्यान तो देना ही पड़ेगा। पर एक होता है पिंजरे पर ध्यान देना कि पिंजरे को चमका रहे हैं, रंग-रोगन कर रहे हैं, हममें से ज़्यादातर लोग पिंजरे के साथ यही करते हैं। और ख़ासतौर पर जो आध्यात्मिक हो गए, वे तो खूब यह करते हैं, उनका सारा ध्यान ही शरीर पर जाने लग जाता है।
तुम पगला गए हो, जिस पिंजरे में तुम कैद हो, तुम उसकी साज़-सज्जा कर रहे हो! पंछी को पिंजरे पर नि:संदेह ध्यान देना चाहिए, पर किस दृष्टि से? कि कैसे इसमें से निकल भागूँ, कौन सी तीली तोड़ूँ इसकी, कहाँ मिलेगी ताले की चाबी, इस दृष्टि से देखो पिंजरे को। इस दृष्टि से मत देखो कि यही तो घर है, इसी में तो रहना है।
दसवें अध्याय का बाईसवाँ ही श्लोक पुन: उद्धृत कर रहे हैं, कह रहे हैं, “आचार्य जी, नमन। इंद्रियों में मन और भूत-प्राणियों की चेतना अर्थात् जीवन शक्ति कृष्ण अपने को कहते हैं। मन और चेतना मुझे एक से लगते हैं। कृपया समझाएँ कि कृष्ण दोनों को अलग क्यों कहते हैं?”
कृष्ण कह रहे हैं कि इंद्रियों में मन हूँ और भूत-प्राणियों की चेतना हूँ मैं, इंद्रियों में मन हूँ। जिस अर्थ में यहाँ पर श्रीकृष्ण ‘मन’ शब्द का प्रयोग कर रहे हैं, वह निष्क्रिय भाव है। इंद्रियाँ जगत की सूचना लाती हैं और मन उन सूचनाओं को संग्रहित करता है। इंद्रियाँ भी यंत्रवत काम कर रही हैं और मन भी यंत्रवत काम कर रहा है, जैसे कोई मशीन, जिसके कुछ हिस्से बाहर से कुछ ला रहे हैं और बाकी हिस्से जो माल आया है, उसको जमा कर रहे हैं या फिर उसका किसी तरीके से कुछ उपयोग कर रहे हैं। जो उपयोग कर रहे हैं, वह उपयोग भी पूर्व निर्धारित है। भाई, एक कन्वेयर बेल्ट है जो कहीं से कुछ लेकर आ रही है किसी मशीन की तरफ़ और जो माल बेल्ट पर रखकर आता है, फिर उस माल पर मशीन कुछ प्रक्रिया करती है, प्रोसेसिंग (प्रसंस्करण) करती है, ये दोनों ही यंत्र का ही हिस्सा हुए न। वह कन्वेयर बेल्ट भी और वह प्रोसेसर भी।
तो इस अर्थ में कृष्ण मन और इंद्रियों की बात कर रहे हैं, कह रहे हैं कि जितनी इंद्रियाँ हैं, उनमें जो उच्चतम और सर्वश्रेष्ठ इंद्रिय है, वह मैं हूँ। वह इंद्रिय कौन सी हुई? मन। क्योंकि भाई, कन्वेयर बेल्ट अगर नहीं है तो कोई विकल्प खोजा जा सकता है, लेकिन जो प्रोसेसर है, वही नहीं है तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी न। तो इंद्रियों में और मन में जब तुलना की जाएगी तो मन ही श्रेष्ठ है और मन भी क्यों श्रेष्ठ है? क्योंकि मन पर चेतना की कुछ छाया पड़ी हुई है। इंद्रियों के पास तो कोई भी विकल्प होता ही नहीं, मन संकल्प-विकल्प में जीता है, हालाँकि उसके संकल्प-विकल्प भी यांत्रिक ही हैं, पर इंद्रियों से तो फिर भी श्रेष्ठ हुआ। तो इसीलिए श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि इंद्रियों में मन हूँ।
फिर पूछ रहे हैं, “मन और चेतना में अंतर क्या है?”
चेतना में ‘मैं’ सम्मिलित है, चेतना में पूर्ण हो जाने की प्यास सम्मिलित है। ‘मैं’ मन का केंद्र है। चेतना का संबंध ‘मैं’ से है। चेतना कहती है कि इस ‘मैं’ को पूरापन चाहिए। ‘मैं’ अधूरा है, मन उस अधूरेपन का विस्तार है। ‘मैं’ केंद्र पर है, केंद्र के इर्द-गिर्द जो विस्तार है, उसका नाम है मन। जिस अर्थ में कृष्ण यहाँ प्रयोग कर रहे हैं, चेतना का संबंध ‘मैं’ से है। ‘मैं’ है चैतन्य, अर्ध-चैतन्य। उसे पूरी चेतना चाहिए, उसे पूरा जग जाना है। वह अध-सोया, अध-जगा है; आधा इधर का, आधा उधर का है।
कभी देखा है आपने, जब आप रात में सो रहे होते हैं तो आनंद की स्थिति होती है न और जब जग जाते पूरी तरह तब भी कोई विशेष दु:ख नहीं होता पर वह जो बीच की अवधि होती है पाँच मिनट, दस मिनट की, जब न सोए हैं, न जगे हैं, अलार्म बजा है, बस उठे हैं ताज़ा-ताज़ा, तब कैसा लग रहा होता है? और किसी तरीके से आधे होश, आधी बेहोशी में लड़खड़ाते से जा रहे हैं ग़ुसलख़ाने की तरफ़, फिर जा करके मुँह पर छींटें मारते हैं तो नींद जाती है। यह बिस्तर से उठने और पूरी तरह जागृत होने के बीच जो दरमियान है, क्या इसमें आनंद होता है? नहीं होता न?
हमारी हालत वैसी ही है—हम न सोए हुए हैं, न पूरी तरह जगे हुए हैं—इसीलिए हम दु:ख में है।
अगर पूरी तरह हम सो ही जाएँ, काश! कि हम पूर्णत: जड़ हो जाएँ तो भी दु:ख का अनुभव न हो और अगर पूरी तरह जागृत हो जाए, मुक्त हो जाए, बुद्ध हो जाए तो भी दु:ख न हो। हम बीच के हैं, हम नशे में हैं, हम बेहोशी में हैं, हम आधी नींद में हैं। पूर्ण चैतन्य हमारा स्वभाव है, तब भी हम जड़ता से संयुक्त और आश्रित हैं, इसलिए हम कष्ट में हैं।