कैसे जानें कि सत्संग समझ में आया? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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कैसे जानें कि सत्संग समझ में आया? || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कैसे जानें कि सत्संग समझ में आ गया है?

आचार्य प्रशांत: आप कह रहे हैं, बात आपके अन्दर उतर गयी तब आप कहते हैं कि आप समझे। सत्य यह है कि समझे तब जब आप बात से उतर गये। हम बात के ऊपर चढ़कर बैठे रहते हैं। तो बात हम में नहीं उतरनी होती, हमें बात पर से उतरना होता है। बात कभी हम तक बात की तरह पहुँचती नहीं, बात हम तक पहुँचती है ‘बात, धन, हम’ होकर।

हम बात में हमेशा जुड़े होते हैं। हम आसमान को भी अपने छोटे-छोटे झरोखों से देखते हैं। तो कोई आसमान भी दे रहा होता है आपको तो आप कहते हैं वैसे ही लूँगा और उतना ही लूँगा जितना मेरे व्यक्तिगत झरोखे से प्रविष्ट हो जाए। आप बात से उतर गये, इसका अर्थ होता है कि अब आपके और आसमान के बीच में वह झरोखा नहीं रहा जिसे आप व्यक्ति कहते थे। अब आप हैं और खुला आसमान है, अब पूर्ण उपलब्धता है दोनों ओर से। झरोखे के इस पार भी आसमान है , झरोके के उस पार भी आसमान है। झरोखा नाहक ही उनके मिलन को सीमित कर देता है।

मैं जो कहता हूँ वो कभी आप तक पूरा का पूरा और जस का तस नहीं पहुँचता, बीच में व्यक्ति खड़ा हो जाता है, व्यक्तित्व खड़ा हो जाता है, अहंता खड़ी हो जाती है। वह बात जो वास्तव में कुछ नहीं है, मौन है, खाली है, विशुद्ध है, निर्मल है, जब आपके व्यक्तिगत मार्गों से गुज़रकर के आप तक पहुँचती है, तो वो बात कुछ का कुछ बन चुकी होती है।

हमारे शिविर होते हैं, उनमें हम एक खेल खेलते हैं। लोगों को कतारबद्ध खड़ा कर देते हैं और जो सबसे आगे खड़ा होता है कतार में, उसके कान में कोई छोटी सी बात, साधारण सी, फूँक दी जाती है और फिर कहा जाता है कि अपने पड़ोसी के कान में यही बात कह दो। और पड़ोसी वही बात अगले के कान में कहता है, इस तरह से श्रृंखला आगे बढ़ती है। और फिर बड़ा मज़ेदार रहता है जब कतार के आख़िरी आदमी से पूछा जाता है कि बताओ तुम तक क्या पहुँचा। वो कुछ और ही होता है जिसका अक्सर कुछ लेना ही देना नहीं होता उससे, जो कि शुरू हुआ था।

मैं यह भी नहीं कहूँगा कि विकारयुक्त होकर पहुँचता है, मैं ये भी नहीं कहूँगा कि उसमें दस फीसदी - चालीस फीसदी मिलावट हो जाती है। वो पूरा का पूरा कुछ और ही हो जाता है। जो उसमें मौलिक तत्व था, अन्त तक पहुँचते-पहुँचते वो नाममात्र शेष रह जाता है।

यह तब है जब कि बात सिर्फ़ दस व्यक्तियों से होकर के गुज़री है। और आप जानते हैं कितने व्यक्ति हैं? आप अनगिनत व्यक्ति हैं, आप समस्त संसार हैं। मानवता का पूरा इतिहास आपमें समाया हुआ है। आप तक चीज़ का पहुँचना ऐसा है जैसे करोड़ों हाथों से गुज़रकर चीज़ आप तक पहुँचे। अब जो आपको मिलता है, जो आप तक पहुँचता है, वो बस करोड़ों हाथों का मैल है; चीज़ तो कहीं रास्ते में ही गुम हो गयी। और इसमें ज़्यादा ख़तरा इसलिए है क्योंकि वो करोड़ों लोग दिखाई नहीं देंगे। आपको लगेगा ‘सामने वाले ने कहा बात सीधी मुझ तक ही तो पहुँची बीच में कोई मध्यस्त तो था ही नहीं’। मध्यस्त थे और अनगिनत थे, आप ही मध्यस्त थे। आपमें और वक्ता के बीच में जो दूरी है उसका नाम आप है। आप ही बीच में थे, और आप दस लोग नहीं है, आप करोड़ों लोग हैं तो बात आप तक पहुँचती नहीं।

यही कारण है कि सत्य अनेकानेक माध्यमों से, अनेकानेक रूपों से उच्चारित होता रहा, प्रकट होता रहा लेकिन हम उसके लिए अनुपब्ध ही रहे, हम तक नहीं पहुँचा। हम शर्त रखते हैं न सत्य के सामने, ‘तू हमारी शर्तों से गुज़रकर हम तक आ, तू हमारे अनुकूल होकर हम तक आ, तू हमारे झरोखों से होकर हम तक आ, तू हमारे जैसा होकर हम तक आ, तू हमारे तल पर आकर हम तक आ।‘ तो फिर हमें मिलता भी वही है जो हमारे तल का होता है, जो हमारे जैसा होता है, जो हमारे झरोखे जितना ही बड़ा होता है।

इसलिए कहा मैंने कि यह मत कहिए कि बात आपमें उतर गयी, मुझे तो यह बताइए कि आप बात से कब उतरेंगे? आप उतर जाएँ बात से, बात हल्की हो जाएगी, बात धारदार हो जाएगी, बात सूक्ष्म रह जाएगी, बात प्रवेश कर जाएगी।

कुछ कोशिश मत करिए समझने की, कोई बात है ही नहीं जो उतर जाए आपके भीतर। आप नाहक प्रयत्न कर रहे हैं, दिमाग पर ज़ोर बिलकुल मत डालिए। यह बुद्धि की आज़माइश नहीं है, आप व्यर्थ थक रहे हैं। आप बस चुपचाप मौजूद रहकर, मौन रहकर सुनें। मेरे पास आपको बताने के लिए कोई बात नहीं है। कौनसी बात उतार ली आपने अपने भीतर? मैंने तो कुछ बोला नहीं। आप क्या लेकर घर जा रहे हैं? मैंने तो कुछ दिया नहीं। कोई बात नहीं है। शान्त हो जाइए बस, यही बात है। बिना बात की बात, तब मज़ा है। बिन बाती बिन तेल, रोशनी फिर भी, तब मज़ा है।

कोई बहलाने के लिए नहीं कह रहा हूँ आपको, यकीन मानिए। आज तीसरा सत्र है, छः सत्र भी जब पूरे हो जाएँगे, मैंने तब भी कुछ नहीं कहा होगा। आप कुछ सुन मत लीजिएगा, उपद्रव हो जाएगा । कहेंगे ‘कुछ सुन आये।‘ आप अकारण शान्ति से बैठ नहीं सकते इसलिए मैं मुँह चलाता रहता हूँ, पर मुझे कहना थोड़े ही होता है। आप बिना मुझसे यह दाँतुनी कसरत करवाए, अगर चुप बैठ सकें तो और अच्छा है। पर आप शर्त रखते हो, आप कहते हो ‘नहीं, राम कथा है, कुछ तो बोलिए’, तो मैं बोलता रहता हूँ। कह कुछ नहीं रहा हूँ, मुँह चला रहा हूँ बस। आप विवश करते हो इसलिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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