प्रश्नकर्ता: मन हल्का कैसे रहे?
आचार्य प्रशांत: "मन हल्का कैसे रहे, थका-थका नहीं रहे, विश्राम में कैसे रहे?"
विश्राम का विपरीत होता है – तनाव। तनाव में नहीं, विश्राम में, शांति में रहे।
मन कैसे रहे विश्राम में?
जब तुम विश्राम में होते हो, तब कुछ कर रहे होते हो? कुछ कर-कर के विश्राम में होते हो क्या? हमारा सवाल है – “कैसे हो जाएँ विश्राम में?” निश्चित रूप से हम जानना चाहते हैं – क्या करें विश्राम में होने के लिए? मैं पूछ रहा हूँ, कुछ कर के विश्राम मिलता है, या तनाव मिलता है?
जब तुम होते हो विश्राम में, तो क्या कुछ कर रहे होते हो? ये करना ही तो हमारी बीमारी है। तनाव तो इसी से मिलता है। करना बीमारी क्यों है? क्योंकि करने के पीछे ये भाव है कि जो कमी है, वो कर के पूरी हो जाएगी।
फिर से उस आदमी के पास जाओ जिसने घर में खोया है हीरा, और ढूँढ रहा है बाहर। वो बाहर क्या कर रहा है? खोज कर रहा है। वो क्या कह रहा है? “खोज करके कमी पूरी हो जाएगी, खोज करके विश्राम मिल जाएगा, शांति मिल जाएगी, रिलैक्स्ड (तनाव-रहित) हो जाऊँगा।”
क्या ‘कर के’ मिलेगी? या आँखें खोल कर मिलेगी? जितना करेगा, उतना और भटकेगा। ‘करने’ का मतलब ही यही है – खोज रहा है, भटक रहा है। उसे और खोजना है, भटकना है, या चुपचाप घर में आकर ठहर जाना है? अगर ठहर जाए घर में आकर के, तो पा लेगा जो खोया है।
हमारी स्थिति तो अभी ये है कि हमें हर समस्या का उत्तर ‘करने’ में ही दिखाई देता है।
हम सोचते हैं - सोचो! सोच-सोच कर करो, उसी से समाधान मिल जाएगा। अब साहब बड़े तनाव में हैं। क्यों? बड़े तनाव में सोचे जा रहे हैं। क्या सोचे जा रहे हैं? "विश्राम में कैसे होना है?" इन्हें विश्राम का तनाव है। एक जनाब को हार्ट-अटैक (दिल का दौरा) आ गया। क्यों? वो विश्राम के लिए पहाड़ पर जाना चाहते थे, ट्रेन का टिकट नहीं मिल रहा था। तो इतनी ज़ोर का तनाव हुआ, कि हार्ट-अटैक आ गया। विश्राम के लिए तनाव पाला, क्योंकि उन्होंने विश्राम भी यही सोचा, कि कुछ करके मिलेगा। क्या करके? पहाड़ पर चढ़कर। अरे पहाड़ पर भी चढ़ोगे, तो अपना मस्तिष्क साथ लेकर चलोगे न?
चिंताएँ कहाँ हैं – घर में, या मस्तिष्क में? या तो ये बोलो कि – “मस्तिष्क घर में रखकर पहाड़ पर चढ़ूँगा।” ऐसा तो करोगे नहीं। ये जो तनाव से भरा हुआ मस्तिष्क है, इसको लेकर ही तो पहाड़ पर जा रहे हो? तो अब क्या मिल जाएगा वहाँ तनाव के अलावा? तो हुआ भी वही। इतनी ज़ोर से विश्राम माँगा, कि हार्ट-अटैक आ गया तनाव से।
ये तो हमारी हालत है।
‘विश्राम’ का अर्थ है – तनाव फ़िज़ूल है। इससे वो मिलेगा नहीं जो चाहिए। तनाव अपने-आप नहीं आता है। हम तनाव को पहले बुलाते हैं, और फिर उसे हम पकड़ कर भी रखते हैं। तनाव अपने पाँव चल कर नहीं आता, आमंत्रित किया जाता है, क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि तनाव से हमें कुछ मिल जाएगा।
ये मत कहा करो कि – “मुझे तनाव हो गया।” ये कहा करो कि – “मैंने तनाव बुला लिया।” बुलाया पहले, फिर उसे ग्रहण किया। हम ख़ुद बुलाते हैं तनाव को। हमें भ्रम है कि तनाव फ़ायदेमंद है।
देखो न! कल तुम्हारा गणित का पेपर हो, और आज तुम मज़े में घूम रहे हो, तुम्हारे चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखाई दे रही, कोई तनाव नहीं है, मज़े में घूम रहे हो, तुरंत माँ-बाप, दोस्त-यार क्या कहेंगे? क्या कहेंगे? "थोड़ा गंभीर हो जा, कल फ़ेल हो जाएगा।" उनसे ये देखा नहीं जाएगा कि तुम मज़े में हो। क्योंकि उनको भी यही भ्रम है कि तनाव से कुछ मिलता है।
तुम्हारा कल गणित का पेपर है, और आज तुम बिलकुल तनाव में हो, तो लोग कहेंगे कि – “ये ठीक है। ये गंभीर बच्चा है। ईमानदार है।” कहेंगे या नहीं कहेंगे? और तुम मज़े में घूम रहे हो, और तुम्हें कोई तनाव भी नहीं है, तो तुमसे क्या कह दिया जाएगा? “ये लफ़ंगा, इसका पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगाता। कल पेपर है, और देखो फुदक रहे है।” सुना है कभी ये सब?
अब उनको ये बर्दाश्त ही नहीं हो रहा कि पेपर होते हुए भी कोई शांत रह सकता है। ये झेला ही नहीं जा रहा है। शिक्षा ये दे रहे हैं कि – तनाव होगा, तभी कुछ पाओगे। ग़लत शिक्षा है। झूठ है, बिलकुल झूठ है।
तनाव फ़िज़ूल है – जैसे ही तुम इस बात को समझते हो, तुम तनाव को आमंत्रित करना बन्द कर देते हो। याद रखो, तनाव अपने पाँव चलकर नहीं आता। तुम उसे बुलाना बंद करो, वो आना बंद करेगा।
तुम्हें जो मिलना है वो तुम्हारे ध्यान से, तुम्हारी शांति से मिलना है, तनाव से नहीं मिलना। जब जो मिलना है वो शांति में मिलना है, तो शांत ही रह लेते हैं।
बस वो छोटी-सी धारणा, जो अब विकराल रूप ले चुकी है, इसको त्यागना होगा। कौन-सी धारणा? कि तनाव फ़ायदेमंद है। क्या ये याद रख सकते हो कि – तनाव फ़ायदेमंद नहीं है? तनाव से कुछ नहीं मिलेगा। तनाव फ़ायदेमंद बिलकुल नहीं है।
शांति फ़ायदेमंद है, विश्राम फ़ायदेमंद है।
तुम यहाँ तनाव में बैठे हो, तो मैं जो बोल रहा हूँ, वो समझ पाओगे क्या? कौन समझ पा रहे हैं? वो समझ पा रहे हैं जो सहज होकर, हल्के होकर, बस बैठे हुए हैं, उन्हें सब समझ में आ रहा है। और जिनके मन में कुछ चक्कर चल रहे हैं, विचारों का तनाव है, उन्हें कुछ समझ नहीं आएगा। वो अपनी ही दुनिया में रहेंगे। उनके भीतर अपना ही कुछ खेल चल रहा है। कुछ पागलपन चले जा रहा है। सोचते हैं, और सोच-सोच कर और तन जाते हैं – “अब वो बोलूँगा। अच्छा अबकी बार जब वो ये बोलेगा, तो मैं वो बोल दूँगा।” ठीक है?
यही तो तनाव होता है। और क्या होता है तनाव? सोच। यही काम जब कोई खुलेआम करे, कि बोलना शुरू कर दे, एक बात चल रही है, एक सेमिनार चल रहा है, और उसमें कोई बैठे-बैठे बोलना शुरू कर दे अपने मुँह से, अपने-आप से ही बात कर रहा है, बोल रहा है, तो तुम कहोगे कि, “पागल है!”
और एक दूसरा आदमी मुँह से नहीं बोल रहा, पर सोच रहा है वही बात, बिलकुल वही, तो क्या वो कम पागल है? वो भी तो उतना ही पागल है। और लगे हुए हैं बिलकुल मुट्ठियॉँ दबा करके। कोई काल्पनिक युद्ध है, वो लड़े जा रहे हैं।
शांत रहोगे, सब ठीक रहेगा। अपने-आप ठीक रहेगा।
ये श्रद्धा रखो।
इसके लिए थोड़ा सिर झुकाना पड़ता है।
इसके लिए अहंकार थोड़ा कम होना चाहिए कि – “मेरे बिना करे भी सब ठीक है। और मुझे जो कुछ करना है, उसका इंजन तनाव नहीं हो सकता। उसका स्रोत तनाव ना हो तो अच्छा हो।”
याद रहेगा?