प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। सर, मेरा सवाल शादियों के ऊपर है। पिछले दो या तीन साल से देश में कुछ ऐसा माहौल बना है कि हर दूसरे महीने कोई-न-कोई बड़े सेलिब्रिटी (प्रतिष्ठित व्यक्ति) की शादी को खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। और मैं देख रहा हूँ कि उसका एक प्रभाव मैंने अपने आसपास भी देखा है कि जिन लोगों की शादियाँ हो रही हैं उनके तरीके और रंग-ढंग सबकुछ बदल चुके हैं।
बात कुछ ऐसी होती है कि देखो उसने अपनी शादी में जो लहँगा पहना था, वैसा फ़लाने एक्टर (नायक) ने पहना था या फ़लानी एक्ट्रेस (नायिका) ने पहना था। और ये मतलब बड़ा अज़ीब सा देखने में लगता है कि जो बड़े-बड़े सेलिब्रिटीज़ हैं उनकी शादियों के बारे में हमें मीडिया से खबर मिलती हैं ― ‘कौन मेहमान आए, क्या-क्या इवेंट्स (आयोजन) हुए, कैसे हुआ, कैसे नहीं हुआ।’ और उसी की एक छोटी फ़र्स्ट कॉपी देखने को मिलती है अपने आसपास के लोगों में।
तो कभी-कभार मैं समझ नहीं पाता हूँ कि एक आम भारतीय जो महँगी और बड़ी-बड़ी शादियाँ होती हैं इनके लिए इतना मरता क्यों है?
आचार्य प्रशांत: क्योंकि रीढ़ टूटी हुई है हमारी। बहुत तरह के कारण इसके हो सकते हैं लेकिन जो एकदम मूलभूत कारण है, फंडामेंटल वो ये है कि हमारी रीढ़ टूटी हुई है। तो हमें हमेशा हमसे बाहर कोई चाहिए होता है जिसके सामने हम ऐसे हो सकें (हाथ जोड़ते हुए)। आपके बाहर आपको कुछ ऐसा दिख जाए जो आपकी औकात से बाहर का हो, बस आपको तुरन्त ऐसे कर लेना है (हाथ जोड़ते हुए)।
असल में एकदम ही तुम इसके मूल में जाओगे ― ये तुम शादियों वाली बात पूछ रहे हो, ‘इतना प्रदर्शन हो रहा है और सेलिब्रिटी वेडिंग्स जो हैं।’ ये जो तुम पूछ रहे हो उसके मूल में बात ये है कि हमने जो सबसे बड़ी ताकत हो सकती है न, उसको बाहर बैठा दिया है कहीं। और हमें सिखाया गया है कि उसके सामने बस ऐसे (हाथ जोड़कर) रहो।
वही चीज़ हमारे धर्म में दिखाई देती है, हमारी संस्कृति में दिखाई देती है, हमारे समाज में दिखाई देती है, हमारी शिक्षा में दिखाई देती है, हमारे परिवारों में दिखाई देती है, हमारी राजनीति में दिखाई देती है ― कि कोई एक होना चाहिए बहुत ऊँचा और तुम उसके सामने ऐसे (हाथ जोड़ने का संकेत करते हुए) रहो।
अब वो तुम्हारे सामने बिल्कुल एक अश्लील किस्म का प्रदर्शन कर रहा है अपनी दौलत का, तो इससे फिर आपको गुस्सा नहीं आता, इससे आप और झुक जाते हो। ये टूटी हुई रीढ़ के आदमी की निशानी होती है कि उसको लात मारो तो वो और गिर जाता है।
जिसकी रीढ़ होगी, उसको लात मारोगे तो वो पलटकर प्रतिकार करेगा। पर जिसकी रीढ़ नहीं होगी, उसको लात मारोगे तो वो ― बड़ी मुश्किल से तो कुछ सहारा वगैरह लेकर चल रहा होगा ― वो एकदम ही गिर जाएगा। हम ऐसे होते हैं।
तो हमारे सामने जब इस तरीके के ज़बरदस्त शोज़ होते हैं, प्रदर्शनियाँ लगती हैं, नुमाइशें लगती हैं तो हम वहीं पर जाकर के बिल्कुल झुक जाते हैं। ये, ये वाली बात है और फिर उन्हीं चीज़ों को फिर जो आम आदमी है, वो अपने घर में, अपनी ज़िन्दगी में, अपनी शादियों में करने की कोशिश करता है।
ये तो जानते ही होगे न कि आम आदमी, औसत भारतीय अपनी ज़िन्दगी भर की कुल पूँजी का लगभग एक-चौथाई शादी में खर्च कर देता है। अब ये जो बड़े-बड़े पूँजीपतियों की और सेलिब्रिटीज़ की शादी होती हैं वो तो अपनी कुल पूँजी का एक प्रतिशत भी न लगाते हों ― उनके बहुत अथाह पैसा है। हो सकता है शून्य दशमलव पाँच प्रतिशत उन्होंने लगाया हो।
इतना पैसा है, वो सौ करोड़, चार-सौ करोड़ की भी शादी करेंगे तो उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है। लेकिन आम आदमी अगर एक करोड़ की भी शादी करने निकल गया, तो उसकी कुल जमा पूँजी का एक बड़ा हिस्सा उसमें खर्च हो जाता है। और भारत में यही हो रहा है लगातार।
हम भीतर से इतने झुके हुए लोग हैं कि बाहर कुछ भी अगर बड़ा-बड़ा हो रहा हो तो हमारे भीतर से न तो जिज्ञासा उठती है, न प्रतिकार उठता है; हममें जलन भी नहीं उठती! (हँसते हुए) जलन कोई अच्छी बात नहीं है, ये नहीं बोल रहा हूँ। लेकिन जलन भी तब उठे न जब लगे कि हमसे कोई बराबरी वाला है।
हमें अपने से इतने ऊपर के लोग दिखा दिए गए हैं कि अब वो कुछ भी करें हम बिल्कुल ऐसे (हाथ जोड़कर) ही रहते हैं। ये जो ये है न, झुके हुए होना ―
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेटि छाड़ि अब होब कि रानी॥ जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
~ श्रीरामचरितमानस
ये जो है इसने खा लिया भारत को। इसी की वजह से भारत में इतनी दासता रही और ये आज भी हमारी संस्कृति का हिस्सा है ― ऐसे रहना (हाथ जोड़ने का संकेत करते हुए)। कोई मिलना चाहिए बस जिसका बूट एकदम भारी हो। हम उसके बूट के नीचे आ जाने को एकदम तैयार हो जाते हैं। हम ही नहीं तैयार हो जाते, हमारे जो नायक लोग हैं, वो भी तैयार हो जाते हैं।
ये जो बड़ी-बड़ी शादियाँ होती हैं, इनमें जाकर देखते नहीं हो, तुम्हारे सब सेलिब्रिटीज़ नाचते भी तो हैं; उनके भी कौन-सी रीढ़ है!
अब मैं बिल्कुल कह रहा हूँ कि उनमें कुछ का हो सकता है कि भई जो जोड़ा है, वर-वधू हैं उनसे अपना कोई घनिष्ठ रिश्ता रहा हो, तो मित्रता के नाते गए हों। पर इतने सारे लोग वहाँ जा-जाकर नाच रहे हैं कि मुझे तो नहीं लगता कि सब की मित्रता होगी।
और जिसके पास ताकत है वो आम आदमी को ये संदेश देता है ― ‘देखो, जिन लोगों को तुम अपना हीरो समझते हो, उनको मैं अपने घर में नचाता हूँ।’ और आम आदमी में इसके प्रति भी कोई विद्रोह नहीं उठता। क्योंकि हमारे यहाँ बच्चा पैदा होता है न, तो पैदा होते ही उसकी जो पूरी परवरिश का कार्यक्रम है वो वास्तव में उसकी रीढ़ तोड़ने का कार्यक्रम है।
न वो सवाल पूछ सकता, न जिज्ञासा कर सकता है। जीवन के सबसे बड़े-बड़े मुद्दों में उससे कह दिया जाता है, ‘बस मान लो, बस झुक जाओ’ ― किससे झुक जाओ? ‘जो बड़ा है, जो बड़ा है उसके सामने बस झुके रहो।’
तो हिन्दुस्तानी जब तक बड़ा होता है वो किसी बड़े से झुकने का इतना अभ्यस्त हो चुका होता है कि बस वो शरीर से बड़ा होता है ― वो भीतर से इतना (उँगलियों की सहायता से छोटा आकार करते हुए) छोटा ही रह जाता है।
समझ में आ रही है बात ये?
दूसरे तरीकों से भी इसको देख सकते हो किसी चीज़ में अटपटा तो कुछ तब लगे या विरोध तो तब करो न, जब वो चीज़ तुम्हारी मूल्य व्यवस्था से मेल न खाती हो। जब आम आदमी खुद चाहता है कि एक दिन उसके पास भी उतना ही पैसा आ जाए और वो भी उसी तरीके का पूरा एक ज़बरदस्त प्रदर्शन आयोजित करे।
तो वो कहता है, ‘ये तो फिर अच्छी ही बात है, इसमें बुराई क्या है? मैं तो खुद चाहता हूँ एक दिन मैं वैसा हो जाऊँ।’ और अगर मैं उसको बुरा बोल रहा हूँ तो फिर मैं अपने अरमानों को बुरा बोल रहा हूँ। क्योंकि वो जो दिखाई दे रहा है, वो वास्तव में बस साकार कर रहा है मेरे ही अरमानों को। वो जहाँ पर है वहाँ पहुँचने की मैं हसरत रखता हूँ। तो मैं उसकी निंदा कैसे कर सकता हूँ, मुझे भी तो एक दिन उसी के जैसा होना है। हो भले न पाऊँ पर कामना है, अरमान तो है ही ― एक दिन क्या पता मैं वैसा हो जाऊँ!’
तो क्या बोलकर आम आदमी उसकी निंदा करेगा। वो निंदा नहीं करता, वो उसको अपना आदर्श बनाता है, वो उसकी नकल करता है, अनुगमन करता है। वो कहता है, ‘जैसा उसने करा था, वैसा ही अब मैं अपनी बेटी की शादी पर करूँगा।’ और जो सबसे वेस्टफुल एक्सपेंडेचर (फ़िजूल खर्च) हो सकता है, वो यही है जो वेडिंग्स में होता है। इससे बड़ी वेस्टफुल इंडस्ट्री (बेकार उद्योग) कोई नहीं है।
लोग कहते हैं, ‘इससे इतने लोगों को रोज़गार मिल रहा है, हॉस्पिटेलिटी (मेहमाननवाज़ी) बढ़ रही है और इवेंट मैनेजमेंट होता है और टेक्सटाइल्स (कपड़ा) में भी देखो लहँगा-चुनरी है तो जो गारमेंट उद्योग है, वो आगे बढ़ता है।’ ये सब बातें होती है न?
मैं पूछता हूँ, किस कीमत पर? जो पैसा आपने इसमें लगा दिया, वो पैसा आप कहीं और लगाते तो उससे क्या-क्या आगे बढ़ता और उससे कितना रोज़गार पैदा होता? अपॉर्चुनिटी कॉस्ट (अवसर लागत) भी तो देखनी पड़ेगी न?
छोटे-छोटे शहरों में आपने बैंक्वेट हॉल बना दिए हैं, वहाँ लाइब्रेरी (पुस्तकालय) बनी होतीं तो वो शहर कितना आगे बढ़ता? आप कहते हो, ‘उस बैंक्वेट हॉल से आमदनी होती है और रोज़गार होता है।’ मैं पूछ रहा हूँ, ’लाइब्रेरी होती तो क्या आमदनी और रोज़गार नहीं होता? और उस लाइब्रेरी से जो छात्र-छात्राएँ पढ़कर निकलते, वो कितना बड़ा-बड़ा रोज़गार पैदा करते?’
तो ये बिल्कुल मूर्खता की बात है कि ये तो एक जीडीपी को कॉन्ट्रीब्यूट (योगदान) करने वाली इंडस्ट्री है, वेडिंग इंडस्ट्री। और उस वेडिंग इंडस्ट्री के महानायक कौन है? सब 'सेलिब्रिटीज़'।
उसने और कुछ ज़िन्दगी में करा हो, न करा हो; शादी करी है। वो और किसी वजहों से सुर्खियों में आया हो, चाहे न आया हो, अखबारों के पन्ने भर जाएँगे जिस दिन वो विवाह करेगा। और जिस दिन एक सेलिब्रिटी का विवाह होता है बाकी सब वहाँ नाचने पहुँच जाते हैं।
असल में उनकी हिम्मत भी नहीं है वहाँ न पहुँचने की। खास तौर पर कोई ताकतवर आदमी अपने घर शादी कर रहा है ― तो आपको क्या लग रहा है, ये सब जो बाकी सब पहुँचे हैं, नाचने को, ये कोई अपनी मर्जी से गए हैं? ये मना कर देंगे तो बर्बाद हो जाएँगे, ये कहीं के नहीं रहेंगे।
मनोरंजन, मनोरंजन उद्योग पर किसका कब्ज़ा है? पूँजीपति का। फ़िल्मों पर किसका कब्ज़ा है? पूँजीपति का। क्रिकेट पर किसका कब्ज़ा है? पूँजीपति का। टीवी चैनल्स पर किसका कब्ज़ा है? पूँजीपति का।
तो क्रिकेटर को वहाँ पहुँचकर नाचना पड़ेगा न? क्योंकि क्रिकेट की पूरी व्यवस्था किसके हाथ में है? और फ़िल्म स्टार को वहाँ पहुँचकर नाचना पड़ेगा न? क्योंकि फ़िल्मों का फाइनेंसर (कोषाध्यक्ष) और प्रोड्यूसर (निर्माता) ही कौन है? टीवी चैनल्स का ओनर (मालिक) कौन है?
वो कहते हैं, ‘जब हम फ़िल्मों में इतना पैसा लगा सकते हैं और हम फ़िल्मों में अपने इन स्टार्स को नचा सकते हैं’ ― ये स्टार्स फ़िल्मों में भी तो इसीलिए नाचते हैं क्योंकि इनको पैसा मिलता है। ‘जब ये स्टार्स फ़िल्मों में नाच सकते हैं क्योंकि मैं इनको पैसा देता हूँ’ ― ये सेठ बोलता है। ‘तो मैं सीधे-ही-सीधे पैसा देकर अपनी बिटिया की शादी में तो नचा सकता हूँ। ये वहाँ भी नाचते हैं, ये यहाँ भी नाचेंगे।’
उसको ये मत समझ लेना कि बेचारे अपनी मर्ज़ी से गए ― मैं ― वो दो-चार अपवाद होंगे, मैं सबको नहीं कह रहा हूँ और किसी को आहत करना मेरा उद्देश्य नहीं है। पर जो ज़मीनी तथ्य है उसकी बात करनी ज़रूरी है, सच छुपना नहीं चाहिए। ज़्यादातर तो ये इसलिए जाते हैं क्योंकि नहीं जाएँगे तो कहीं के नहीं रहेंगे। इनको जो बुलावा आता है, वो बुलावा नहीं होता वो फ़रमान होता है। नहीं जाओगे तो अपनी नौकरी से, करियर से हाथ धोओगे भाई!
समझ में आ रही है बात अभी?
अभी राम मन्दिर का हुआ था सब काम, उसमें से जो सेलेब्रिटीज़ मौजूद थे वहाँ पर, उसमें से कुछ तो निस्संदेह ऐसे होंगे, जिनमें श्रीराम के प्रति सचमुच, सही, सच्चा भाव होगा। ठीक? तुम्हें क्या लग रहा, बाकी सब जितने वहाँ पहुँचे हुए थे, क्यों पहुँचे हुए थे? क्योंकि वहाँ न होने की उनमें हिम्मत नहीं है।
उनमें से कुछ बिल्कुल ऐसे होंगे और मैं उनका आदर करता हूँ, जो वास्तविक आध्यात्मिकता या धार्मिकता के कारण मंदिर में पहुँचे, बिल्कुल! और वो सम्मान के पात्र हैं। पर ज़्यादातर जो वहाँ पहुँचे मुझे आशंका ये है कि बस इसलिए पहुँचे क्योंकि पहुँचना ज़रूरी है, गुलामी की बात है।
वही चीज़ फिर आप किसी भी आयोजन में देखते हो ― चाहे वो विवाह का हो, हर जगह आपको यही देखने को मिलता है।
देखो, बात समझ लेना अच्छे से ― हिन्दुस्तानी मन एक गलत तरह के दर्शन के बोझ के नीचे दबा हुआ है। और ऐसा नहीं कि वो दर्शन मात्र हिन्दुस्तान में ही व्याप्त है, वो दुनिया में और जगहों पर भी है और जहाँ-जहाँ हैं, वहाँ-वहाँ आपको तमाम तरह के विकार देखने को मिलेंगे। पर अभी हम बात भारत की कर रहे हैं तो भारत की कर लेते हैं।
वो दर्शन ― जैसा मैंने आरम्भ में ही कहा, क्या है? कि जो सर्वशक्तिमान है, जो उच्चतम है वो मुझसे बाहर कहीं है। इसलिए हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, वेदांत का प्रचार-प्रसार करने की। वेदांत आपको बोलता है — ‘नहीं, कहीं भी झुकने की ज़रूरत नहीं है। जो उच्चतम है यदि तुम्हारे भीतर नहीं तो कहीं भी नहीं।’
‘वेदांत का जो उच्चतम सत्य है, वो तुम्हारे भीतर है। जब सब तुम्हारे ही भीतर है तो तुम कहाँ जाकर के सत्ता के आगे, ताकत के आगे, पैसे के आगे, चकाचौन्ध के आगे तुम क्यों सिर झुकाओगे।’ इसलिए वेदांत बड़ी गरिमा का दर्शन है।
वो कहता है ― ‘हम, हम! अभी हम गर्त में हैं, अभी हम गिरे हुए हैं क्योंकि हम क्या बने बैठे हैं? अहंकार। पर अहंकार हमारा तथ्य हो सकता है, हमारी नियति नहीं है। हमारी नियति है — मुक्ति, उसको कहते हैं — आत्मा और आत्मा से ऊँचा कुछ होता नहीं।’ ये वेदांत दर्शन है।
तो जो वेदांती है वो कहीं संसार के सामने झुकता दिखेगा नहीं। क्योंकि उसको पता है, उच्चतम कौन है? यहाँ, यहाँ (छाती की ओर इंगित करते हुए)।
जाति हमारी आत्मा, गोत्र हमारा ब्रह्म। सत्य हमारा बाप है, मुक्ति हमारा धर्म।।
~ कबीर साहब
ये वेदांती होता है। (दोहराते हुए)
जात हमारी आत्मा, गोत्र हमारा ब्रह्म। सत्य हमारा बाप है, मुक्ति हमारा धर्म।।
ये काहे को कहीं जाकर झुकेगा? पर भारत में ये (वेदांत) दर्शन चला नहीं, भारत में ये दर्शन चल गया (हाथ जोड़कर बताते हुए)। और वही दर्शन हमें हर जगह दिखाई देता है ― चापलूसी और जी हुजूरी के रूप में। नहीं तो ऐसा कैसे हो जाता कि मुट्ठीभर अंग्रेज दो शताब्दियों पर यहाँ राज़ कर जाते?
सारे भारतीय इसी (हाथ जोड़ने) में लगे हुए थे, कुछ मुट्ठीभर क्रान्तिकारियों को छोड़कर, जिन्होंने विरोध करा। बाकी तो अंग्रेजों की जो पूरी फ़ौज थी और कर्मचारी उनके जितने थे, जो ब्यूरोक्रेसी (नौकरशाही) थी उनकी सारी, वो सब-के-सब कौन थे? वो भारतीय ही तो थे।
अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाकर रखा भारतीयों के ही दम पर। क्योंकि भारतीय बस ―
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेटि छाड़ि अब होब कि रानी॥ जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
~ श्रीरामचरितमानस
पहले मुगल थे, ‘चलेगा’। अब अंग्रेज हैं, ‘चलेगा’। अब कोई और आ गया, ‘वो भी चलेगा।’ जो भी राज़ कर रहा हो, हमें तो बस ऐसे (हाथ जोड़ते हुए) रहना है हमेशा। और वेदांत कहता है, ‘नहीं, ये सब नहीं।’
“अपने माहिं टटोल।”
ये वेदांत है। क्या? “अपने माहिं टटोल।” जिसको तुम खोजते फिर रहे हो, वो तुम्हारे हृदय में स्थापित है, वो तुम्हारी अपनी सच्चाई है ―
मोको कहाँ ढूँढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में। ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलाश में।।
ये वेदांत है।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलास में। कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस।।
~कबीर साहब
मैं यहाँ हूँ (हृदय की ओर इंगित करते हुए) और अगर यहाँ नहीं हूँ तो मैं कहीं नहीं हूँ, बाहर कहीं मुझे मत खोजने लग जाना।
और जब आप अपने उच्चतम को, अपने आराध्य को बाहर खोजने लग जाते हो न, तो उसी आराध्य के बहुत सारे रूप आप बाहर स्थापित कर देते हो ― फिर कोई बड़ा सेठ हो सकता है, कोई बड़ा नेता हो सकता है, कोई एक्टर हो सकता है, कोई खिलाड़ी हो सकता है, वो कुछ भी हो सकता है। आपको क्या फ़र्क पड़ता है? आपको तो बस ये करना है (हाथ जोड़ना), ‘कोई भी ऊँचा मिल गया’, मुझे तो ये करना है बस।
झुके रहो!
और झुके हुए इस आदमी को बड़ा अच्छा लगता है, जब वो औरों को भी झुकते हुए देखता है। ये बात बड़े मनोविज्ञान की है, इसको अच्छे से समझना आप ― मैं मान लो तुम्हारा बाॅस हूँ। ठीक है? यहाँ पर सब लोग अलग-अलग स्तरों पर काम कर रहे हैं कहीं पर, समाज में। और सबके स्तरों में इतना, इतना, इतना, इतना अंतर है (हाथों की सहायता से स्तर बताते हुए)।
तो मैं तुम्हारा बॉस हो गया, कोई थोड़ा मुझसे ऊपर रहेगा, ऐसे। कोई एक हो एकदम बहुत बड़ा सुपर बॉस, बहुत बड़ा सुपर बॉस और उसकी आज्ञा का पालन सबको ही करना पड़े अनिवार्य रूप से। तो तुम बहुत खुश जाओगे। बताओ क्यों?
तुम कहोगे, ‘देखा! ये बाॅस वैसे तो मेरे ऊपर चढ़कर रहता है पर सुपर बॉस के आगे तो सब बराबर हैं।’ सुपर बॉस के बुलावे पर तो सबको आना पड़ता है, सुपर बॉस के आगे कोई नहीं है।
तो जब इस तरह के उत्सव होते हैं तो सबको बड़ा अच्छा लगता है। कहता है, ‘देखो! ये वैसे तो बड़े हीरो बनकर घूमते हैं, पर अब यहाँ जाकर इनको नाचना पड़ रहा है। तो हम अब सब बराबर हो गये, समता आ गयी, सब बराबर हो गए।’
जब आप कहते हो न, ‘एक कोई है बाहर वाला, तो उसके आगे फिर सब बराबर हो जाते हैं।’ और ये बात आपको बड़ी अच्छी लगती है क्योंकि उससे तो आप इर्ष्या कर नहीं सकते। वो इतना ऊँचा है, उससे इर्ष्या नहीं करी जा सकती। पर आपस में ये जो छोटे-मोटे, छोटू-मोटू हैं ये सब तो इर्ष्या करते हैं।
वो जो है, वो रोड-रोलर की तरह है, वो आकर के सब समतल कर देता है। सारी इर्ष्या मिटा दिया, सब पटा दिया, सबको एक बराबर कर दिया। रोड-रोलर जैसे चलता है न? सबको एक बराबर कर दे, उसके सामने सब एक से हैं।
आप बन रहे हो अपने जिले के बहुत बड़े नेता। जो सबसे बड़े नेता जी हैं वो आपको बिल्कुल संट कर देंगे। तो उनसे नीचे वाले थे सब ताली बजाकर हॅंसने लगे। बोले, ‘देखा! ये बहुत बन रहे थे, इसी जिले में ये उतने उछल रहे थे।’ पर जो प्रदेश के सबसे बड़े नेता जी थे उनके आगे सब बराबर हो गए फिर। ऐसे ही और ऊपर, ऐसे ही और ऊपर, ऐसे ही और ऊपर, ऐसे ही और ऊपर।
ये हमारा जो गलत दर्शन है, उसने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। और ये घर-घर में पहुँच जाता है, जब ये बड़े आदमियों द्वारा प्रचारित किया जाता है।
न जाने कितने लोगों ने इस तरह की शादियों के वीडियो देखे होंगे और अरमान जगा लिए होंगे कि अब मुझे भी अपने घर में ऐसा ही करना है। और जैसा मैंने कहा, ‘ये सबसे वेस्टफुल इंडस्ट्री है।’ ये जो वेडिंग इंडस्ट्री है, इससे वेस्टफुल इंडस्ट्री कोई नहीं होती। और अभी मैं सिर्फ़ जो फ़िज़िकल रिसोर्सेस (भौतिक सन्साधन) हैं उनकी वेस्टेज की बात कर रहा हूँ।
अगर मैं बात करूँ कि ये माइंड (मस्तिष्क) को कितना करप्ट (भ्रष्ट) करती है। तो उसकी तो कोई इन्तहा ही नहीं है। माइंड को करप्ट करने में इससे ज़्यादा शायद ही कुछ होता होगा; जो पूरा आयोजन होता है।
क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) भी अगर कोई ― इस पर स्टडी (खोज) हुई हो तो भी बताएँगे, क्लाइमेट चेंज में भी इसका बड़ा हाथ है। डेस्टिनेशन वेडिंग से लेकर के क्या-क्या तो चलता रहता है, उसमें क्लाइमेट चेंज नहीं ― आदमी को बता दिया जाता है विशेषकर लड़कियों को, महिलाओं को कि तुम्हारी ज़िंदगी का लक्ष्य ही यही है ― सम्चुअस वेडिंग (शानदार शादी), एक रात की तो रानी बनोगी तुम। वो खुशी से अगाही जा रही है बिल्कुल। वाह-वाह! बहुत अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है।
समझ रहे हो?
हमें अब ये भी नहीं पूछना कि अगर तुम अमीर हो तो तुम्हारे पास दौलत आई कहाँ से। तुम्हारे पास दौलत है तो हम बस अब यूँ रहेंगे (हाथ जोड़कर)। हमें ये भी नहीं पूछना कि तुम ताकतवर हो तो किन साधनों से, किन माध्यमों से, किस आधार पर तुमने ताकत इकट्ठा करी है? बात बस इतनी है कि तुम ताकतवर हो, तो हम यूँ (हाथ जोड़कर) रहेंगे।
ये झुकना, ये मेरुदंडहीन होना भारत की पहचान बन गई है; बन नहीं गई है, रही है, शताब्दियों से रही है। अपने ऋषियों को तो हम भूल ही गए। वेदांत के ऋषियों को तो हम भूल ही गये, जिन्होंने कहा था कि जगत में कुछ भी ऐसा नहीं है कि उसके आगे झुकना ज़रूरी हो। ‘सत्य के अलावा कहीं भी नमन मत कर लेना। सच्चाई के अलावा ये सिर कहीं झुकना नहीं चाहिए।’ वो सब हम कब का भूल गए ।
फ़िल्मी है ज़िंदगी हमारी बस मतलब। फ़िल्मों जैसे दृश्य खड़े कर दो, आम आदमी बिल्कुल ऐसा हो जाता है — गीला, लिबलिब-लिबलिब ― लार भी बहती है उसकी और आँसू भी बहते हैं, भावुक भी हो रहा है और ललचा भी रहा है।
आम आदमी की यही पहचान है। इस तरह का जब कोई दृश्य देखता है वो ― चकाचौंध से, ग्लैमर से भरा हुआ और उसमें सेंटीमेंट (भाव) का तड़का और लगा दो, तो एकदम उसके आँसू भी बहते हैं, लार भी बहती है, सबकुछ उसका बह नहीं लग जाता है, जो-जो बह सकता है शरीर का, सब बह जाता है। एकदम गीला। ये ही है।
किसी से पूछो कि तुम इस तरीके से ― किसी आम आदमी से, ‘तुम इस तरीके से क्यों आयोजित करना चाहते हो शादी ब्याह?’ उसके पास कोई जवाब नहीं होगा। जानते हो उसका जवाब क्या है? ‘फ़िल्मों में देखा।’ जानते हो उसका जवाब क्या है? ‘फ़लाने सेलिब्रिटी की शादी के वीडियो में देखा।’ ये उसका जवाब है और ये कैसी ज़िंदगी है? थू!
कुछ भी तुम्हारे पास ऐसा नहीं है, जो अपना हो। सबकुछ दुसरो से देख कर करोगे? और सबकुछ दुसरो को दिखाकर करोगे? ’आई लव यू’ भी सोशल मीडिया पर बोलोगे? बहुत लोग होते हैं वो प्रपोज़ (प्रेम प्रस्ताव) भी अब सोशल मीडिया पर करते हैं।
तुम्हारा कुछ भी अब आत्मिक नहीं है क्या? अपना नहीं है क्या? शादी ब्याह का इतना प्रदर्शन क्यों कर रहे हो? ये तो बहुत अन्दरूनी बात होती है। सबकुछ दिखाकर करोगे, तो सुहागरात भी दिखाकर मनाओ! उसका भी लाइव ― बहुत व्यूज़ आएँगे।
हमें तो ये बताया गया था, हमें समझ में भी आई बात कि जो कुछ भी कीमती हो, वो चौराहों पर प्रदर्शन की चीज़ नहीं होती। किसी को मैं प्रेम से कुछ दे रहा हूँ, दुनिया को दिखाकर दूँगा क्या? चाहे वो बात करुणा की हो, चाहे दान की बात हो। चुप रखा जाता है न? मौन में होता है न? कहते हैं, ‘सबसे ऊँचा दान, गुप्तदान होता है।’ ये बातें सोशल मीडिया पर बताकर की जाएँगी कि तुम फटेहाल थे और मजबूर थे तो देखो मैंने तुम्हें एक हज़ार रुपया दिया और उसकी फोटो खिंचवाकर मैं उसका वीडियो बनवाकर सोशल मीडिया पर डालूँ?
तो शादी-ब्याह का, प्रेम-प्रसंग का ये नेशनल टीवी पर प्रचार क्यों चल रहा है भाई! ये तो बड़ी निजी बात है, ये सबकुछ ― किसी की मृत्यु हो जाती है उसके फ़ोटो लगा-लगाकर, लगा-लगाकर सोशल मीडिया पर किसको बता रहे हो तुम? ये तो तुम्हारे और उस व्यक्ति के बीच की बात थी। तुम उस व्यक्ति को मौत के बाद भी नहीं छोड़ रहे?
हर चीज़ नुमाइश के लिए है क्योंकि हम आत्माहीन लोग हैं, हम पूरे तरीके से दूसरों पर आश्रित हैं। जब हम दूसरों पर आश्रित हैं तो हमें नुमाइश भी दूसरों को करनी पड़ती है। हम दूसरों से ही सोख रहे हैं और दूसरों को ही दिखा रहे हैं। हम दूसरों को ही देख रहे हैं और दूसरों को ही दिखा रहे हैं। और ये चीज़ सबसे ज़्यादा हमारे शादी-ब्याहों में उभरकर आती है।
आप कुछ भी कर रहे हो ― कभी सोचना, एक भीड़ के सामने आप कुछ कर रहे हो, भीड़ न होती तो क्या आप वो वैसा ही कर रहे होते, वैसे ही कर रहे होते क्या? आप भीड़ के सामने गए हो अपनी प्रेमिका को प्रपोज़ करने, आप एक घुटने पर बैठ गए हो और उसको फूल या अँगूठी वगैरह कुछ दे रहे हो और आपने सत्तर लोग खड़े कर रखे हों, वो सीटियाँ बजा रहे हैं, तालियाँ मार रहे हैं।
वो सत्तर लोग न होते तो क्या आप वो हरकत करते जो अभी आप कर रहे हो? वो हरकत आप अपनी प्रेमिका के लिए नहीं, उस भीड़ के लिए कर रहे हो। आपका ’आइ लव यू’ उस लड़की के लिए नहीं है, सोशल मीडिया के लिए है। ये कैसा ’लव’ है?
पापा को ’हैप्पी बर्थडे’ बोलना है, कहाँ बोलेंगे? फेसबुक पर। ये क्या चल रहा है, पापा ने भीड़ के साथ मिलकर तो तुम्हें जन्म नहीं दिया था। तुम्हारे और पापा का एक निजी रिश्ता है, उसकी एक पवित्रता है, उसको बनाकर रखो। अपने और पापा के बीच में भीड़ को क्यों ला रहे हो?
प्री वेडिंग , वेडिंग , आफ़्टर वेडिंग सब कुछ दिखावे के साथ करना है ― सोशल मीडिया पर, टीवी पर फिर डायवोर्स भी टीवी पर होता है। जितनी फुटेज़ वेडिंग्स को मिलती है ऐसी, उतनी ही फुटेज़ जिनके डायवोर्सेज़ को भी मिलती है। बस उसमें जाकर के फ़िल्म स्टार और क्रिकेटर नाचते नहीं हैं। पर मेरी सद्भावना उनके साथ है, मैं अच्छे से जानता हूँ, वो कितने मजबूर लोग हैं। उनको टीम से निकाल दिया जाएगा, उनको फ़िल्में मिलनी बंद हो जाएँगी, वो बेचारे क्या करें।
आपको क्या लगता है कि ये जो लोग पर्दे पर आकर आपका दिल बहलाते हैं, ये बड़े आज़ाद लोग हैं? चाहे वो पर्दे पर प्लेयर बनकर आए, चाहे इंटेरटेनर (मनोरंजक) बनकर आए। वो कोई बहुत आज़ाद लोग हैं? वो तो कठपुतलियाँ हैं।
आप उनको अपना हीरो बना रहे हो, कठपुतलियों को हीरो बना रहे हो। (हँसते हुए) कोई पूछे, ’रोल मॉडल (प्रेरणास्रोत)?’ आप किसी इन्टरटेनर का, किसी प्लेयर का, किसी एक्टर का नाम ले रहे हो। जैसे कोई बोले, ‘मेरा रोल मॉडल एक पपेट (कठपुतली) है।’ किसी पपेट को रोल मॉडल बनाते हैं?
जो पूरी नेशनल कॉन्शिसनेस (राष्ट्रीय चेतना) होती है न, वो डिस्टॉर्ट (विकृत) होती है, पैसे के ऐसे प्रदर्शन से। पैसे का ऐसा ज़बरदस्त प्रदर्शन हो ― ‘पचास करोड़, सौ करोड़, पाँच-सौ करोड़ की शादियाँ।
प्रश्नकर्ता: हज़ार करोड़।
आचार्य प्रशांत: हज़ार करोड़, दो-हज़ार करोड़ की शादियाँ ― एक छोटा लड़का या लड़की है, वो ये सब देख रहा है, वो क्या कहेगा? ’व्हाट शुड बी द एम ऑफ़ लाइफ़ (जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए)?’ क्या बोलेगा?
प्रश्नकर्ता: टू हैव वेडिंग लाइक दैट (ऐसी शादी करना)।
आचार्य प्रशांत: ‘टू हैव वेडिंग लाइक दैट।’ बस ये होता है। आपने पूरे देश की आबादी का दिमाग विकृत कर दिया ये करके। और बस आपको खुजली ये थी कि मेरे पास इतना पैसा है तो मैं दिखाऊॅंगा न सबको, कि पैसा और किसलिए कमाया था? पैसा किसलिए कमाया था? ताकि मैं पूरे देश को पूरी दुनिया को दिखा सकूँ, दुनिया के बड़े-बड़े स्टार्स को नचा सकूँ। कर लिया आपने? लेकिन ये करके आपने पूरे देश की चेतना में ज़हर घोल दिया। ’आइ विल ग्रो अप टू हैव वेडिंग लाइक दैट’ (मैं बड़ा होकर ऐसी शादी करूँगा।) बस हो गया।
कोई ऊँचा आदर्श नहीं, न उसमें कोई क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) की बात है, न इनोवेशन (नवाचार) की बात है, न ज्ञान की बात है, न प्रेम की बात है। बस ये कि एक दिन मेरे पास भी फूॅंकने के लिए उतना पैसा होना चाहिए। ये पूरे देश का आदर्श बन गया; पैसे का भोंडा प्रदर्शन।
और उन्होंने किया तो किया, मैं तो इस देश के आम आदमी से बात करता हूँ न, तुमने ये (हाथ जोड़ना) क्यों किया?
जो लोग ये सब करते हैं वो वास्तव में पैसे के एक भारी बूट के नीचे तुम्हें दबा रहे हैं। तुम क्यों दब जाते हो? रीढ़ क्यों नहीं है? मैं नहीं कह रहा हूँ, ‘उपद्रव करो, हिंसा करो।’ मैं नहीं कह रहा हूँ, ‘प्रतिक्रिया करो’ पर झुक क्यों जाते हो? जैसे सीधे तनकर चलना चाहिए, वैसे ही सीधे तनकर चलते रहो।
और अब हम कहने लग गए हैं कि हम सभ्य हैं, सुसंस्कृत हैं साहब! आज़ाद है भारत और संविधान पर चलता है। तो कोई नहीं आएगा तुमको बन्दूक लगाकर के दबाने और झुकाने के लिए। आज आपको झुकाया जाता है ― टीवी के माध्यम से और फ़िल्मों के माध्यम से और सत्ता के माध्यम से और पैसे के माध्यम से। वो ज़माने बीत गए जब कोई कहेगा कि अरे, तुम्हारी जात ऐसी है, तुम झुको! या कि तू गरीब है, चल सेठ जी के जूते साफ़ कर। वो ज़माने बीत गए। अब जो भी किया जाता है, ज़रा छुपे तरीके से और शालीन तरीके से किया जाता है।
ये करोड़ों रुपयों का एक शालीन थप्पड़ है पूरे देश के मुँह पर, और ऐसे थप्पड़ हर दूसरे महीने पड़ते रहते हैं। कभी किसी राजनेता के यहाँ कोई उत्सव हो रहा है, कभी फ़िल्म स्टार्स के यहाँ, कभी क्रिकेटर के यहाँ, कभी किसी के यहाँ, चलते रहते हैं लगातार।
हम देखते हैं, न हम सोचते हैं, न हम पूछते हैं कि ये हो क्या रहा है। हम खुश और हो जाते हैं। कोई फ़िल्म एक्ट्रेस होगी, उसका ब्याह हो रहा होगा। मान लो, तीसरी बार सिर्फ़!
(श्रोतागण हँसते हैं।)
वो उसको दिखा देंगे कि देखो, इसका गाऊन देखो। ऊपर से जितना गायब है, पीछे से उतना ही लम्बा है, ‘देखो!’ और पूरा देश उस पर एकदम ऐसे — ‘अहा-हा! ड्रूलिंग एंड ग्रूविंग (लार टपकाना और कराहना)। क्या मज़ा आ गया! मज़ा आ गया! वाह!’
क्या मज़ा आ गया? क्या है? उसमें तुम्हारे लिए क्या है? तुम सिर्फ़ बेवकूफ़ बन रहे हो। और तुम कहो, ‘नहीं, नहीं, मुझे फ़न (आनन्द) मिल रहा है।’ नहीं फ़न नहीं मिल रहा है, तुम्हारा बहुत नुकसान हो रहा है। बस तुम्हें वो नुकसान दिखाई नहीं दे रहा।
तुम्हारा पूरा दिमाग ही करप्ट (भ्रष्ट) किया जा रहा है। और इससे बड़ा किसी आदमी का क्या नुकसान हो सकता है कि उसका दिमाग करप्ट कर दिया जाए। जो मैटेरियल रिसोर्सेस (भौतिक संसाधन) का नुकसान होता है, वो तो होता ही है। जो पूरी वेडिंग इकोनॉमी है, इट्स ऐट अ हाइ कॉस्ट टू द नेशनल इकोनॉमी।
35 Lakh Weddings In India To Generate 4.25 Lakh Crore Business This Year.
~ Courtesy NDTV
तो उसकी तो मैं बात कर भी नहीं रहा। आप गहना पहनते हो। शादियों का बड़ा संबंध गहनों से है, ज्वैलरी से है। मुझे बताओ गहने की इंट्रिंसिक वैल्यू (आन्तरिक मूल्य) क्या है? हाउ इज़ इट अ फैक्टर ऑफ़ प्रोडक्शन ? कुछ पैसा है जो गहने में चला गया। मुझे बताओ वो पैसा प्रोडक्टिव (उत्पादक) कैसे रह गया? बताओ।
आप एक शेयर खरीद लेते हैं तो आपने वो पैसा कम्पनी में लगा दिया। आपने कम्पनी का शेयर खरीदा, वो पैसा कहाँ लग गया? कम्पनी में। कम्पनी उस पैसे का क्या करेगी? इस्तेमाल करेगी। उससे कुछ बात आगे बढ़ेगी, रोज़गार बढ़ेगा; कुछ होगा। उम्मीद कर रहा हूँ, वो कम्पनी कोई घटिया काम नहीं करती।
लेकिन वही पैसा आप कहो, ‘नहीं, नहीं मैं, मैं स्टॉक्स में नहीं, साहब मैं तो बुलियन में इंवेस्ट (निवेश) कर रहा हूँ, मैंने गोल्ड खरीदा है।’ आप बताओ आपने गोल्ड खरीद लिया, उसमें इंटरिंसिक वैल्यू क्या है? वो एक मेटल है बस। और ये जो मेटल है, सिर्फ़ एक धातु है ― सोना, सिर्फ़ एक धातु और चाँदी और 'प्लेटिनम'। और देश का इतना सारा पैसा वहाँ जाकर लॉक हो जाता है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा 'गोल्ड कंज़्यूमर' है।
India is the global leader in gold jewellery consumption. where marriages and social occasions are the main reasons for purchases. The country imported a total of 134.8 tonnes of gold in Q4 2019.
~ Courtesy Investopedia
और उसका सीधा संबंध किससे है? ये शादी-ब्याह से। इतना गरीब देश और दुनिया का सबसे बड़ा 'गोल्ड कंज्यूमर'। उस सोने से तुम्हें क्या मिलेगा, बताओ तो? आप कहोगे, ‘नहीं, उस सोने की कीमत बढ़ती है साहब।’ वो कीमत सिर्फ़ इसलिए बढ़ रही है क्योंकि बाकी लोग भी आप ही के जैसे मूर्ख हैं और वो उसको खरीद लेते हैं। नहीं तो वो एक होशमन्द आदमी हो, आप उसको दिखाएँ। वो कहेगा, ‘ये तो बस येलो मेटल (पीला धातु) है, मैं इसके तुम्हें दो रुपये भी क्यों दूँ?’ और इतना सा तुम उसे मेटल लेकर आ गए हो, मान लो कोई अँगूठी। वो कहेगा, ‘काहें को दे दूँ, इसमें क्या है? इसमें क्या है कि तुम्हें कुछ दूँ?’
भाई, एक कार दो तो वो चलने के काम आती है, कुछ देती है। दवाई दो, वो तबियत ठीक करने के काम आती है। ये मेरा मग भी है, ये चाय पीने के काम आता है (मग को उठाते हुए)। उस मेटल में क्या है, वो किस काम आता है? उसका कोई काम नहीं है। या कि जो आप बोलते हो, ’प्रिसियस स्टोन-जेम’ (कीमती पत्थर)। वो किस काम आता है, काम बताओ? काम कुछ नहीं है, बस अन्धविश्वास है। एक यकीन है बेकार का कि इसमें कुछ है। सोने में कुछ है या फ़लाने पत्थर में कुछ है। और ये सबकुछ जितना भारत में फल-फूल रहा, उतना किसी देश में नहीं। क्योंकि हम न सोचते हैं, न हम पूछते हैं, हम बस (हाथ जोड़ते हुए)।
और हम अपने बच्चों को बोल देते हैं, अगर तुम ऐसे (हाथ जोड़कर) नहीं हो तो तुम बेअदब हो, बदतमीज़ हो। सवाल पूछ ले कोई घर में बच्चा और पूछता ही जाए तो मुमकिन नहीं कि थप्पड़ न खाए।
भारतीय इंसान जीता ही उस दिन के लिए है जिस दिन, शादियाँ होंगी। अब ये बात आप माँ के पेट से तो लेकर नहीं पैदा हुए थे। ये बात आपके दिमाग में किसी ने डाली है। इसी तरह के उत्सवों और आयोजनों ने ये बात सबके दिमाग में डाल दी है ― कि दुनिया की सबसे बड़ी चीज़ क्या है? एक ह्यूजली वल्गर वेडिंग सेरेमनी (अत्यन्त अश्लील विवाह समारोह)।
ये कितनी, कितनी ज़्यादा ये खौफ़नाक बात है कि एक आम आदमी अपनी कुल बचत का चौथाई हिस्सा ब्याह की एक रात में उड़ा देता है।
The financial burden of weddings on India's poorest families.
The 26-year-old had saved up 200 for the wedding expenses.
~ Courtesy ALJAZEERA
उस, उस पैसे से वो अपने बच्चों को शिक्षा दे सकता था, उस पैसे से वो कोई छोटा-मोटा उद्योग शुरू कर सकता था। शिक्षा भी मारी गई, उद्यमिता भी मारी गई और कुछ नहीं करता वो पैसा कहीं जाकर के वो इंवेस्ट करता, निवेशित कर देता तो भी उसे कुछ मिल जाता।
सबकुछ मारा गया। कहाँ उड़ गया? वो बैंक्वेट हॉल वाले को चला गया। और वो ज्वेलर को चला गया और केटरर को चला गया। शिक्षा में भी नहीं गया। लड़की की शादी कर रहे हो, जितना पैसा उसके ब्याह में फूँक रहे हो, उतने में उसको पढ़ा दिया होता? नहीं, उसको पढ़ाएँगे भी नहीं। और ये क्यों कर रहे हो? क्योंकि ऐसे ही तो करना होता है न? हमने बचपन से यही होते देखा और आज भी हम ऐसे बड़े-बड़े समारोह टीवी पर होते देखते हैं। ये असर होता है इन समारोहों का आम आदमी के ऊपर। पर आम आदमी बेवकूफ़ है, उसे बेवकूफ़ ही रहना है। जो लोग उसके शोषक होते हैं, उनको वो अपना आदर्श मानने लगता है। हो ही नहीं सकता आप किसी को आदर्श मानते हो और वो शोषक न हो आपका।
और जिस दिन आप ऐसे हो जाओ कि किसी ऐसे को आदर्श बना लो जो आपका शोषण नहीं करता। उस दिन समझना कि आपने कुछ तरक्की कर ली। नहीं तो सौ में से निन्यानवे लोग, जो उनका शोषण करें, उसी को अपना हीरो मानते हैं।
प्रश्नकर्ता: पर मैं कुछ बहुत उल्टा होता देख रहा हूँ आजकल। जैसे बहुत सारे लोग हैं जो स्टार्टअप्स (उद्यम) की बहुत बात करते हैं। तो वो आजकल कहते हैं कि एक अकेला सेक्टर (क्षेत्र) भारत में जो रिसेशन प्रूफ़ (आर्थिक मंदी से बचा हुआ) है, वो है ― ’वेडिंग इंडस्ट्री’।
तो वो कुछ तथ्य इस तरह रखते हैं सामने कि अभी कुछ दिनों पहले गोल्डमैन एंड सैक्स की एफ्लुएंट इंडिया रिपोर्ट आयी थी ―
The number of Indians earning $10,000 has been steadily increasing at a annual growth of 12-13%
'Affluent India' report by Goldman Sachs
~ Courtesy Goldman Sachs
तो उसमें उन्होंने बताया था कि भारत में ऐसे लोग जो दस हज़ार डॉलर या आठ लाख रुपये सालाना कमाने वाले, वो बारह-तेरह प्रतिशत के हिसाब से सालाना बढ़ रहे हैं। जो कि एक तरह से भारत में जिन लोगों के पास पैसा है, उनकी तादाद बढ़ रही है। और साथ में वो ये भी कहते हैं कि भारत में जो पैंसठ प्रतिशत आबादी है वो अभी पैंतीस साल से नीचे की है ―
India's rapidly growing youth population is driven by India's large, dynamic and young population, with 65% of Indians being under 35 years old.
~ Courtesy The times Of India
तो इन दोनों चीज़ों का एक जो निष्कर्ष निकालता है वो ये कि आने वाले समय में भारत में वेडिंग इंडस्ट्री बहुत ज़्यादा आगे बढ़ेगी।
Indian spends close to $130 billion annually on weddings.
Thanks to this, it makes it the fourth-largest industry in the nation, just behind energy, banking, and insurance. As per data from 2022
~ Courtesy kotak Securities
तो इतना तक बताते हैं कि इस वक्त भारत की चौथी सबसे बड़ी इंडस्ट्री है, वेडिंग इंडस्ट्री , स्टील और टेक्नोलॉजी उसके बाद आती हैं।
आचार्य प्रशांत: इंडिया इज़ नॉट रिच बट मेनी इंडियंस आर अमंग द रिचेस्ट (भारत अमीर नहीं है लेकिन कई भारतीय सबसे अमीरों में से हैं)। इसका मतलब क्या है?
Mercedes-Benz registers highest ever growth in India
The luxury car maker sold 17,408 vehicles in the calendar year 2023, registering a 10% growth over 2022.
~ Courtesy CNBC TV18
लग्ज़री कार्स की सेल्स ज़बरदस्त रूप से बढ़ रही हैं और जो साधारण बजट कार्स होती हैं, इनकी सेल्स स्टैगनेट (बिक्री में रुकावट) कर चुकी है। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब ये है कि पूँजी ज़्यादा-से-ज़्यादा चन्द हाथों में केन्द्रित होती जा रही है। नहीं तो भारत जैसे गरीब देश में दुनिया के सबसे अमीर लोग कैसे पाए जाते? और अमीरों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, बढ़ती ही जा रही है; बाज़ार गवाही दे रहा है। गुड़गाँव की, उदाहरण के लिए, जो पूरी रियल स्टेट मार्केट है वो बूम (उछाल) कर रही है, पर आम आदमी वहाँ कुछ नहीं खरीद सकता। तो खरीद कौन रहा है? अमीर लोग, अमीर लोग। अमीरों की तादाद बढ़ती जा रही है।
तो दस करोड़, पन्द्रह करोड़ से ऊपर की जो प्रॉपर्टीज़ हैं, वो हॉट हैं; उनके खरीददार कतार बाँधकर खड़े हुए हैं। पर अगर आप चले जाओ गुड़गाँव, आप बोलो, ‘मुझे पचास लाख में कुछ चाहिए, मुझे एक करोड़ में भी कुछ चाहिए।’ तो आपको कुछ नहीं मिलेगा।
कुछ है ही नहीं वहाँ आम आदमी के लिए, क्योंकि जब दस करोड़, बीस करोड़ में कुछ बिक सकता है तो एक करोड़ में क्यों बेचा जाए, पचास लाख में क्यों बेचा जाए? और उनकी संख्या जो दस करोड़ दे सकते हैं, उनकी संख्या तेज़ी से बढ़ रही हैं। तो उनके और जिनके पास नहीं है उनके बीच में जो फ़ासला है वो ज़बरदस्त रूप से बढ़ रहा है।
और ये भारत का समझो लक्षण है ― जहाँ पर जो बड़ा है, वो बहुत बड़ा होगा और चन्द लोग होंगे जो बहुत ऊपर होंगे। और जो नीचे हैं, द बेस, द बॉटम ऑफ़ द पिरामिड ; वो बहुत बड़ा होगा लेकिन वो बहुत नीचे होंगे।
ये भारत के समाज का और भारत की अर्थव्यवस्था का सदा से एक बड़ा लक्षण रहा है, एक चिह्न रहा है, एसेंशियल फीचर (आवश्यक विशेषता) रहा है। बीच में वो थोड़ा कम हुआ था। हमने जो आर्थिक विषमता थी, असमानता थी, उसको पाटने की बड़ी कोशिश करी थी। लेकिन अभी फिर से वही हो रहा है कि जो बड़े हैं, वो बढ़ते जा रहे हैं और जो नीचे वाले हैं, वो गिरे हुए हैं। और जो नीचे हैं, जो गिरे हैं वो उनके आगे और ऐसे (हाथ जोड़ते हुए) होते जा रहे हैं, जो ऊपर चढ़ते जा रहे हैं।
क्योंकि वो जितना ऊपर है, हम उसको उतनी इज़्ज़त देते हैं। हम ये नहीं देखते कि वो ऊपर चढ़ ही रहा है, हमें नीचे दबाकर। ये हमें नहीं समझ में आता।
प्रश्नकर्ता: उल्टा मैंने तो लोगों को देखा है, इस बात में प्राइड (गर्व) महसूस करते हुए कि देखो दुनिया के सबसे अमीर आदमी हमारे देश के हैं।
(आचार्य जी ठहाका मारकर हँसते हैं।)
आचार्य प्रशांत: स्टॉकहोम सिंड्रोम (मनोवैज्ञानिक लक्षण) है ये, स्टॉकहोम सिंड्रोम है। लोग बात करते हैं न, औसत इनकम की। कहते हैं कि इंडिया की... ये वो लोग हैं जिन्हें बेसिक स्टेटिस्टिक्स (मूलभूत सांख्यिकी) भी नहीं आती।
कभी भी औसत आमदनी की बात नहीं होनी चाहिए, बात होनी चाहिए मीडियन इनकम की या उससे भी ज़्यादा सही आँकड़ा होगा जो मोडल इनकम है।
पर हमारे हिन्दुस्तानी बन्धु ― हम इतना भी नहीं पढ़े हैं कि हम मीन, मीडियन, मोड (गणित के माध्य, माध्यिका, बहुलक) में अंतर समझते हों। हम मीन को उठा लेते हैं। मीन की पहचान ये होती है कि चन्द अमीर लोग मीन को बहुत ऊपर खींच सकते हैं। चन्द अमीर लोग ―
India - 2600 USA - 62,789.1 Average Income per person in $ (World Bank national accounts data, and OECD National Accounts data files.)
ऐसे समझो कि भारत की अभी आप तीन हज़ार या छब्बीस सौ की बात करते हो ― छब्बीस सौ डॉलर प्रति व्यक्ति आय की बात करते हो।
अगर कोई छब्बीस सौ से नीचे भी होगा तो कितना नीचे हो सकता है? ज़ीरो से नीचे तो जाएगा नहीं। तो छब्बीस सौ से नीचे भी होगा तो पाँच सौ पर होगा, सात सौ पर होगा। ठीक? पर छब्बीस सौ से ऊपर जो होगा वो कहाँ तक हो सकता है? अरे, वो पता नहीं कितने करोड़, कितने अरब पर हो सकता है।
तो चन्द लोग जो छब्बीस सौ से आगे के हैं, उन्होंने इस बात को छुपा रखा है कि ज़्यादातर लोग साहब हज़ार-पन्द्रह सौ के नीचे के हैं। ये मीन का नियम होता है।
ऐसे समझ लो कि आप यहाँ पर मान लो मैं कहता हूँ, ‘आप सिर्फ़ दस लोग यहाँ पर हों।’ नौ लोगों के पास एक-एक रुपैया है, नौ लोगों के पास एक-एक रुपया है और एक के पास इक्यानवे रुपये हैं।
(आचार्य प्रशांत हँसते हैं)
नौ लोगों के पास एक-एक रुपया है और एक आदमी के पास इक्यानवे रुपये हैं। तो दस लोगों के पास कुल मिलाकर कितने हो गये?
प्रश्नकर्ता: सौ।
आचार्य प्रशांत: सौ रुपये। तो जो औसत इनकम है ― मीन, मीन इनकम है, वो कितनी हो गई? दस रुपये। अब दस रुपये तो किसी की भी इनकम नहीं है। दस में से नौ लोगों के एक-एक रुपये हैं लेकिन सरकार आँकड़ा दिखा देगी कि देश की प्रति व्यक्ति आय इतनी है; दस रुपये।
साहब! दस रुपये किसी की भी नहीं है, एक रुपया है। एक आदमी है जिसके इक्यानवे रुपये है और उसे इक्यानवे रुपये का इस्तेमाल करके आपने औसत आय दस रुपये दिखा दी। तथ्य ये है कि आम आदमी की जो आय है वो, दस रुपये का दस प्रतिशत है।
तो इन सब आँकड़ों में जो मीडियन इनकम है वो आनी चाहिए। इसका जो मीडियन आएगा, वो भी एक आएगा और जो मोड आएगा, वो भी एक आएगा। आपने मीडियन और मोड लिया होता तो सच्चाई सामने आ जाती। पर इतना आम आदमी पढ़ा नहीं है कि सरकार से माँग करे कि भाई हकीकत बताओ, ये क्या तुम आँकड़ों में हमें उलझा रहे हो।
और ये बात ये नहीं कि आज की है, ये आँकड़े प्रस्तुत करने का हमेशा से तरीका रहा है कि हम एवरेज इनकम (औसत आय) की बात करते हैं। और भारत में नहीं, पूरी दुनिया में हमेशा से ― ’एवरेज इज़ अ मोस्ट डिसेप्टिव फिगर’ (औसत सबसे भ्रामक आँकड़ा है)। वो है न, देयर आर लाइज़, देयर आर डैम लाइज़ एंड देन देयर इज़ स्टैटिस्टिक्स (वहाँ झूठ हैं, वहाँ बहुत झूठ हैं और फिर आँकड़े हैं)।
तो वो जो फ़ासला है न, एक रुपये वाले में और इक्यानवे रुपये वाले में। वो ऐसे-ऐसे, ऐसे-ऐसे बढ़ता जा रहा है और जितना बढ़ता जा रहा है उतना ये जो आम आदमी है एक रुपये वाला, ये उतना कहता है, ‘मैं तो छोटा हूँ, वो तो देखो बड़ा-ही-बड़ा होता जा रहा है। उसको बिल्कुल अपना भगवान बना लो, वही तो ऊपर से पुष्पवर्षा करेगा।’
और वो है भी। वही फिर आपको कुछ खैरातें दे देता है, उसी के कारण कुछ नौकरियाँ बन जाती हैं तो आप बोलते हो, ‘वही तो एम्प्लॉयमेंट प्रोवाइडर (रोज़गार देने वाले) है।’ साहब! जितना पैसा उसके पास लॉक्ड इन है, उतना पैसा अगर क्रिएटिवली यूज़ (सृजनात्मक उपयोग) हो रहा होता तो उसमें से कितना एम्प्लॉयमेंट जनरेट (रोज़गार उत्पन्न) होता?
वो जो पैसा कॉन्सपिक्यूऑस कंजम्प्शन (विशिष्ट रूप से उपभोग) में जा रहा है, वो पैसा अगर नेशन बिल्डिंग (राष्ट्र निर्माण) में जा रहा होता तो उसका क्या आउटपुट (उत्पादन) होता? पर ये सवाल आम आदमी पूछेगा नहीं क्योंकि हम अशिक्षित लोग हैं। आज के अशिक्षित हैं और पुरानी हमारी संस्कृति है (हाथ जोड़ते हुए)।
पर हम बहुत खुश होते हैं, कहते हैं, ‘कोई बात नहीं, हमारे पास नहीं है तो क्या हुआ? हमारे किसी हमवतन के पास तो है।’ अब राष्ट्रवाद खड़ा हो जाता है। कहते हैं, ‘हम गरीब हैं तो क्या हुआ? हमारा एक भाई है, वो इतना अमीर है। हमें बल्ला पकड़ना भी नहीं आता तो क्या हुआ, हमारा एक भाई है जो छक्के मारता है।’
ये छक्के मारने वाली बात तो फिर भी थोड़ी ठीक है। पर ये वाली बात है कि हम गरीब हैं तो क्या हुआ, हमारा एक भाई इतना अमीर है; ये बात बिल्कुल भी ठीक नहीं है।
दुनिया का कोई देश, समझ लो अच्छे से, वेडिंग्स पर इतना नहीं खर्च करता। भारत दुनिया के सबसे बीमार देशों में है, सबसे कुपोषित देशों में है। और कोई देश शादी, व्याह पर पर उतना नहीं खर्च करता, जितना भारत करता है, वेडिंग इंडस्ट्री कहीं उतनी बड़ी नहीं है, जितनी भारत में है। हमें सीधा-सीधा संबंध नहीं दिखाई दे रहा, हमारी दुर्दशा में और हमारे फ़िजूल खर्चों में?
छोटा-मोटा फ़िजूल खर्चा नहीं है ये कि बस एक जाकर के कहीं से आप एक शर्ट खरीद लाए जिसकी आपको ज़रूरत नहीं थी। फिर समझिए, भीतर उतरने दीजिए ― ‘आम आदमी अपनी जीवन भर की बचत का, सेविंग्स का पच्चीस प्रतिशत लगा देता है बस उस एक रात में; एक रात के अरमान।’ ये दुनिया में कोई नहीं करता। और ये हमें करने के लिए मजबूर किया जा रहा है ― पैसे के भौंडे प्रदर्शनों के द्वारा, ग्लैमर (ठाठ-बाट) दिखा-दिखाकर के और अरमान जगा-जगाकर के हमें मजबूर किया जाता है।
यहाँ तुम्हारे अरमान भी कुछ हिल-डुल गए क्या? क्यों परेशान हो रहे हो? (एक प्रतिभागी की ओर इशारा करते हुए)
प्रश्नकर्ता: सर, ये हरिशंकर परसाई जी की एक उक्ति है, जो उन्होंने शायद आज से तीस-चालीस साल पहले कही होगी। वो कहते हैं ―
देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी कराने में जा रही है। पाव ताकत छिपाने में जा रही है, शराब पीकर छिपाने में, प्रेम करके छिपाने में, घूस लेकर छिपाने में, बची पाव ताकत से देश का निर्माण हो रहा है, तो जितना हो रहा है, बहुत हो रहा है। आखिर एक-चौथाई ताकत से कितना होगा।
~ हरिशंकर परसाई
आचार्य प्रशांत: बस ये ही है। बिल्कुल सही कि देश की आधी ताकत तो विदाई, शहनाई और रुलाई में बीत जाती है। बहुत पहले बात हुई थी इस मुद्दे पर। तो उसका एक वीडियो होगा, उसमें यही है ― विदाई, शहनाई, रुलाई; देश की आधी ताकत तो यहाँ लगी हुई है। अब कर लो राष्ट्र निर्माण।
प्रश्नकर्ता: ये मेरे लिए भी थोड़ी आश्चर्य की चीज़ थी ―
India's rapidly growing youth population dividend is driven by India's large, dynamic and young population, with 65% of Indians being under 35 years old.
डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकीय लाभांश) का मतलब ये भी निकाला जा सकता है कि सब लोग यंग (युवा) हैं तो सबकी शादी होगी, उससे पैसा कमाएँगे।
आचार्य प्रशांत: और पैसा कमाना है तो ऐसे हालात पैदा करो कि सब इसी तरह की ऑस्टेंटेशियस, प्रदर्शन वाली शादियाँ करने को मजबूर हो जाए। क्योंकि अगर लोगों ने शादी, सादी शादी ― अरे यार, सादी शादी लोग समझ नहीं पाएँगे ― अगर लोगों ने सिम्पल वेडिंग (सादी शादी) करनी शुरू कर दी तो फिर ये वेडिंग वाले स्टार्टअप्स पैसा कहाँ से कमाएँगे?
और क्या होगा ज्वेलरी इंडस्ट्री का, और क्या होगा कॉस्मेटिक्स इंडस्ट्री का, और क्या होगा घाघरा-चोली इंडस्ट्री का? और क्या होगा वो मेकअप, ब्राइडल और बैंक्वेट हॉल और केटरिंग और जितने दुनिया ― और वो जो फ़ोटो शूट होते हैं, प्री वेडिंग, पोस्ट वेडिंग। सब जितना होता है कि पहाड़ कि चोटी पर चढ़कर, पानी के अंदर घुसकर, उन सब इंडस्ट्रीज़ का क्या होगा? देखो न, कितनी ज़्यादा वो क्रिएटिव और प्रोडक्टिव इंडस्ट्रीज़ हैं। क्या इंडस्ट्री है, ज़बरदस्त!
तो मजबूर करो लोगों को ये सब करने के लिए। और उसमें बहुत बड़ा योगदान ऐसे लोगों का जो रोल मॉडल (प्रेरणास्रोत) बनकर यही सब कर-करके दिखाते हैं। तुम्हारा पसन्दीदा क्रिकेटर ऐसी किसी जगह जाकर नाच रहा है। अगर तुम ढंग के आदमी होगे न, अगली बार से उसका मैच देखना बंद कर दोगे। तुम कहोगे, ‘तू इस राष्ट्र का दुश्मन है, तूने ने ये जो किया है अभी।’ इतनी हममें नहीं है ― इतने ही होशियार होते तो फिर आज इस हालत में क्यों होते हम?
दुख मुझे बस इस बात का है कि जिन कारणों से हम गत में गिरें, हम उन कारणों को आज भी पूज रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, वेडिंग इंडस्ट्री के बारे में बात हो रही थी, तो मैंने भी लगभग चार साल वेडिंग इंडस्ट्री में काम किया। इवन मेरा खुद का स्टार्टअप भी था २०१६-२०२० तक।
सर, मैंने एक चीज़ देखी पिछले चार साल में, जब मैं वेडिंग इंडस्ट्री में काम कर रहा था तो। पहले बहुत सिम्पल वेडिंग्स होती थीं, नॉर्मल विडियोग्राफर को हायर किये, शूट हुआ काम खत्म। बट २०१८ के बाद मैंने देखा है ये चीज़ लोग वेडिंग को लेकर ऐसे इतना उत्सुक हो चुके हैं, इतना पागलपन हो चुका है कि लोग लाखों रुपये सिर्फ़ कैमरामैन को दे देते हैं कि आप हमारी वेडिंग को फ़िल्म की तरह दिखाओ ― टीज़र , हाइलाइट्स (झलकियाँ) और आप एक तरह से क्या बोलते हैं? कैंडिड शॉट्स, पचासों चीज़ आ गए हैं।
मैंने जो सबसे महँगी वेडिंग करी थी वो लगभग पन्द्रह लाख रुपये की करी थी। एक क्लाइंट (ग्राहक) था, इन्होंने बोला कि मेरी फ़िल्म की डॉक्यूमेंट्री बनानी है। मतलब, ‘मेरी जो पूरी फ़िल्म है उसे एक डॉक्यूमेंट्री की तरह दिखाया जाए जिसमें आप मेरे मम्मी-पापा के, मेरे भाभी के, भाई के, दादा-दादी के, इन सबके आप शॉट्स लोगे और हमारी जर्नी (यात्रा) के बारे में पूछोगे, फिर आप लास्ट (अन्त) में हमारा शॉट लोगे जिसमें हम बताएँगे कि हम कैसे मिले थे।’
आचार्य प्रशांत: रिलीज़ (प्रदर्शन) हुई कि नहीं फ़िल्म?
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्रश्नकर्ता: सर, वो सिर्फ़ उनको अपने लिए देखना होता है।
आचार्य प्रशांत: देखो, आदर्श सही होने चाहिए राष्ट्र के। अगर आप पाओ कि जो लोग आपके रोल मॉडल्स (प्रेरणास्रोत) हैं, वही बस प्रदर्शन के आधार पर चढ़े हुए हैं तो आप कहते हो, ‘जब प्रदर्शन करके आप उतना ऊँचा चढ़ सकते हो तो हम भी प्रदर्शन क्यों न करें।’ ये हो जाता है।
प्रश्नकर्ता: और फिर यह भी देखा गया है कि लोगों के पास इतनी कैपेसिटी (क्षमता) नहीं होती कि लोग इतना पैसा वेडिंग में इन्वेस्ट (निवेश) करें। तो उनकी जो खुद की बचत होती है, वो इन्वेस्ट करने के बाद वो लाखों रुपये बैंक से लोन (उधार) लेते हैं ताकि वो अपनी वेडिंग को और दिखा सकें।
आचार्य प्रशांत: क्यों न लोन लें? इतना बढ़िया स्पेक्टकल क्रिएट (तमाशा) किया जाता है, आपके आदर्शों द्वारा कि आप कहते हो, ‘यही तो है वो दिन जिसके लिए मैं ज़िन्दा हूँ। इस दिन के लिए अगर मुझे कर्ज़ लेना पड़े तो क्या बुराई है।’ इसलिए अपने रोल मॉडल्स बहुत सोच-समझकर तय करने चाहिए।
ये कैसा रोल मॉडल है जो आपको ये सब करने के लिए प्रेरित कर रहा है बल्कि मजबूर कर रहा है? सार्वजनिक जीवन में आदर्श उन लोगों को बनना चाहिए जो आपको सही रास्ता दिखा सकें। जो ये आपके भीतर बात डाल दे कि तड़क-भड़क दिखाकर के और ग्लैमर का प्रदर्शन करके जीवन में सफलता पाई जा सकती है, उस आदमी ने तो पूरी युवा शक्ति को तबाह कर दिया। अब वो पूरी युवा शक्ति बस यही करेगी कि मैं भी ग्लैमर के पीछे भागूँ। ‘अगर झूठ जीत सकता है तो मैं भी झूठ का सहारा क्यों न लूँ।’ यही है, यही चल रहा और कुछ नहीं।
प्रश्नकर्ता: हालाँकि अभी जैसे वेडिंग के लिए सबसे मोस्ट (अधिकांश) जो चोज़न प्लेस (चुनी गई जगह) होता है या तो वो राजस्थान होता है या फिर दिल्ली होता है। दिल्ली में जो ज़्यादा फ़ेमस एरिया (प्रसिद्ध जगह) है, वो श्रीवास नगर साइड (तरफ़) में है जो वेडिंग बैंक्वेट्स बहुत ज़्यादा बने हुए हैं। उन वेडिंग बैंक्वेट्स की जो लगभग एक दिन के चार्ज (खर्च) होते हैं वो अप्रॉक्स (लगभग) ढाई से तीन लाख रुपये होता हैं।
और अगर आपने गलती से जयपुर में या फिर राजस्थान में वेडिंग कर लिया फिर आप आराम से तीस-चालीस लाख रुपये दे देते हो आप फ़ोर्ट (किला) के लिए, वो भी सिर्फ़ आठ घंटे के लिए बुक होता है। आठ घंटे से जैसे ही वो आठ घंटे पाँच मिनट होता है, वो आपको आकर बोल देता है कि सर, जगह खाली करने का टाइम (समय) हो गया, आप खाली कर दीजिए।
आचार्य प्रशांत: ज़िंदगी, ज़िंदगी खाली है, ज़िंदगी बेरौनक है, ज़िंदगी में कोई दम नहीं है तो आदमी उस खालीपन को, उस खोखलेपन को एक दिन के ढोल-तमाशे से, गाजे-बाजे से भरना चाहता है। और पता है वो एक दिन बीत जाएगा तो इसलिए फ़िल्म बनवाओ उसकी, फ़ोटो लो बहुत सारी, चाहे फ़िल्म, डॉक्यूमेंट्री जो भी है वो सब बनवाओ। क्योंकि पता है कि ये एक दिन तो बीत जाएगा और ज़िंदगी जैसी खाली और खोखली थी वही ज़िंदगी फिर आ जाएगी खाने के लिए। बस बात ये है।
बात समझ रहे हो?
आदमी तो वो चाहिए जो सही काम में इतना डूबा हुआ हो ― अब मैं ये बात बोलूँगा, आप लोग कहोगे, ‘ये देखो, इन्होंने फिर से कर दी वही, अपने जैसी बात’ ― मैं कह रहा हूँ, ‘आदमी इतना डूबा हुआ हो कि भूल जाए कि आज शादी है उसकी।’ और कोई ऐसा मिल जाए न, तुम्हें शादी करने के लिए, मैं खुद आकर कराऊँगा।
काहे भाई! दिनभर मैं श्लोकों और मन्त्रों में रहता हूँ, थोड़ी पंडिताई नहीं कर सकता मैं?
(श्रोतागण हँसते हैं।)
शास्त्र विहित सारे अधिकार हैं मुझे ब्याह कराने के, मैं करा दूँगा। पर ऐसा कोई खोजना जो ब्याह को भूल ही जाए, जिसको याद ही न हो कि आज है, उस दिन तुम पाओगे कि मैं खुद खड़ा हुआ हूँ वहाँ पर। ‘हाँ भाई, पंडित तैयार है, मैं करा रहा हूँ।’
प्रश्नकर्ता: ऐसा पॉसिबल (सम्भव) हो पाएगा सर? क्योंकि मेरी होने वाली है।
आचार्य प्रशांत: तुम्हारे लक्षण वैसे नहीं हैं। मैं कह रहा हूँ, ‘वो शादी के दिन शादी को भूल जाए।’ इनको अभी भी याद है! और ये कह रहे हैं कि मेरा, मेरा हो पाएगा।
उसकी जगह ये कि ज़िंदगी इतनी बेरौनक है कि शादी की तैयारियाँ छ:-छ: महीने पहले से चल रही हैं ― स्टार्टअप्स इस बात में भी हैं कि हम शादी के लिए डांस (नृत्य) करना सिखाएँगे पूरे परिवार को। इस बात की स्टार्टअप्स चल रही हैं कि ब्याह होने वाला है तो हम आकर आपका जो भी फ़ेवरेट (पसन्दीदा) फ़िल्मी गाना होगा ― शादी, ब्याह, सगाई वाला, उस पर हम सबको नचाएँगे। फ़ैमिली (परिवार) पूरी नाचेगी, ताऊ उधर नाच रहा, फूफी उधर नाच रही और सबको स्टेप्स देंगे और हम प्रैक्टिस (अभ्यास) कराएँगे।
ये स्टार्टअप है, स्टार्टअप सीन है भारत का। कोई बड़ी बात नहीं यूनिकॉर्न निकल जाए ये। तो ये नहीं, ये बस ये बता रहा है, जैसा मैंने कहा, ‘ज़िंदगी खाली, खोखली, उद्देश्यहीन है, बेरौनक है।’
किसी ऐसे को चुनना शादी के लिए, अगर करनी हो शादी तो, जो शादी को बहुत महत्व न देता हो। जो शादी को बहुत महत्व देता हो, वो महत्व देकर ही शादी के लिए नाकाबिल हो गया।
शादी का अधिकारी ही वही है जिसके लिए शादी बहुत छोटी बात हो गई। जिनके लिए शादी अभी बड़ी बात है, उनसे कभी कर मत लेना शादी। शादी अगर बड़ी बात है तो माने ज़िंदगी अभी बहुत छोटी बात है। जिनकी ज़िंदगी इतनी छोटी है, उनकी ज़िंदगी में घुसकर के तुम अपनी ज़िंदगी क्यों तबाह करना चाहते हो?
समझ में आ रही बात ये?
प्रश्नकर्ता: थैंक यू सर।