महिलाएँ कमाएँ तो बच्चे कौन पालेगा? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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महिलाएँ कमाएँ तो बच्चे कौन पालेगा? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: अभी जैसे ये कह रही थीं कि ये तो अकेली हैं, लेकिन मैं दो हूँ, मेरे साथ एक छोटी बच्ची है। जैसा कि आप कहते हैं कि महिलाओं को इंडिपेंडेंट (आत्मनिर्भर) होना चाहिए। मेरे अंदर भी बचपन से ये था, और मैं हूँ भी। बारहवीं के बाद मैंने अपने दम पर पढ़ाई की, एक नौकरी ली और अब एक बच्चे की माँ हूँ। मेरे सामने समस्या यह है कि माँ कमाने जाएगी, तो बच्चे को कौन रखेगा? यह जानते हुए कि स्कूलों में माहौल क्या है, अविद्या वहाँ पर है। और बाक़ी का समय बच्चा एक ऐसे माहौल में गुजारने वाला है जो आपको पता है कि अंधकारमय है। और ऑफिस से आने के बाद के दो घण्टे ही सिर्फ़ उसे दे पाती हूँ और वह सफीसिएंट (पर्याप्त) नहीं हैं जिसमें कि मुझे बहुत सारे घर के काम भी करने हैं और उस बच्चे को भी समय देना है। ठीक है, तो महिलाएँ कमाने तो जाएँ, लेकिन उनके बच्चों को कौन पालेगा? यह प्रश्न है।

आचार्य प्रशांत: नहीं, इसमें मैं उत्तर दे देता हूँ, पहले भी दिया है। पहली बात तो ये कि बच्चा यकायक तो नहीं पैदा हो जाता। सुनिए, अभी सुन लीजिए मेरी बात। आपको पता होता है न कि आप अब गर्भ धारण करने जा रही हैं। और जब बच्चा पेट में आ जाता है तो उसके बाद भी आपके पास आठ-नौ महीने होते हैं समुचित प्लानिंग (योजना) करने के लिए कि आगे क्या करना है। आप ये कैसे कह देते हो कि अब बच्चा आ गया है, मैं मजबूर हूँ। बच्चा अचानक तो नहीं आया न।

प्र: इन माई केस (मेरे प्रकरण में) मेरे पार्टनर (साथी) ने मुझे डिच ( छोड़ने की धमकी) किया। पहले उन्होंने ही प्रेगनेंसी (गर्भाधान) के लिए मुझे कंपेल (मजबूर) किया बहुत ज़्यादा। तीन महीने तक मैं नहीं करना चाहती थी, लेकिन उन्होंने मुझे बोला कि नहीं करोगी तो शादी नहीं रहेगी। और बहुत शुरुआती दिन थे तो मैं उतनी मज़बूत नहीं थी कि ये जानते हुए भी कि मेरी स्वीकृति नहीं, फिर भी।

आचार्य: देखिए, मैं इस पर थोड़ा बोल दूँ। यहाँ महिलाएँ भी मौजूद हैं। आपकी किसी ऐसे से शादी हो गयी है जो बोलता है कि अगर तुम प्रेग्नेंट (गर्भवती) नहीं होओगी तो शादी नहीं बचेगी तो आप तुरंत शादी ख़ुद ही तोड़ दीजिए।

प्र: टूट चुकी है।

आचार्य: बिलकुल, बहुत अच्छा है। भाड़ में जाए ऐसी शादी। यह भी कोई शादी है जिसमें धमकी दी जा रही है। ये तो सीधे-सीधे बाँह मरोड़ी जा रही है, एक्सटॉर्शन (ज़बरदस्ती) है ये।

प्र: बहुत ज़्यादा वो मैंने मुश्किल समय बिताया, लेकिन तीन महीने बाद फिर मैं अबो्र्ट (गर्भपात) नहीं करा सकती थी। तो बच्चा आया फिर। आया तो मैंने उसको स्वीकार किया। बाद में भी उसकी ज़िम्मेदारी उसके पिता ने नहीं ली। जब डिवोर्स (सम्बन्ध विच्छेद) हो गया तो चांस (अवसर) था उसके पास, वो चीटिंग राइट ले सकते थे, पर नहीं लिया। तो वो एक त्याग देने की भावना कि मेरे बच्चे को त्याग दिया गया। और अभी कहीं न कहीं मेरे अंदर वो गिल्ट (पश्चाताप) हावी रहता है कि बीइंग अ वुमन जहाँ मैंने अपने कॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास) को, अपनी शक्ति को लेकर यह डिसीजन (निर्णय) लिया, लेकिन एक बच्चे को फादर लेस लाइफ ( पिता विहीन जीवन) तो..

आचार्य: कोई फ़र्क नही पड़ता बच्चा अगर फादर लेस है तो, कोई फ़र्क नही पड़ता। यह भी एक सामाजिक आदर्श है जो आपके दिमाग मे ठूँस दिया गया है कि बच्चे के सिर पर पिता का साया तो होना चाहिए। बच्चे को ज्ञान चाहिए और बच्चे को प्रेम चाहिए। दो चीज़ें होती हैं बस — प्रेम और ज्ञान। ठीक है? और आम पिताओं में वैसे भी ये सामर्थ्य नहीं होती कि वो बच्चे को ज्ञान दें या प्रेम दें। तो ऐसा कुछ भी नहीं है कि एक बहुत बड़ा पुरुष है और उसकी छाया में एक छोटा बच्चा खड़ा है, तभी वो पनपेगा। कुछ भी नहीं है ऐसा।

प्र: हाँ, मै मानती हूँ। लेकिन अभी बच्चे की सिक्योरिटी (सुरक्षा) एक चैलेंज है मेरे लिए।

आचार्य: सिक्योरिटी माने कैसी?

प्र: सिक्योरिटी कि अगर मैं उस तरीक़े का घर बनाती हूँ जैसा आप कह रहे हैं तो, वो और मैं ही फैमिली हैं बस। और जिस समय पर मैं अपने ऑफिस जाऊँगी उस समय पर मैं बच्चे को कहाँ रखूँगी?

आचार्य: उसकी बहुत सारी व्यवस्थाएँ आ चुकी हैं, क्योंकि आपके पास वैसे भी और कोई विकल्प है नहीं।

प्र: लेकिन उसमें मुझे बच्चों के प्रति जो अपराध बहुत आसानी से हो जाते हैं, हम सभी जानते हैं कि

आचार्य: बच्चे के प्रति ये नहीं अपराध है कि उसकी माँ घर में क़ैद है और उसके कारण उसका मन ख़राब है और माँ का जब मन ख़राब है तो बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ेगा, क्या यह अपराध नहीं है?

प्र: मेरे पास तो वैसे भी ये ऑप्शन (विकल्प) नहीं है कि मैं घर बैठूँ क्योंकि मैं सिंगल पैरेंट हूँ तो मुझे तो कमाने जाना ही है, चाहे मेरी टाँग टूटे, हड्डी टूटे, चाहे जो करे, वो तो मुझे जाना ही है। एक तो देखिए ये चेलेंज है कि एक बच्चे की सुरक्षा की बात है कि उसको क्या माहौल दे रहे हैं। अब ऊपर से तो ये दिखाते ही हैं वो लोग लेकिन फिर भी एक बच्चे के प्रति अपराध होने के बहुत चांस है, क्योंकि वो नहीं कम्युनिकेट कर पाते।

आचार्य: बिलकुल आप ग़लत कह रही हैं, बच्चों के प्रति जो अपराध होते हैं, आँकड़ें उठा कर देख लीजिए, नब्बे प्रतिशत घर में होते हैं। महिलाओं के प्रति जो अपराध होते हैं, वो आधे से ज़्यादा उनके घर में होते हैं। किसने कह दिया कि बाहर अपराध होने की ज़्यादा संभावना है, बाहर तो जो अपराध होते हैं उसमें अपराध करने वाले को बड़ा डर होता है। उसका प्ले स्कूल बंद हो जाएगा, उसका स्कूल बंद हो जाएगा अगर वहाँ कुछ गड़बड़ हो गयी तो। घर में जब चाचा, मामा, ताऊ, पिता ये सब अपराध करते हैं बच्चों के प्रति, चाहे वह कैसा भी हो यौन शोषण भी हो सकता है, कुछ भी; तो उनको तो कोई डर भी नहीं होता है

प्र: मगर फिर भी, मतलब

आचार्य: फिर भी नहीं, फिर भी नहीं।

प्र: देखिए, स्कूलों में वो तो नहीं है न।

आचार्य: क्या नहीं है?

प्र: स्कूलों में अविद्या तो है न।

आचार्य: घर में क्या है? स्कूलों में कहीं ज़्यादा बेहतर माहौल है घर से। इसीलिए माँ-बाप होस्टल्स भेज देते हैं अपने बच्चों को।

प्र: मैं उस बारे में करेज नहीं इकट्ठा कर पाती।

आचार्य: वो आपकी मर्ज़ी है, आपका चुनाव है आपको अटक कर रहना है तो। आप जितने तर्क दे रही हैं वो सारे तर्क ग़लत हैं। हाँ, आपको चुनाव करना है तो आपका चुनाव है। और यही बात ले-देकर मैं आपको समझाना चाहता हूँ, आपके पास कोई ठोस कारण नहीं है एक बन्धन की ज़िंदगी जीने का। कोई कारण नहीं है, आपका चुनाव है। आपको उस चुनाव में मज़े आ रहे हों, आप करे चलिए। कौन आपको रोकेगा?

प्र: और इसके साथ जो प्रगति में बाधा है वो कि अकेले करते-करते घर्षण की रगड़ और दर्द इतना ज़्यादा हो गया है कि कई बार उससे पीछे हटने को मन चाहता है, लेकिन नहीं हट सकती।

आचार्य: तुलनात्मक तौर से लग रहा है वो, नहीं तो अपना पालन करना और एक छोटे बच्चे का पालन करना कोई इतनी बड़ी बात नहीं होती है। तुलनात्मक तौर पर लग रहा है जब आप उन गृहणियों को देखती हैं जो घर में रहती हैं और उनको बंधा-बंधाया पैसा मिल जाता है। तब आप कहती हैं कि उनकी ज़िंदगी में न घर्षण है न संघर्ष है, मुझे ही क्यों इतना झेलना पड़ रहा है। वर्ना आपको वाक़ई ऐसा कुछ ज़्यादा नहीं झेलना पड़ रहा।

प्र: नहीं, मैं जानती हूँ, मैं उनसे बेहतर स्थिति में हूँ लेकिन फिर भी एक छुट्टी का नहीं टाइम है। मेरी ज़िंदगी में छुट्टी नही है।

आचार्य: मेरे पास भी नहीं है, मैंने पिछले पच्चीस साल से नहीं ली है।

प्र: तो उसमें

आचार्य: सुनिए, रुकिए, आप अपनी ही रौ में आगे मत जाते जाइए। छुट्टी नहीं ले रहे तो इसमें तकलीफ़ क्या हो गयी? आपको कम-से-कम इतवार की छुट्टी तो मिलती है, मुझे तो इतवार की भी नहीं मिलती। मुझे होली, दिवाली, दशहरा की भी आज तक कभी छुट्टी नहीं मिली।

प्र: उस घर्षण की रगड़ से कैसे राहत मिले?

आचार्य: घर्षण क्या है, काम कर रहे हो, उसमें घर्षण कहाँ से आ गया ?

प्र: मेरा दर्द सुनने वाला कोई नहीं।

आचार्य: क्यों कोई सुने आपका दर्द? आप दूसरों का क्यों नहीं सुन रहीं?

प्र: मैं तो सुन ही रही हूँ जो मेरे से होता है।

आचार्य: ये क्या है? आप देख रहे हो, इन कारणों से आप फँसे रहते हो कि कोई तो होगा जो मेरे दर्द सुनेगा, जिसके कंधे पर सिर रख कर दो आँसू रो लूँगी। इन सब चीज़ों के कारण आप अपनी पूरी ज़िंदगी गिरवी रख देते हो। ये सब चीजें हैं, इन क्षुद्र चीज़ों के लिए आप फँसना चाहते हो? बोलो, कोई वजह तो बताओ।

खाना बना बनाया मिल जाता है; टिफिन सर्विस लगा लो। जिस तरह का चाहोगे मिल जाएगा। इतनी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। आप में से सब बड़े शहरों में ही रहते हैं अधिकांश। सफ़ाई करने वाला बाहर से आ जाता है। बच्चों के लिए सौ तरह की सुविधाएँ हैं, ऑनलाइन जगत है, प्ले स्कूल्स में भी अब ये है कि कैमरे लगे हुए हैं। तुम चौबीस घंटे देख सकते हो, तुम्हारा बच्चा क्या कर रहा है? तुम किस बात से डरे हुए हो? अपने मोबाइल पर एप डाउनलोड करनी होती है प्ले स्कूल की, उसमें लगातार दिखाई दे रहा है कि बच्चा क्या कर रहा है। कौन सी बात कर रहे हो कि वहाँ अविद्या है। है अविद्या वहाँ, पर उससे घोर अविद्या तो घर में है। घर से तो बेहतर ही जगह पर बैठा है वो।

हम आईआईटी में थे, वहाँ पर हॉस्टलर्स होते थे और डे स्कॉलर्स होते थे। डे स्कॉलर्स वो जो दिल्ली के आसपास की जगहों के थे, उन्हें होस्टल नहीं दिया जाता था। उन्हें कहा जाता था कि रोज़ घर से अप-डाउन करो। ये अपनेआप को बड़ा अभागा मानते थे *डे स्कॉलर्स*। क्योंकि इन्हें रोज़ घर जाना पड़ता था और हम भी जानते थे कि उनका विकास हॉस्टलर्स जितना हो भी नहीं पाता था। कोई भी व्यक्ति एक होस्टल में या एक स्कूल में कहीं बेहतर माहौल पाता है घर की अपेक्षा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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