जिन मंदिरों में दलित नहीं जा सकते || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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जिन मंदिरों में दलित नहीं जा सकते || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मैं आपको कुछ समय से सुन रहा हूँ। मेरे एक मित्र से मेरी बातचीत हो रही थी, जो कि दलित वर्ग से हैं। तो मैंने उन्हें कहा कि, 'आप आचार्य जी की पुस्तकें पढ़ें, वीडियोज़ देखें, वेदांत की तरफ जाएँ; जो मूल शिक्षा है सनातन धर्म की।

तो उनकी तरफ से एक अजीब तर्क आया, और मैं काफी चकित हुआ इस बात को सुनकर। और उन्होंने कहा कि, 'काफ़ी बार उनके वर्ग के लोगों ने, सनातन धारा का जो वेदांत है, उससे जुड़ने की कोशिश करी। लेकिन उन्हें वहाँ से दूर कर दिया जाता है, भगा दिया जाता है।' जैसे कहीं भागवत कथा में गए या कहीं मंदिर गए, तो वहाँ से उन्हें भगा दिया जाता है, दूर कर दिया जाता है।

और उन्होंने ये भी कहा कि, 'चलिए! मैं देख भी लूँ इन वीडियोस को, और मैं वेदांत के बारे में लोगों को बता भी दूँ; लेकिन क्या हिंदू धर्म के लोग ही, हमारे जैसे दलित वर्ग के लोगों की बात सुनेंगे?'

तो मुझे दुख हुआ काफ़ी कि जो इतना बड़ा वर्ग है - सनातन धर्म का ही - अगर वो ही वेदांत की शिक्षा से दूर हो जाएगा, तो ये बात आगे कैसे पहुँचेगी? तो मैं आपसे दरख़्वास्त करता हूँ कि, 'आप इस विषय को स्पष्ट करें?'

आचार्य प्रशांत: ऐसे मंदिर जाने की ज़रूरत ही नहीं है, क्योंकि ऐसी जगह मंदिर कहलाने योग्य नहीं है। बात ख़त्म! इसी से मिलता-जुलता एक सवाल आया था, साल, डेढ़ साल हो गया होगा। जिसमें एक दलित मित्र था, उसने कहा था कि, 'कोई लड़की है और उसके परिवार वाले शादी के लिए इसलिए नहीं राज़ी हुए, क्योंकि जाति का अंतर था, ऊपर-नीचे का।'

मैंने कहा, मत करो न शादी! वो लड़की अगर सही होगी, उसके प्रेम में सच्चाई होगी, तो वो ऐसे घर वालों की बात क्यों सुन रही है, जो प्रेम का संबंध भी जात से जोड़ रहे हैं? तुम्हें ज़रूरत क्या है ऐसे मंदिर जाने की?

हम मंदिर जाते हैं अपना मन साफ़ करने के लिए; ये कौन सा मंदिर है, जो तन देखता है तुम्हारा! और तन भी देखता हो तो मैं पूछता हूँ, मुझे बताओ, तन और तन में अंतर क्या होता है? ये ब्लड बैंक से जब खून लेते हो, तो जात देखकर लेते हो क्या? अभी कोविड था, प्लाज़्मा के लिए मारे-मारे फिर रहे थे सब; मैंने तो नहीं देखा कि उसमें किसी ने लिख रखा हो, ‘सवर्ण प्लाज़्मा चाहिए!’ सवर्ण छोड़ दो, किसी ने ये तक नहीं लिखा था कि, ‘मुझे सिर्फ़ हिंदू या सनातन प्लाज्मा चाहिए!’ तब तो जहाँ से मिले, वही ठीक! बंदर का भी अगर मैच हो जाए तो चलेगा!

वज्रसूची उपनिषद है, उसमें शिष्य गुरु से जिज्ञासा करता है, ‘जाति क्या है गुरुजी, ज़रा बताइए?’ तो गुरुजी पूछते हैं, बता तो दूँगा, पहले बताओ किस की जाति? शिष्य थोड़ा अचकचाता है! और उपनिषदों की यही अदा मुझे बहुत पसंद आती है, वो प्रश्न को ही उल्टा कर देते हैं। कहते हैं, जवाब कौन दे, जवाब देने की ज़रूरत ही नहीं; हम सवाल के ही अंदर घुस जाएँगे।

तो पूछने वाले पूछ रहे हैं, गुरु जी, जाति के बारे में बताइए? गुरु जी बोलते हैं, जाति किसकी? तन की कोई जाति होती नहीं, खाल-खाल एक बराबर होती है, खून-खून एक बराबर होता है। लोग मरते वक़्त अपने अंगों का दान कर देते हैं। ऐसा होता है क्या कि, एक का अंग दूसरे को न लगे? और नहीं भी लगे, तो उसका जो कारण है वो मेडिकल होगा; जातिगत नहीं। है न!

तो गुरु जी कहते हैं कि, 'ऋषिवर! तन की कोई जाति होती नहीं। और आत्मा अजात होती है, उसका तो जन्म ही नहीं हुआ, तो जाति कहाँ से होगी? तन की जाति हो नहीं सकती और आत्मा अजात होती है, तो जाति आ कहाँ से गई?

ये हमारे उपनिषद बता रहे हैं कि, 'जाति जैसी कोई चीज़ नहीं होती बेटा! किन चक्करों में फँस रहे हो?' जाति उस समय भी संस्कृति का हिस्सा थी, पर ऋषियों ने सदा समझाया यही कि जाति कुछ नहीं होती। अब लोग ऋषियों की बात नहीं मान रहे थे, तो इसमें ऋषि क्या करें? ऋषियों को दोष मत दे देना!

लेकिन हमें लगता है कि शायद ऋषियों ने ही समझाई है- जाति प्रथा। ऋषियों ने तो बार-बार यही बोला, जाति जैसा कुछ नहीं। तो जब तन की जाति होती नहीं, और आत्मा की जाति हो सकती नहीं; तो जाति क्या है? जाति मन की कल्पना है, ये वेदांत का उत्तर है। तुमने कल्पित कर ली है जाति, अन्यथा जाति जैसा कुछ नहीं।

और ये बात समझने वालों में, सबको समझ में आई। जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने यही सिखाया कि, 'किन चक्करों में तुम फँसे हो, जात-पात जात-पात? सब संतो ने यही सिखाया न? सब गुरुओं ने यही सिखाया न? लेकिन उसके बाद भी हमारी संस्कृति बदलने का नाम नहीं ले रही है, और हम उसी संस्कृति को पूजे जा रहे हैं। जिन मंदिरों में दलितों की मनाही हो, या जिन मंदिरों में दलित पूजा-अर्चना नहीं कर सकते, या जिन मंदिरों में मैं कह रहा हूँ, दलित पुजारी नहीं बन सकते, तुम्हें उन मंदिरों में क्यों जाना है? सत्य क्या किसी मंदिर में बैठता है?

जिस मंदिर में दलित के घुसने की मनाही है, उस मंदिर में सत्य भी नहीं घुस पा रहा। ऐसे समझ लो‌! जो तुम्हारे दोस्त साहब हैं, उनको कहना, बाहर आना और इधर उधर दूँढना; सत्य भी वहीं पर घूम रहा होगा। वो भी कह रहा होगा, मुझे नहीं घुसने दे रहे अंदर। तो मैं इसको बहुत बड़ी समस्या मानता नहीं।

देखो! वेदांत पर किसी का विशेषाधिकार नहीं है। न पंडों का, न पुरोहितों का, न ब्राह्मणों का, न किसी का। जिन्होंने वेदांत हमें दिया है, उन्होंने सबको अपना बच्चा मानकर दिया है। संतो की सीख, गुरुओं की वाणी, कभी किसी वर्ग विशेष या समुदाय या धर्म भर के लिए नहीं होती है, सबके लिए होती है।

वेदांत ही मंदिर है तुम्हारा। आत्मपूजा उपनिषद है, बहुत छोटा सा। वो बताता है कि, 'असली पूजा क्या, असली स्नान क्या, असली ध्यान क्या, अक्षत माने क्या?' पढ़ो! वही! तुम वैसी ही पूजा कर लो। ये सब बड़े-बड़े मंदिर वैसे भी अब बहुत काम के रह नहीं गए हैं। बहुत राजनीति है।

जहाँ मन शांत हो जाए, वो तीर्थ है। और जिसके सामने मन शांत हो जाए, वो तीर्थंकर है। बात खत्म! हो गई पूजा!

"जहाँ हमने सिर को झुका दिया, वहीं एक काबा बना दिया।"

जिसके सामने आकर के मन, आत्मा सा होने लग जाए, उसे महात्मा कहते हैं। वही महात्मा है। किसी जाति का अधिकार भर नहीं है, महात्मा होने पर।

सही परिभाषाएँ पकड़ना सीखो। सूक्ष्म परिभाषाओं पर जीना सीखो, स्थूल परिभाषाएँ नहीं। स्थूल परिभाषा में मंदिर ईंट-पत्थर है। है न! स्थूल परिभाषा में मंदिर क्या है? मंदिर एक भौतिक स्थान है, एक जियोग्राफिकल लोकेशन है कि, वहाँ जाओ, तो वहाँ मंदिर मिलेगा। यह स्थूल, ग्रॉस परिभाषा है।

और सूक्ष्म परिभाषा क्या है मंदिर की? और सूक्ष्म ही वास्तविक है, क्योंकि सूक्ष्म की ही तो हमें तलाश है। स्थूल तो इतना कुछ मिला हुआ है, वो हमारे काम कहाँ आता है; सूक्ष्म के लिए ही तो मरे जा रहे हैं न हम!

सूक्ष्म परिभाषा क्या है मंदिर की? दोहराइएगा! ‘जहाँ मन शांत हो जाए, जहाँ भ्रम मिटने लगें, जहाँ डर हटने लगें, वो मंदिर है।’ जिन्होंने जाना है, उन्होंने हमेशा, ये जो ईंट-पत्थर वाली व्यवस्था है, इसका बड़ा उपहास करा है।

"ककड़ पाथर जोड़ि के, मस्जिद लई चुनाए। और ता पे मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय।।"

ख़ुदा बहरा है क्या, जो तुम रोज उसपर चढ़कर के बांग देते हो, मुल्ले! ये कंकड़ पत्थर की क्या बात है, मस्ज़िद कंकड़-पत्थर से नहीं बनती। उनका आशय सिर्फ़ मस्ज़िद से नहीं था।

"पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़।"

जहाँ भी उन्होंने पत्थर की पूजा देखी, जहाँ भी उन्होंने इस कंकड़-पत्थर के प्रति बड़ा सम्मान देखा, सीधे यही कहा।

"ता से तो चक्की भली, पीस खाए संसार।"

वो कुछ काम तो आती है! और ये बात कह रहे थे वो - जो हिंदू कट्टरपंथ का गढ़ है - काशी में बैठकर। उसी काशी में, जहाँ आज इतनी राजनीतिक गतिविधि चल रही है, वहीं बैठकर। खुलेआम चुनौती देते थे। यूँ ही थोड़े ही, मैं उनका क्या हूँ? फैन। समझ में आ रही है बात?

तो मूर्खों की एक धारा हमेशा से रही है और बड़ी भारी धारा रही है। और एक निर्मल धारा रही है ऋषियों की, संतों की। वो वास्तविक धारा है, तुम उस धारा में चलो। तुम्हें क्या आवश्यकता है कि, जहाँ हजारों-लाखों की भीड़ हो, तुम्हें उसी मंदिर में जाना है?

वो बहुत बड़ी धारा है, वो बहुत समय से बहती रही है, शायद आगे भी बहती रहेगी, लेकिन तुम्हें उस धारा का हिस्सा बनने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें बस ये बताना चाहता हूँ कि, 'एक दूसरी धारा उपलब्ध है, दिल छोटा मत करो!' सनातन धर्म श्रेष्ठतम है, और उसमें जो निर्मलतम-शुद्धतम अध्यात्म की धारा हो सकती है, वो मौजूद है। तुम उस धारा में स्नान करो, वही आत्म स्नान होता है। समझ में आ रही है बात?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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