कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् | तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् || ३, १५ ||
नियत कर्म का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्दरूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात उत्पन्न समझना चाहिए। इससे सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्मरूप में यज्ञ में सदा स्थित रहता है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक १५
प्रश्नकर्ता: प्रिय आचार्य जी, प्रणाम। श्रीकृष्ण उपरोक्त श्लोक में कह रहे हैं कि सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्मरूप में यज्ञ में सदा स्थित रहता है। इस यज्ञ, निष्काम कर्म की प्रेरणा परमात्मा हैं, पर मेरे कर्म की प्रेरणा मोह है। सतही रूप से समझ आता है कि शरीर और उससे सम्बंधित वस्तुओं और व्यक्तियों से आसक्ति मोह है परन्तु मोह को और करीब से समझने में कृपया मेरी सहायता करिए।
क्या मोह मेरी मूल अनुभूति, अर्थात परसेप्शन , दृष्टि को ही प्रभावित कर देता है? क्या मन की सूक्ष्म गति भी मन के कारण ही है, मन की गति भी क्या सूक्ष्म कर्म है?
आचार्य प्रशांत: मोह जब तक आपको कोई वस्तु लगेगी, जब तक आपको उसमें कोई वास्तविकता लगेगी, तब तक आप मोह के वश ही रहेंगी।
मोह क्या है?
मोह वास्तव में झूठ है। झूठ को वास्तव में काटना भी नहीं होता। एक रस्सी की छाया आपके ऊपर पड़ रही है, क्या आप बँध गई हैं? क्या आप चाकू ले करके उस रस्सी को काटने लगेंगी? और काटने लगेंगी तो क्या होगा? रस्सी तो क्या ही कटेगी, देह कट जाएगी।
मोह ऐसा ही है – किसी ऐसे के होने में विश्वास कर लेना जो है ही नहीं।
आप में एक भाव उठता है, वो भाव अकारण नहीं है। उस भाव से लड़िए मत, उसके कारण की जाँच-पड़ताल कर लीजिए। आसक्ति है आपको किसी से—छोटे से, बड़े से, बच्चे से, बुज़ुर्ग, स्त्री से, पुरुष से, व्यक्ति से, वस्तु से, विचार से—किसी से आसक्ति है आपको, मैं कह रहा हूँ उस आसक्ति की कोई वजह है, उस वजह का थोड़ा अन्वेषण तो करिए। क्या सत्यता है उस वजह में? जायज़ है क्या वो वजह? जायज़ हो तो अपनी आसक्ति कायम रखिए।
आप यूँ ही किसी से सम्बंधित नहीं हैं, आप जिससे भी सम्बंधित हैं, आपके पास सम्बंधित होने के स्वार्थ हैं। कोई दिक़्क़त नहीं है स्वार्थी होने में। जिसको ज़रूरत हो, जिसकी मजबूरी हो, उसको अपने स्वार्थ, अपनी आवश्यकता देखनी पड़ती है न? पर आपकी जो भी ज़रूरत है, आपका जो भी स्वार्थ है, क्या वो मोह से पूरा हो रहा है? और मोह है इसीलिए कि वो आपकी कोई ज़रूरत पूरी कर देगा। कर पा रहा है क्या? मोह कहता है कि कर देगा, कर देता है क्या? अगर कर रहा हो तो आप मोहित रही आइए।
मोह और ममता, और अहंता बिलकुल साथ-साथ चलते हैं। जिसको मम् कह दिया, 'मेरा है', उसके प्रति मोहित तो रहेंगे ही न। और जिसके प्रति मोहित हो गए, समय नहीं लगेगा उसे 'अपना', 'मम्' कह देने में। और मोह हो या ममता हो, मोह होने के लिए, मम् कहने के लिए, आपका, अहम् का होना ज़रूरी है। जो कहे 'मेरा' सो अहम्; जो मोहित हो रहा हो सो अहम्। तो ये तीनों साथ-साथ चलते हैं।
इनमें सच्चाई कितनी है? और यह मत कहिएगा कि आपको इनकी सच्चाई से कोई मतलब नहीं है। मतलब आपको पूरा है। मतलबवश ही तो आप मोह करते हैं न? कोई मतलब न होता आपको तो आप किसी की ओर आकर्षित क्यों होतीं? जिनसे मोह है, उनसे मतलब ही तो है, उनसे स्वार्थ ही तो है कुछ, उनसे कुछ मिल ही तो रहा है, उनके माध्यम से कुछ पाना ही तो है।
इसका प्रमाण यह है कि जब वो जीवन से जाते हैं तो ऐसा लगता है कि कुछ चला गया। अगर किसी के जीवन से हटने से लगता है कि कुछ चला गया, तो निश्चित रूप से जीवन में रहकर किसी आवश्यकता की पूर्ति कर रहा था न आपकी? कुछ पहन रखा है आपने, उसको उतारते ही अगर ठंड लगने लगती है, तो इसका अर्थ यह है वो जब आपने धारण करा हुआ था, तब वो आपकी किसी आवश्यकता की पूर्ति कर रहा था, है न?
तो मोह की वजह होती है, उससे कुछ मिल रहा होता है। जो मिल रहा होता है, मैं कह रहा हूँ, उसका परीक्षण कर लीजिए। कितना मिल रहा है और उसके बदले में कितना दे रहे हैं? जो मिल रहा है, उसमें सच्चाई कितनी है?
सच्चाई कोई शास्त्रों की ही बात नहीं होती, सच्चाई कोई नैतिकता की ही बात नहीं होती; सच्चाई बड़ी व्यावहारिक बात होती है। (पानी का गिलास उठाते हुए) मैं प्यासा हूँ, इन्होंने मुझे यूँ पानी दिया। मेरे लिए ज़रूरी है कि इसके भीतर जो है, वो सच्चा हो; क्योंकि मेरे लिए मेरी प्यास सच्ची है न, तो पानी भी सच्चा चाहिए। सच्चाई इसलिए आवश्यक है।
सच्चाई वो है जो आपकी प्यास को, आपकी अतृप्ति और अपूर्णता को मिटा दे।
क्या मोह में सच्चाई है? (पानी का एक घूँट लेते हुए) मैं इसको पीता हूँ, कुछ तो हुआ लाभ। आप मोह पीती हैं, आपकी अतृप्ति मिटती है क्या? मोह को पी तो किसी मतलब से ही रही हैं। कोई यह ना कहे कि 'हम नि:स्वार्थ भाव से मोह रखते हैं', कोई यह ना कहे कि 'हम तो नि:स्वार्थ रूप से ममता रखते हैं'। ममता, मोह, अहंता, इनमें सबमें स्वार्थ तो भरपूर है—ये स्वार्थ के ही दूसरे नाम हैं। और मैं नहीं कह रहा कि स्वार्थी होना बुरी बात है, मैं सवाल दूसरा पूछ रहा हूँ, मैं पूछ रहा हूँ कि तुम्हारा स्वार्थ पूरा हो रहा है क्या? जिससे मोहित हो, उससे मोहित हो करके जीवन की तुम्हारी व्याकुलता, अपूर्णता मिट रही है क्या? और मिट रही हो तो मोहित रहे आओ।
जब ममत्व बैठा लेते हो किसी से तो वो तुम्हारे लिए शांति का कारण बनता है या अशांति का? बोलो।
श्रोतागण: अशांति का।
आचार्य: आसक्त हो जाते हो किसी से, अब जीवन में तुमने शांति उतार ली या अशांति? माताएँ यहाँ आकर बैठती हैं सत्संग में, उनका जी नहीं लगता, उनको खटका बना रहता है, भीतर अशांति चलती रहती है। बाहर से ज़रा सी ‘कूँ-कूँ’ आई नहीं कि उनको भागना पड़ेगा, है न? ये तुमने अपने लिए शांति पैदा करी है या अशांति, बताओ?
इसी तरीके से किसी को किसी वस्तु से बड़ा मोह हो। बड़े महँगे उपकरण आते हैं, जैसे मोबाइल फ़ोन * । तुमने दो लाख का * मोबाइल फ़ोन खरीद लिया और यहाँ पर स्वयंसेवियों ने कहा कि नियम है, इसे बाहर छोड़ना पड़ेगा। अब बैठे तो अंदर हो, शांत हो अशांत हो? स्वार्थ पूरा भी हो रहा है? लिया किसलिए था? कि क्या पता इसी से शांति मिल जाए। मिल रही है क्या, या जीवन में और अशांति आ गई?
इसलिए कह रहा हूँ कि मोह झूठ है। वो तुमको वो नहीं दे रहा जो तुम उससे चाहते हो। तुम उसको जीवन में रखे हुए हो पर उस सम्बन्ध की बुनियाद ही झूठी है। ये जान लेना, ये साफ़-साफ़ अपने जीवन में देख लेना सीधे मुक्ति दिला देता है।
आप एक छोटी सी डिबिया ले करके भागे जा रहे हो, उसको बिलकुल सीने से चिपका करके। और कोई पूछे, “क्यों इसको सीने से लगा रखा है? क्यों इसके पीछे प्राण देने को उतारू हो?” आप कहेंगे, “इसमें हीरा है, हीरा। इस हीरे से मेरी सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। बड़ा कीमती है, मेरी सारी दरिद्रता दूर कर देगा। और तिलिस्मी हीरा है, नागमणि है, उड़ते हुए साँपों के माथे से निकाली गई है। ये मणि घर में रखूँगा तो बड़ी शुभ सम्पदा उतरेगी।” और ऐसे चिपका रखा है।
मैं नहीं कहूँगा कि आप उसको फ़ेंक दीजिए। अगर वाकई उसमें वही हीरा है जो आप बता रहे हैं तो उसको बिलकुल छाती से चिपकाकर रखिए। पर मैं इतना तो कहूँगा कि उस डिबिया, उस पिटारी को थोड़ा सा खोल करके देख लो उसमें है क्या। इतने मोहित हो, एक बार जाँच तो लो कितने मोहित हो। क्या पता उसमें कुछ हो ही न? क्या पता उसमें कोई साधारण पत्थर हो?
तुम्हारी आशाएँ पूरी नहीं होने वाली। मोह भाव झूठ है, तुम्हें निराश होना पड़ेगा, बड़ा दुःख होगा। जब तक उसे सीने से लगाए घूम रहे हो, तब तक दुःख है कि कहीं कोई चुरा ना ले, कहीं कुछ छिन ना जाए, कहीं ये जो नन्ही सी चीज़ है मेरे पास, इसकी हानि ना हो जाए, तब तक इस दुःख में जी रहे हो। घोर दुःख है न ये? चैन से सो नहीं सकते, आराम की साँस नहीं ले सकते; लगातार अंदेशा बना रहता है हानि का, चोरी का, नुकसान का। आज इस दुःख में हो, और कल जब असलियत खुलेगी तब पोल खुलने के दुःख में जियोगे। तुम तो दोनों ही दशाओं में दुःख में जियोगे।
जब तक हीरा समझकर छाती से चिपटाए हुए हो, तब तक चोरी का, सुरक्षा का दुःख है। और जिस दिन खुली वो पिटारी और भीतर पाया कि कुछ नहीं है या बस कंकड़-पत्थर हैं, उस दिन पूरे जन्म के व्यर्थ जाने का दुःख सामने खड़ा हो जाएगा।
इतना तो समझा रहे हैं कृष्ण, सब कर्म प्रकृति के वशीभूत होकर हो रहे हैं। तुम व्यर्थ ही कर्ता बने बैठे हो। प्रकृति जीव को भरती है अहंता, मोह, ममता से। उसमें प्रकृति के अपने निहित उद्देश्य हैं, खासतौर अगर आप स्त्री हैं तब तो पूछिए ही मत। जीव व्यवस्था चलाने के लिए ज़रूरी है कि स्त्री के रेशे-रेशे में मोह-ममता भर दी जाए।
पर क्या स्त्री हो आप? जो भीतर बेचैनी बैठी है, उसका लिंग है क्या कोई? बोलो। तो स्त्री हो नहीं तुम। मैं नहीं कह रहा हूँ कि आत्मा का कोई लिंग नहीं होता। तुम्हारे भीतर जो अतृप्त चेतना है, उसका भी तो कोई लिंग नहीं होता न? वो चैन माँग रही है, स्त्रैण चैन तो नहीं माँग रही? स्त्री और पुरुष का चैन तो अलग-अलग नहीं होता न? स्त्री और पुरुष की नींद अलग-अलग होती है क्या? हाँ, जग जाएँ तो अलग-अलग हो जाएँगे। दोनों जब सो ही गए हैं, आराम और विश्राम में प्रवेश कर गए हैं, तब स्त्री और पुरुष अलग-अलग होते हैं क्या? वही आराम चाहिए न तुमको? तो स्त्री कहाँ हो तुम?
ऊपर-ऊपर से स्त्री हो और प्रकृति तुमसे ऊपर-ऊपर के सारे काम करवाए जा रही है। नतीजा यह है कि तुम जो हो, उसकी माँगें पूरी करने के लिए तुम्हारे पास कोई वक़्त ही नहीं, कोई ऊर्जा ही नहीं बची।
इतना समझाता है अध्यात्म कि प्रकृति नहीं हो तुम। प्रकृति तो अपना काम निपटाए ले रही है तुम्हारी देह के माध्यम से, तुम कुछ अपने हित भी तो देखो। प्रकृति तुम्हारा उपयोग भर कर रही है। एक तरह से बेवकूफ़ बना रही है प्रकृति तुमको और तुम बने जा रहे हो। अपना हित कब देखोगे?
बड़ा यह खतरनाक खेल चलता है भीतर। अकेलापन तुम हटाना चाहते हो। जब तक दूसरा तुम्हारे साथ नहीं है, तब तक अकेलापन खाए जाता है। जब दूसरा व्यक्ति साथ आता है, तब अकेलेपन के हटने की सम्भावना पैदा होती है। लेकिन वो संभावना साकार तभी हो सकती है जब दूसरे व्यक्ति के साथ तुम बेहोश हो जाओ। दूसरे व्यक्ति के साथ रहते हुए भी अगर तुमने अपनी चेतना थोड़ी भी जाग्रत रखी तो तुम पाओगे कि दूसरे के साथ के होते हुए भी तुम बड़े अकेले हो। यही वजह है कि हम अपने अकेलेपन में तो फ़िर भी थोड़ा होश बरक़रार रख लेते हैं, जब दूसरे की संगत में आते हैं तो हमारे लिए बेहोश होना अनिवार्य हो जाता है; क्योंकि उस बेहोशी में ही तुम्हें अकेलेपन के मिटने की अनुभूति होगी।
तुम दूसरे की संगत कर ही इसीलिए रहे हो न कि अकेलापन मिटे? पर दूसरे की संगत अकेलापन नहीं मिटाती तुम्हारा; दूसरे की संगत में तुम पर जो बेहोशी छाती है, वो तुम्हारा अकेलापन मिटाती है। उस बेहोशी को अपने ऊपर छाने देना या ना छाने देना चुनाव होता है।
दूसरे की संगत में तुम्हारे लिए और ज़रूरी हो जाता है कि तुम बेहोश हो जाओ, नहीं तो रिश्ता ही बना नहीं रहेगा। दूसरा तुम्हारे साथ है और उस वक़्त तुम अपनी चेतना बरक़रार रख लो, रिश्ता टूट जाएगा। जब तुम उसके साथ हो, खासतौर पर उसके साथ जो तुम्हारा अकेलापन मिटाने का साथी है, और तुम अपनी चेतना सुदृढ़ रख लो, तुम उससे बातचीत ही नहीं कर पाओगे।
तो यह मत कहो कि दूसरे के साथ रहने से अकेलापन मिटता है, यह कहो कि दूसरा जब निकट आता है तो एक परस्पर बेहोशी का मादक माहौल छा जाता है। उस मादक माहौल में सो जाते हैं, नशे में आ जाते हैं, लगता है अकेलापन मिट गया। एक सपना छा जाता है, लगता है अकेलापन मिट गया। अकेलापन मिटा नहीं है बल्कि और गहरे गिर गए हो, और गड्ढे में गिर गए हो।
कोई मिल जाए तुम्हें ऐसा जिससे तुम होश का सम्बन्ध बना सको, कि चेतना उठी हुई है और तब अकेलापन दूर हो, तो बात दूसरी है, वो बात अलग है। पर ऐसा कोई मिला तुम्हें तो उसके होने का परिणाम होगा तुम्हारे होश का खुलना। होश जितना खुलेगा, उतना तुम्हें दूसरे की ज़रूरत कम होती जाएगी।
तुम्हारी ज़िन्दगी में दूसरा महत्वपूर्ण बना रहे इसके लिए ज़रूरी है कि दूसरे के होने से तुम्हारे जीवन में बेहोशी बनी रहे। तो दूसरे का स्वार्थ ही इसमें है कि तुम्हें बेहोश रखे और तुम्हारा स्वार्थ इसमें है कि तुम दूसरे को बेहोश रखो। जितना दोनों बेहोश रहोगे, उतना दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत रहेगी।
इसीलिए ये जो जोड़ों के रिश्ते होते हैं, बड़े खतरनाक होते हैं। तुम्हारा जोड़ीदार कभी चाहेगा ही नहीं कि तुम होश में आओ; क्योंकि होश में आने का मतलब है जोड़ा टूटा। और न तुम कभी चाहोगे कि तुम्हारा जोड़ीदार होश में आए। बल्कि जहाँ दिखाई देगा थोड़ा-बहुत भी कि होश की किरण उतर रही है, वही खतरा छा जाएगा, घंटियाँ टनटना उठेंगी, “कुछ खतरनाक हो रहा है, कुछ खतरनाक हो रहा है। अरे, ये तो जग रहा है! सुलाओ रे!” यह व्यवस्था प्रकृति ने दी है।
होश के उठने और होश के गिरने का अर्थ समझो। जितना तुम प्रकृतिस्थ होते जाओ, जितना तुम देहभाव में, वृत्तिभाव में लिप्त होते जाओ, तुम्हारा होश उतना गिर रहा है, होश का पतन हो रहा है, अधोगमन हो रहा है। और जितना तुम प्रकृति से छिटकते जाओ, दूर होते जाओ, उतना तुम्हारा होश चढ़ रहा है, ऊर्ध्गमन हो रहा है।
जिसके होने से तुम और ज़्यादा शरीर ही अनुभव करो अपने-आप को, वो तुम्हारी ज़िन्दगी में बेहोशी लेकर आया है। वो तुमसे सम्पृक्त ही इसीलिए है क्योंकि तुम किसी विशेष लिंग के हो या रक्त इत्यादि से सम्बंधित हो। उस बेचारे की मजबूरी है कि वो तुम्हारी ज़िन्दगी में बेहोशी ही ले करके आएगा—दोष नहीं दे सकते। यह व्यवस्था ही ऐसी बनी हुई है। किसी को दोषी ठहराने की कोई बात ही नहीं है। खेल ही गड़बड़ है, किसी खिलाड़ी पर क्या दोष रखें? खेल प्रकृति का है, हम क्यों बोलें कि उसमें कोई बड़ा खिलाड़ी है जो अपराधी है?
तुम अपनी पत्नी के सामने अपनी प्रकृति को छोड़ सकते हो क्या? बड़ा मुश्किल है। उससे कहोगे क्या कि "मैं तो विशुद्ध चैतन्य मात्र हूँ"? क्योंकि विशुद्ध चैतन्य मात्र हो तो कौन किसका पति, कौन किसकी पत्नी? रिश्ता ही खतरे में पड़ जाएगा। तुम पति बने रहो इसके लिए आवश्यक है कि तुममें देह भाव बना रहे। “मैं कौन हूँ? मैं पुरुष हूँ।” और रिश्ता ऐसा है जिसमें देह के आदान-प्रदान की पूरी गुंजाइश है। मामला गड़बड़ हो जाता है न। और इसमें न स्त्री को दोषी बता रहे हैं, न पुरुष को, न पति, न पत्नी को। बस मैं तुमको बता रहा हूँ कि यह व्यवस्था ही इस तरह से रची हुई है कि तुम इसमें फँसे रहोगे।
माँ की गोद में बच्चा है। वो कैसे कह देगी कि 'मैं तो चेतना मात्र हूँ जिसको पूर्णता और मुक्ति की तलाश है'? वो बच्चा चिल्ला रहा है, उसका हाथ पकड़ रहा है, उसकी छाती पर हथेली मार रहा है, कह रहा है कि "दूध पिलाओ!" पूरा रिश्ता ही देह का है। बच्चे की उपस्थिति में माँ चेतना कहाँ से बन पाएगी, भाई? बच्चा तो ‘आ-आ’ करके माँ को बोलता है, “तू देह है, तू देह है, तू देह है। तू देह है और तू मेरी देह का ख्याल कर।” और इसमें बच्चे के होने या न होने, मैं फ़िर कह रहा हूँ, मैं अच्छा-बुरा नहीं ठहरा रहा। मैं बस आपको बता रहा हूँ कि यह व्यवस्था किस तरह से निर्मित है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि बच्चा बड़ी बुरी चीज़ होता है। नहीं, मैं बस बता रहा हूँ कि बच्चा क्या चीज़ होता है।
आपका अकेलापन दूर नहीं होता है, आप बेहोश हो जाते हो। बेहोशी में कौन सा अकेलापन? अकेलापन अनुभव हो, उसके लिए भी थोड़ा होश, थोड़ी चेतना चाहिए न? किसी की उपस्थिति आपको एकदम ही बेहोश कर दे, अकेलपन मिट गया। और अकेलापन मिट सकता है अगर किसी की उपस्थिति आपको उठा दे, आत्मा की तरफ़ बढ़ा दे, तब भी अकेलापन मिट सकता है। वैसा साथी हमें मिलता नहीं।
आमतौर पर जिनकी मौजूदगी में हमारा अकेलापन दूर होता है, वो वही होते हैं जो हमारी चेतना को गिरा देते हैं।
कृष्ण के साथ है अर्जुन। अर्जुन का भी अकेलापन दूर हो रहा है, पर अब उसकी चेतना गिर नहीं रही है, उठ रही है। वैसी पत्नी मिल जाए, बात क्या है! वैसा पति मिल जाए, दोस्त मिल जाए, बात क्या है!
और हम प्रकृति विरोधी नहीं हैं। समझिएगा, प्रकृति जब तक बाहर-बाहर है, बड़ी प्यारी है। प्रकृति जब भीतर बैठ गई, बड़ी खतरनाक है। ये जो बाहर की प्रकृति है, इससे प्रेम करो, इसकी सुरक्षा करो। पौधे, जीव-जंतु, जंगल, नदी, पहाड़, झरने, रेगिस्तान बड़े सुन्दर हैं, बड़े प्यारे हैं जब तक वो दृष्टि का विषय हैं। लेकिन जैसे ही तुमने प्रकृति से तादात्म्य किया, तुम कहीं के नहीं बचोगे। तुम कहीं के नहीं बचोगे और फ़िर बाहर जो प्रकृति है, तुम उसे भी आग लगा दोगे, जंगल काट दोगे, नदियाँ ख़राब कर दोगे, पौधों को खा जाओगे, जानवरों की हत्या करोगे।
इसी बात को सांख्य योग कहता है - प्रकृति और पुरुष का सम्यक रिश्ता है कि प्रकृति अपना खेल करे, नाचे, और पुरुष चुपचाप दूरी से बस देखे, निहारे, मौन रहे, मुस्कुराए। उसे देखो, उसके साथ लिप्त मत होओ। देखने भर में बड़ा आनंद है। लिप्त हो गए, कहीं के नहीं बचोगे।
सुन्दर फूल खिला है, उसकी खुशबू है, खुशबू सूँघ लो, फूल को निहार लो। लिप्त मत हो जाना, तोड़ करके बालों में मत लगा लेना। अब तुमने प्रकृति का भी नुकसान कर दिया और अपना भी। दूर-दूर से फूल बड़ा सुहाना है, सब फूलों को दूर से ही निहारा करो। और ये फूलों के बहिष्कार की बात नहीं हो रही है, हम फूल विरोधी नहीं हैं। शुरू में ही कहा कि यह प्रकृति के विरोध की बात नहीं हो रही है, यह प्रकृति से उचित रिश्ता रखने की बात हो रही है। खरगोश खेल रहे हैं, देखो न। क्या करोगे? उनके ऊपर कूदोगे? क्या करोगे?