प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, मेरा नाम विक्की है, युवा हूँ। मैंने घर की आर्थिक स्थिति के कारण अपनी पढ़ाई छोड़ दी और मैं तीन साल से मल्टी लेवल मार्केटिंग व्यापार में हूँ। मुझे सब कुछ अपने ही दम पर करना है, समृद्ध बनना है। मेरे मित्र नौकरी छोड़कर ध्यान में लग गए हैं। मुझे जानना है कि मैं सही हूँ या गलत कर रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: मित्र आप की कहानी में कहाँ से आए? तुम मल्टी लेवल मार्केटिंग में हो विक्की तो किस बात की दुविधा है? क्या पूछना चाह रहे हो?
प्रश्नकर्ता: मुझे बताइए कि मेडिटेशन को और अपने करियर को कैसे बैलेंस करूँ?
आचार्य प्रशांत: तुम पूछ रहे हो कि तुमने जो सपने बना रखे हैं और तुम्हारे मन में ध्यान और संन्यास का जो ख़्याल है, जो कांसेप्ट है उसको बैलेंस कैसे करें? पूछ रहे हो कि ऐसा कैसे हो कि सपना और संन्यास दोनों ही मिल जाए और अभी तुमने जो किस्सा बताया, जो केस स्टडी बताई, उसमें तुमको समस्या इस बात में दिख रही है कि एक दोस्त है तुम्हारा जिसने अपने सब सपने इत्यादि छोड़कर संन्यास में चला गया है, कोई संस्था वगैरह है और वहाँ जाने के बाद कह रहा है कि नौकरी नहीं करूँगा, शादी नहीं करूँगा वगैरह-वगैरह।
तुम कह रहे हो यह तो अति हो गई, बैलेंस होना चाहिए। सपने भी चलते रहे और उस तरह का संन्यास भी चलता रहे जिसमें ये चीज़ छोड़ दो, ऐसे कपड़े पहन लो, फ़लाना आसन लगाया करो तो यह जो अति हुई है तुम्हारे दोस्त के साथ, तुमको परेशान कर रही है कि उसने ऐसा क्यों करा कि सपनों की दुनिया को छोड़ कर, वह बिल्कुल संन्यास वाली दुनिया में चला गया। तुम कह रहे हो कि कुछ बैलेंस तो रखना था न? फिफ्टी-फिफ्टी!
यह ऐसा ही है कि तुम मेरे पास आओ और दिखाओ कि एक पीला ज़हर है, एक नीला ज़हर है और कहो कि "गुरुदेव बताइए कि इसका राइट बैलेंस क्या है? आधा-आधा ले लूँ दोनों, आधा पीला, आधा नीला?" नीला ज़हर है सांसारिक ज़हर, सपनों वाला ज़हर और पीला ज़हर है प्रचलित अध्यात्म का ज़हर और तुम कह रहे हो इनमें संतुलन होना चाहिए- थोड़ा नीला, थोड़ा पीला, थोड़ा नीला, थोड़ा पीला! सही से इनको मिलाओ तो बढ़िया बन जाता है।
अब मैं तुमको क्या सलाह दूँ? तुम यह तो कह ही नहीं रहे हो यह दोनों चीज़ें ही ज़हरीली है जिनमें आम आदमी उलझता है। तुम बस यह चाह रहे हो कि इनमें से किसी एक सिरे की अति ना हो जाए, एक्सट्रीम ना हो जाए। ना तो तुम यह चाहते हो कि आदमी बिल्कुल सपनों के ही पीछे पागल रहे अध्यात्म को छोड़कर और जब कोई उस तथाकथित अध्यात्म की ओर चला गया सपनों को छोड़कर तो तुम कह रहे हो कि यह भी गलत हो गया।
हकीकत यह है कि हमारे सपने भी ज़हरीले हैं और हमारा संन्यास भी ज़हरीला है। हमारा संन्यास भी और कुछ नहीं है, हमारे सपनों की छाया मात्र है। सच न हमारे सपनों में है, न उस सपने के ही एक दूसरे रूप संन्यास में है।
क्या है यह सपनों की दुनिया, जिसको तुम कह रहे हो कि एक बंदे को अपने ड्रीम्स तो पूरे करने चाहिए न! जवान आदमी हो तुम और जवानों में यह खूब चलता है कि कुछ भी हो जाए अपने सपनों को जरूर पूरा करना। और अभी उससे भी आगे चलता है, 'तुम हार मत मानना, अगर तुमने हार मानी तो तुम्हारे मां-बाप के सपनों की हार होगी।' यह सब अपने कुल मिलाकर, ले देकर, है क्या? पैसा करो बच्चे करो, पैसा करो बच्चे करो, पैसा करो बच्चे करो, इसके अलावा कोई सपना हो तो बता देना।
इसमें तुम थोड़ा सा और जोड़ सकते हो प्रतिष्ठा करो। पैसा हो जाए, नाम हो जाए और बढ़िया लड़का या लड़की मिल जाए। इससे आगे का कोई सपना होता है तुम्हारा? और अगर होते भी हैं तो इमानदारी से उनको परखना कि उन सपनों के मूल में क्या यही तीन इच्छाएं नहीं बैठी हुई हैं?
हो सकता है तुम कहोगे, 'नहीं मेरा सपना है कि मैं फलाने तरह की कंपनी शुरू करूँगा, मैं स्टार्टअप चलाऊंगा।' उसमें भी देख लेना कि उस स्टार्टअप को चलाने के पीछे भी क्या कारण है तुम्हारे पास? नहीं, मेरा सपना है मैं आईएएस बन के दिखाऊंगा। तुम देख लेना असली वजह क्या है?
ऊपर ऊपर वाली वजह मुझे मत बताओ। वो वजह मुझे मत बताओ जो तुमने रटी है इंटरव्यू बोर्ड को बताने के लिए। वह सारी वजह इंटरव्यू में शोभा देती हैं। मेरे सामने असली वाली वजह बता देना, इमानदारी वाली। वजह तुम भी जानते हो कि तुम्हें सरकारी नौकरी क्यों चाहिए? कि तुम्हें एमबीए क्यों करना है? तुम्हें विदेश क्यों जाना है? तुम्हें बड़ी कंपनी में नौकरी क्यों चाहिए?
कुल मिला जुला के इसलिए कि घर में फर्नीचर अच्छा होगा, घर थोड़ा ज्यादा बड़ा होगा, लड़की बढ़िया मिलेगी और पांच-सात लोग वाह-वाही करेंगे। यह है तुम्हारे कुल सपनों की हकीकत। इससे आगे का कौन सा सपना है? तो यह तो है नीला ज़हर।
और पीला ज़हर क्या है? पीला ज़हर वो है जो आजकल अध्यात्म के नाम पर बिक रहा है। उस पीले ज़हर के कुछ लक्षण बताएं देता हूँ- दो-चार तरह की क्रियाएं करने लग जाओ या कोई आश्रम या कोई मठ में जाकर बैठ जाओ, फलाने तरह की दीक्षा ले लो, नाम बदल दो, एक ख़ास प्रकार का आचरण करने लग जाओ। आध्यात्मिक कहलाते हुए भी आध्यात्मिक किताबों को पढ़ने पर बिल्कुल पाबंदी रखो, पढ़नी ही नहीं है आध्यात्मिक किताबें।
नए-नए तरीके के तथाकथित आध्यात्मिक जुमले में बातें करो। भारतीय हो तब भी अपनी मातृभाषा, अपनी क्षेत्रीय भाषा: हिंदी, कन्नड, बंगाली, पंजाबी में नहीं; अंग्रेजी स्पिरिचुअलिटी चलाओ। जीवन को ही ध्यानमय मत बनाओ, मेडिटेशन सीखो! नहीं मेडिटेशन नहीं 'मेडिटिशन' अंग्रेजी एक्सेंट जरूरी है। तुम लोगों का अध्यात्म, ध्यान कुछ नहीं होता। यह है पीला ज़हर।
अब मैं तुम्हें किस तरफ जाने की सलाह दूँ? तुम्हारे सपनों की नगरी में या तुम्हारे संन्यास के आश्रम में? दोनों ही जगहें एक से बढ़कर एक ज़हरीली जगहे हैं। लेकिन तुमने ज़िद्द पकड़ रखी है कि दो में से किसी एक जगह पर होना ही होना है बल्कि तुम तो चाहते हो कि दोनों जगहों पर एक-एक पाँव रहे तुम्हारा। कह रहे थे न अभी बैलेंस, संतुलन, फिफ्टी-फिफ्टी! सपनों की दुनिया भी चले और झूठे संन्यास की दुनिया भी चले। नीला, पीला ज़हर बिल्कुल आधा-आधा मिलाकर पीना है और उसको तुम नाम देते हो वही तो अमृत है। अमृत माने नीला और पीला, आधा-आधा।
पागल! पूरा नीला पियोगे तो भी मरोगे, पूरा पीला पियोगे तो भी। आधा नीला पियोगे, आधा पीला पियोगे तो भी मरोगे। दस प्रतिशत नीला, नब्बे प्रतिशत पीला पियोगे तो भी मरोगे। दस प्रतिशत पीला, नब्बे प्रतिशत नीला पियोगे तो भी मरोगे। तुम जिस आयाम पर गति कर रहे हो वह आयाम ही जान गँवाने का है, जीवन गँवाने का है।
एक तरीके के बहके हुए लोग वो होते हैं जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए मरे जा रहे हैं और दूसरे तरीके के बहके हुए लोग वो होते हैं जो कहते हैं हम तो आध्यात्मिक हो गए हैं। हमने संन्यास वगैरह ले लिया है, अब हम पूजा-पाठ-कीर्तन करते हैं, ध्यान लगाते हैं और ख़ासतौर पर मेडिटेशन करते हैं।
इन दो पागलों में से मैं किस पागल को कम पागल बोलूँ? और तुम चाहते हो कि तुम इन दो पागलों का सम्यक मिश्रण बन जाओ। तुम चाहते हो कि तुम इन दो पागलों के बीच एक मध्य बिंदु पर स्थापित हो जाओ। शाबाश! यह जो तुम्हारा दोस्त है, यह जो भी बातें करता है- पढ़ाई नहीं करनी है, दुनिया छोड़ देनी है, ये अभी जो कुछ भी करता है, वो मूर्खता है ही पर वह दुनिया छोड़कर अगर तुम्हारी सपनों की दुनिया में वापस आ गया तो वह भी बराबर की मूर्खता होगी।
अध्यात्म का मतलब होता है इसी दुनिया में तमीज़ से जीना।
बात समझने में बहुत कठिन है क्या?
संन्यास का भी असली मतलब यही है- सही जीना। जो चीज़ जहाँ रखी जानी चाहिए उसको वहीं पर रख देना।
न्यस्त कर देना, इसका मतलब होता है संन्यास।
संन्यास माने यह सब नहीं होता कि काला पहन लिया, कि सफेद पहन लिया, कि पीला पहन लिया, हरा पहन लिया या सब उतार दिया और फिर इधर-उधर घूम रहे हैं और अपने आप को कुछ योगी या मॉन्क बता रहे हैं। यह पागलपन है! यह सपनों का संन्यास है। दुनिया में जीने की तमीज़ रखो भाई! तमीज़ समझते हो?
एक सौंदर्य होना चाहिए, एक लयबद्धता होनी चाहिए, एक संगीत होना चाहिए, उसे अध्यात्म कहते हैं। जी ऐसे रहे हो कि दुनिया में तो हो और पूरे तरीके से दुनिया में हो, दुनिया की रग-रग से वाकिफ़ हो, दुनिया के हर दाँव-पेंच समझते हो लेकिन फिर भी तुम्हारी हस्ती को देखकर पता चलता है दुनिया से थोड़ा बाहर के हो; यह है आध्यात्मिक आदमी। दुनिया में तो हो पर दुनिया के गुलाम नहीं हो यह है आध्यात्मिक आदमी। जी तो रहे हो पर तुम्हें देखने से ही प्रमाण मिल जाता है, तुम्हारे कर्मों से ही सूचना मिल जाती है की जन्म-मरण के पार की किसी चीज़ के संपर्क में हो तुम। जैसे कोई बहुत गहरा राज़ है, जो खुल गया है तुम पर, यह होता है आध्यात्मिक आदमी।
न तो आध्यात्मिक आदमी वह है जो ताबड़तोड़ दौड़ रहा है सपनों के पीछे। डू इट! डू इट! यू कैन गेट इट! चलो-चलो अपने सपने हासिल करो! वह फूहड़ है, वह बद्तमीज़ है, उसे जीवन जीने की तमीज़ नहीं है और न ही आध्यात्मिक आदमी वो है जो चोंगा-चोला डालकर के इधर-उधर की बातें करने लग गया है, दूसरे लोकों की कहानियाँ सुनाने लग गया है, साँप उड़ा रहा है, सूअर तैरा रहा है, जादू-टोना-चमत्कार बता रहा है। यह सब अध्यात्म नहीं होता।
अभी अजीब विक्षिप्त हालत है। यह जो सपनों के लोक में रहने वाले लोग हैं, यह कह रहे हैं, 'ज़िंदगी इसलिए है कि तुम उठ खड़े हो और दौड़ लगा लो' और जो योग वगैरह की दुनिया में रहने वाले लोग हैं वह कह रहे हैं, 'अरे! ज़िंदगी तो ज़िंदगी, मौत भी इसलिए है कि मुर्दे को खड़ा करके दौड़ लगा दो।' वो बता रहे हैं मुर्दा भी खड़े होकर दौड़ लगा सकता है, यही तो अध्यात्म है। अरे! बिल्कुल ही फूहड़ हो क्या? क्या बातें कर रहे हो तुम? इसके इलावा कुछ नहीं सूझता? इधर को निकल लो, उधर को चलो, इधर को दौड़ लगा लो। आँख खोल कर देखोगे भी या दौड़ते ही रहोगे? अध्यात्म आँख खोलकर देखने का नाम है। बात समझ में आ रही है?
क्या छोड़ना है अध्यात्म में? मूर्खताएँ छोड़नी हैं, अंधेरा छोड़ना है, अंधापन छोड़ना है। घर को पकड़ने का नाम अध्यात्म नहीं, घर को छोड़ने का भी नाम अध्यात्म नहीं है बाबा! पैसा पकड़ने का नाम अध्यात्म नहीं, पैसा फेंक देने का नाम भी अध्यात्म नहीं है बाबा! विपरीत लिंगी से, आदमी से औरत से जाकर चिपक जाना भी अध्यात्म नहीं है, पर विपरीत लिंगी से घृणा करना, उससे कहना कि तू दो फुट दूर रह, यह भी अध्यात्म नहीं है!
फिर दोहरा रहा हूँ- हमारे सपने और हमारा तथाकथित अध्यात्म और संन्यास यह सब एक ही आयाम के हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इन दोनों में से कुछ भी असली नहीं, ख़रा नहीं।
असली चीज़ है 'जानना', 'समझना'। जी रहे हो तो यह बात तो सही ही लगती है न कि ज़िंदगी को जानो!
और ज़िंदगी क्या है? यही तो हमारे रिश्ते, हमारी भावनाएँ, हमारे विचार, हमारी चिंताएँ, हमारी कल्पनाएँ, हमारे सपने - इनको जानो, इनको समझो यही अध्यात्म है।
जानते हुए जो कुछ भी करोगे वह सही ही होगा और एक बात का ख़्याल रखिएगा जानने का भ्रम होना बहुत आसान है, शब्द बड़ा धोखा देते हैं। कई बार किसी चीज़ के लिए आपके पास एक शब्द होता है तो आपको लगने लग जाता है कि आप उस चीज़ को जानते हो। प्रयोग करके देखिएगा।
कोई साधारण-सा वाक्य उठाइएगा जो आपके मन में तैर रहा हो और उसको पकड़ लीजिएगा, कहिएगा, 'इसमें शब्द तो है, उन शब्दों से मेरा परिचय है पर यह चीज़ क्या है?' क्या मैं उस चीज़ को जानता हूँ और आपको पता चलेगा कि आप उस चीज़ को बिल्कुल नहीं जानते। आप वाक्य से परिचित हो, आप शब्द से परिचित हो, वह शब्द वास्तव में किधर को जा रहा है आप बिल्कुल नहीं जानते।
अध्यात्म का मतलब है अंधा जीवन नहीं जीना है। अध्यात्म का मतलब है ज़िंदगी में प्रेम होना चाहिए। ज़िंदगी किसी ऐसे को समर्पित करके जीनी है, जो प्रेम के काबिल हो, कोई ऊँचाई, कोई लक्ष्य होना चाहिए जीवन में। कोई केंद्र होना चाहिए जीवन का। कोई ख़री बुनियाद होनी चाहिए जीवन की- यह अध्यात्म है।