विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।२.५९।।
इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है। ~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५९
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।२.६०।।
हे अर्जुन! इंद्रिय इतनी प्रबल तथा भगवान है कि जो मनुष्य इंद्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है उसे विवेक मनुष्य के मन को भी बलपूर्वक कर लेती हैं। ~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ६०
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि स्थिरबुद्धि वाले मनुष्य की आसक्ति भी परमात्मा के साक्षात्कार से मिट जाती है। और अगले ही श्लोक में कह रहे हैं कि इन्द्रियाँ बलपूर्वक विवेकी मनुष्य को भी हर लेतीं हैं। तो आचार्य जी, इसमें हमारी साधना कैसी होनी चाहिए कि हम इन्द्रियों के वश में न रहें और सत्य के रास्ते पर आगे बढ़ सकें? कृपया मार्गदर्शन दें।
आचार्य प्रशांत: दो बातें हैं — पहली, इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करना और दूसरी परमात्मा का साक्षात्कार। कह रहे हैं श्रीकृष्ण कि बड़ी ज़बरदस्त क्षमता है इन्द्रियों। में सबको उठा ले जाती हैं, हरण कर लेती हैं। इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि जो मनुष्य इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है उस विवेकी मनुष्य के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं। बड़ी ताक़त है।
फिर कहा है कि इन्द्रियाँ अपनी ताक़त के लिए विषय ढूँढती हैं। इन्द्रियों के पीछे बैठी है, वृत्ति और इन्द्रियों के आगे होता है, विषय। दोनों चाहिए। इन्द्रियों की ताक़त को बनाने के लिए ये दोनों चाहिए। वृत्ति क्या? 'विषय चाहिए मुझे अपनी पूर्णता के लिए।’ किसकी वृत्ति है ये? अहम् की। इन्द्रिय के पीछे बैठा है अहम् और अहम् इन्द्रिय तक संदेसा पहुँचा रहा है वृत्ति के माध्यम से। वृत्ति क्या कह रही है इन्द्रिय से? ‘विषय ढूँढो, विषय ढूँढो।’ पीछे सत्तासीन हैं अहम्, महाराज को विषय चाहिए। तो इन्द्रिय सेवक की तरह, चाकर की तरह अहम् के लिए क्या ढूँढने जाती है? विषय। तो इन्द्रिय के पीछे है वृत्ति और इन्द्रिय के आगे है विषय।
तो इन दोनों ही बातों पर श्रीकृष्ण प्रकाश डाल रहे हैं। कह रहे हैं, ‘देखो बेटा, पहला काम तो ये करो कि विषयों से अपनेआप को बचाओ। हालत तो अपनी जानते हो न। कमज़ोर हो, और अभ्यास नहीं तुम्हारा। फिसलन भरे रपटीले स्थान पर पड़ोगे तो रपट ही जाओगे। फिसलकर धड़ाम से गिरोगे। बड़ा अभ्यास चाहिए फिसलन भरी, ढलुवाँ जगह पर भी पाँव जमाकर सन्तुलन के साथ चलने का। तुम्हारा उतना अभ्यास नहीं है। तो जब दिख रहा है सामने फिसलन भरी, काई भरी ढलान है, तो अपने दुश्मन हो क्या बार-बार इस पर कदम रखने पहुँच जाते हो इस अतिविश्वास के साथ भरकर कि इस बार नहीं फिसलेंगे, इस बार नहीं गिरेंगे? अतीत देखो अपना। जितनी बार तुमने उस फिसलने वाली जगह पर कदम रखा है, विश्वास से भरके उतनी बार तुम औंधे मुँह गिरे हो, चोट खायी है, पिटे हो। लेकिन हर बार सीखने की जगह, एक मूर्खतापूर्ण अति विश्वास से विभोर होकर तुम फिर पहुँच जाते हो।’
जब जानते हो कि सामने वाला पहलवान एक-सौ-दस किलो का है, और तुम हो फैदर वेट (पंख जितना वज़न) तो काहे उससे हाथ-पाँव तुड़वाने पहुँच जाते हो? नहीं! तुमको कायर बनने को नहीं कहा जा रहा। तुमसे कहा जा रहा है कि अगर हाथ-पाँव तुड़वा लोगे तो जितनी ताक़त है, उतनी भी गँवा दोगे। अगर तुम ये इरादा बता रहे हो, अगर तुम्हारा तर्क ये है कि साहब अगर हम एक-सौ-दस वाले पहलवान से दूर-दूर रहेंगे तो उससे फिर कभी भी जीतेंगे कैसे। तो हम तुमसे कहेंगे कि एक-सौ-दस किलो वाले पहलवान से अगर जीतना है तो बहुत दिनों तक उससे दूर-दूर रहो, दूर-दूर रहकर क्या करो? अभ्यास। श्रीकृष्ण दो मन्त्र देते हैं, बड़े सुन्दर, कहते हैं — अभ्यास और वैराग्य। इनसे सबकुछ जीत सकते हो।
उसको अगर पछाड़ना भी है तो उससे दूर रहो। फिर जब पाओ कि थोड़ी ताक़त बढ़ गई है तो जाओ थोड़ा प्रयोग करके देखो। थोड़ा उसको चिढ़ाओ, थोड़ी चुनौती दो, कहो बस एक राउंड खेलना है, पूरी लम्बी वाली नहीं। उतने में थोड़ा पानी की गहराई का जायज़ा मिल जाएगा। कौन कितने पानी में है पता चल जाएगा। और फिर वापस आ जाओ। और फिर थोड़ी और ताक़त बढ़ाओ, फिर जाओ, थोड़ा सा प्रयोग करो और फिर जब पिटने लगो तो कहो, ‘नहीं, नहीं, नहीं, बस हो गया। इतना ही आज। आप तो उस्ताद हैं, मेरी क्या मजाल आपको छेड़ूँ? बस ऐसे ही, मैं तो आपको इज़्ज़त देने आया था।’
ऐसे-ऐसे करके, ज़रा परे रहके, ताक़त बढ़ाओ। ये दमन और शमन की विधियाँ हैं। और बहुत-बहुत लाभकारी और आवश्यक हैं। आधुनिक अध्यात्म ने सप्रेशन (दमन) शब्द को बड़ा अपमानित कर दिया है। लोग आते हैं कहते हैं— नो-नो, बट दिस इज़ सप्रेशन, आइ डोंट वॉन्ट टू सप्रेस माइ थॉट्स एंड फीलिंग्स (नहीं, नहीं, लेकिन ये दमन है। मैं अपनी विचारों और भावनाओं का दमन नहीं करना चाहती)। इस तरह की बातें अंग्रेज़ी में ही होती हैं, फिर मुझे बोलनी पड़ती हैं। हिंदी वाले इतने बेवकूफ़ नहीं होते।
तो आप ये कहेंगे, ‘नहीं, नहीं — नो सप्रेशन, माइ थॉट्स, माइ फीलिंग्स, माइ डिज़ायरस, माइ पैशंस’ (‘दमन नहीं, मेरे विचार, मेरी भावनाएँ, मेरी कामनाएँ, मेरा जुनून’)। अरे बाबा! वो विचार नहीं तुम्हारा, वो भाव भी तुम्हारा नहीं है, वो कामना भी तुम पर आरोपित है, तुम क्यों कह रहे हो ’माइ थॉट, माइ डिज़ायर’? उसमें से कुछ भी तुम्हारा नहीं है। तुम क्यों उसको प्रश्रय दे रहे हो? तुम परायी आग को हवा दे रहे हो। तुम किसी और के अंडे से रहे हो। तुम मरे जा रहे हो एक ऐसी चीज़ की रक्षा के लिए जो तुम्हारी है नहीं। तुमने एक झूठी, परायी, आयातित चीज़ से तादात्म्य कर लिया है। और अब कह रहे हो, ‘नहीं, मैं इसका दमन-शमन कैसे करूँ, सप्रेशन तो बुरी बात है न?’
अच्छा किसने बताया कि सप्रेशन बुरी बात है? ‘वो फ़लाने-फ़लाने आजकल वो, पिछले भी ... गुरुजी हुए हैं। वो बोले — नहीं, नहीं, नहीं, आग जब भड़के तो और भड़काओ। सप्रेशन नहीं कर देना। इन्होंने कहा था कि दुनिया के सारे पुराने धर्मों का इतिहास ही आदमी के दमन का इतिहास है और दमन बहुत हुआ अब हम नया धर्म चलाएँगे। तो दमन बिलकुल ग़लत बात है। दमन नहीं करना चाहिए।’ और यही तो तुम सुनना चाहते थे।
अंधे को क्या चाहिए? दो आँखें। लालची को क्या चाहिए? दाम। और कामी को क्या चाहिए? काम। और जहाँ गुरूजी ने बोला, ’सप्रेशन बिलकुल बुरी बात नहीं है, सप्रेशन बहुत बुरी बात है।’ बाँछें खिल गयीं बिलकुल कि गुरूजी ने कहा है कि सप्रेस (दमन) नहीं करना है। सप्रेस नहीं करना है माने? ‘अब मजे मारो रे।’ अब तो लाइसेंस मिल गया। अब तो हमको बताया गया है कि भोग से ही योग होना है बेटा। मारी सीटी लग गये।
यहाँ भोग, उधर भोग, उधर भोग, हर कोने में ,जिसको देखो वो ही समाधि पा रहा है। कैसे पा रहे हो समाधि? मनुष्य शरीर में जितनी गुफाएँ हैं सबमें भिन्न-भिन्न की, भाँति-भाँति की समाधियाँ मिलती हैं। तो ‘हम उन्हीं में प्रवेश करके समाधि खोज रहे हैं।’ अब ये अंडे में समाधि मिलेगी तुमको? पागल!
लेकिन जब पूरी दुनिया ही भोगवादी हो जाए तो दमन-शमन, इन शब्दों से अरुचि होना बड़ी ज़ाहिर सी बात है। दुनिया में भोग की चीज़ें फैलती ही जा रही हैं, फैलती ही जा रही हैं। इतने उद्योग हैं, इतनी कम्पनियाँ, इतने बाज़ार हैं उनमें लगातार नये-नये उत्पाद आ रहे हैं। इतने लोग हैं, साज-सज्जा के, अपनेआप को आकर्षक बनाने के नये-नये तरीके सामने आ रहे हैं। और ये सब किसलिए हो रहा है बेटा? ताकि तुम भोगो। जितने बाज़ार हैं उतने कभी थे पहले? जितनी रौनकें हैं उतनी थीं कभी पहले? और जितनी आसानी से तुम जो चाहो उपलब्ध हैं, इतनी उपलब्धता कभी थी पहले? बोलो।
दुनिया में जिस जगह चाहो उड़कर पहुँच सकते हो। जो सामान चाहिए अमेज़न से ऑर्डर कर सकते हो। जो खाना है वो अभी यहीं आ जाएगा सामने। इंटरनेशनल सुपारी चलती है — ‘किसको मरवाना है रे?’ कोई ऐसा देश है जहाँ के साथ वित्तीय आदान-प्रदान नहीं हो पा रहा, कोई बात नहीं, क्रिप्टो करेंसी है। जो चाहिए सब मिलेगा। भोगो। स्त्री चाहिए? बताओ कौनसी चाहिए? अच्छा वो वाली? ‘नहीं, नहीं, नहीं, वो नहीं।’ तो कोई बात नहीं उसकी जैसी गुड़िया बना देंगे, डॉल। वो मिल जाएगी। भोगो।’ अगर रिएलिटी (वास्तविक) में नहीं मिल सकती कोई चीज़ तो वर्चुअल रिएलिटी (आभासी वास्तविकता) में मिलेगी, भाई। ‘भोगो।’
इसीलिए नया-नया अध्यात्म ताज़ा-ताज़ा तैयार करके परोसा जा रहा है, जिसमें दमन और शमन का बड़ा निषेध है। और इन्द्र यहाँ, इन्द्रियों के ही दमन की बात, इन्द्रियों पर ही नियन्त्रण की बात यहाँ पर श्रीकृष्ण कर रहे हैं। कह रहे हैं, ‘पहला काम तो ये करो कि इन्द्रियों को उनके विषयों से ज़रा दूर रखो।’ कौनसे विषयों से? उन विषयों से जिनको लेकर के वृत्ति की ये धारणा है कि उनके भोग से पूर्णता मिल जाएगी। अब भाई आँखें खुलेंगी तो कुछ तो देखेंगी ही न। आँखों को ये तो नहीं कर पाओगे कि कोई विषय न दो। आँख को उस विषय से ज़रा दूर रखो जिस विषय की मन को बड़ी अभीप्सा है, मन को बड़ी लालसा है क्योंकि जिस विषय की मन को लालसा है उस विषय से मन को धोखा मिलना है। तो अगर तुम लालसा वाले विषय से मन को दूर कर देते हो तो वास्तव में मन को तुमने बचा दिया धोखा खाने से और दुख पाने से। बात समझ में आ रही है?
तो भारत ने इस बात को समझा है। और ये बहुत मूल सिद्धान्त की, एकदम ज़मीनी बोध की बात है। फ़ंडामेंटल, कल्चरल, प्रिंसिपल (मौलिक, सांस्कृतिक सिद्धान्त) रहा है भारत में कि ऐसी जगहों से, ऐसे लोगों से बचो जहाँ पर तुम्हारी वासनाओं को, तुम्हारी कामनाओं को उत्तेजना मिलती हो।
भाई! माया तो उत्तेजना का सामान ख़ुद-ब-ख़ुद प्रकट कर देती है तुम्हारे सामने, तुम्हारे न चाहते हुए भी। तो तुम चाहकर भी पूरी तरह तो बच पाओगे नहीं। लेकिन अपनी ओर से जितना बच सकते हो बचो भाई। कम-से-कम जानते-बूझते तो ख़ुद ही फिसलन भरी ढलान की ओर मत जाओ। बाक़ी तो ऐसा भी हो सकता है कि सीधी सड़क पर भी चलते-चलते कोई फिसल ही जाए। हो सकता है। पर सीधी सड़क पर, सूखी सड़क पर, चलते-चलते तुम फिसलो तो बात क्षम्य है। लेकिन जानते-बूझते, इरादतन तुम फिसलन भरी ढलान की ओर गये तो उसकी कोई क्षमा नहीं।
पहली चीज़ — दमन-शमन। इन्द्रियों पर ज़रा अंकुश, थोड़ा नियन्त्रण। कामना के घोड़े की नाक में नकेल और लगाम कड़ाई से सद्बुद्धि के हाथ में, विवेक के हाथ में — ये पहली बात।
फिर आगे की बात करी है। कहा है कि लेकिन इतने भर से काम नहीं चलेगा क्योंकि दो चीज़ें थीं, इन्द्रिय के आगे था विषय और पीछे बैठी थी वृत्ति। तुमने विषय तो हटा दिया। हालाँकि विषय भी शत-प्रतिशत नहीं हटा सकते। विषय भी गाहे-बगाहे, अनजाने में सामने आ ही जाना है। पीछे तो लेकिन अभी वो देवीजी बैठी ही हुई हैं न, कौन? वृत्ति। तो फिर कह रहे हैं कि वो तो तभी हटेगी जब परमात्मा का साक्षात्कार हो जाएगा। इसका क्या मतलब है?
इसका मतलब है कि जो पीछे बैठी है वो किसी वजह से ही इन्द्रियों को बोलती है न कि ये तलाशो, ये तलाशो, फ़लानी चीज़ मिल जाए, फ़लाना उपलब्धि हो जाए, ये पदार्थ मिल जाए, वो मिल जाए, ये सब। वो वजह क्या है हम उसकी चर्चा कर चुके हैं। वो है — भावना अपूर्णता की। ‘कुछ अपूर्णता है, कुछ अपूर्णता है।’ परमात्मा के मिलने का मतलब है, अपूर्णता की वो भावना ही लुप्त हो जाए, मिट जाए और वो मिलती है, मिटती है, दमन-शमन के बिलकुल विपरीत किसी रास्ते से। वो रास्ता क्या है? दमन-शमन का अर्थ होता है कुसंगति को हटाना और परमात्मा के साक्षात्कार का मतलब होता है उसकी संगति में समय बिताना जिसको देख करके परमात्मा की याद आती हो। दोनों चीज़ें ज़रूरी हैं।
अगर सिर्फ़ विषयों को हटा दोगे, वृत्ति को नहीं मिटाओगे, तो भीतर बड़ी खलबली मची रहेगी। भूख लगी हुई है अन्दर-ही-अन्दर और आँखों के सामने से समोसा, रसगुल्ला भी हटा दिया, ये कहकर कि समोसा, रसगुल्ला सेहत के लिए हानिकारक है। बात तो बिलकुल ठीक थी समोसा, रसगुल्ला सेहत के लिए हानिकारक है। लेकिन भीतर क्या बैठी हुई है? भूख। कुछ और नहीं मिल रहा था समोसा, रसगुल्ला ही खा लेने देते। समोसा, रसगुल्ला हटा दिया, बदले में कुछ दिया नहीं, तो भीतर बड़ा विद्रोह होगा।
तो दूसरे श्लोक में फिर या पहले ही श्लोक के दूसरे भाग में फिर श्रीकृष्ण समझाते हैं कि उस विद्रोह से कैसे निपटना है। वो कह रहे हैं वो तो तभी होगा जब भीतर की भूख को जिस भोजन की तलाश है वो तुम उसको देदो। उस भोजन का नाम श्रीकृष्ण बता रहे हैं — परमात्मा। अब परमात्मा अपने शुद्धतम रूप में तो निर्गुण, निराकार होता है, अब कहाँ से पाओगे? बाज़ार की तो सब चीज़ें आकर्षक हैं, सगुण हैं, साकार हैं। अभी दाम चुकाओ और हाथ में पाओ। और परमात्मा, वो किसी दाम से मिलता नहीं, निराकार, दिखेगा ही नहीं। तो परमात्मा को पाने का मतलब है — उसके साथ हो जाना जिसकी संगति से ही आभास मिलता हो कि कुछ और भी है। ‘क्या है’ ये नहीं पता, पर कुछ है।
तो ले-देकर के दोनों श्लोकों का भाव निहित है इस छोटी से सीख में कि कुसंगति से काटना ही अपनेआप को पर्याप्त नहीं है। अगर कुसंगति से अपनेआप को काट रहे हो तो साथ ही साथ सत्संगति से जोड़ो भी। नहीं तो भीतर बड़ी खलबली मचेगी। ज़्यादातर लोगों के साथ यही होता है, जब उन्हें दिखाई देता है कि ज़िन्दगी में कुछ गड़बड़ है, तो जो चीज़ें गड़बड़ होती हैं उनको तो त्यागते हैं लेकिन किसी सही चीज़ से अपनेआप को नहीं जोड़ते।
आप कहेंगे, ‘जो गड़बड़ है, वो तो चीज़ है। बात ठीक कही आपने। पर जो सही है और सच्ची है क्या वो भी चीज़ ही है?’ जी साहब! चीज़ ही है। ‘क्यों चीज़ है? क्यों चीज़ है?’ क्योंकि हम चीज़ के अलावा किस चीज़ से सम्बन्ध बनाएँगे, भाई? ये आँखें पदार्थ को ही तो देख सकती हैं। ये मन भौतिक वस्तुओं का ही तो चिन्तन करेगा। तो दुनिया में भी तुमको चीज़ें ही चाहिए।
हमारा सारा कारोबार ही चीज़ों से चलना है। बस घटिया चीज़ों से अपनेआप को जोड़ना छोड़ो और सही चीज़ों से अपनेआप को जोड़ो। आयी बात समझ में?
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