प्रश्न: सर, कई सारे लोग हैं जो पढ़ने के शौक़ीन हैं, पर जो भी हम बाहर से इकट्ठा कर रहे हैं, वो संस्कार ही हैं। तो क्या हमें पढ़ना चाहिए या नहीं चाहिए?
वक्ता: देखिये, ये मत भूलिएगा कि जिस तरह दो तरीके के लोग होते हैं, उसी प्रकार दो तरीके का साहित्य भी होता है। हर तरीके का फिक्शन बकवास है। फिक्शन का क्या अर्थ है? कल्पना। मन वैसे ही कल्पनाओं से भरा हुआ है, आप उसमें और कल्पनाएँ ठूस रहे हो। अपनी कम थीं, कि किसी और लेखक की भी पढ़ लीं? वो कहानी लिख रहा है, और आप वो कहानी पढ़ रहे हो। क्यों? थोड़ा थम के पूछो तो कि ये चल क्या रहा है?
श्रोता: सर, पर फिक्शन से कुछ लोग प्रेरित भी होते हैं जैसे साइंस फिक्शन।
वक्ता: किसलिए प्रेरित? जो पूरी बात चल रही है, वो यही है कि फिक्शन से निजात कैसे पाया जाए। और आप मन को और ज़्यादा कल्पनाओं से भर रहे हो। समझ में आ रही है बात आपको? पढ़ना अपनेआप में कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी किताब लिख सकता है, किताब लिख देने से कोई लेखक नहीं हो जाता। किताब क्या है? मेरे मन का कचरा, जो कुछ है, वो मैंने लिख डाला। हाँ, यह गुण है मेरे पास कि भाषा अच्छी है मेरी। मेरी भाषा अच्छी है, मैंने कचरा उतार दिया और वो बिक रहा है।’’ तो क्या हो गया? और कचरा जितना ज़्यादा सड़ा हुआ है, बिक्री उतनी ज़्यादा होगी। जितन सड़ा हुआ कचरा हो, उतनी ज़बरदस्त बिक्री होगी; ब्लैक में बिकेगी।
उसको छू भर लेने के लिए, उसकी खुशबू के लिए लोग पागल हो जाएँगे, कितना ही सड़ा हुआ कचरा हो। तो किताब देख कर के प्रभावित मत हो जाया करिए कि, ‘अरे! साहब, महाराज लेखक हैं, किताब लिखते हैं!’ अरे! जो जैसे बोला जाता है, वैसे ही किताब भी लिखी जा सकती है। किताब में क्या हो गया विशेष? किताब क्या हैं? आपके शब्द हैं, जो आपके मन से निकले हैं। अगर मन सड़ा हुआ है, तो फिर शब्द कैसे होंगे?
जितना कुछ लिखा हुआ है वो 99.9% कचरा है। आप जो बुक स्टोर में जा कर के किताबें देखेंगी, वो पूरा बुक स्टोर जला दीजिये, कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। देखिये, बात समझिएगा। मैं कोई वकालत नहीं कर रहा हूँ पर समझिएगा। जब भी आदमी ने आँखें खोली हैं, वो सच से इतना भी उत्तेजित हो गया है, उसमें इतनी ऊर्जा भी आ गई है कि उसने ये भी कहा है कि, ‘’मैं दुनिया की सारी बाकी किताबों में आग लगा दूँगा।’’ मुसलमानों ने बहुत दिनों तक ये ही कहा कि एक ही किताब पढ़ने लायक है, क़ुरान। उन्होनें पूरी-पूरी पुस्ताकलायें भी जला दीं। और कारण था उनका। जो कह रहे थे वो, जो कर रहे थे, उनकी बातों में एक सूक्ष्म तर्क था। ठीक था।
कि यही सब न, पढ़ कर के आदमी का दिमाग ख़राब हुआ है, तो हम इन्हें रखें ही क्यों? ‘’मैं भ्रष्ट आदमी हूँ, मैं बोल-बोल के अधिक से अधिक दस आदमियों का दिमाग ख़राब कर सकता हूँ, मुझे अगर दस हज़ार लोगों का दिमाग ख़राब करना हो तो मैं क्या करूँगा?’’ मैं किताब लिख दूँगा तो इसीलिए ज़रूरी है वो किताबें जला दी जाएँ। और वो बैठ कर के वो लिखे जा रहे हैं, मोटे-मोटे उपन्यास? क्यों? लिखना क्यों ज़रूरी है आपके लिए? पर वैसे ही जैसे जीवन में सब निरर्थक है, वैसे ही लिखे जा रहे हैं।
श्रोता: सर, बच्चों को किस तरीके के साहित्य की ओर प्रेरित करना चाहिए?
वक्ता: कृष्णमूर्ति की बच्चों के लिए बड़ी अच्छी किताबें आती हैं। जिनमें बड़े-बड़े फॉन्ट में बड़ी साधारण बातें लिखी होती हैं। इन सब ने ये इतनी अक्ल रखी है कि बच्चों तक भी पहुँचना है, और उसके लिए अलग से साहित्य बनाया गया है। रमण महर्षि तक ने बच्चों के लिए बातें बोली हैं, संस्कृत में; बाल पद। वास्तव में है। ये सब है मौजूद, पर आप बच्चों के दिमाग में भर रहे हो ये-वो, खुराफ़ात, समझिये तो। मन ही जीवन है, जैसा मन, वैसा जीवन और उसके मन में क्या आप जाने दे रहे हो? उल्टी-पुलटी बातें क्यों? फिर उसका नतीजा जानते हैं क्या होता है?
13-14 साल तक अगर बच्चे इधर-उधर का ही साहित्य पढ़ा है, तो 13-14 साल बाद अगर आप उसके हाथ में कुछ अच्छा थमाएंगे भी न, तो वो उसको पढ़ नहीं पाएगा। उसको रुचि ही नहीं आएगी। वो कहेगा कि, ‘’मुझसे फिक्शन कितना भी पढ़वा लो, मैं पढ़ लूँगा पर ये बोरिंग लगता है।’’ ठीक वैसे ही जैसे आपको बोरिंग लगता है। बोरिंग इसीलिए लगता है क्यूँकी जो पूरी खुराक है, वो गन्दी हो चुकी है। पता नहीं किससे मैं बोल रहा था कि कबीर इसको बहुत अच्छे से समझाते हैं और एक ही वाक्य में सब समझा देते हैं। वो कहते हैं कि, ‘’मन को ऐसा कर लो, जैसे हंस।’ और हंस और कौवे का जो अंतर है, वो उसको सामने रखते हैं। कौवा जहाँ भी कुछ पाता हैं, उसमें चोंच मार देता है। विष्ठा, कूड़ा, गन्दगी में चोंच डाल देगा वो। हंस भूखा मर जाएगा, पर गन्दगी में चोंच नहीं डालता वो, आकर्षित ही नहीं होता। तो इसीलिए कहते हैं कि वो सिर्फ़ मोती चुग-चुग के खाता है। मोती से अर्थ है कि जो सबसे उत्तम आहार होता है, वो सिर्फ़ उसी को अपने अन्दर जाने देता है। इधर-उधर की बातें वो स्वीकार ही नहीं करता, उसका सिस्टम रिजेक्ट कर देता है। उसके कान में आप गॉसिप डालिए, उसका सिस्टम रिजेक्ट कर देगा। कहेगा, ‘’क्या बात कर रहे हो, हटो।’’ आपका मन ऐसा हो जाएगा, जो गन्दगी को सोखने से इनकार कर देगा। और वही फिर जीने का मज़ा है। ‘’हम कहीं भी रहते हैं, हमारा मन गन्दगी सोखता ही नहीं।’’
अभी तो हम स्पंज की तरह हैं कि उसको सीवर में डालो, तो वो सारी टट्टी ले कर के बाहर आ जाता है। फिर मन समझ लीजिये हीरे की तरह हो जाता है कि उसको अन्दर डालो, बाहर आएगा, कुछ होगा थोड़े ही उसको। जैसा अन्दर गया था, वैसा ही बाहर आ गया। अभी हम स्पंज की तरह हैं, हम जहाँ रहते हैं, जो रहता है उसको सोख लेते हैं। आप टी.वी देखते हैं, थोड़ी देर में आपका मन भर जाता है गन्दगी से, पूरी तरह से भर जाता है गन्दगी से। कल एक जगह गया था तो वहाँ पर यही बहस चल रही थी कि वो कुछ चोर भागे हैं लूट के, वो 7 करोड़ थे कि पंद्रह करोड़ थे। ज़बरदस्त बहस चल रही थी, और मुझे यकीन से पता है कि कुछ लोग यहाँ पर भी ऐसे होंगे, जो इस बात से आकर्षित हुए होंगे, और खूब ध्यान से पढ़ा होगा। अब ज़रा सोचिए कि हम कितने मूर्ख हैं। क्या रखा है आपके लिए उस खबर में?
आप क्यों आकर्षित होते हो? आप क्यों चाटते हो अखबार? क्यों ये न्यूज़ चैनल आपको बड़े पसंद हैं? पोर्न चैनल को तो आप कह दोगे कि गन्दा है, और मैं कह रहा हूँ कि न्यूज़ चैनल पोर्न चैनल से ज़्यादा गन्दा है क्योंकि पोर्न चैनल में तो जो है, वो खुला है, पर न्यूज़ चैनल तो दबे-छुपे तरीके से, आपके मन को मार रहा है। पर मन ही ऐसा है कौवे सामान। वो कहीं भी आकर्षित हो जाता है। फिर कह रहे हो तुलना करनी है? कौवे के सामने मोती रख दो और टट्टी रख दो, तो क्या तुलना करेगा?
हम लोगों की जो वृत्तियाँ हैं न, वो लगातार गन्दगी की ओर ही आकर्षित होने की हैं।
श्रोता: हमारा अतीत क्यों है ऐसा?
वक्ता: लगातार खुराक ही वही मिली है।
श्रोता: संस्कारों को कैसे हटाएंगे?
वक्ता: उसका टूटना असंभव है अगर सब कुछ वैसा ही चलता रहे, जैसा चलता रहा था तो फिर वो टूट नहीं सकता। उसका कोई कारण नहीं हो सकता, उसके लिए तो आपको कारणहीनता में जाना होगा। उदाहरण के तौर पर मैं उसे तर्क देकर के मन नहीं सकता कि उसे क्यों वो पढ़ना चाहिए, जो मैं उसे पढ़ने के लिए कह रहा हूँ। बस एक ही उम्मीद है कि शायद वो थोड़ा सा कारणहीन हो। कारण से तो आपको कुछ नहीं मिलेगा।