यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रता:। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।
देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितृों को पूजने वाले पितृों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक २५
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये पितृ, ये भूत, इन सबका क्या अर्थ है?
आचार्य प्रशांत: ‘भूत’ माने भूत (पिशाच) नहीं, ‘भूत’ माने पदार्थ। भूतों को कौन पूजता है?
"देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितृों को पूजने वाले पितृों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता।"
देवताओं को पूजने से क्या आशय है? देवता क्या हैं? आपके ही द्वारा कल्पित एक अति सुंदर छवि। वे सुंदर भी हैं और सामर्थ्यशाली भी हैं। आपके जितने भी देवता हैं, बड़े सबल देवता हैं न — कोई पूरी दुनिया में आग लगा सकता है, कोई पूरी दुनिया को नष्ट कर सकता है, कोई पानी बरसा सकता है, कोई सब जानवरों का नियंता है, कोई व्याधियाँ बरसा सकता है, कोई व्याधियों से मुक्त कर सकता है — तो ये सब देवता लोग हैं।
तो श्री कृष्ण कह रहे हैं, "देवताओं को पूजोगे तो जो छवि तुमने पाई है, तुम उस तक पहुँच जाओगे।" देवता मनुष्य की एक कामना ही है। वरुण के पास, इंद्र के पास, मारुत के पास अगर हवा, पानी पर नियंत्रण है तो क्या वही नियंत्रण आज के इंसान ने नहीं पा लिया? आज क्या तुम कृत्रिम रूप से कहीं भी वर्षा नहीं कर देते हो? आज जो तुम कर देते हो, यह कर पाने की कामना तो हममें हमेशा से रही होगी न? तब कर नहीं पाते थे तो तब हमने इस कामना को पूजना शुरू कर दिया। तब हम प्राकृतिक शक्तियों पर नियंत्रण कर नहीं पाते थे लेकिन नियंत्रण कर पाने की कामना बहुत बड़ी थी। जो कामना बहुत बड़ी होती है, उसके सामने तुम बिलकुल झुक गए न? इच्छा ही इतनी बड़ी कि उसके सामने झुक गए। यही देवताओं का पूजन हुआ।
देवताओं के पूजन का तात्विक अर्थ यही है कि तुम अपनी कामनाओं की ही पूजा कर रहे हो।
और बिलकुल सही कहा था श्रीकृष्ण ने कि कामना की पूजा करते-करते अंततः तुमने वह अपनी कामना भी पूरी कर ही डाली। आज अग्नि देव की उपासना करने का कोई लाभ है? आज तो अग्नि के तुम स्वामी हो, हो कि नहीं? पूरे स्वामी नहीं हो, लेकिन दो हज़ार साल पहले के आदमी का अग्नि पर जितना नियंत्रण था, उससे बहुत-बहुत ज़्यादा नियंत्रण आज हमारा है कि नहीं है? आज तो हमने अग्नि को अपनी सेवा के लिए इस्तेमाल कर रखा है। तुम्हारी कार किससे चलती है? इंजन में अग्नि है। यह जो सारा ईंधन है टंकी में, उसके सिलेंडर में क्या होता है? कम्बस्चन (ज्वलन) होता है, जलाया जाता है, आग लगाई जाती है, उससे तुम्हारी गाड़ी चल रही है। तो अग्नि देवता को तो तुमने अपनी सेवा में लगा दिया, वो तुम्हारी गाड़ी के ड्राइवर (चालक) हैं आज।
यही बात श्रीकृष्ण यहाँ पर कह रहे हैं कि देवताओं की पूजा करोगे तो देवताओं को प्राप्त हो जाओगे। अग्नि देवता की हमने खूब पूजा करी न, देखो आई.सी. इंजन मिल गया, देखो न्यूक्लियर रिएक्टर (नाभिकीय भट्टी) मिल गया। सबसे ज़्यादा अग्नि इंसान कहाँ देखता है? एक आम इंसान अपने जीवन में सबसे ज़्यादा आग कहाँ देखता है? सूरज में। और सूरज में क्या चल रहा है? न्यूक्लियर फ्यूज़न (नाभिकीय संलयन)। तो वो काम आज तुम अपने रिएक्टर में कर रहे हो कि नहीं कर रहे हो? कर ही नहीं रहे हो, उससे तुम ऊर्जा निकाल रहे हो, उससे तुम्हारी अपनी बत्तियाँ जल रही हैं। तुमने रातों को सूरज निकाल दिया। अब अग्नि की उपासना क्या, अग्नि तो तुम्हें प्राप्त हो गई।
यही बात श्रीकृष्ण ने उस समय कह दी थी, आज से तीन हज़ार साल पहले, कि जिन देवताओं की पूजा करोगे, उन देवताओं को तुम प्राप्त कर लोगे। वह बात बहुत हद तक सार्थक होती भी दिख रही है आपके सामने ही। जो चाहा, वह मिल गया। प्राकृतिक शक्तियों की उपासना की, प्राकृतिक शक्तियों के स्वामी हो गए। चंद्रदेव पर गए और पाँव जमाकर खड़े हो गए हो। तब क्या थे? चंद्रदेव। अभी चंद्रदेव के ऊपर खड़े हुए हो और कह रहे हो कि इनसे कौन-कौन से खनिज खोदने हैं और वापस ले आने हैं पृथ्वी पर। अब चंद्रदेव तुम्हारे सेवक हो गए कि नहीं हो गए? वो अब तुम्हारी आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं। इसी तरीके से अन्य भी जो हैं, बृहस्पति देवता, मंगल देवता, कुछ ही दिनों में पाओगे कि आदमी वहाँ पर रोबोट भेजकर खुदाई करवा रहा है और उन सब देवताओं से माल ले-लेकर पृथ्वी पर डाल रहा है।
यही बात श्री कृष्ण बहुत पहले समझा गए थे कि जिन देवताओं को चाहोगे, उन देवताओं को पा लोगे। और हमारे सब देवता प्राकृतिक शक्तियों के ही निरूपण हैं। देवता और कुछ नहीं हैं, प्रकृति की ही शक्तियों को हमने कामना के भाव से देखा तो उत्पत्ति हुई देवताओं की।
आगे कहते हैं कि पितृों को पूजने वाले पितृों को प्राप्त होते हैं। पितृ माने पीछे वाले, जिनसे तुम आए हो। पितृों से अर्थ हो सकता है परंपरा, पितृों से अर्थ हो सकता है प्रकृति, पितृों से अर्थ हो सकता है वृत्ति। तुम परंपरा को पूजोगे, तुम प्रकृति को पूजोगे, तुम वृत्ति को पूजोगे, तुम पा लोगे। क्यों पूजते थे तुम पितृों को? भाव क्या रहता था? "हम उनसे आए हैं।" तो देखो आने-जाने पर तुमने कितना आज नियंत्रण पा लिया। एक समय था जब प्रकृति निर्धारित करती थी कि कौन आएगा, कौन जाएगा। आज आदमी निर्धारित करता है जन्म और मृत्यु दोनों। पति-पत्नी हो सकता है दोनों ही बंध्या हों बिलकुल, लेकिन कोई नहीं रोक सकता उन्हें संतान पैदा करने से। पहले कौन आ रहा है, इसका फैसला करते थे पितृ। भाई, पितृों से ही तो आए हो न? पितृ की पूजा करने का अर्थ है उनकी पूजा करना जिससे तुम आए हो शारीरिक तल पर। आज शारीरिक तल पर तुमने पूरा नियंत्रण पा लिया तो पितृों की पूजा सार्थक हो गई। यही श्री कृष्ण कह रहे थे।
इसी तरीके से मृत्यु पर भी आज आदमी ने बहुत वश पा लिया है। इतना आसान नहीं है मौत के लिए किसी को भी उठा ले जाना। हाँ, सड़क दुर्घटना ही हो जाए, तुम्हारा खोपड़ा ही सड़क पर बिलकुल पिस जाए तो बात अलग है, अन्यथा सब तरह की बीमारियों से आज इंसान ने लड़ लिया है। औसत आयु विकसित देशों में अस्सी पार कर रही है। औसत आदमी जी रहा है अस्सी साल से ज़्यादा। और इस औसत में अकाल मृत्यु इत्यादि जो होती हैं, वो सब शामिल हैं। ये दुर्घटना हो गई या किसी की हत्या हो गई जवानी में, उन सबको भी मिला लिया जाए तो भी औसत अस्सी पार का आ रहा है।
तो आदमी ने जन्म की उपासना करते-करते देखो जन्म और मृत्यु पर बहुत हद तक नियंत्रण कर लिया न? आदमी के साथ यही है — जो कामना करेगा, वो कामना पा लेता है अगर वो कामना भौतिक तल की हो। भौतिक तल पर तुम जो भी चाहोगे, उसको आज नहीं तो कल तुम पा ही लोगे। यही बात श्री कृष्ण कह रहे हैं और इस प्राप्ति के ख़तरों से भी तुम्हें आगाह कर रहे हैं आगे चलकर।
कह रहे हैं कि भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं - भूत माने पदार्थ। पंचभूत माने यह पूरी दुनिया जिन चीज़ों से बनी है। तब मानते थे कि पूरी दुनिया बस पाँच ही तत्वों से बनी है। आज आपको रसायन शास्त्र बोलता है कि, "नहीं साहब, पाँच नहीं हैं, एक-सौ-पाँच हैं, एक-सौ-पाँच से भी ज़्यादा हैं।" नए-नए तत्वों की खोज होती ही रहती है हर दूसरे-चौथे साल। तो इनकी पूजा करोगे अगर तो पदार्थों पर तुम्हारा नियंत्रण हो जाएगा। पदार्थों पर तो नियंत्रण हो ही गया है तुम्हारा। हर तरह के पदार्थ का उपयोग आज आदमी कर रहा है न अपनी सुख-सुविधा के लिए? तो देखो, भूतों को पूज-पूजकर भूतों को पा लिया। आदमी जिस चीज़ की कामना करेगा, देर-सवेर उसको पा लेगा।
यही बात खतरनाक है क्योंकि श्री कृष्ण कह रहे हैं कि जिसको तुम पूज रहे हो, उसको तुम पा लोगे लेकिन जिसको तुम पाओगे, उससे तुम्हारा मन भरेगा नहीं, तो तुम जन्म-मरण के आवागमन में फँसे रहोगे। ग़लत चीज़ को पूजोगे तो ग़लत चीज़ को पा भी लोगे—पूजोगे तो पाओगे, माँगोगे तो मिलेगा—लेकिन अगर ग़लत माँगा और ग़लत मिल गया तो तुम्हारी सारी माँग और माँग की प्राप्ति के लिए किया गया तुम्हारा सारा श्रम व्यर्थ गया। अब क्या हुआ? अब तो बहुत बुरा हो गया न?
पहली बात तो चीज़ ग़लत माँगी; दूसरी बात उस ग़लत चीज़ के लिए इतना श्रम किया, और तीसरी बात यह कि श्रम करने पर वह ग़लत चीज़ मिल भी गई और नतीजा ठन-ठन गोपाल। अब उसको लेकर बैठे रहो, मन भरेगा नहीं। अब तुम क्या कहोगे? अब कहोगे, "नहीं, अब दोबारा दूसरी चीज़ माँगते हैं।" यह दोबारा दूसरी चीज़ माँगने को ही मनोवैज्ञानिक तौर पर, संकेत के तौर पर श्री कृष्ण कह रहे हैं 'पुनर्जन्म'।
एक व्यक्ति जो एक चीज़ माँग रहा है, वो उसका एक जन्म है। वह उस वस्तु से, उस ध्येय से, उस भोग्य पूज्य पदार्थ से जब निराश हो जाता है, उकता जाता है और दूसरी वस्तु की कामना करने लगता है तो यह उसका दूसरा जन्म है। और एक चीज़ से जब निराश हो जाओगे तो दूसरी चीज़ माँगोगे ही — यही पुनर्जन्म है। लेकिन जो दूसरी चीज़ भी माँगी है, वह भी ऐसे ही है देवताओं जैसी, भूतों जैसी, तो फिर वहाँ भी तुम्हें निराशा ही हाथ लगेगी, फिर तुम इसी माँगने और चोट खाने के दुष्चक्र में फँसे ही रह जाओगे।
इसके विपरीत कृष्ण कहते हैं कि, "देखो भाई, जब माँग ही रहे हो तो सीधे साहब को ही माँग लो।" जब तुमने इतने हाथ पसार ही दिए हैं कि यह चाहिए और वह चाहिए तो छोटी-छोटी चीज़ें क्यों माँगते हो? सीधे बड़ी चीज़ माँग लो न।
कहते हैं कि, "जो सीधा मेरा भक्त होता है, वह फिर आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है।" और भी बताते हैं बीच-बीच में अन्य श्लोकों में, कहते हैं कि, "तुम कुछ भी माँगो, माँग तो तुम मुझे ही रहे हो। बस यही है कि अज्ञान में फँसे हुए हो तो तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें वास्तव में अभीप्सा न भूतों की है, न पितृों की है, न देवताओं की है; वास्तव में तुम्हें अभीप्सा सत्य की ही है।" उसी सत्य का गीता में नाम है ‘कृष्ण’। गीता के संदर्भ में जहाँ कहीं भी आप कृष्ण लिखा पाएँ तो उसको जानिएगा सत्य।
कह रहे हैं कि, "तुम ये पचासों चीज़ें माँगते रहो, दुनिया भर की सुख-सुविधा, सहूलियतें, भोग्य-पदार्थ, ये कामना, वो कामना, तुम यह सब माँगते रहो लेकिन वास्तव में तुम माँग सत्य को ही रहे हो, कृष्ण को ही रहे हो।" लेकिन कृष्ण को सीधे नहीं माँग रहे तो कृष्ण तुम्हें मिलेंगे भी नहीं। तुम्हें वही मिल जाएगा जो तुमने माँगा है।
तो इंसान की एक बदक़िस्मती तो यह है कि उसे वह मिलता नहीं जो वह माँगता है और दूसरा उसका दुर्भाग्य यह है कि अगर वह ज़्यादा श्रम करे तो उसको वह मिल जाता है जो वह माँगता है। तो अगर तुमने ग़लत चीज़ माँगी तो दोनों दशाओं में दुर्भाग्य ही है तुम्हारा। ग़लत कामना करके अगर तुमने श्रम कम करा तो कामना पूरी नहीं होगी, तो रोओगे कि कामना पूरी नहीं हुई। और अगर ग़लत कामना करके तुमने श्रम खूब कर लिया तो कामना पूरी हो जाएगी या संयोग बैठ गया तो भी कामना पूरी हो जाएगी और फिर रोओगे कि कामना पूरी हो गयी लेकिन इससे वह तो मिला ही नहीं जो चाहिए था। श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि तुम इस बेवकूफ़ी में फँसो मत। इधर (स्वयं की ओर इशारा करते हुए), तेरा ध्यान किधर है? सत्य इधर है, भाई! इधर-उधर ध्यान तुम भटकने ही मत दो।
ध्यान सीधा रहे कृष्ण की ओर — न देवी-देवताओं में फँसो, न पितृों में फँसो, न दुनिया-जहान में फँसो — ध्यान एक जगह रहे। वहाँ ध्यान रखो, बाज़ी तुम्हारी है।