कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्न: सर, ये कहा जाता है कि ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’, ये कहाँ तक सही है?

वक्ता: ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’, जिस प्रकार से ये कही गई है, वैसे लगता है कि जीवन व्यापार है और उसमें अगर सफलता पानी है, तो नींद खोनी पड़ेगी। अगर पैसा कमाना है, तो रिश्ते खोने पड़ेगे। उसमें हमेशा ज़ीरो-सम गेम (ऐसा खेल जिसका नतीजा शून्य होता है) होता है कि कहीं पर अगर प्लस वन (+१) करना पड़ेगा, तो कहीं पर माइनस वन (-१) भी करना पड़ेगा। उसका जो सम (जोड़) आयेगा, वह हमेसा शून्य होगा। ये तो उसका एक अर्थ हो गया कि ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।’ ये पूरी–पूरी व्यापार की भाषा है। इसमें कुछ खास बात नहीं है।

और अगर तुमने कुछ कर भी लिया, यह वैसी ही बात है कि अगर तुम कुछ खरीदने गए कहीं पर, और तुमने कुछ पाया, और बदले में तुमने अपने वॉलेट से एक नोट खोया। तो उसमें कुछ खास बात नहीं है। असल में, अगर सही हो, तो भी हमारे किसी काम की नहीं है।

अब दूसरे तरीके से लेते हैं। मैं इसको इस तरह से कहूँगा कि जो तुम्हें मिला ही हुआ है, जो तुमने पाया ही हुआ है, उसको जानने के लिए, जो झूठ है, उसको खोना पड़ता है। अब गर्मियां आ रही हैं। ये पत्ते हैं। और हम सब जानते हैं कि सड़क के किनारे जो पेड़ होते हैं, उनकी क्या हालत होती है। धूल ही धूल जम जाती है। धूल जमी हुई है पत्ती के ऊपर। पत्ती खूबसूरत है – हरे रंग की है। चमक सकती है। लेकिन उसको अपनी चमक देखनी है तो उसको धूल को खोना पड़ेगा। अब यहाँ पर उसको चमक पानी नहीं है। उसको मिली हुई है। उसको पाना नहीं है।

जो तुमको मिला हुआ है, तुमको उसको जानना है।

जो तुम हो ही अगर वह तुमको जानना है, तो तुमको वह खोना पड़ेगा जो नकली है और जो बाहर से आकार तुम्हारे ऊपर बैठ गया है। उसी को हम कंडीशनिंग का भी नाम देते हैं। ये मत कहो कि ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’, ऐसे समझो, जो तुम ने पाया हुआ ही है, जो तुम्हारा स्वभाव है, उसको जानने के लिए वह सब छोड़ना पड़ता है, रिजेक्ट करना पड़ता है, ठुकराना पडता है, जो नकली है और जो उधर-इधर से संयोग वश मिल गया था।

“टू नो योर रियल नेचर, यू नीड टू गेट रिड ऑफ योर कंडीशनिंग” – अपना असली स्वभाव जानने के लिए, आपको अपनी कंडीशनिंग को ठुकराना होगा।

तो क्या खोया? – कंडीशनिंग। लेकिन क्या असली स्वभाव वास्तव में पाया? पाया तो बाहर से जाता है। पाया नहीं, वह मौजूद था। वह सिर्फ़ छुपा हुआ था। लेकिन जो खोया, वो खोया ही नहीं। व्यापार में जो खोया, वह खोया नहीं, वहाँ पर तो बस व्यापार किया।

जो मन पर मान्यताएं जमा हो गई हैं, कंडीशनिंग जमा हो गई है, उसको खोना है। जो सर पर बोझ लेकर चलते रहते हो, जो दिन-रात विचार चलते रहते हैं, जिन डरों में जीते रहते हो, उनको खो कर के कुछ नया नहीं मिल गया; वो खो करके, वह चीज़ सामने आजाएगी, आत्म-स्वभाव ही है।

इसका मतलब जानते हो? इसका मतलब ये है – पाने के लिए कुछ खास है ही नहीं, क्योंकि जो सबसे कीमती है, वह तुमको मिला हुआ है पहले से। बस कंडीशनिंग खोने के लिए है। *(इट इस नॉट अबाउट गेनिंग एनीथिंग, द रियल थिंग, द इम्पोर्टे*न्ट *थिंग इज़ टू लूज़)*।

जिन्होंने वास्तव में जाना है, वह कभी कुछ पाने की, कुछ हासिल करने की बात नहीं करते। वो खोने की बात करते हैं। क्योंकि ‘जो कीमती है, वह तो मेरे पास ही है’। असली हीरा तो मेरे पास है ही, बस ज़रा मिट्टी की परतों से ढक गया है। इस मिट्टी को साफ़ करना है। मिट्टी के हटते ही, हीरे की चमक वापिस दिखाई पड़ेगी। मिट्टी के ढेर से लदे होने के कारण हीरा अपनी चमक नहीं खो देता है। मिट्टी हटा दीजिये, चमक वापिस दिखाई देगी।

हमारे ऊपर भी बस वह धूल इकट्ठा हो गई है। कुछ जोड़ना नहीं है। कि कुछ पाना है, पाना है। – और उपलब्धियां, और उपलब्धियां, और लक्ष्य, और तरक्की!

कुछ पाना नहीं है, हटाना है। हटा दिया।

पत्ती वापिस से चमक रही है। हीरा वापिस से चमक रहा है। बढ़िया। अब आप हलके हैं, आप नाचेंगे।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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