गीता नहीं चाहिए, संविधान काफ़ी है! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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गीता नहीं चाहिए, संविधान काफ़ी है! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी कुछ लोगों से भी सुन रहा था और यूट्यूब पर कमेंट्स (टिप्पणियों) में पढ़ा है, कि “गीता-वगैरह की अब ज़रूरत क्या है? अब तो संविधान ही आज की गीता है।" तो इस बारे में कुछ कहें।

आचार्य प्रशांत: सौ से अधिक संविधान-संशोधन हो चुके हैं, सौ से अधिक अमेंडमेंट्स हो चुके हैं कॉन्स्टिट्यूशन (संविधान) में; गीता में कितने हुए हैं?

प्र: एक भी नहीं।

आचार्य: काहे भाई! गीता में क्यों नहीं किए? आजकल ये खूब चल रहा है, "क्या बाइबिल! क्या गीता! क्या क़ुरान! हमारा तो धर्म है संविधान।" मूर्खों! ये बोलने का अर्थ है कि न तो तुम्हें गीता पता है और न ही संविधान; गीता तो छोड़ दो, तुम्हें संविधान भी नहीं पता है। तुम्हें संविधान का भी कुछ पता होता तो तुम ये नहीं कह पाते, कि "गीता की क्या ज़रूरत? आज का धर्मशास्त्र तो संविधान है।"

कभी सिम्पल मेजोरिटी (सामान्य बहुमत) से, कभी टू-थर्ड मेजोरिटी (दो-तिहाई बहुमत) से संविधान बदल दिया जाता है; गीता बदली जा सकती है? केशवानंद भारती केस (मामला) हुआ था, उसमें कोर्ट ने, सुप्रीम कोर्ट ने बोल दिया था, “मूल ढाँचे को छोड़ कर के, जो बेसिक स्ट्रक्चर ऑफ़ कॉन्स्टिट्यूशन (संविधान का बुनियादी ढाँचा) है, उसको छोड़ करके सब बदल सकते हो; बस वही है जो नहीं बदल सकते।" क्यों बदल सकते हो? क्योंकि हमने बनाया है, हम बदल देंगे। तुमने बनाया है, तुमने अपने मन से बनाया है, अपनी स्थितियाँ देख कर बनाया है; एक समय की बात है, तुमने बना दिया।

तुमने बनाया है, तुम बदल भी सकते हो। अगर तुम बदल नहीं सकते तो ये तो टिरनि ऑफ़ कॉन्स्टिट्यूशन (संविधान का अत्याचार) हो गई न, कि किसी और का बनाया संविधान तुम्हें ढोना पड़ रहा है। हमारी ज़िंदगी है, तो हमारा संविधान होगा न? जिन्होंने बनाया था, उन्होंने अपनी बुद्धि से बनाया था, हम उनको अथॉरिटी (प्राधिकारी) क्यों मानें भाई? और अगर किसी की अथॉरिटी स्वीकार करनी ही है, तो फिर वो बात ग़ुलामी से अलग कैसे हो गई? अँग्रेज़ अपने नियम-क़ायदे चलाएँ, तो हम कहते हैं, "ये तो गलत बात है, हमने तो बनाए नहीं," और सत्तर-साल पहले बनाए गए नियम-कायदे चल रहे हों, तो वो चीज़ सही कैसे हो गई, वो भी तो हमने नहीं बनाए थे।

यही अंतर है संविधान में और गीता में। संविधान इंसान ने बनाया है; वो बदला जा सकता है, बदला जाता है, बदला जाना चाहिए। और संविधान का उद्देश्य समाज चलाना है; संविधान में एक बार भी 'आई' (मैं) शब्द नहीं आता, संविधान आपके आतंरिक जगत की बात नहीं करता। संविधान बस चाहता है कि ये जो कंट्री (देश) है, ये ज़रा सहूलियत से चलती रहे। लेकिन आप कंट्री नहीं हो, आप अपने मन में जीते हो, मन कैसे चलेगा ये बात संविधान नहीं बताता; ये बात गीता बताती है। तो संविधान और गीता में कौन-सी तुलना आ गयी भई? संविधान और गीता एक कैसे हो गए? क्या मूर्खता की बात है ये?

संविधान देश के लिए है; और गीता से राष्ट्र बनते हैं। अंतर समझिएगा साफ़-साफ़। देश राजनैतिक होता है, देश न भी रहे तो भी राष्ट्र नहीं मिट जाता। भारत ‘राष्ट्र’ देश पर आश्रित नहीं है; जब भारत देश नहीं भी था राजनैतिक रूप से, बँटा हुआ था या परतंत्र था, ‘राष्ट्र’ भारत तब भी था। देश ने तो जन्म अभी लिया है, सैंतालीस में; ‘राष्ट्र’ बहुत पुराना है, क्योंकि भारत राष्ट्र का आधार है गीता, वेदांत। इसीलिए मुझे विचित्र लगता है जब हम कहते हैं ‘राष्ट्रपति’; (हँसते हुए) कोई व्यक्ति राष्ट्र का पति कहाँ से हो गया? राष्ट्रपति अगर कोई हैं तो कृष्ण हैं, उपनिषदों के ऋषि हैं; राष्ट्रपति हैं यदि तो वेद हैं, वेदांत है। पर मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि देश एक ऐसा तैयार किया गया है जो अपने पाँव पर ठीक से आज तक खड़ा ही नहीं हो पा रहा। वो देश, जो हमारे ही साथ स्वतंत्र हुए या हमारे बाद स्वतंत्र हुए, हमसे हर क्षेत्र में कहीं आगे निकल गए हैं।

व्यक्ति पहले आता है, व्यक्ति से समाज बनता है; जो भी ग्रंथ व्यक्ति की बात करेगा, वो सर्वोपरि होगा। संविधान आपको प्रेम नहीं सिखाएगा; संविधान में 'लव' (प्रेम) शब्द कितनी बार आता है? कितनी बार आता है? तो तुम संविधान पर ही चलते रहोगे तो प्रेम कहाँ से सीखोगे? हाँ, गीता तुम्हें प्रेम सिखा देगी। संविधान एक तल की चीज़ है, अपने तल पर वो बहुत अच्छा भी हो सकता है, अपने तल पर वो बहुत बुरा भी हो सकता है; गीता का तल ही दूसरा है, संविधान बहुत अच्छा भी हो जाए तो भी वो गीता के तल का नहीं हो सकता। अंतर समझ रहे हो? डाइमेंशनल डिफ़रेंस (तल-गत भेद) है।

एक चीज़ रखी हुई है पहली मंज़िल पर एक इमारत की, और एक चीज़ रही हुई है दसवीं मंज़िल पर। पहली मंज़िल पर जो चीज़ रखी है वो पहली मंज़िल की सीलिंग (छत) तक भी पहुँच जाए तो भी कितनी ऊँची हो जाएगी? वो तो दूसरी मंज़िल पर भी नहीं पहुँची, क्योंकि वो सीमित है पहली मंज़िल से, वो अधिक-से-अधिक छत तक पहुँच सकती है पहली मंज़िल की। और जो चीज़ दसवीं मंज़िल पर रखी है, उसमें बहुत दोष भी आ जाएँ, वो तो भी कहाँ है? वो बहुत गिर गयी है, तो भी कहाँ गिरी है? वो दसवीं मंज़िल के फ़र्श पर गिरी है, वो पहली मंज़िल की चीज़ से तब भी बहुत ऊपर रहेगी।

भारत का संविधान न जाने कितने देशों के संविधान से उधार लेकर बना है; गीता कहाँ से उधार लेकर बनी है? कहिए। सत्य ही अमर होता है, बाकी सब परिवर्तनशील होता है; गीता नहीं बदलने की, बाकी सब परिवर्तित हो जाएगा। तो व्यर्थ तुलना न किया करें।

स्पष्ट है?

इसीलिए, किसी ने पूछा था, मैंने कहा था, “देशभक्ति बहुत छोटी चीज़ है, तुम्हें करनी ही है तो राष्ट्रभक्ति करो, और देश और राष्ट्र का अंतर समझो।"

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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