जो मौत से नहीं भागता उसे ज़िन्दगी मिल गई || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

12 min
69 reads
जो मौत से नहीं भागता उसे ज़िन्दगी मिल गई || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता : अनुराधा ने लिखा है कि हिंडन के पास से जब भी निकलती हैं तो शमशान है वहाँ, लाश दिखती है।

लाशें देखनी चाहियें। लाशें बेशक, बेहिचक देखनी चाहियें। इसमें कोई उदासी की, या विरक्ति की, दुःख की, कोई बात नहीं है। वही होना है तुम्हारा! सारा संसार जलने के लिए ही है। और कोई नियति नहीं है हमारी। ये बात अगर सामने आ रही है तो क्या धन्यवाद नहीं दें? या तो ये कह दो कि “लाश जलती नहीं देखूँगी तो ज़्यादा दिन जीयूँगी।” तो समझ में आए कि नहीं देखना है और शमशान से नहीं गुज़रना है। क्या शमशान से नहीं गुज़र के तुम मृत्यु के तथ्य से बच सकते हो? जो हश्र होना है, जिसे हम देह कहते हैं उसका, वो अगर दिख ही जाए तो सौभाग्य की बात है न? चेतेंगे; उठेंगे।

हर आदमी जिस की लाश जलती है वो दुनिया पर उपकार कर के जाता है। वो दुनिया को ये दिखा के जाता है कि मेरे माध्यम से देख लो कि तुम्हारे संसार का क्या अंजाम है। ऐसा समझ लो कि जाते-जाते वो तोहफ़ा दे के जा रहा है कि, “मुझे नहीं पता जीवन भर तुम्हें कुछ दे पाया कि नहीं, पर मेरी ये जो अन्तः गति है इससे इतना तो समझ लो कि तुम और मैं अलग नहीं हैं।”

एक चर्च (गिरजाघर) था, वहाँ पर रिवायत होती है कि कोई मरता है तो घंटा बजता है। तो एक दिन घंटा बजा, एक जवान आदमी आया, उसने पूछा, “किसके लिए घंटी बजती है?”

तो गिरजाघर के पुजारी ने जवाब दिया, “ये मत पूछो कि किनके लिए घंटी बजती है, घंटी तुम्हारे लिए बजती है।”

ये मत समझना कि जो मर गया है उसके लिए घंटी बजी है। ना! वो तो मर गया। उसका घंटी से क्या लेना-देना। वो तो गया! घंटी किसके लिए बजी है? कोई भी मरता है, वो घंटी तुम्हारे लिए बजती है कि चेत जाओ। “ये मत पूछो कि किनके लिए घंटी बजती है, घंटी तुम्हारे लिए बजती है।”

और हम उस अंजाम से बहुत दूर नहीं हैं। कोई बड़ी बात नहीं। और ये बात सावधानी की नहीं है कि “सावधान रहें!” ना! तुम कितना भी सावधान रह लो, अंजाम क्या है? या ज़्यादा सावधान जो लोग होते हैं, वो अमर हो जाते हैं? ऐसा तो नहीं! तो ये तो सौभाग्य की बात है कि लाश दिखी। इसीलिए कहीं-कहीं ये परंपरा है कि मुर्दा दिखे तो प्रणाम करो। अब वो मृत शरीर है, मिट्टी है! उसमें से दुर्गन्ध उठ रही है तो ये सवाल पूछना चाहिए कि इस मिट्टी को, इस सड़ते हुए जिस्म को प्रणाम क्यों करवाया जा रहा है। बात गहरी है! प्रणाम करो क्योंकि वो उपकार कर रहा है तुम पर। वो उपकार कर रहा है, तुमको तुम्हारा भविष्य दिखा के। तुमको तुम्हारी आसक्तियों का तथ्य दिखा कर के; इसलिए प्रणाम करो। तुमको ये दिखा कर के कि, “देखो! मैंने भी बहुत देखभाल की थी इस जिस्म की। देखो! मेरा संसार भी इस जिस्म के इर्द-गिर्द बसा था।”

“देखो! मेरे कभी एक मुहांसा निकल आता था तो मैं उसको सौ बार छूता था कि “अरे! चेहरे पर मुहांसा!” और अब वही चेहरा, वही खाल पपड़ी की तरह, जैसे पापड़ सिकता हो…”

तो इसलिए प्रणाम करो। ये सौभाग्य की बात है कि दिखा – अच्छा हुआ, दिखा गया। वो समझ लो तुम्हारी रिफ्लेक्शन(अवलोकन) डायरी है, तुम्हें चेताती है। वो समझ लो ट्रैकर है। अच्छी बात है! बहुत अच्छी बात है। जब तक प्राण हैं तभी तक तो मुर्दा देख पा रही हो न? तो मुर्दा देख पा रही हो इसका अर्थ क्या है? ज़िन्दा हो! ज़िन्दा हो! (हँसते हुए)

जिस दिन तुम मुर्दा बन जाओगी, उस दिन कौन देखेगा? और कौन जानता है? कह गए हैं न कबीर, “साधो! ये मुर्दों का गाँव।”

जिन्होंने भी बड़े खूंटे गाड़े हैं संसार में, जिन्होंने भी बड़े सपने संजोए हैं, बड़ी उम्मीदें रखी हैं। जो भी शरीर की भाषा खूब बोल रहे हैं वो शरीर के तथ्य को ज़रा ना भूलें। मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप शरीर की उपेक्षा करें कि खाना ना खाएं, सफाई ना रखें, ये सब नहीं कह रहा हूँ! सब करो। चेहरा है, साफ़ करना पड़ेगा; पेट है, भोजन देना पड़ेगा, मज़े में दो! पर भूलो नहीं! बात भूलना नहीं कि क्या है। पेट को खाना देते समय भूलना नहीं कि इन आँतों का होना क्या है। बिल्कुल दो, अच्छा भोजन दो! ज़ुबान स्वाद माँगती है, उसको स्वाद भी दे लो! पर भूलना नहीं कि इस ज़ुबान का होना क्या है। भूलना नहीं।

जिसने मौत से भागना बंद कर दियावो ज़िन्दगी जीना शुरू कर देता है।

चाहे इस छोर से पकड़ो, चाहे उस छोर से। जो मौत से भागना बंद कर देता है वो ज़िन्दगी से भी भागना बंद कर देता है। अब वो जीना शुरू कर देता है। समझ रहे हो बात को? और जो ज़िन्दगी से भागना बंद कर देता है वो मौत से भागना बंद कर देता है। चाहे यहाँ से शुरू करो, चाहे वहाँ से शुरू करो। बात एक ही है।

भारत में तो विधियाँ रही हैं शव-साधना की। जहाँ पर लोगों ने करा ही यही है कि मुर्दों के आगे आसन लगा कर बैठ गए हैं और लम्बे समय तक सिर्फ़ मुर्दों को देखते रहे हैं। और ये साधना की पद्धति है कि देखो उसको!

श्रोता १ : सर यही चीज़। सर, लाश को देखने का मन करता है। हम जब भी निकलते हैं वहाँ से, संयोगवश अगर लाश ना जल रही हो तो मैं इधर मुँह कर लेती हूँ, पर जब जल रही हो, तब नहीं होता।

वक्ता : क्योंकि खिंचाव है उसमें। क्योंकि वो इशारा है। वो उतनी ही आकर्षक है जैसे समझ लो पहाड़ की बर्फ़ लदी चोटी। उसको भी देखने का मन करता है न? वो आँखों को पकड़ लेती है। उसमें एक रहस्य है, एक राज़ है। जैसे उगता हुआ सूरज। जैसे उफनती हुई लहर समुद्र की। ये आँखों को पकड़ते हैं, इसलिए नहीं कि इनमें इन्द्रियगत सुख है, बल्कि इसलिए क्योंकि वो किसी और राज़ की तरफ़ इशारा कर रहे हैं, रहस्य! ठीक उसी तरह से, मृत देह, उसका जलना, आग की लपटें, वो तुमको आवाज़ देते हैं, कुछ बताना चाहते हैं, कुछ समझाना चाहते हैं। जैसे कि, शांत गंगा बह रही हो, वो भी समझाती है। अगर तुम समझ सको तो!

तो अच्छा है। वो जो जीया था, पता नहीं उसका जीवन सार्थक था या नहीं, पर उसकी मौत सार्थक है अगर तुम उसकी लाश की तरफ़ आकर्षित हो रही हो। मरते-मरते दे गया दुनिया को कुछ। जीते-जीते तो पता नहीं कैसा जीया था!

देखो! हमारा जो पूरा जीने का जो तरीका है वो उल्टा है। हम सोचते हैं कि जब कोई मरता है, तो उसके आस-पास जो रिवाज़ है, कि भीड़ इकट्ठा हो, वो इसलिए है कि लोग आ कर के अपना शोक व्यक्त कर सकें या श्रद्धांजलि दे सकें – बेकार की बात है। भीड़ बेशक इकट्ठी होनी चाहिए किसी के मरने पर, ज़रूरी है कि लोग आएं कोई मर गया है तो। पर इसलिए नहीं कि उनको आ कर के शोक व्यक्त करना है या ये कहना है कि, “बड़े अच्छे आदमी थे।” ना! ये सब नहीं। जो मर गया है उसके दरवाज़े पर बिल्कुल जुटें, सौ लोग, चार सौ लोग, और मौन में बस देखें कि जीता था कभी, जैसे हम जीते हैं। ये हुआ क्या है?

इसलिए आवश्यक है कि कोई मरे तो वहाँ जाओ। हम उल्टा कर देते हैं, हम वहाँ जा कर के सोचते हैं कि हमें ढाढस बंधना है लोगों को। तुम किसको ढाढस बंधा रहे हो? “साधो! ये मुर्दों का गाँव!” सबका चला-चली का है। कौन किसको ढाढस बंधा रहा है? सिटी ऑफ़ द डेड ! (मृतकों का शहर)

मौत को जितना देखोगे उतना फ़िर वो एक खौफ़नाक हादसा नहीं लगेगी। हमारे लिए मौत एक खौफ़नाक हादसा है जिससे बचना है, ठीक! मौत को जितना देखोगे, फ़िर वो उतना जीवन का अविभाज्य हिस्सा दिखाई देगी। फिर वो जीवन का अंत नहीं दिखाई देगी, वो जीवन का हिस्सा दिखाई देगी। साफ़-साफ़ समझ में आएगा कि बिना मौत के जीवन कैसा। फिर वो डराना बंद कर देगी। फिर कह रहा हूँ, जो मौत से डरना बंद कर देता है वो जीवन से डरना बंद कर देता है। फिर जी पाओगे खुल कर के!

इसमें कोई उदासी की बात नहीं है। मुर्दा कोई अशुभ चीज़ नहीं होती। शमशान घाट कोई गन्दी जगह नहीं है। बिल्कुल भी नहीं है। हम पागल हैं, हम समझते नहीं हैं, हम बीमार लोग हैं, हमने शमशान घाटों को शहर से दूर करा है। बच्चे-बच्चे को जाना चाहिए वहाँ पर। साफ़ जगह होनी चाहिए, वहाँ सुंदर घास, पौधे वगैरह लगे हों, नदी किनारे होना चाहिए और लोगों को वहाँ अक्सर जाना चाहिए। लाशें जलें तो हज़ारों लोग देखें; और चुपचाप देखें। ऐसे नहीं देखें जैसे कोई दुर्घटना हो गई हो, ऐसे देखें जैसे आप बादलों को, आसमान को, सूरज को और पशुओं को देखते हैं। जैसे एक दूसरे को देखते हैं। वैसे ही लाशों को देखें।

पर हमने उल्टा कर रखा है। गंदी सी जगह बना दिया है शमशान को, वहाँ पर जानवर फ़िरते रहते हैं, गन्दगी करते रहते हैं। और हमने बातें फैला दी हैं अजीब की भूतों के अड्डे होते हैं। इनको तो शहर के केंद्र में होना चाहिए और निश्चित घंटा बजना चाहिए हर मौत पे कि, “देखो! एक और है, आओ बैठो।”

छोटे बच्चों की किताबों में मृत्यु पर पाठ होने चाहिए — पाठ-१२, मृत्यु; कक्षा २

जैसे आप ज़मीन खोद कर के उसमें बीज डालते हो, इतना तो हम बच्चों से करवाते हैं क्योंकि हमें जीवन से प्यार है, तो हम बच्चों से करवाते हैं कि स्कूलों में वृक्षारोपण होता है। होता है न? छोटे-छोटे बच्चों से कहा जाता है कि चलो ये पौधा तुम लगाओगे, ये पौधा तुम लगाओगे। ठीक उसी तरीके से, ज़मीन खोद कर के मृत पक्षियों को, पशुओं को, दफ़नाने की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। वही ज़मीन जो बीज से पेड़ पैदा कर देती है, अंततः पेड़ को उसी ज़मीन में मिल भी जाना है, ये दूसरा सिरा भी दिखाना चाहिए। हम इतना तो कर देते हैं कि ज़मीन में गड्ढा करो और देखो कैसे जीवन अंकुरित हो जाता है। ये तो दिखा देते हैं। पर ये भी तो दिखाना पड़ेगा न कि ये जो वृक्ष खड़ा हुआ है, एक दिन ये वापस इसी मिट्टी में मिलेगा।

तो जब कोई छोटा पशु मरे, कोई कुत्ता मरे, कोई पक्षी मरे; तो उन्हीं छोटे बच्चों से कहा जाना चाहिए कि ज़मीन को खोदो और इसको दफनाओ। जैसे तुमने बीज गाड़ा था, वैसे ही अब इस मृत शरीर को भी गाड़ दो। दोनों एक ही बात हैं। द्वैत के दोनों सिरे हैं। और जो द्वैत के दोनों सिरों को जान लेता है वो अद्वैत में पहुँच जाता है। गड़बड़ी तब होती है जब तुम्हें एक सिरा प्यारा लगने लगता है और तुम दूसरे सिरे से भागते हो। जो दोनों को जानेगा, वो पूर्ण को जानेगा। और घरों में होता रहता है, कभी कोई चूहा मर गया, कभी कोई बिल्ली मर गयी।

मृत्यु – फ़िर से कह रहा हूँ, जो शुरू में कहा था – उदासी की बात नहीं है, ना कोई बहुत गंभीरता की बात है। जो मृत्यु को गंभीरता से लेगा उसे जीवन भी फिर गंभीरता से लेना पड़ेगा।

मृत्यु खेल है, सिर्फ़ तभी जीवन खेल है! मृत्यु लीला है, सिर्फ़ तभी जीवन लीला है!

तो कोई अपने आप में शर्म परहेज़ मत करना अगर तुम्हें मुर्दे को देख कर हँसी आती हो। हँस देना! ये मत सोचना कि “अरे! मैंने अनादर कर दिया।” कोई अनादर नहीं कर दिया। पर ये भी हमें पाठ पढ़ा दिया गया है कि जब तुम जाओ किसी की शोक-सभा में, कोई मर गया हो, तो वहाँ बड़ा गंभीर सा, उदास सा, लटका हुआ चेहरा बना कर खड़े हो जाओ। क्यों? क्या ज़रुरत है? क्या ज़रुरत है? मैं फिर से कह रहा हूँ, यदि आप किसी कि शोक-सभा में उदास और लटका हुआ चेहरा ले के जा रहे हैं, तो आपको ज़िंदगी में भी वही चेहरा ढ़ोना पड़ेगा। क्योंकि आपका मृत्यु के प्रति जो रवैया है, ठीक वही रवैया आपका जीवन के प्रति होगा मान लीजिये!

कोई आवश्यकता नहीं है मृत्यु को गंभीरता से लेने की। कोई आवश्यकता नहीं है शोक व्यक्त करने की।

एक बुद्ध मृत्यु को उसी मौन से देखेगा जिस मौन से उसने जीवन को देखा है। एक रजनीश मृत्यु को उसी प्रकार चुटकुला बनाएगा जैसे उसने जीवन को चुटकुला बनाया है।

क्या आवश्यकता है उदास हो जाने की या ये सोचने की कि कोई महत्वपूर्ण बात हो गयी, कोई दुखद घटना घट गयी। कुछ नहीं है! या ये कहो कि उतना ही दुखद है जितना जीवन। यदि मृत्यु दुखद है तो निसंदेह जीवन बड़ा दुखद रहा होगा। और आख़िर में एक बात याद रखना, मरे हुए के लिए रोये वो जो अमर हो। जो खुद कतार में खड़ा है वो क्या रो रहा है। अभी वो गया है, अगला नंबर तुम्हारा है, कौन किसके लिए रो रहा है? (हँसते हुए)

मरे के लिए वो रोये जो अमर हो,और जो अमर है वो रोता नहीं!

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories