अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया || ४, ६ ||
मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक ६
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। इस श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं कि "मैं समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।"
आचार्य जी, सामान्यतः हम इस शब्द, 'योगमाया', को सुनकर कोई जादुई सी छवि बना लेते हैं। क्या श्रीकृष्ण किसी जादुई योगमाया की बात कर रहे हैं या इसका कुछ और अर्थ है जो संसार की बुद्धि से परे की बात है? कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: श्रीकृष्ण मात्र प्रकट ही अपनी योगमाया से नहीं होते, वो अप्रकट हैं—यह भी योगमाया है। ये संसार है पूरा, यह भी योगमाया है। माया ही समूची श्रीकृष्ण की है। मतलब क्या है, समझना।
मूल माया है अहम् की ये धारणा कि वो अपूर्ण है। मूल माया है संसार का खंड-खंड दिखना। अहम् भी खंडित है और संसार में जो कुछ है, सब खंडित है, कुछ भी अनंत नहीं है, कुछ भी असीम नहीं है—यह मूल माया है। संसार का होना ही मूल माया है; क्योंकि संसार में जो कुछ है, सब खंडित है। अगर ये खंड माया हैं तो माने पूरा संसार माया है।
अगर हम कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण अनंत हैं, तो जो कुछ भी सांत है, अंतयुक्त है, वो सब मायावी ही हुआ न? माया माने वो जो होता प्रतीत होता है पर है नहीं। अगर सत्य वो है जो अनंत है, तो इस संसार में हमें कुछ भी अनंत होता नज़र आता नहीं न? इसलिए संसार को कहते हैं माया। संसार में सब टुकड़े-टुकड़े हैं, हर टुकड़ा कहीं शुरू होता है, कहीं ख़त्म होता है; अंत है हर चीज़ का, सीमा है। सत्य अनंत है, असीम है, अखंड है।
ये जो पूरा संसार खंडित-खंडित नज़र आता है, किसको? जो स्वयं भी खंडित है। संसार खंडित है, इसकी गवाही कौन दे रहा है, ये कह कौन रहा है? आप ही कह रहे हो न? आप कह रहे हो; मूल रूप से खंडित और अपूर्ण आप हो। आप खंडित और अपूर्ण हो, सामने संसार दिखाई देता है, वो भी खंडित और अपूर्ण। और ये जो भीतर खंडित होने की और अपूर्ण होने की भावना है, वो कहती है कि संसार का ही कोई खंड मिल जाएगा जो मेरी अपूर्णता को भर डालेगा। ये सारा खेल माया का चल रहा है।
दुनिया में जो कुछ है, सब क्या है? टुकड़ा-टुकड़ा। मैं क्या हूँ? टुकड़ा। तो कोई टुकड़ा तो मिल जाएगा न जो यहाँ फ़िट होगा। और जब वो मिल गया मुझे और उससे साथ हो गया मेरा, तो उससे मैं क्या हो जाऊँगा? पूर्ण। ये माया है।
अब अहम् तलाश रहा है पूर्णता को। जहाँ पूर्णता तलाश रहा है, वहाँ है नहीं। कहीं भी पूर्णता उसे मिल ही नहीं सकती। अपने ही आयाम में तलाशेगा न? पूर्णता मिलने का उसके पास एकमात्र ज़रिया क्या है? वो पूर्णता तलाशना ही बंद कर दे, वो कह दे, “जहाँ तलाश रहा हूँ, जिन चीज़ों में तलाश रहा हूँ, वो चीज़ें मुझे पूर्ण कर नहीं सकती।” अगर वो चीज़ें नकली हैं, तुम्हें पूर्ण नहीं कर सकती तो साथ-साथ और कौन नकली हुआ? तुम नकली हुए। ये पूर्णता है, ये है कृष्ण की योगमाया।
कृष्ण की योगमाया क्यों है? क्योंकि जब अहम् नहीं है तो आत्मा है। तो अहम् भी फ़िर कहाँ से आया होगा? आत्मा ही है जो अपनी ही स्वेच्छा से अहम् बनकर घूम रही है, लीला कर रही है। सत्य यदि आत्मा मात्र है तो जो कुछ भी है, वो कहाँ से आ रहा है? आत्मा से ही आ रहा है। यहाँ तक कि ये सब जो माया दिखाई दे रही है, ये भी कहाँ से आ रही है? तो असत्य बेचारे की तो बड़ी दुर्दशा, बड़ी मजबूरी है। असत्य को भी आना कहाँ से पड़ेगा? सत्य से ही आना पड़ेगा। असत्य का भी आधार क्या है? सत्य।
ये बात तो हमें रोज़मर्रा के जीवन में भी दिखाई देती है न। असत्य कभी यह कहता है कि 'मैं असत्य हूँ'? असत्य भी ज़माने में इसीलिए चलता है क्योंकि बोलता है कि वो सत्य है। झूठा कभी बोलता है कि 'मैं झूठा हूँ'? जिसको अपना झूठ चलाना है वो ये बोलेगा, “मैं सच बोल रहा हूँ।” यही है बात कि अहम् भी आत्मा से ही आता है।
आत्मा की ही लीला को अहम् कहते हैं, इसी बात को दूसरे शब्दों में कह देते हैं कि कृष्ण की लीला को माया कहते हैं। आत्मा की स्वेच्छा को अहम् कहते हैं, इसी बात को कहने का दूसरा तरीका है कि कृष्ण की लीला को माया कहते हैं।
प्र२: कर्ता है ही नहीं तो बंधन फ़िर किसके हैं?
आचार्य: आपके लिए नहीं है क्या कर्ता? आप तो हैं न कर्ता अपनी दृष्टि में? तो फ़िर क्यों कह रहे हैं कि कर्ता नहीं है? वो मुझे कहने दीजिए। आप क्या कहेंगे? आप ईमानदारी से अपने जीवन को देखेंगे तो क्या कहेंगे? “मैं सब कामों का कर्ता हूँ।” तो आप कर्ता हैं, और बंधन हैं, और आपको उनसे आज़ाद होना है। बस इतनी सी बात है। इसको पकड़ लीजिए।
बहुत बातें संतजन, ऋषिजन अपने हाल का ब्यौरा देते हुए कहते हैं, वो बात आपकी नहीं हो गई। उन्होंने कह दिया, "अहम् ब्रह्मास्मि।" भाई, अपनी बात कर रहे हैं। वो ब्रह्म हैं, आप नहीं ब्रह्म हो गए। ये उनकी चेतना का स्तर है कि वो कह पाएँ कि अहम् ब्रह्मास्मि। आपने कहा, “बढ़िया। अहम् ब्रह्मास्मि।” वो हैं ब्रह्म, आप नहीं हो गए। आप अभी ईमानदारी से यही कहिए कि “अहम् भ्रमास्मि, मैं भ्रम हूँ।”
(श्रोतागण हँसते हैं)
नहीं तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। भ्रम अपने-आप को ब्रह्म बोल रहा है और मज़े ले रहा है ब्रह्म बोलने के। जैसे अभी आपने बोला, “कर्ता भी नहीं है, अकर्ता भी नहीं है।” अरे, कैसे नहीं है? खुलेआम है, साफ़-साफ़ है।
अध्यात्म का यह नहीं मतलब होता कि ज़मीनी हकीक़त को बिलकुल झुठलाने ही लग गए कि मैं हूँ ही नहीं, “आचार्य जी, मैं तो माया हूँ, मैं हूँ ही नहीं।” तो ये पकौड़े कौन खा रहा है? ये खूब चलता है अध्यात्म में, “आइ डू नॉट एग्ज़िस्ट, ओनली ट्रुथ एग्ज़िस्ट्स” (मैं हूँ ही नहीं, केवल सत्य मात्र है)।
प्र३: आत्मा को सुख-दुःख के साथ कोई लेना-देना नहीं है। देह को देखें तो उसको कोई अनुभव नहीं होते। तो फ़िर ये सब अनुभव जो होते हैं सुख-दुःख के वो अहम् से होते हैं...
आचार्य: अनुभोक्ता को होता है, अहम्।
प्र३: और देखा जाए तो अहम् भी सच नहीं है, झूठा है, मतलब वो स्वयं से प्रकट नहीं है।
आचार्य: ऋषियों के लिए झूठा है, हमारे लिए नहीं है। हमारे लिए अहम् हमारी ज़िन्दगी है, भाई। झूठा कैसे हो गया? जिन्होंने अहम् को साफ़-साफ़ झूठा जाना, उनकी निशानी ये है कि उनकी ज़िन्दगी में अहम् अब नज़र नहीं आता। जिसकी ज़िन्दगी में नज़र न आए, सिर्फ उसको हक़ है कहने का कि अहम् झूठ है। आपकी ज़िन्दगी में अहम् है या नहीं है?
प्र३: है।
आचार्य: तो आप क्यों कह रही हैं कि अहम् झूठ है? सैद्धांतिक तौर पर कह रही हैं?
प्र३: ये फ़ील (अनुभव) कौन कर रहा है?
आचार्य: क्या फ़ील करना?
प्र३: सुख-दुःख जो हमें अनुभव होते हैं, वो सच में कौन कर रहा है?
आचार्य: शरीर को पीड़ा होती है, उस पीड़ा को अर्थ अहम् देता है। अहम् की एक ख्वाहिश है, क्या? पूर्णता मिल जाए। वो शरीर के माध्यम से पूर्णता पाना चाहता है। तो शरीर में जो भी घटना घटती है, वो अहम् के लिए सार्थक घटना होती है, इस अर्थ में कि अहम् उसमें कुछ-न-कुछ अर्थ देखता है, मीनिंग देखता है।
शरीर की हर पीड़ा अहम् को बुरी भी नहीं लगती। पीड़ा सदा दुःख नहीं बनती, कुछ पीड़ा सुख भी कहलाती है। और शरीर के सब सुख अहम् के लिए सुख नहीं बनते। कुछ चीज़ें जो शरीर को सुख देती हैं, अहम् कहता है, “नहीं, इनसे तो मुझे कुछ मिल नहीं रहा।”
अहम् अनुभोक्ता है। सब अनुभवों को वह अपने रंग में रंगता है।
(प्रश्नकर्ता से पूछते हुए) क्या समझ में नहीं आ रहा? समझ में तो नहीं ही आ रहा है।
प्र३: नहीं, आ गया।
आचार्य: अब ऐसे समझिए। अंतर समझिएगा पीड़ा और दुःख में। कोई युवा लड़की है, उसका अहम् बिलकुल किस बात से जुड़ा हुआ है? एक घिसापिटा उदाहरण ले रहे हैं, सब लड़कियों का नहीं जुड़ा होता, एक क्लीशेड (आम) उदाहरण है। उसका अहम् किससे जुड़ा हुआ है? देह से, कि "मैं खूबसूरत कितनी दिख रही हूँ"। पीड़ा और दुःख का अंतर समझ रहे हैं कि कैसे अहम् पीड़ा को दुःख में परिवर्तित करता है।
वो कहीं फिसल कर गिर गई। उसको दो जगह खरोंच आई। एक उसको खरोंच आई है पीठ में, जहाँ कोई नहीं देखने वाला थोड़ी सी खरोंच और दूसरी उसको खरोंच आई है गाल पर। खरोंच दोनों जगह पर बराबर की है और दोनों ही जगह पीड़ा उसे बराबर की हो रही है। शारीरिक दृष्टि से दोनों जगह बिलकुल बराबर खरोंच आई है और दोनों जगह शारीरिक दृष्टि से उसे पीड़ा बराबर की हो रही है। दुःख कहाँ ज़्यादा हो रहा है?
श्रोतागण: गाल पर।
आचार्य: ये पीड़ा और दुःख का अंतर है। अहम् ने अपने-आप को यह कह रखा था कि "मुझे पूर्णता मिलेगी दूसरों की तारीफ़ से।" अहम् ने अपने-आप को क्या बता रखा था? “मैं अपूर्ण हूँ, और दूसरे आकर वाहवाही करेंगे, कहेंगे 'कितनी सुन्दर हो!' तो मुझे पूर्णता मिल जाएगी।” गाल पर जो खरोंच हुआ है, इससे अहम् के इरादों पर चोट लगी इसलिए उसे दुःख हो रहा है। इस दुःख का शारीरिक पीड़ा से बहुत लेना-देना नहीं है।
इसी तरीके से हो सकता है कि कोई साधक हो जो शारीरिक तल पर बड़ी पीड़ा झेल रहा हो, लेकिन वो पीड़ा उसे आतंरिक आनंद देती हो। पीड़ा वो शरीर की झेल रहा है लेकिन उसे आतंरिक आनंद मिल रहा है उस पीड़ा के कारण।
तो ये जो अनुभोक्ता है, ये शरीर से अलग है, शरीर से जुड़ा हुआ है लेकिन ये अपनी अलग सत्ता रखता है। तो शरीर में भी जो कुछ हो रहा होता है, ये उसमें अपने मुताबिक रंग भरता है।
प्र४: आचार्य जी, अगर मुक्ति की ओर हम बढ़ रहे हैं तो उसकी कुछ निशानी होती है जिससे हमें पता चल सके कि हम सही राह पर चल रहे हैं?
आचार्य: एक तो यही है कि डर लगना बंद हो जाता है। चेहरा बदलने लगता है। आसपास के जो भूतप्रेत होते हैं, वो ख़ुद ही दूर भाग जाते हैं। जीवन में कुछ अच्छे लोगों का आगमन होता है। सब बदलने लग जाता है। कुछ बातें जो पहले साफ़ नहीं दिखाई देती थीं, उलझे-उलझे रहते थे, वो बिलकुल साफ़ दिखाई देने लगती हैं। एक दृढ़ता आ जाती है मन में, निर्णय करना आसान और स्पष्ट होने लगता है। ये सब लक्षण हैं।
आमतौर पर जो सबसे सीधा लक्षण होता है, वो होता है भय का कम होना। और भी लक्षण होते हैं, कोई और लक्षण भी हो सकते हैं। पर असर रोज़मर्रा के जीवन पर दिखाई ज़रूर देता है। ऐसा नहीं हो सकता कि आप आध्यात्मिक उन्नति कर रहे हों और आपका जीवन पुराने का पुराना रह जाए। बिलकुल साफ़ लक्षण दिखाई देंगे।